Magazine - Year 2002 - Version 2
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Language: HINDI
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मातृत्व के साथ निभा अलौकिक दाम्पत्य
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माँ का मातृत्व आँवलखेड़ा में पाँव रखते ही छलक उठा। बारात विदा होकर यहीं आयी थी। पूर्वजों की देहरी, अपने आराध्य की जन्मस्थली व उनकी प्रारम्भिक तपस्थली में वह दुल्हन के रूप में डोली से उतरी थीं। लाल रंग की जरी के काम वाली साड़ी पहने सौभाग्य शृंगार से सजी वह साक्षात् जगदम्बा लग रही थीं। हिमवान की पुत्री पार्वती का पीहर से विदा होकर भगवान् भोलेनाथ के साथ अपनी ससुराल आने का दृश्य उन पलों में साकार हो गया। बाल मण्डली शिव गणों की तरह उन्हें बड़ी श्रद्धा एवं आश्चर्य से देखे जा रही थी। ताई जी (उनकी सास व पूज्य गुरुदेव की माताजी) शुभ शकुनों वाले सारे लोकाचार पूरे करने में लगी थीं। यह क्रम काफी देर तक चलता रहा। एक-एक करके सभी रीति-रिवाज और विधि-विधान पूरे हुए।
इसके बाद एक जगह चटाई पर उन्हें बैठाया गया। बच्चे अभी तक उन्हें घेरे हुए थे। इन बच्चों में अड़ोस-पड़ोस के बच्चों, नजदीकी रिश्तेदारों के बच्चों के साथ दया और ओमप्रकाश भी थे। श्रद्धा तब बहुत छोटी थी। वह इस बाल मण्डली का हिस्सा नहीं थी। अचरज और कौतुक इन बच्चों के मनों को जब-तब कुरेद देता था। इसी के वशीभूत होकर वह थोड़ा-बहुत आपस में धीमे से बतिया लेते थे। तभी दया आगे बढ़ी और पास जाकर खड़ी हो गयी। उन्होंने उसका हाथ पकड़ कर अपने पास बिठा लिया। और बड़े प्यार से उससे बोलीं- मैं तुम्हारी माँ हूँ बेटी, मुझसे संकोच की कोई जरूरत नहीं है।
इस कथन से दया को बड़ी आश्वस्ति मिली। उसने बड़े ही धीमे और लरजते स्वर में कहा- ‘माँ’। इस एक अक्षर ने माता और पुत्री दोनों की अन्तर्भावनाओं को एक रस कर दिया। अपरिमित मिठास उनके जीवन और घर-आँगन में बिखर गयी। माँ के होने का अहसास मन को कितनी आश्वस्ति, सहारा, सम्बल, विश्वास और निश्चिंतता देता है यह दया के मुख मण्डल पर अचानक उभर आयी प्रसन्नता की चमक देखकर सहज ही प्रकट हो रहा था। वह इतनी देर में कई बार अपने मन में माँ-माँ का एकाक्षरी महामंत्र गुनगुना चुकी थी। माँ के प्यार की तरलता ने उसके अन्तःस्तल को भावसिक्त कर दिया था। वह उन्हीं के पास सिमट-सिकुड़कर, चिपटकर बैठ गयी।
दया की इस भावमुद्रा ने ओमप्रकाश को अचरज में डाल दिया। वह सोचने लगे कि उनकी छोटी बहिन अचानक इतनी खुश नजर क्यों आने लगी। आखिर कुछ ही पलों में उस पर क्या जादू हो गया? अपने सोच, विचार में डूबे हुए वह भी हिम्मत करके आगे बढ़े। इस समय उन्होंने नेकर-कमीज पहन रखी थी। कुछ कदमों का फासला तय करके वह पास जाकर खड़े हो गए। इतने में उधर से ताई जी गुजरी। उन्होंने अपने स्वभाव के अनुरूप थोड़ा तेज आवाज में कहा- “खड़ा-खड़ा देख क्या रहा है? चल झुककर अपनी माँ के पैर छू।” ताई जी की आवाज से थोड़ा सहमते हुए ओमप्रकाश ने पाँव छू लिए।
चरण स्पर्श करते ही उन्होंने पूछा- किस कक्षा में पढ़ते हो? ओमप्रकाश ने बड़े हल्के स्वर में इस प्रश्न का उत्तर दिया- मेरा नाम ओमप्रकाश है और मैं कक्षा सात में पढ़ता हूँ। इस प्रश्नोत्तर ने माँ और पुत्र को भाव के कोमल तन्तुओं से जोड़ दिया। अपने प्रथम मिलन की अनुभूतियों को याद कर आज भी ‘ओमप्रकाश’ जी की आँखें भीग जाती है। वह कहते हैं- ‘कुपुत्रो जायते क्वचिदपि कुमाता न भवति’ के कथन को साकार करती हुई माँ अपने इस बेटे पर सदा कृपालु बनी रहीं। अनगिनत गल्तियों को, अक्षम्य शब्दों को उन्होंने हँस कर बिसराया। क्षमामयी ने सारे अपराध पल में क्षमा किए। और सदा ही अपनी स्वभावगत कोमलता-मृदुलता न्यौछावर करती रहीं।
ओमप्रकाश और दया से मिलकर माँ श्रद्धा से मिली। अपनी इस बालिका को उन्होंने भरपूर प्यार दिया। उस पर असीम स्नेह उड़ेला। कुछ ही दिनों में तीनों माँ से घुल-मिल गए। माता ने भी इन्हें अपने हृदय में जगह दी। घर का वातावरण उनके आगमन के कुछ ही दिनों में बदल गया। ऐसा लगने लगा कि जैसे पतझड़ में बसन्त की देवी आ गयी हो। घर के काम-काज, बच्चों के रख-रखाव सभी में एक निखार आ गया। सब तरफ सौंदर्य और सुव्यवस्था नजर आने लगी। इस परिवर्तन ने हर एक के मन-प्राण व अन्तःकरण को छुआ। इस छुअन ने अनेकों सजल भावनाएँ जगाई।
अपने आराध्य की अन्तर्चेतना व अन्तर्भावना से तो पहले ही मिल चुकी थी। दृश्य व प्रत्यक्ष मिलन इन्हीं दिनों हुआ। इस मिलन के हर पल में हर घड़ी में एक अपूर्व अलौकिकता थी। यह किसी सामान्य विवाहित दंपत्ति का मिलन नहीं था। पति-पत्नी के सामान्य साँसारिक मिलन की तरह इसमें स्थूल और लौकिक दृष्टि नहीं थी। यह तो परम पुरुष और माता प्रकृति के मिलन की तरह अद्भुत था। इसमें सर्वेश्वर सदाशिव और भगवती महाशक्ति के मिलन की अलौकिकता थी। नयी सृष्टि के सृजन का बीजारोपण मिलन के इन्हीं पलों में हुआ। ईश्वर चिंतन और चर्चा के बीच वे दोनों जब भी इकट्ठे बैठते, भविष्य की नयी सम्भावनाओं पर चर्चा होती। उनके आराध्य उन्हें नयी भूमिका के लिए तैयार करते।
यह गुरुदेव की तीव्र साधना का काल था। गायत्री महापुरश्चरणों की शृंखला अपने अन्तिम चरण में थी। अखण्ड ज्योति मासिक पत्रिका का प्रकाशन विधिवत प्रारम्भ हो चुका था। आज का विशालकाय गायत्री परिवार तब अखण्ड ज्योति परिवार के रूप में अंकुरित होने लगा था। इसकी उपयुक्त सार-संभार के लिए, सही पालन-पोषण के लिए माँ की आवश्यकता थी। माँ का अर्थ केवल एक-दो सन्तानों को जन्म देने तक सीमित नहीं थीं। जन्म देने भर से कोई माँ नहीं बन जाया करती। माँ तो वही है जो अपनी सन्तानों को श्रेष्ठ संस्कार दे। उनमें अपने प्राणों को उड़ेलकर उनका भाव विकास करे। उन्हें विश्व उद्यान के श्रेष्ठ पुष्पित पादपों के रूप में विकसित करने के लिए जरूरी खाद-पानी की व्यवस्था जुटाए।
यह काम आसान नहीं है। इसके लिए कठोरतम साधना और अध्यात्म उपार्जित आत्मशक्ति की आवश्यकता है। अपनी भावी रीति-नीति के अनुरूप माता भगवती इन दिनों यही करने में जुट गयीं। अपने आराध्य के संसर्ग में अनेकों गुह्यमंत्रों, बीजाक्षरों, योग की गहन प्रक्रियाओं का ज्ञान उन्हें इसी समय हुआ। उनकी अपनी विशिष्ट साधना की शुरुआत ठीक उसी स्थान से हुई, जहाँ कभी तपस्वी प्रवर, श्रीराम ने अखण्ड साधना दीप प्रज्वलित किया था। हालाँकि यहाँ उनका साधना काल बहुत ही थोड़े समय के लिए रहा। अखण्ड ज्योति के प्रकाशन की वजह से परम पूज्य गुरुदेव का मथुरा रहना अनिवार्य था। पहले कुछ अंकों के आगरा से प्रकाशित होने के बाद अब अखण्ड ज्योति मथुरा से प्रकाशित होने लगी थी। साधकों जिज्ञासुओं और आगन्तुकों का आवागमन भी बढ़ने लगा था। मथुरा में पहले लिया गया किराये का मकान भी छोटा पड़ने लगा था। नयी परिस्थितियों के अनुरूप वर्तमान अखण्ड ज्योति संस्थान के मकान को किराए पर लिया गया। और माता भगवती, ताई जी, बच्चों व अपने आराध्य के साथ अखण्ड ज्योति संस्थान (वर्तमान का घीयामंडी वाला आवास)के आँगन में आकर वास करने लगीं।