Magazine - Year 2002 - Version 2
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Language: HINDI
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सिद्धिदात्री माँ की प्रगाढ़ होती साधना
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परम पूज्य गुरुदेव के हिमालय प्रस्थान के बाद माताजी के सम्पूर्ण जीवन में तप की सघनता छा गयी। इस तप की ऊर्जा के स्पन्दनों से शान्तिकुञ्ज का कण-कण अलौकिक दिव्यता से उद्भासित हो गया। भगवान् महाशिव की भाँति गुरुदेव हिमालय की गहनताओं में अपनी आत्मचेतना के कैलाश शिखर पर तपोलीन थे। शान्तिकुञ्ज की दिव्य भूमि में भगवती आदिशक्ति की भाँति माताजी अपनी अंशभूता शक्तियों के साथ साधना लीन थीं। धन्य हैं वे लोग जिन्होंने उन दिनों कुछ क्षणों के लिए ही सही, शान्तिकुञ्ज में आकर अथवा रहकर माताजी को निहारा, उनके साथ कुछ पल अथवा दिन बिताए। बड़भागी वे भी हैं जो अपनी भावनाओं की गहराइयों में इन पलों में उस अलौकिकता का साक्षात्कार कर रहे हैं।
सचमुच ही वह सब अलौकिक था, आज के दिनों में तो लगभग अकल्पनीय। तब शान्तिकुञ्ज के आस-पास कहीं भी मनुष्यों की भीड़ और वाहनों, मोटर गाड़ियों का जमघट नहीं दिखाई देता था। सब ओर एक गहरी आध्यात्मिक शान्ति पसरी रहती थी। शान्तिकुञ्ज के अन्दर भी आज जैसे भवनों का विस्तार और कार्यकर्त्ताओं की भारी संख्या जैसी कोई चीज न थी। बस मुश्किल से तीन कार्यकर्त्ता थे। शारदा एवं रुक्मिणी नाम की दो महिलाएँ भोजन आदि में सहयोग देने के लिए थी। इस शुरुआती दौर में माताजी के साथ रहने वाली छः बालिकाएँ भी थीं। जिनकी संख्या बाद में बढ़कर बारह हो गयी थी। इनकी पवित्रता, सरलता और गायत्री साधना के प्रति इनके समर्पित भाव को देखकर ऐसा लगता था जैसे माताजी ने स्वयं अपनी प्राणशक्ति को विभाजित कर ये कौमारी स्वरूप बना रखे हैं। इन बालिकाओं के पठन-पाठन, खान-पान, सार-संभाल आदि की सारी व्यवस्था वे स्वयं करती थीं। ये बालिकाएँ उनके निर्देशन में अपने दैनिक काम-काज के अलावा अखण्ड दीप की सिद्ध ज्योति के सान्निध्य में साधना करती थीं।
तीन-चार कमरों वाला यह शान्तिकुञ्ज एक नजर में ही प्राचीन ऋषियों का तपोवन लगता था। मन को सहज ही भाने वाली हरियाली, हरे-भरे कुञ्जों की छाया, कुछ थोड़े से ही सही पर फलदार और छायादार पेड़ सब मिलकर यहाँ के वातावरण में बड़े ही निर्मल सौंदर्य की सृष्टि करते थे। शोर जैसी कोई चीज यहाँ थी ही नहीं। आवाजों के नाम पर या तो कभी माताजी के सान्निध्य में रहने वाली बालिकाओं की हल्की सी मृदु-मन्द हंसी बिखर जाती, अथवा फिर जब-तब गाय रंभा देती। लेकिन ये सब भी वातावरण की शान्ति में मधुरता ही घोलते थे। तब दिन में भी सुनायी देने वाली माँ गंगा के प्रवाह की कल-कल ध्वनि आश्रम के वातावरण को स्वर्गीय संगीत से मधुमय बनाती थी। आगन्तुक प्रायः नहीं थे। यदा-कदा महीनों में कोई एक-आध व्यक्ति आ जाय तो बहुत। आश्रम में माताजी व यहाँ के थोड़े से निवासियों के लिए रोजमर्रा की चीजों जैसे सब्जी-तरकारी आदि की व्यवस्था कार्यकर्त्ता हरिद्वार शहर अथवा ज्वालापुर जाकर करते थे। यह जाना भी प्रायः पैदल ही होता था। हाँ कभी-कभी थोड़ी-बहुत दूर के लिए बस सुलभ हो जाती थी।
माताजी की दिनचर्या में तप साधना के अलावा अपने परिजनों के पत्रों के उत्तर देना, अखण्ड ज्योति पत्रिका के सम्पादन की व्यवस्था करना, सभी के भोजन का समुचित रूप से इन्तजाम करना शामिल था। इन सभी कामों के साथ वे अपने साथ रहने वाली बालिकाओं के लिए कुछ ऐसी व्यवस्था भी जुटाती थी, जिससे कि उनको अपने घर का अथवा माता-पिता का अभाव न खले। इस व्यवस्था में उन्हें कुछ-कुछ नयी विशेष चीजें अपने हाथों से बनाकर खिलाना आदि शामिल था। इन सब दैनिक कार्यों में माताजी पर्याप्त व्यस्त रहती थीं। उनकी इस व्यस्तता को देखकर आस-पास रहने वाले यह समझ ही न पाते थे कि वे साधना कब करती हैं? करती हैं भी कि नहीं? और यदि करती हैं तो क्या करती हैं? हालाँकि अन्तःकरण को कुरेदने वाले इन सवालों की भ्रान्ति में पड़ने वाले लोग भी उनकी आध्यात्मिक शक्ति व सिद्धियों से अवगत थे। फिर भी अपनी ऊहापोह भरी भ्रान्ति में वे सत्य को समझने में असमर्थ थे।
एक दिन ऐसे ही एक व्यक्ति ने, जो अभी भी जीवित हैं, परन्तु जिन्हें अपना नाम उजागर करने में संकोच है- बड़ी ही हिचकिचाहट के साथ माताजी से पूछ लिया- “माताजी आप तो स्वयं सिद्धिदात्री हैं, फिर आपको साधना करने की आवश्यकता क्या है?” इस सवाल के बाद थोड़ा डरते-डरते उन्होंने यह भी पूछा- कि “आप अपनी साधना कब करती हैं, कुछ पता ही नहीं चलता।” अन्तर्यामी माताजी उसकी इन बातों पर पहले तो मुस्कराई, फिर हल्की से हंस दीं। फिर थोड़ा सा रुककर बोलीं- क्या करेगा यह सब जानकर। पर उसे बड़ा मायूस और उदास देखकर वह समझाने लगीं- देख बेटा! तू इन चीजों को अभी ठीक से समझ नहीं सकता। तेरी आँखें अभी बड़ी कमजोर हैं, वे हमारी साधना को देख नहीं सकती। फिर भी तू जिद करता है, तो चल थोड़ा बहुत बताए देती हूँ।
देख, ये लड़कियाँ और मैं मिलकर साधना करती हैं। इन लड़कियों की साधना स्थूल है और मेरी सूक्ष्म। मैं जो कुछ भी करती हूँ वह सूक्ष्म शरीर से, सूक्ष्मलोक में करती हूँ। साधारण लोगों को दिखाई न देने और समझ में न आने पर भी इस तरह से ब्रह्मांड में बिखरे-फैले शक्ति प्रवाहों में से अनन्त शक्ति का अर्जन होता है। यह सूक्ष्म शरीर की ऐसी साधना है जिसकी चर्चा साधना की किसी किताब में नहीं है। लेकिन इस तरह से किए जाने वाले शक्ति अर्जन की सार्थकता तभी है, जब उसके अवतरण के लिए उचित आधारभूमि हो। इस आधारभूमि का निर्माण इन लड़कियों द्वारा मेरी देख-रेख में किए जाते गायत्री पुरश्चरणों की शृंखला से हो रहा है, तुझे समझ में ये सब बातें कितनी आएँगी, पता नहीं। पर इतना जान ले कि यहाँ इन दिनों अद्भुत हो रहा है। इस पवित्र भूमि की पात्रता का विस्तार करके इसे आध्यात्मिक ऊर्जा का भण्डारगृह बनाया जा रहा है। इसका उपयोग आगे चलकर होगा।
अपनी बातों को समझाती हुई माताजी थोड़ा रुकीं, फिर कहने लगीं- तूने एक बात और पूछी थी- माताजी आपको साधना की आवश्यकता क्या है? तो बेटा! साधना मेरे लिए आवश्यकता नहीं, मेरा स्वभाव है। इसकी आवश्यकता मुझे नहीं तुम सब बच्चों को है। अब बच्चे तो बच्चे ठहरे, जाने-अनजाने उनसे न जाने कितने पाप-ताप हो जाते हैं। और जब उनके परिणाम सामने आते हैं तो कहते हैं- माताजी बचाओ। अब बच्चे कैसे भी हों, धूल-मिट्टी, मल-मूत्र से सने हो या साफ-सुथरे हों, मेरे लिए तो बच्चे ही हैं। मैं उनकी माँ हूँ। वे जैसे भी हैं- मुझे बहुत प्यारे हैं। अपने इन बच्चों को आफत-मुसीबत से बचाने के लिए मुझे बहुत कुछ करना पड़ता है। गलती बच्चे करते हैं, प्रायश्चित उसकी माँ होने के कारण मुझे करना पड़ता है। इसी के चलते निरन्तर साधना करती रहनी पड़ती है।
सुनने वाले की आँखें माताजी की बातों को सुनकर भर आयीं। वह उनके वात्सल्य के अनन्त विस्तार को देखकर हतप्रभ था। माताजी अपने भावों में डूबी कहे जा रही थीं- बेटा! मैं तो इस जमीन का, यहाँ के आस-पास की बहुतेरी जमीन का कायापलट करने में लगी हुई हूँ। जहाँ तक मेरे संकल्प का विस्तार है वह जमीन आध्यात्मिक ऊर्जा का अक्षय कोष बन जाएगी। आगे चलकर यहाँ गायत्री तीर्थ का विस्तार होगा। यहाँ से बहुत बड़े-बड़े काम होंगे। उस समय देखने वाले लोग हैरान होंगे कि ये शान्तिकुञ्ज के सारे काम अपने आप कैसे हो जाते हैं। शान्तिकुञ्ज जो काम अपने हाथ में लेता है- वह बस अपने आप होता चला जाता है। पर दरअसल यह अपने आप नहीं, उस आध्यात्मिक ऊर्जा के एक अंश से होगा, जिसे मैं आज जमाकर रही हूँ। यहाँ जो लोग आएँगे और भावभरी श्रद्धा के साथ यहाँ रहकर साधना करेंगे, अनायास उनके प्राण प्रत्यावर्तित हो जाएँगे। आगे के दिनों में यहाँ आने वाले श्रद्धावान साधक अपने प्रत्यावर्तित प्राणों को अनुभव करेंगे। अपनी साधना की रहस्य कथा के इन कुछ अंशों को उजागर करती हुए माताजी अचानक उठ खड़ी हुई। शायद उन्हें अपने भविष्यत् कार्यों को गति देनी थी।