Magazine - Year 2002 - Version 2
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Language: HINDI
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आराध्य सत्ता की साधना संगिनी
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माताजी सच्चे अर्थों में अपने आराध्य की साधना संगिनी थी। परम पूज्य गुरुदेव उनके लिए गुरु, मार्गदर्शक, ईष्ट, आराध्य सभी कुछ थे। उनका जीवन अपने आराध्य के श्री चरणों में समर्पित सुरभित पुष्प की भाँति था। रोज-मर्रा किए जाने वाले छोटे-बड़े हर क्रिया-कलाप के माध्यम से उनके प्राण अपने आराध्य के महाप्राणों में समाहित होते रहते थे। बाहरी रूप से घर-परिवार, सगे-सम्बन्धियों, अखण्ड ज्योति संस्थान व गायत्री तपोभूमि के अनेकों लौकिक दायित्व निभाते हुए भी उनका आन्तरिक जीवन इस लौकिकता से पूरी तरह से अछूता, एकदम अलौकिक था। साँसारिक कर्त्तव्यों को मनोयोगपूर्वक पूरा करने का सार्थक प्रयास करते हुए भी उनकी आन्तरिक भावनाओं में कहीं भी साँसारिक विषयों की लेशमात्र गन्ध नहीं थी।
अपनी सारे दिन की व्यस्तताओं से घिरी हुई वह स्वयं को मन ही मन रात्रि में की जाने वाली विशिष्ट साधना के लिए तैयार करती थीं। आगन्तुकों के आवागमन, पत्रिका व अन्य साहित्य का प्रकाशन और गायत्री तपोभूमि के अनेकों क्रिया-कलापों की वजह से परम पूज्य गुरुदेव की व्यस्तताएँ बहुत ज्यादा बढ़ गयी थीं। माताजी की भी इसमें बराबर की सहभागिता थी। इसलिए प्रातः सूर्योदय से लेकर रात्रि के प्रथम प्रहर तक कोई भी समय ऐसा नहीं था, जिसमें साधना की जा सके। इसलिए गुरुदेव ने मध्य रात्रि से लेकर प्रातः तक के समय को साधना के लिए सुनिश्चित किया था। दिनभर के क्रिया-कलापों को देखते हुए यही सबसे उपयुक्त समय था। हालाँकि उन्हें सोने के लिए मुश्किल से तीन-चार घण्टे मिल पाते थे। परन्तु माताजी को अर्धरात्रि से कुछ पहले जगकर गुरुदेव के साथ बैठकर साधना करने में इतनी खुशी मिलती थी कि सारे कष्ट उनको नगण्य लगते थे।
वह नियत समय पर जगकर स्नानादि से निवृत्त होकर पूजा की कोठरी में पहुँच जाती थीं। वहाँ गुरुदेव उनका पहले से इन्तजार कर रहे होते। आसन पर बैठते ही आराध्य की कृपा उन पर अवतरित होने लगती। प्राण संचालन की अनेकों गुह्य क्रियाएँ उनमें होने लगती। गोपनीय बीजमंत्रों के स्फोट से सूक्ष्म चेतना के दिव्य केन्द्रों में शक्ति के सागर उमड़ने लगते। लेकिन ये तो प्रारम्भिक क्षणों की बातें थी, जिनका अनुभव पहले भी उन्हें किन्हीं अंशों में होता रहता था। गुरुदेव के साथ बिताए जाने वाले साधना के ये पल अति विशिष्ट थे। इन पलों में उन्हें उन सब सत्यों का साक्षात्कार होता था, जिसके बारे में शास्त्र केवल संकेत मात्र करते हैं। जिसकी विस्तृत चर्चा विश्व के किसी भी साधना शास्त्र में नहीं मिलती। यथार्थ साधना शास्त्र गम्य होती भी नहीं है। यह तो सर्वथा गुरुगम्य है। इस पर सदा गुरुगत प्राण शिष्यों का ही अधिकार होता आया है। माताजी के अगाध समर्पण एवं परिपूर्ण निवेदन ने ही उन्हें इन सर्वथा गोपनीय योग साधनाओं का अधिकारी बनाया था।
नियमित योग साधना की प्रगाढ़ता और सघनता से उनका सूक्ष्म शरीर अति तेजस्वी एवं प्रचण्ड ऊर्जावान हो गया था। गुरुदेव द्वारा बतायी गयी योग की गुह्य विधियों से वे इसे बड़ी ही आसानी से स्थूल शरीर से पृथक् कर लेती थी। ऐसी दशा में गुरुदेव उनके स्थूल शरीर की रक्षा करते थे। और वह लोक-लोकान्तर में जाकर वहाँ से आवश्यक तत्त्वों का अर्जन कर लेती। शिष्यों-सन्तानों की पुकार का भी प्रत्युत्तर देती। गुरुदेव के सान्निध्य में योग साधना की तीव्रता के कारण उनके सूक्ष्म शरीर की क्रियाशीलता उत्तरोत्तर बढ़ती गयी। कारण शरीर भी प्रभावान और प्रखर होने लगा। उनकी साधना का घनत्व इस कदर बढ़ गया था कि वह प्रत्येक दृष्टि से परम समर्थ हो गयीं थी।
यह स्थिति पहले से काफी अलग थी। इसे जानना-समझना किसी भी तरह से आसान नहीं है। जितना उन्होंने स्वयं विभिन्न प्रसंगों पर संकेत किए, उसके अनुसार अब गुरुदेव को उनके स्थूल शरीर की रक्षा के लिए रुकना नहीं पड़ता था। दिव्य महामंत्रों की कीलक शक्ति और उनकी महत् चेतना का संकल्प स्थूल देह की रक्षा के लिए पर्याप्त था। गुरुदेव तो पहले से ही योग की समस्त उच्चतम साधनाओं में पारंगत थे। अब माताजी भी योग के उच्चतम रहस्यों से अवगत हो गयी। यह स्थिति यहाँ तक पहुँच गयी कि स्थूल देह से किसी भी साधना की जरूरत नहीं रही। सूक्ष्म शरीर से स्वमेव सारी योग विभूतियों का अर्जन होने लगा। यह विलक्षण स्थिति किन्हीं विरले महायोगियों को ही सुलभ होती है।
इस परिवर्तित भावदशा में भी नियमित साधना के लिए जगने और बैठने का बाहरी क्रम यथावत बना रहा। परन्तु सभी आन्तरिक सत्य बदल गए। वह गुरुदेव के साथ साधना के लिए अभी भी बैठती थीं। परन्तु प्रायः किसी विशेष साधना के लिए नहीं, बल्कि उनके साधनात्मक कार्यों में सहभागी बनने के लिए। ऐसे कार्यों में शिष्यों-भक्तों की पीड़ा और उन पर आए संकटों का निवारण प्रमुख था। इसके लिए वे दोनों ही शिष्यों के पास पहुँच कर उन्हें आश्वासन देते, उनको ढाढ़स बंधाते और अपनी योगशक्ति से उनके कष्टों का पल में निवारण कर देते। सन्तानों की छटपटाती अन्तर्चेतना अपनी महायोगिनी माँ की कृपा को पाकर अपूर्व शान्ति अनुभव करती।
साधना के क्षणों में ही वह जब-तब गुरुदेव के साथ सूक्ष्म शरीर से दिव्य लोकों, दिव्य भूमियों एवं सामान्य मानवदृष्टि से ओझल दिव्य साधना केन्द्रों की यात्रा करतीं। ऐसे प्रसंगों को उन्होंने सम्पूर्ण रूप से प्रायः कभी उजागर नहीं किया। फिर भी यदा-कदा गुरुदेव की महिमा बताने के लिए इसके कुछ अंशों को वह प्रकट कर देती थीं। ऐसे ही एक प्रसंग में उन्होंने बताया- “बेटा! तुम लोग जानते नहीं, गुरुदेव कौन हैं? उन्हें कभी सामान्य तपस्वी, सिद्ध और योगी समझने की भूल मत करना। वे मनुष्य देह में साक्षात् ईश्वर हैं। इस सच्चाई को मैंने स्वयं अपनी आँखों से देखा है। मेरी सूक्ष्म चेतना स्वयं इस सत्य की कई बार साक्षी बनी है। हिमालय के सिद्धगण, दिव्यलोकों के देवता तक उनकी एक झलक पाने के लिए तरसते हैं। जब कभी किसी विशेष अवसर पर वे उन लोगों के सामने होते हैं, तो वे सब उनके चरणों में फूल चढ़ाकर अपने को परम सौभाग्यशाली समझते हैं। इस सच्चाई को मैंने उनके साथ जाकर खुद देखा है।” माताजी की इन बातों को सुनकर सुनने वाले भाव विह्वल हो सोचने लगते- बच्चों को उनके पिता के स्वरूप का बोध भला माँ के सिवा और कौन करा सकता है।
गुरुदेव के दिव्य स्वरूप का मुखर होकर बखान करने वाली माताजी अपने बारे में प्रायः मौन ही रहती थीं। किसी विशेष अवसर पर बहुत हुआ तो इतना कह देती थी, अध्यात्म क्या कहने, बताने की चीज है, यह तो अनुभव का विषय है। चाहे कितनी भी पोथियाँ लिखी व पढ़ी जाय, पर इसकी सच्चाई को साधना की अनुभूतियों में ही जाना जा सकता है। और यह सच्चाई ऐसी है कि कोई जानने वाला इसे कहे भी तो ऐसा लगेगा जैसे किसी रहस्यपूर्ण उपन्यास की कथा सुनायी जा रही है। इसलिए समझदार लोग इन बातों को कहीं कहते नहीं। बहुत हुआ तो इसके तत्त्वदर्शन को बता देते हैं। सार बात भी वही है। इसे समझने पर सब समझ में आ जाता है।
अपनी बातों के क्रम में माताजी बताती कि साधना के प्रसंग जितने गोपनीय रखे जाय उतना ही अच्छा है। चर्चा करने पर साधना का बल घटता है। ऐसा कहते हुए वह कहती- “अब मेरी ही ले लो। मैंने क्या-क्या किया कोई कुछ जानता है क्या? अखण्ड ज्योति संस्थान में आधी रात से पहले उठ जाती थी। प्रायः सारी रात गुरुजी के साथ साधना में बिता देती। लेकिन घर के दूसरे लोगों के जागने से पहले उठ जाती और बाद में उनके उठने पर फिर से स्नान करती। इस स्नान से रात भर की गयी साधना के कारण बढ़ा हुआ ताप शान्त हो जाता। और सभी यही सोचते कि ये तो अभी जगी है और अब इतनी देर से नहा रही है। ज्यादा कुछ पूछने पर मैं भी उनकी हाँ में हाँ मिला देती थी। पर असली बात दूसरी थी। उन दिनों गुरुदेव के साथ मैं पूरी प्रगाढ़ता, तन्मयता एवं तत्परता के साथ साधना किया करती थी। वे बड़े अद्भुत दिन थे। शरीर इस लोक में रहते हुए भी चेतना कहीं और ही रहती थी। मेरा सब कुछ गुरुजी में घुलता मिलता चला जा रहा था।” उनकी इन बातों को सुनते हुए सुनने वालों की भावानुभूतियों में शिव और शक्ति के अन्तर्मिलन का सत्य उजागर होने लगता।