Magazine - Year 2002 - Version 2
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Language: HINDI
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प्राकट्य हुआ महाशक्ति के महिमा का
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शान्तिकुञ्ज, ब्रह्मवर्चस व गायत्री तपोभूमि के कार्यकर्त्ता एवं गायत्री परिवार के परिजन तो पहले से ही अपनी माँ की महिमामयी शक्ति से सुपरिचित थे। किन्तु आशंकाएँ औरों को थीं। अनेकों बाहरी लोग शंकाओं-कुशंकाओं से घिरे थे। वे सोचते थे कि अब मिशन का संचालन कैसे और किस तरह से होगा? ऐसी बातें लोगों के टूटे-दरके मन से रिस-रिस कर हवाओं के साथ घुलकर वन्दनीया माताजी के पास भी आतीं। पर इन सबका उन पर कभी कोई असर नहीं हुआ। वह तो ब्रह्मदीप यज्ञ समाप्त होते ही अपने आराध्य के चरणों में भावभरी श्रद्धाञ्जलि अर्पित करने की तैयारियों में जुट गयीं थीं। इसे उन्होंने व्यापक समारोह का स्वरूप देने का निश्चय किया था। ताकि उनके साथ, उनकी सभी सन्तानें अपने प्रभु को अपनी भाव श्रद्धा समर्पित कर सकें।
ब्रह्मदीप यज्ञों का निश्चय परम पूज्य गुरुदेव ने स्वयं 28 अप्रैल 1990 को स्वयं किया था। अपने एकान्तवास के बावजूद उन्होंने इस दिन कुछ निकटवर्ती कार्यकर्त्ताओं की गोष्ठी बुलाकर यह तय किया था कि 7-8 जून को ज्येष्ठ पूर्णिमा के अवसर पर भोपाल, कोरबा, मुजफ्फरपुर, अहमदाबाद, लखनऊ एवं जयपुर में ये यज्ञ आयोजित किए जाएँ। अनुशासित परिजन अपने सद्गुरु के आदेश को शिरोधार्य करके 2 जून, 1990 को उनके महाप्रयाण का समाचार मिलने के बावजूद सौंपे गए कार्य को पूरा करने के लिए जुटे रहे। सभी की भावनाएँ कसमसायी, छटपटायी, तड़फड़ाई तो बहुत, परन्तु गुरुदेव का आदेश सर्वोपरि था। किसी ने भी इसका पालन करने में कोई कोताही नहीं बरती। हालाँकि हर एक के मन में यह बात थी कि वह शान्तिकुञ्ज जाकर अपने प्रभु को श्रद्धाञ्जलि अर्पित करे। उन्हें अपने भाव-सुमन चढ़ाए।
अपने बच्चों के इन मनोभावों से माताजी परिचित थी। उन्हें अपनी सन्तानों की वेदना का ज्ञान था। इसी वजह से उन्होंने संकल्प श्रद्धाञ्जलि समारोह के आयोजन की घोषणा की थी। इसकी तैयारियाँ बहुत चुनौती भरी थीं। जून के पन्द्रह दिन और जुलाई, अगस्त एवं सितम्बर महीने ही थे। इसमें भी ज्यादातर समय वर्षाकाल का था। उतनी ही अवधि में कुम्भ जैसे आयोजन की पूरी तैयारी करनी थी। कुम्भ के लिए प्रशासन अपनी पूरी सामर्थ्य के साथ एक साल तैयारी करता है। लेकिन यहाँ सब कुछ बिना किसी सरकारी सहायता के किया जाना था। अपनी माँ के एक इशारे पर उसकी सन्तानें क्या कुछ कर सकती हैं, इसका एक अनूठा उदाहरण पूरे उत्तर भारत की जनता को सन् 1990 में देखने को मिला। शिक्षक, किसान, न्यायाधीश, चिकित्सक, इंजीनियर, आई.ए.एस. अधिकारी सभी इस मिशन से जुड़े हैं। इनमें से 20 हजार से अधिक स्वयंसेवक के रूप में 15 सितम्बर से ही आ गए थे। आते ही ये बिना किसी पद या शिक्षा, जाति या वर्ण के पूर्वाग्रह के सब के सब एक जुट होकर कार्यक्रम में लग गए।
ई.पी. टेण्ट, शामियाने, जल-बिजली आदि की व्यवस्था, ऊबड़-खाबड़ स्थानों की सफाई, विशाल भोजन भट्ठियों का निर्माण आदि सभी काम इन्हीं सबने मिल-जुल कर पूरे किए। इन सारे कामों का दायरा काफी व्यापक परिक्षेत्र में फैला हुआ था। पूरे हरिद्वार नगर की पन्द्रह मील की लम्बाई व आठ मील चौड़ाई में कनखल से मोतीचूर तक चौबीस नगरों को बसाने की व्यवस्था की गयी। जब यह सभी काम चल रहा था तो वन्दनीया माताजी स्वयं पूरे क्षेत्र में गयी। एक-एक जगह पर वह मोटर-वाहन से उतरीं, काम कर रहे लोगों का उत्साहवर्धन किया। काम करने वाले कार्यकर्त्ता भी उन्हें अपने समीप पाकर आनन्दित हो गए। माताजी का इस तरह इन सभी जगहों पर जाना एक दिन बड़े ही अचानक ढंग से हुआ था। इसके बारे में पूछने पर पहले तो वह बोलीं- कि बच्चे काम कर रहे हैं, मैं चली जाऊँगी तो उनका उत्साहवर्धन होगा।
जब उनसे पूछा गया कि क्या सिर्फ बात इतनी सी है, तो वह कुछ सोचते हुए कहने लगीं, देखो जिन जगहों पर बच्चे काम कर रहे हैं, वहाँ कई भयानक विषधर हैं, जो अगर काट लें तो आदमी पानी भी न माँग सके। मैं उन्हें वहाँ से हटाने गयी थी। मैंने इन विषैले जीवों से कह दिया है कि तुम लोग यहाँ से चले जाओ, अभी यहाँ पर काम हो रहा है। बहुत सारे लोग यहाँ आएँगे। ऐसे में तुम सबका यहाँ रहना ठीक नहीं है। उन सबको यह बात समझ में आ गयी है, अब वे चले जाएँगे। पूछने वाले को शायद माताजी की बातें ठीक से समझ में नहीं आयीं, वह बोला- माताजी इन विषैले जीवों को मारा भी तो जा सकता है। यह बात सुनते ही उनका स्वर काफी तीखा हो गया- क्यों मारा जा सकता है? क्या बिगाड़ा है तुम लोगों का उन्होंने? एक तो तुम लोग उनकी रहने की जगहों को तहस-नहस किए दे रहे हो, ऊपर से उन्हें मारोगे भी। क्या वे सब मेरी सन्तान नहीं हैं? माताजी की इन बातों ने सुनने वाले को झकझोर दिया। वह यह सोचने पर विवश हो गया कि माताजी मनुष्यों की ही नहीं, प्राणि-वनस्पतियों, पशु-पक्षियों सभी की माँ हैं। तभी तो उनकी बातों को वे सब समझते हैं और वह सभी की बातों को समझती हैं।
ऐसी ममतामयी माँ के ममत्व से भीगे हुए सहस्र-सहस्र जन श्रद्धाञ्जलि समारोह की तैयारियों में जुटे थे। इन तैयारियों के प्रत्येक चरण से उनकी महिमा प्रकट हो रही थी। हालाँकि कुछ शंकालु जन अभी भी यही सोच रहे थे कि जितने व्यापक स्तर पर तैयारियाँ की गयी हैं-क्या उतने लोग आएँगे भी। इन लोगों का सोचना कई अर्थों में सही भी था। क्योंकि उस समय अयोध्या प्रकरण व मण्डल आयोग की प्रतिक्रिया स्वरूप देशव्यापी आन्दोलन भड़का हुआ था। बसें, ट्रेनें, यहाँ तक कि फायर ब्रिगेड की गाड़ियाँ तक जलाई जा रहीं थी। सड़कों एवं प्लेटफार्मों पर एक अजीब सूनापन छाया हुआ था। परन्तु महाशक्ति की महिमा ने ऐसे में भी अपना कमाल दिखाया। श्रद्धाञ्जलि समारोह में जितने व्यक्तियों को आना था, सभी आए। इन लाखों-लाख लोगों को आने में मार्ग में न कोई उपद्रव आड़े आया और न कोई जन-धन की हानि हुई। जिन लोगों ने एक अक्टूबर से 4 अक्टूबर तक सभी कार्यक्रमों में नियमित रूप से भाग लिया, उनकी संख्या 5 लाख से ज्यादा रही। एक लाख से ज्यादा वे लोग थे, जो रोज आते-जाते रहे। सारा हरिद्वार पीले वस्त्र पहने, पीत दुपट्टधारी स्त्री-पुरुषों से पट गया।
नगर व प्रान्त के पत्रकारगण, दूरदर्शन व आकाशवाणी के प्रतिनिधि सभी समारोह की व्यवस्था को देखकर चकित थे। उत्तरप्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल महामहिम सत्यनारायण रेड्डी भी इस कार्यक्रम में आए थे। उन्होंने सब कुछ देखकर अपनी मुखर अभिव्यक्ति दी- कि यह सभी कुछ दैवी एवं दिव्य है। शरद् पूर्णिमा की सायं यह दिव्यता और अधिक दीप्त हो उठी। शाम 6.30 बजे दीपयज्ञ आरम्भ होने से पूर्व पूरा विशाल सभागार खचाखच भर गया। विराट् सवालक्ष दीपों का महायज्ञ प्रारम्भ हुआ। ‘यन्मण्डलम् दीप्तिकरं विशालम्’ की धुन के बीच सब दीप जल उठे। यह दृश्य देखते ही बनता था। शरद् पूर्णिमा की रात थी, परन्तु पूर्णिमा का चाँद भी छोटे-छोटे दीपों की समन्वित आभा-ऊर्जा के सामने मद्धम लग रहा था। महाशक्ति की महिमा इन अगणित दीपों की कोटि-कोटि ज्योति किरणों से प्रकट हो रही थी।
4 अक्टूबर 1990 को जब विदाई की बेला आयी, तब सभी के हृदय भरे और भीगे थे। उनकी महाशक्ति के अनेकों चमत्कार इन दिनों देखने को मिले। इनमें से एक चमत्कार यह भी था कि लाखों लोगों के नित्य भोजन करने के बावजूद शान्तिकुञ्ज के अन्न भण्डार यथावत परिपूर्ण रहे। कहीं कोई कमी नहीं आयी। पता नहीं अन्नपूर्णा ने कैसे और किस तरह यह चमत्कार कर दिया था। अपनी माँ से विदा लेते हुए सभी परिजन अनुभव कर रहे थे कि माताजी उनकी अपनी माँ होने के साथ समूचे राष्ट्र की माता है। वे राष्ट्र की प्राणदायिनी शक्ति हैं।