Books - चिंतन-चरित्र को ऊँचा बनाएँ
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Language: HINDI
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चिंतन-चरित्र को ऊँचा बनाएँ
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गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ-
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो! दो प्रश्न आपके मस्तिष्क में संभवतः उठते रहते होंगे। एक प्रश्न यह कि हमें क्या करना है और क्या बनना है? दूसरा यह कि हमें क्या कराना है और क्या बनाना है? इसके संबंध में स्थूल रूप से आपको कई चीजें दिखाई पड़ती है। क्या करना है? सवेरे उठना चाहिए, नहाना चाहिए, पूजा करनी चाहिए हवन करना चाहिए। ये क्रियाएँ हैं और जनता में क्या कराना चाहिए? जनता में हवन कराने चाहिए, सम्मेलन कराने चाहिए, त्यौहार-संस्कार कराने चाहिए।
क्रिया व विचार दोनों महत्त्वपूर्ण
मित्रो! ये क्रियाएँ आपको दिखाई पड़ती हैं कि जनता के बीच में आपको क्या क्रियाएँ करानी चाहिए और अपने आप में क्या क्रियाएँ करनी चाहिए? क्रियाओं का अपना मूल्य है, महत्त्व है। हम जानते हैं कि क्रियाओं के माध्यम से विचारों के निर्माण में बहुत ही अधिक सहायता मिलती है। क्रियाएँ महत्त्वपूर्ण होती हैं, यह बात भी सही है लेकिन मित्रो! यह बात भी ध्यान में रखने योग्य है कि क्रियाओं और विचारणा में जमीन आसमान का अंतर होना भी संभव है। क्रिया क्या हो सकती है और हमारे ढंग क्या हो सकते हैं। इसमें फर्क रह गया तो क्रिया का, खासतौर से धार्मिक क्रिया का कोई लाभ न मिलेगा। भौतिक क्रिया का लाभ तो मिल भी जाएगा। जैसे आपके जी में हरामखोरी का मन है, चोरी चालाकी का मन है तो बात अलग है, लेकिन अगर आप काम करते हैं, मेहनत-मशक्कत करते हैं, रिक्शा चलाते हैं तो आपको उसकी मजदूरी के पैसे मिलते हैं। चाहे आप अपने मालिक से वैर रखते हैं, लेकिन अगर आप काम करते हैं तो भौतिक जीवन में आपको मजदूरी के पैसे मिल भी सकते हैं।
मित्रो! चूँकि हमारा जीवन भौतिक जीवन नहीं है। हमारे क्रियाकलाप, भौतिक क्रिया-कलाप नहीं हैं। हमारा कार्यक्षेत्र भौतिक कार्यक्षेत्र नहीं है। अतः विचार यह करना पड़ेगा कि हमारी दृष्टि और हमारा चिंतन आध्यात्मिक किया के अनुरूप है कि नहीं। यदि क्रिया के अनुरूप हमारी दृष्टि और चिंतन नहीं हुआ तो, उससे कुछ लाभ नहीं मिलेगा। दृष्टि कुछ और रही, चिंतन कुछ और रहा, तो जो यह विडंबना आज हमको अपने धार्मिक क्षेत्र में आमतौर से दिखाई पड़ती है कि लोग बाहर से कृत्य तो बहुत अच्छे-अच्छे करते है, पर उस क्रिया-कलाप के साथ में जैसी दृष्टि का समावेश होना चाहिए था, उसका अभाव दिखाई पड़ता है। कृत्यों का मित्रो! कुछ खास महत्त्व नहीं होता, बल्कि और भी ज्यादा नुकसान होता है। कैसे? नुकसान ऐसे होता है जैसे गोशाला के नाम पर कई आदमी गायों को रक्षा के लिए चपरास पीठ पर बाँध लेते हैं। डंडा और गुल्लक हाथ में ले लेते हैं। गोरक्षा के लिए रेल के डिब्बों में आवाज लगाते है, चंदा इकट्ठा करते हैं। क्यों साहब। आप तो गो-रक्षक है? बिलकुल। कितनी जिंदगी खतम हो गई आपकी? साहब चालीस साल। बीस वर्ष की उम्र से हम गोरक्षा का काम करते आ रहे हैं और अब साठ साल के हैं। गऊओं की जय बोलते हैं।
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो! दो प्रश्न आपके मस्तिष्क में संभवतः उठते रहते होंगे। एक प्रश्न यह कि हमें क्या करना है और क्या बनना है? दूसरा यह कि हमें क्या कराना है और क्या बनाना है? इसके संबंध में स्थूल रूप से आपको कई चीजें दिखाई पड़ती है। क्या करना है? सवेरे उठना चाहिए, नहाना चाहिए, पूजा करनी चाहिए हवन करना चाहिए। ये क्रियाएँ हैं और जनता में क्या कराना चाहिए? जनता में हवन कराने चाहिए, सम्मेलन कराने चाहिए, त्यौहार-संस्कार कराने चाहिए।
क्रिया व विचार दोनों महत्त्वपूर्ण
मित्रो! ये क्रियाएँ आपको दिखाई पड़ती हैं कि जनता के बीच में आपको क्या क्रियाएँ करानी चाहिए और अपने आप में क्या क्रियाएँ करनी चाहिए? क्रियाओं का अपना मूल्य है, महत्त्व है। हम जानते हैं कि क्रियाओं के माध्यम से विचारों के निर्माण में बहुत ही अधिक सहायता मिलती है। क्रियाएँ महत्त्वपूर्ण होती हैं, यह बात भी सही है लेकिन मित्रो! यह बात भी ध्यान में रखने योग्य है कि क्रियाओं और विचारणा में जमीन आसमान का अंतर होना भी संभव है। क्रिया क्या हो सकती है और हमारे ढंग क्या हो सकते हैं। इसमें फर्क रह गया तो क्रिया का, खासतौर से धार्मिक क्रिया का कोई लाभ न मिलेगा। भौतिक क्रिया का लाभ तो मिल भी जाएगा। जैसे आपके जी में हरामखोरी का मन है, चोरी चालाकी का मन है तो बात अलग है, लेकिन अगर आप काम करते हैं, मेहनत-मशक्कत करते हैं, रिक्शा चलाते हैं तो आपको उसकी मजदूरी के पैसे मिलते हैं। चाहे आप अपने मालिक से वैर रखते हैं, लेकिन अगर आप काम करते हैं तो भौतिक जीवन में आपको मजदूरी के पैसे मिल भी सकते हैं।
मित्रो! चूँकि हमारा जीवन भौतिक जीवन नहीं है। हमारे क्रियाकलाप, भौतिक क्रिया-कलाप नहीं हैं। हमारा कार्यक्षेत्र भौतिक कार्यक्षेत्र नहीं है। अतः विचार यह करना पड़ेगा कि हमारी दृष्टि और हमारा चिंतन आध्यात्मिक किया के अनुरूप है कि नहीं। यदि क्रिया के अनुरूप हमारी दृष्टि और चिंतन नहीं हुआ तो, उससे कुछ लाभ नहीं मिलेगा। दृष्टि कुछ और रही, चिंतन कुछ और रहा, तो जो यह विडंबना आज हमको अपने धार्मिक क्षेत्र में आमतौर से दिखाई पड़ती है कि लोग बाहर से कृत्य तो बहुत अच्छे-अच्छे करते है, पर उस क्रिया-कलाप के साथ में जैसी दृष्टि का समावेश होना चाहिए था, उसका अभाव दिखाई पड़ता है। कृत्यों का मित्रो! कुछ खास महत्त्व नहीं होता, बल्कि और भी ज्यादा नुकसान होता है। कैसे? नुकसान ऐसे होता है जैसे गोशाला के नाम पर कई आदमी गायों को रक्षा के लिए चपरास पीठ पर बाँध लेते हैं। डंडा और गुल्लक हाथ में ले लेते हैं। गोरक्षा के लिए रेल के डिब्बों में आवाज लगाते है, चंदा इकट्ठा करते हैं। क्यों साहब। आप तो गो-रक्षक है? बिलकुल। कितनी जिंदगी खतम हो गई आपकी? साहब चालीस साल। बीस वर्ष की उम्र से हम गोरक्षा का काम करते आ रहे हैं और अब साठ साल के हैं। गऊओं की जय बोलते हैं।