Books - युग परिवर्तन कब और कैसे ?
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Language: HINDI
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बुद्धि प्रगति की अनुगामिनी बने
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निस्संदेह इसे बुद्धि कौशल का चमत्कार ही कहना चाहिए कि मनुष्य अपने आदिम पूर्वजों की तुलना में कई गुना बेहतर स्थिति में पहुँच सका है और विज्ञान के सहारे नित्य नवीन जीवन साधनों का आविष्कार करता जा रहा है । इन चमत्कारी उपलब्धियों को देखते हुए यह मानने में संकोच नहीं किया जा सकता कि मनुष्य परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ सन्तान है, किन्तु इस श्रेष्ठता पर तब प्रश्न चिह्न लग जाता है जब मानवीय बुद्धि अपने कौशल का उपयोग विनाशकारी प्रयोजनों में करती दिखाई देती है । इस विनाशकारी उपयोग को चित्रित करते हुए एक विद्वान ने लिखा है कि ''आदिकाल में कभी आदमी ने पहली बार एक पत्थर उठाकर अपने साथी पर वार किया और उसका सर फूट गया । शस्त्र की भाँति प्रयुक्त हुआ यही पत्थर युगों की यात्रा करते हुए सन् 1945 में परमाणु बम बन गया है, और अब उसका संशोधित संस्करण विषाणु बमों के रूप में सामने आया है ।''
विषाणु ऐसे छोटे कीटाणु होते हैं जिन्हें सामान्य सूक्ष्मदर्शी से नहीं देखा जा सकता । इनकी मारक क्षमता अदभुत है । इनसे फैलने बीमारियाँ पोलियों, ट्रेकोमा, निमोनिया, कैन्सर रैवीज, कामनकोल्ड, इनके सेफ्लैटिस मनुष्य को घुट-घुट कर मरने को बाध्य करती है । ऐसे ही विषाणुओं से विषाणु बम का निर्माण होता है । जहाँ भी ये बम छोड़े जायेंगे उस वातावरण में विषाणु फैले जायेंगे तथा उपरोक्त बीमारियों को जन्म देंगे । उस वातावरण के एक एकड़ तक सम्पर्क में आने वाले इन बीमारियों से ग्रस्त हो जायेंगे ।
विषाणु बम व्यय की दृष्टि से कुछ सस्ते हैं और केवल जीवित व्यक्तियों और प्राणियों को ही अपना ग्रास बनाते हैं ऐसे विषाणु बमों का भी निर्माण हो चुका है जो केवल मनुष्यों को मारें और अन्य प्राणियों को जीवित छोड़ दें । अब तक जो विषाणु बम तैयार हुए है उनके विस्फोट से होने वाली कुछ अन्य बीमारियों इस प्रकार है-
'क्लासट्रीडियम वाटुलिनम' नाम विषाणु ऐसा ही है जिसको विषाणु बम द्वारा अभीष्ट क्षेत्र में प्रसारित कर दिया जाता है । यह खाद्यानों को विषाक्त बना देता है । इसकी विषाक्तता सर्वाधिक विषाक्त पदार्थ फ्लोरोसोडियम एसीटेट से एक अरब पचास गुना तथा पोटेशियम सायनाइड से तीन अरब गुना अधिक है । पोटेशियम सायनाइड के विषय में इतना ही जानना पर्याप्त होगा कि शुद्ध अवस्था मं इसका छोटे से छोटा अणु भी जीभ पर रखते ही तत्काल मृत्यु हो जाती है । जीभ पर रखने वाले को इसका स्वाद बता पाने का भी समय नहीं मिल पाता । इस विष से तीन अरब गुना क्लासट्रीडियम वोडुलिनम विषक्त कितना भयंकर होगा इसका अनुमान लगा सकना भी कठिन है । ऐसा अनुमान है कि वोडुलिनम विष की एक औंस मात्र बीस करोड़ व्यक्तियों को मारने में समक्ष है ।
इसके अतिरिक्त मेलियोडेसिम, सीटाकासिस, आक्सीडियो-माइकोसिस नामक बीमारियों को फैलाने वाले विषाणु बम भी आविष्कृत कर लिये गये हैं । इस बम की विनाश लीला भी कम घातक नहीं है । जहाँ कहीं भी इनका विस्फोट किया जायेगा वहाँ के निवासी तुरन्त 107,108 डिग्री तापक्रम वाले बुखार में जलने लगेंगे । उनमें से कम ही जीवित बचेंगे । अधिकांश क जीवन लीला समाप्त हो जायेगी ।
रासायनिक शस्त्रों के आविष्कार में एक कड़ी और जुड़ी है- विषैली गैसों की । अब से कुछ वर्ष पूर्व तक 'फासजीन' और 'मस्टर्ड' गैसें सबसे विषैली मानी जाती थी । लेकिन हाल ही में मस्टर्ड गैस से लगभग 75 गुना अधिक विषैली गैस वी.एक्स गैस खोज ली गई है । इस गैस के हल्के से झोंके ने अमेरिका के एक चरागाह में चर रही पाँच हजार भेड़ों की क्षण भर में नष्ट कर दिया । नाइट्रोमस्टर्ड गैस का विस्फोट करने पर उस क्षेत्र के निवासियों की तुरन्त मृत्यु तो नहीं होती परन्तु मरने से पूर्व तक असह्य यन्त्रणा होती है । इस गैस के फैलते ही उस क्षेत्र सहित आसपास् के मीलों क्षेत्रों में रहने वाले मनुष्यों की आँखें तथा छाती में असह्य जलन होने लगती है । आँखें तथा फेफडों में दर्दनाक फफोले पड़ जाते हैं तथा घण्टों तक उनके कारण होने वाले दर्द से तड़पते हुए लोग चल बसते हैं ।
सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि इन गैसों का तब तक नहीं पता चलाता है, जब तक शरीर पर उनकी प्रतिक्रिया न दिखाई पड़ने गले । फलस्वरूप उनसे बचाव के लिए पूर्व कोई तैयारी नहीं की जा सकती ।
घातक रासायनिक पदार्थों की शृंखला में आर्गेनोफास्फोरस श्रेणी के 'वाइनरी कम्पाउण्ड्स' जैसे आविष्कार की एक कड़ी जुड़ी है उसे सामान्यतः 'नर्व गैस' कहते हैं । अब तक विनिर्मित समस्त विषैले रसायनों में यह सर्वाधिक कष्ट देने वाली गैस है । यह स्नायु संस्थान को सेकिण्ड से भी कम समय में संज्ञा शून्य कर देती है । आर्गेनो फास्फोरस श्रेणी में अनेकों प्रकार की जहरीली गैसें आविष्कृत हो चुकी है । यह गैसे नाक अथवा त्वचा के रोमकूपों द्वारा अवशोषित करली जाती हैं और सेकिण्ड के अल्पांश में 'नर्व सिस्टम' को लड़खड़ा देती है । स्नायु संस्थान जिस एन्जाइम के माध्यम से कार्य करता है उसे ये गैसें निष्क्रिय बना देती हैं । इस गैस की एन्जाइम से क्रिया होने पर 'एसीटिल कोलिन' नामक जैविक पदार्थ एकत्रित होने लगता है जिसके कारण फेफड़ों में श्लेष्मा भरने लगता है और साँस लेना कठिन हो जाता है । शरीर में ऐठन होती और कुछ ही सेकिण्ड बाद दम तोड़ देता है ।
रूस ने इससे भी अधिक घातक सोमैन नामक रसायन तैयार किया है । जो अधिक समय तक सक्रिय रहता और अपना प्रभाव व्यापक क्षेत्र तक दिखाता है । उसे वी.आर. 55 नामक युद्ध सामग्री के नाम से जाना जाता है । अनुमान है कि सन् 1953 से 1957 के बीच अमेरिका ने 15000 हजार टन सारिन और 1961 से 1967 के बीच 5000 हजार टन वी. एक्स नामक विषैले रसायनों का निर्माण किया था । रूस ने इससे भी अधिक परिमाण में सोमैन नामक रसायन का उत्पादन उस अवधि में किया था । रासायनिक शस्त्रों के नवीन आँकड़े अनुपलब्ध है । अब तो उनकी मात्रा कई गुनी अधिक बढ़ चुकी है ।
स्टेट्समैन 27 नवम्बर 1979 अंक में प्रकाशित एक विवरण के अनुसार अमेरिकी सेना में 780000 डालर की एक ऐसी योजना बनाई है जिसके अन्तर्गत और भी अधिक मारक रसायनों का निर्माण किया जायेगा । इसका नाम भी अभी अविज्ञात है किन्तु इसकी मारक क्षमता का एक दर्दनाक प्रयोग विगत दिनों अमेरिका द्वारा किया गया । होक्सवर्ग की जेल में बन्दी बनाये गये काले व्यक्तियों पर रासायनिक गैस की 0 दशमलव 1 औंस से भी कम मात्रा छोड़ी गई । उनमें से 90 प्रतिशत तो तत्काल शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से अपंग हो गये । परीक्षणकर्त्ताओं ने घोषित किया कि यह अभिशाप जीवन पर्यन्त के लिए उनके साथ जुड़ गया है ।
इस आविष्कार से यह सम्भावना बन चली है कि अगले दिनों विपक्षीयों को मारना आवश्यक नहीं होगा । उन्हें शरीर और मस्तिष्क के लिये अक्षम बना देना पर्याप्त होगा । इस विभिषिका की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए एक विचारक का कहना है कि ''यदि इसका प्रयोग युद्धों में किया गया तो सभी सैनिकों के साथ अपंगता का श्राप सदा के लिए जुड़ जायेगा । रसायन से फैलने वाली विषाक्तता से जीव-जन्तुओं का अस्तित्व भी सुरक्षित नहीं रहेगा ।''
जेनेटिक इन्जीनिरिंग के उत्साहवर्धक प्रयोग की चर्चा इन दिनों सर्वत्र है । इसके घातक पक्ष ने मानवीय अस्तित्व को समाप्त करने की एक नई सम्भावना और भी जोड़ दी है । अमेरिका से प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'नेचर'में ड़ॉ. जान कार्बन तथा बैरी टैक्सरिन नामक सूक्ष्म जैविकी लिखते हैं कि इस यांत्रिकी प्रकिया द्वारा मानव विनाश की सम्भावना भी प्रशस्त की जा सकती है । व्याधिग्रस्त जीवन से प्रत्यारोपित जीवाणुओं को किसी भी क्षेत्र अथवा राष्ट्र के विरुद्ध वातावरण में छोड़कर महामारी फैलाई जा सकती है । तब प्रभावित क्षेत्र के मनुष्य,जीव-जन्तु घुट-घुट कर मर जायेंगे और वह क्षेत्र इस योग्य नहीं रहेगा कि मनुष्य निवास कर सके । कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि अमेजन की घाटी में पाये जाने वाले विचित्र जीवाणु और विषाणु किसी अविज्ञात प्रयोग और परीक्षण के ही परिणाम हैं ।
मनुष्य के जीवन-व्यापार में सार्वधिक सहायक मौसम में भी हेरफेर की बात सोची जा रही है ताकि अल्प समय में प्रकृति का यह शस्त्र अधिक व्यापक और विनाशक दृश्य प्रस्तुत कर सके । कभी कृत्रिम वर्षा से सूखाग्रस्त क्षेत्र में राहत पहुँचाने की बात सोची जा रही थी । पर यह प्रयास अब शिथिल हो गया । अब तो जलवायु पर नियन्त्रण करके शत्रु पक्ष को क्षति पहुँचाने की विधि खोजी जा रही है । बादलों में पानी की लघु आकार की असंख्य बूँदें होती हैं । उन पर सिल्वर आयोडाइड अथवा शुष्क कार्बन डाइआक्साइड छिड़क दी जाय तो वे बर्फ कणों में बदल जाती हैं । इस विधि का प्रयोग करके किसी भी स्थान में भारी वर्षा एवं बाढ़ की स्थिति लाई जा सकती है । रसायनों के छिड़काव की प्रक्रिया वायुयान अथवा राकेट सम्पन्न की जा सकती है । एक राष्ट्र दुसरे के विरुद्ध इस विधि द्वारा विप्लव उत्पन्न कर सकता है ।
वातावरण को असन्तुलिन करने,विषाक्त बनाने के कृत्रिम प्रयोग कई राष्ट्रों द्वारा किये जा रहे हैं । विज्ञानवेत्ता जानते हैं कि पृथ्वी के वातावरण के 'आयनोस्फीयर' में ओजोन परत रक्षा कवच का काम करती है । सूर्य से तथा अन्तरिक्ष के अन्य ग्रहों से आगे वाली अल्ट्रावायलेट तथा अन्य अनेकों एसी किरणें हैं जो पृथ्वी के वातावरण तथा सम्बद्ध में जीव-जन्तुओं पर घातक प्रभाव डालती हैं । इनको रोकने में ओजोन परत की महत्वपूर्ण भूमिका है । ओजोन परत में ओजोन की मात्रा कम हो जाने पर अन्तरिक्ष से आने वाली घातक किरणें पृथ्वी के वातावरण में पहुँच जाती तथा अपना हानिकारक प्रभाव दिखाती हैं । विगत दो दशकों में हुए युद्ध में कई प्रगतिशील कहे जाने वाली देशों ने प्रतिपक्षी देशों पर इस प्रकाश के प्रयोग भी किये हैं । पर्यवेक्षकों का कहना है कि वियतनाम का वायुमंडल इतना विषाक्त हो चुका है कि वहाँ रहकर निरोग नहीं रहा जा सकता । विशेषज्ञों ने इसका कारण ओजोन की मात्रा का कम होना बताया है । एक गुप्त रिपोर्ट के अनुसार उक्त क्षेत्र में ओजोन परत को नष्ट करने के लिये प्रयोग किये गये हैं ।
नाइट्रोजन आक्साइड, हाइड्रोपराक्साइड जैसे यौगिकों के छिड़काव के प्रमाण भी उस स्थान पर पाये गये हैं । सन् 1971 में प्रकाशित पेंटागन पेपर्स की रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका ने वियतनाम के विरुद्ध इस प्रकार का प्रयोग किया था । दूसरा उल्लेख अमेरिकी सिनेट की 19 मई 1974 की रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका ने हिन्दचीन के क्षेत्र में व्यापक स्तर पर सिल्वर आयोडाइड के छिड़काव का प्रयोग किया था । जिसके फलस्वरूप भीषण वर्षा हुई और ओले पड़े ।
अपनी ही जाति को विनष्ट करने के लिये सन्नद्ध खड़ी मानवीय बुद्धि को इसके बाद भी क्या श्रेष्ठा और गौरवास्पद कहा जा सकता है? निस्सेन्देह वैज्ञानिक उपकरण जो मनुष्य की प्रगति में योगदान देने आये हैं मानवीय कौशल के परिणाम हैं । इसके लिये मनुष्य को बधाई दी जानी चाहिए किन्तु इसके साथ ही एक प्रश्न उठ खड़ा होता है कि मनुष्य ने अपने अस्तित्व के लिये जो संकट खड़ा कर लिया है उसे क्या कहा जाय?
निश्चय ही इसे मानवीय दुर्बुद्धि कहना चाहिए इसी ने आज की सर्वनाशी विभीषिका उत्पन्न की है । उसका समाधान एक ही प्रकार सम्भव है कि अपनी खोदी खाई स्वयं ही पाटी जाय । संकीर्ण स्वार्थपरता के कुचक्र में फंसकर मनुष्य ने मरण और मारण के अनुष्ठान को अपनाने का उपक्रम किया है । उदारता और दूरदर्शिता का दृष्टिकोण अपनाकर ही उस रास्ते पर चल जा सकता है जिसमें छुटपुट मतभेदों को न्याय और सौजन्य का अवलम्बन लेकर निपटाया जा सके और युद्ध के स्थान पर सहयोग का आश्रय लेकर वर्तमान साधनों से ही सुख शान्ति का जीवन जिया जा सके । सम्मिलित प्रयासों का सिलसिला विज्ञान के क्षेत्र में विधेयात्मक रूप में ही अपनाया जा सके तो ऊर्जा भट्टी से लेकर अनेकानेक शान्तिपूर्वक प्रयासों में सुनियोजित हो सकता है ।
सभी बुद्धिजीवियों को मिल-बैठकर अब यह विचार करना ही होगा कि मानव जाति का अन्तिम लक्ष्य क्या है, विकास अथवा विनाश, एकाकी रूप में महाद्वीप या राष्ट्रीय स्तर पर समृद्ध होने और शेष सारे संसार को नष्ट कर देने की कल्पना शेखचिल्ली के समान ही कही जाएगी । यह मानकर चलना ही होगा कि हम इस सुविधा पर अकेले नहीं सब एक साथ हैं मरेंगे तो सब एक साथ, जियेंगे तो भी एक ही साथ, आवागमन की द्रुत सुविधाओं ने आज विश्व को 'जेट एज' में पहुँचा दिया है । यहाँ की व्याधि कुछ ही पलों में हजारों मील दूर समुद्र पार भी पहुँच सकती है । ऐसे में कैसे यह कल्पना की जाय कि हम उस विभीषिका से स्वयं को बचाए रखेंगे । इस चिन्तन को थोड़ा परिष्कृत किया जाय एवं आदिम मानव के स्तर पर नहीं विकसित मानव के स्तर पर विश्व सभ्यता के अभ्युदय की चर्चा ही नहीं, क्रियान्वयन भी हो, तभी महाप्रलय की आसन्न विभीषिका से मानवता को बचाया जा सकेगा ।
(युग परिवर्तन कैसे? और कब पृ. 5.19)
विषाणु ऐसे छोटे कीटाणु होते हैं जिन्हें सामान्य सूक्ष्मदर्शी से नहीं देखा जा सकता । इनकी मारक क्षमता अदभुत है । इनसे फैलने बीमारियाँ पोलियों, ट्रेकोमा, निमोनिया, कैन्सर रैवीज, कामनकोल्ड, इनके सेफ्लैटिस मनुष्य को घुट-घुट कर मरने को बाध्य करती है । ऐसे ही विषाणुओं से विषाणु बम का निर्माण होता है । जहाँ भी ये बम छोड़े जायेंगे उस वातावरण में विषाणु फैले जायेंगे तथा उपरोक्त बीमारियों को जन्म देंगे । उस वातावरण के एक एकड़ तक सम्पर्क में आने वाले इन बीमारियों से ग्रस्त हो जायेंगे ।
विषाणु बम व्यय की दृष्टि से कुछ सस्ते हैं और केवल जीवित व्यक्तियों और प्राणियों को ही अपना ग्रास बनाते हैं ऐसे विषाणु बमों का भी निर्माण हो चुका है जो केवल मनुष्यों को मारें और अन्य प्राणियों को जीवित छोड़ दें । अब तक जो विषाणु बम तैयार हुए है उनके विस्फोट से होने वाली कुछ अन्य बीमारियों इस प्रकार है-
'क्लासट्रीडियम वाटुलिनम' नाम विषाणु ऐसा ही है जिसको विषाणु बम द्वारा अभीष्ट क्षेत्र में प्रसारित कर दिया जाता है । यह खाद्यानों को विषाक्त बना देता है । इसकी विषाक्तता सर्वाधिक विषाक्त पदार्थ फ्लोरोसोडियम एसीटेट से एक अरब पचास गुना तथा पोटेशियम सायनाइड से तीन अरब गुना अधिक है । पोटेशियम सायनाइड के विषय में इतना ही जानना पर्याप्त होगा कि शुद्ध अवस्था मं इसका छोटे से छोटा अणु भी जीभ पर रखते ही तत्काल मृत्यु हो जाती है । जीभ पर रखने वाले को इसका स्वाद बता पाने का भी समय नहीं मिल पाता । इस विष से तीन अरब गुना क्लासट्रीडियम वोडुलिनम विषक्त कितना भयंकर होगा इसका अनुमान लगा सकना भी कठिन है । ऐसा अनुमान है कि वोडुलिनम विष की एक औंस मात्र बीस करोड़ व्यक्तियों को मारने में समक्ष है ।
इसके अतिरिक्त मेलियोडेसिम, सीटाकासिस, आक्सीडियो-माइकोसिस नामक बीमारियों को फैलाने वाले विषाणु बम भी आविष्कृत कर लिये गये हैं । इस बम की विनाश लीला भी कम घातक नहीं है । जहाँ कहीं भी इनका विस्फोट किया जायेगा वहाँ के निवासी तुरन्त 107,108 डिग्री तापक्रम वाले बुखार में जलने लगेंगे । उनमें से कम ही जीवित बचेंगे । अधिकांश क जीवन लीला समाप्त हो जायेगी ।
रासायनिक शस्त्रों के आविष्कार में एक कड़ी और जुड़ी है- विषैली गैसों की । अब से कुछ वर्ष पूर्व तक 'फासजीन' और 'मस्टर्ड' गैसें सबसे विषैली मानी जाती थी । लेकिन हाल ही में मस्टर्ड गैस से लगभग 75 गुना अधिक विषैली गैस वी.एक्स गैस खोज ली गई है । इस गैस के हल्के से झोंके ने अमेरिका के एक चरागाह में चर रही पाँच हजार भेड़ों की क्षण भर में नष्ट कर दिया । नाइट्रोमस्टर्ड गैस का विस्फोट करने पर उस क्षेत्र के निवासियों की तुरन्त मृत्यु तो नहीं होती परन्तु मरने से पूर्व तक असह्य यन्त्रणा होती है । इस गैस के फैलते ही उस क्षेत्र सहित आसपास् के मीलों क्षेत्रों में रहने वाले मनुष्यों की आँखें तथा छाती में असह्य जलन होने लगती है । आँखें तथा फेफडों में दर्दनाक फफोले पड़ जाते हैं तथा घण्टों तक उनके कारण होने वाले दर्द से तड़पते हुए लोग चल बसते हैं ।
सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि इन गैसों का तब तक नहीं पता चलाता है, जब तक शरीर पर उनकी प्रतिक्रिया न दिखाई पड़ने गले । फलस्वरूप उनसे बचाव के लिए पूर्व कोई तैयारी नहीं की जा सकती ।
घातक रासायनिक पदार्थों की शृंखला में आर्गेनोफास्फोरस श्रेणी के 'वाइनरी कम्पाउण्ड्स' जैसे आविष्कार की एक कड़ी जुड़ी है उसे सामान्यतः 'नर्व गैस' कहते हैं । अब तक विनिर्मित समस्त विषैले रसायनों में यह सर्वाधिक कष्ट देने वाली गैस है । यह स्नायु संस्थान को सेकिण्ड से भी कम समय में संज्ञा शून्य कर देती है । आर्गेनो फास्फोरस श्रेणी में अनेकों प्रकार की जहरीली गैसें आविष्कृत हो चुकी है । यह गैसे नाक अथवा त्वचा के रोमकूपों द्वारा अवशोषित करली जाती हैं और सेकिण्ड के अल्पांश में 'नर्व सिस्टम' को लड़खड़ा देती है । स्नायु संस्थान जिस एन्जाइम के माध्यम से कार्य करता है उसे ये गैसें निष्क्रिय बना देती हैं । इस गैस की एन्जाइम से क्रिया होने पर 'एसीटिल कोलिन' नामक जैविक पदार्थ एकत्रित होने लगता है जिसके कारण फेफड़ों में श्लेष्मा भरने लगता है और साँस लेना कठिन हो जाता है । शरीर में ऐठन होती और कुछ ही सेकिण्ड बाद दम तोड़ देता है ।
रूस ने इससे भी अधिक घातक सोमैन नामक रसायन तैयार किया है । जो अधिक समय तक सक्रिय रहता और अपना प्रभाव व्यापक क्षेत्र तक दिखाता है । उसे वी.आर. 55 नामक युद्ध सामग्री के नाम से जाना जाता है । अनुमान है कि सन् 1953 से 1957 के बीच अमेरिका ने 15000 हजार टन सारिन और 1961 से 1967 के बीच 5000 हजार टन वी. एक्स नामक विषैले रसायनों का निर्माण किया था । रूस ने इससे भी अधिक परिमाण में सोमैन नामक रसायन का उत्पादन उस अवधि में किया था । रासायनिक शस्त्रों के नवीन आँकड़े अनुपलब्ध है । अब तो उनकी मात्रा कई गुनी अधिक बढ़ चुकी है ।
स्टेट्समैन 27 नवम्बर 1979 अंक में प्रकाशित एक विवरण के अनुसार अमेरिकी सेना में 780000 डालर की एक ऐसी योजना बनाई है जिसके अन्तर्गत और भी अधिक मारक रसायनों का निर्माण किया जायेगा । इसका नाम भी अभी अविज्ञात है किन्तु इसकी मारक क्षमता का एक दर्दनाक प्रयोग विगत दिनों अमेरिका द्वारा किया गया । होक्सवर्ग की जेल में बन्दी बनाये गये काले व्यक्तियों पर रासायनिक गैस की 0 दशमलव 1 औंस से भी कम मात्रा छोड़ी गई । उनमें से 90 प्रतिशत तो तत्काल शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से अपंग हो गये । परीक्षणकर्त्ताओं ने घोषित किया कि यह अभिशाप जीवन पर्यन्त के लिए उनके साथ जुड़ गया है ।
इस आविष्कार से यह सम्भावना बन चली है कि अगले दिनों विपक्षीयों को मारना आवश्यक नहीं होगा । उन्हें शरीर और मस्तिष्क के लिये अक्षम बना देना पर्याप्त होगा । इस विभिषिका की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए एक विचारक का कहना है कि ''यदि इसका प्रयोग युद्धों में किया गया तो सभी सैनिकों के साथ अपंगता का श्राप सदा के लिए जुड़ जायेगा । रसायन से फैलने वाली विषाक्तता से जीव-जन्तुओं का अस्तित्व भी सुरक्षित नहीं रहेगा ।''
जेनेटिक इन्जीनिरिंग के उत्साहवर्धक प्रयोग की चर्चा इन दिनों सर्वत्र है । इसके घातक पक्ष ने मानवीय अस्तित्व को समाप्त करने की एक नई सम्भावना और भी जोड़ दी है । अमेरिका से प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'नेचर'में ड़ॉ. जान कार्बन तथा बैरी टैक्सरिन नामक सूक्ष्म जैविकी लिखते हैं कि इस यांत्रिकी प्रकिया द्वारा मानव विनाश की सम्भावना भी प्रशस्त की जा सकती है । व्याधिग्रस्त जीवन से प्रत्यारोपित जीवाणुओं को किसी भी क्षेत्र अथवा राष्ट्र के विरुद्ध वातावरण में छोड़कर महामारी फैलाई जा सकती है । तब प्रभावित क्षेत्र के मनुष्य,जीव-जन्तु घुट-घुट कर मर जायेंगे और वह क्षेत्र इस योग्य नहीं रहेगा कि मनुष्य निवास कर सके । कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि अमेजन की घाटी में पाये जाने वाले विचित्र जीवाणु और विषाणु किसी अविज्ञात प्रयोग और परीक्षण के ही परिणाम हैं ।
मनुष्य के जीवन-व्यापार में सार्वधिक सहायक मौसम में भी हेरफेर की बात सोची जा रही है ताकि अल्प समय में प्रकृति का यह शस्त्र अधिक व्यापक और विनाशक दृश्य प्रस्तुत कर सके । कभी कृत्रिम वर्षा से सूखाग्रस्त क्षेत्र में राहत पहुँचाने की बात सोची जा रही थी । पर यह प्रयास अब शिथिल हो गया । अब तो जलवायु पर नियन्त्रण करके शत्रु पक्ष को क्षति पहुँचाने की विधि खोजी जा रही है । बादलों में पानी की लघु आकार की असंख्य बूँदें होती हैं । उन पर सिल्वर आयोडाइड अथवा शुष्क कार्बन डाइआक्साइड छिड़क दी जाय तो वे बर्फ कणों में बदल जाती हैं । इस विधि का प्रयोग करके किसी भी स्थान में भारी वर्षा एवं बाढ़ की स्थिति लाई जा सकती है । रसायनों के छिड़काव की प्रक्रिया वायुयान अथवा राकेट सम्पन्न की जा सकती है । एक राष्ट्र दुसरे के विरुद्ध इस विधि द्वारा विप्लव उत्पन्न कर सकता है ।
वातावरण को असन्तुलिन करने,विषाक्त बनाने के कृत्रिम प्रयोग कई राष्ट्रों द्वारा किये जा रहे हैं । विज्ञानवेत्ता जानते हैं कि पृथ्वी के वातावरण के 'आयनोस्फीयर' में ओजोन परत रक्षा कवच का काम करती है । सूर्य से तथा अन्तरिक्ष के अन्य ग्रहों से आगे वाली अल्ट्रावायलेट तथा अन्य अनेकों एसी किरणें हैं जो पृथ्वी के वातावरण तथा सम्बद्ध में जीव-जन्तुओं पर घातक प्रभाव डालती हैं । इनको रोकने में ओजोन परत की महत्वपूर्ण भूमिका है । ओजोन परत में ओजोन की मात्रा कम हो जाने पर अन्तरिक्ष से आने वाली घातक किरणें पृथ्वी के वातावरण में पहुँच जाती तथा अपना हानिकारक प्रभाव दिखाती हैं । विगत दो दशकों में हुए युद्ध में कई प्रगतिशील कहे जाने वाली देशों ने प्रतिपक्षी देशों पर इस प्रकाश के प्रयोग भी किये हैं । पर्यवेक्षकों का कहना है कि वियतनाम का वायुमंडल इतना विषाक्त हो चुका है कि वहाँ रहकर निरोग नहीं रहा जा सकता । विशेषज्ञों ने इसका कारण ओजोन की मात्रा का कम होना बताया है । एक गुप्त रिपोर्ट के अनुसार उक्त क्षेत्र में ओजोन परत को नष्ट करने के लिये प्रयोग किये गये हैं ।
नाइट्रोजन आक्साइड, हाइड्रोपराक्साइड जैसे यौगिकों के छिड़काव के प्रमाण भी उस स्थान पर पाये गये हैं । सन् 1971 में प्रकाशित पेंटागन पेपर्स की रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका ने वियतनाम के विरुद्ध इस प्रकार का प्रयोग किया था । दूसरा उल्लेख अमेरिकी सिनेट की 19 मई 1974 की रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका ने हिन्दचीन के क्षेत्र में व्यापक स्तर पर सिल्वर आयोडाइड के छिड़काव का प्रयोग किया था । जिसके फलस्वरूप भीषण वर्षा हुई और ओले पड़े ।
अपनी ही जाति को विनष्ट करने के लिये सन्नद्ध खड़ी मानवीय बुद्धि को इसके बाद भी क्या श्रेष्ठा और गौरवास्पद कहा जा सकता है? निस्सेन्देह वैज्ञानिक उपकरण जो मनुष्य की प्रगति में योगदान देने आये हैं मानवीय कौशल के परिणाम हैं । इसके लिये मनुष्य को बधाई दी जानी चाहिए किन्तु इसके साथ ही एक प्रश्न उठ खड़ा होता है कि मनुष्य ने अपने अस्तित्व के लिये जो संकट खड़ा कर लिया है उसे क्या कहा जाय?
निश्चय ही इसे मानवीय दुर्बुद्धि कहना चाहिए इसी ने आज की सर्वनाशी विभीषिका उत्पन्न की है । उसका समाधान एक ही प्रकार सम्भव है कि अपनी खोदी खाई स्वयं ही पाटी जाय । संकीर्ण स्वार्थपरता के कुचक्र में फंसकर मनुष्य ने मरण और मारण के अनुष्ठान को अपनाने का उपक्रम किया है । उदारता और दूरदर्शिता का दृष्टिकोण अपनाकर ही उस रास्ते पर चल जा सकता है जिसमें छुटपुट मतभेदों को न्याय और सौजन्य का अवलम्बन लेकर निपटाया जा सके और युद्ध के स्थान पर सहयोग का आश्रय लेकर वर्तमान साधनों से ही सुख शान्ति का जीवन जिया जा सके । सम्मिलित प्रयासों का सिलसिला विज्ञान के क्षेत्र में विधेयात्मक रूप में ही अपनाया जा सके तो ऊर्जा भट्टी से लेकर अनेकानेक शान्तिपूर्वक प्रयासों में सुनियोजित हो सकता है ।
सभी बुद्धिजीवियों को मिल-बैठकर अब यह विचार करना ही होगा कि मानव जाति का अन्तिम लक्ष्य क्या है, विकास अथवा विनाश, एकाकी रूप में महाद्वीप या राष्ट्रीय स्तर पर समृद्ध होने और शेष सारे संसार को नष्ट कर देने की कल्पना शेखचिल्ली के समान ही कही जाएगी । यह मानकर चलना ही होगा कि हम इस सुविधा पर अकेले नहीं सब एक साथ हैं मरेंगे तो सब एक साथ, जियेंगे तो भी एक ही साथ, आवागमन की द्रुत सुविधाओं ने आज विश्व को 'जेट एज' में पहुँचा दिया है । यहाँ की व्याधि कुछ ही पलों में हजारों मील दूर समुद्र पार भी पहुँच सकती है । ऐसे में कैसे यह कल्पना की जाय कि हम उस विभीषिका से स्वयं को बचाए रखेंगे । इस चिन्तन को थोड़ा परिष्कृत किया जाय एवं आदिम मानव के स्तर पर नहीं विकसित मानव के स्तर पर विश्व सभ्यता के अभ्युदय की चर्चा ही नहीं, क्रियान्वयन भी हो, तभी महाप्रलय की आसन्न विभीषिका से मानवता को बचाया जा सकेगा ।
(युग परिवर्तन कैसे? और कब पृ. 5.19)