Books - देखन मे छोटे लगे घाव करे गंभीर भाग-2
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Language: HINDI
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एक क्रांतिकारी राजकुमार
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सोफी अपनी छोटी सी कुटिया में अपने छोटे-से परिवार, जिसमें वह स्वयं, उसके पति और पुत्री एलेक्जेंड़ा सम्मिलित हैं, उनके लिए खाना पका रही है। तभी एक अतिथि महोदय कुटिया में पधारते हैं। पति उठकर अंदर जाते हैं और कहते हैं—‘‘सोफी साग में थोड़ा और पानी मिला देना।’’ स्वीकारोक्ति में सोफी का सिर हिल जाता है। पति महोदय बैठकखाने में अभी बैठे ही थे कि एक अन्य मेहमान आ गए। वे पुनः उठते हैं, रसोईघर में पहुंचते हैं। फिर वही आग्रह-‘‘सोफी तनिक और पानी डाल देना।’’ ‘‘हां’’ उत्तर के साथ ही पति बैठकखाने की ओर मुड़ गए। यह क्रिया उन्हें छह-सात बार दुहरानी पड़ी और ढाई व्यक्तियों के भोजन को सात मित्रों को खिलाना पड़ा।
विकट तंगी की स्थिति में भी मेहमानवाजी का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करने वाले आतिथेय थे—रूस के महान् क्रांतिकारी विचारक और सुधारवादी-उदारवादी महामानव प्रिंस पीटर क्रोपाटकिन।
सन् 1890 के एक दिन उनकी इंग्लैंड स्थित कुटिया में उनके तीन मित्र बरनार्ड शा, नैविनसन और ब्रेल्सफोर्ड पधारे। वे कहने लगे-‘‘मित्र! इस तंगी की स्थिति में आप अतिथि सत्कार का झंझट क्यों मोल लेते हो?’’
प्रिंस एकबारगी चौंके।
‘‘क्या कहा! अतिथि सत्कार?’’
‘‘नहीं मित्र! इसे सत्कार जितना छोटा दर्जा मत दो। यह मेरी आत्म-तुष्टि है, आत्म–संतोष है, आत्मा की पुकार है। इसमें न तो दिखावा है, न कोई औपचारिकता। इससे मुझे इतना आनंद मिलता है कि मैं बता नहीं सकता। यह अभिव्यंजना से बाहर की बात है।’’
बरनार्ड शा बीच में ही बोल पड़े—‘‘हां, भारतीय ऋषियों के बारे में सुना भर था कि उनके द्वार पर कोई भूखा आ जाता तो पहले वे उसे भोजन कराते, फिर स्वयं करते। आज उसी भारतीय संस्कृति का मूर्तिमान रूप आप में देख रहा हूं। संभवतः ऐसी ही कुछ विशेषताओं के कारण उसे देव संस्कृति की संज्ञा दी गयी है।’’
‘‘निस्संदेह बंधु! देव संस्कृति वही हो सकती है, जिसमें देव तुल्य लोग बसते हों और इसमें दो मत नहीं कि प्राचीन भारतीय ऋषि मनुष्य शरीर में देवता थे।’’
‘‘अच्छा एक बात बताओ प्रिंस’’-नैविनसन ने उन्हें टोकते हुए कहा-‘‘हमारी बाइबिल कहती है कि भगवान् पांचवें आसमान पर निवास करते हैं। भारतीयों के देवता भी इन्हीं का एक रूप हैं। फिर भी वे मनुष्यों को देवता किस आधार पर मानते हैं? यह हमारी समझ में आया नहीं?’’
क्रोपाटकिन मुस्कराये, बोले—‘‘यह तो बड़ी छोटी-सी बात है। इसे बच्चा भी जानता है कि भगवान् अथवा देवता निराकार सत्ता है। वे सद्गुणों, सत्प्रवृत्तियों, उच्च आदर्शों के समुच्चय हैं। फिर जिस व्यक्ति में इनकी जितनी मात्रा संचित होती जाती है, वे देव कोटि की दिशा में प्रवृत्त होने लगते हैं। इसी परंपरा में भारतीय संस्कृति में महापुरुषों को देवता अथवा भगवान् के नाम से अभिहित किया जाता है। उसे भगवान् के समकक्ष मान लिया जाता है।’’
‘‘पर मुझे तो आज के धनपतियों पर तरस आता है’’—ब्रेल्सफोर्ड बिफर पड़े—‘‘एक तरफ तो हम प्राचीन भारतीय देव परम्परा का उदात्त उदाहरण देखते हैं और दूसरी ओर आज की दैन्य परम्परा का प्रतिमान सामने पाते हैं। कैसी विडंबना है! कैसा विरोधाभास! प्राचीन और नवीन इन दो संस्कृतियों में।’’
बरनार्ड शा अचकचाये—‘‘दैत्य परम्परा?’’
‘‘हां-हां, दैत्य परम्परा! इसे क्रूर दैत्य परम्परा नहीं तो और क्या कहें? जिसमें यदि आतिथेय का वश चले तो वे अतिथि को भी लूटकर उसका कीमा बनाने से भी बाज न आयें—‘‘ब्रेल्सफोर्ड ने प्रतिवाद किया।
‘‘ठीक कहते हो दोस्त! आज धन ही भगवान् है। हर जगह उसी की पूजा होती है। निर्धनों को तो लोग हिकारत की दृष्टि से देखते हैं। हाय री दुनिया! तू कहां से कहां पहुंच गयी। आज व्यक्ति ही व्यक्ति की आंखों में चुभने लगा। दोस्त अवसरवादी बन गए। धन के लोभ में सहोदरों की हत्या होने लगी। बहु-बेटियां आग की भेंट चढ़ने लगीं। यह क्रूरतम उदाहरण संभवतः इतिहास में सबसे वीभत्स है, जिसमें इन्सान धन के पीछे हैवान बना हो। इन्सानियत तो अब जैसे मानवी विशेषता रही ही नहीं। दृष्टिगत होती भी है तो यत्र-तत्र, यदा-कदा दुर्लभ दैवी गुण के रूप में ही।’’ तीनों मित्र क्रोपाटकिन को मंत्रमुग्ध हो सुन रहे थे।
अनायास ही बरनार्ड शा की अभिव्यक्ति निकट पड़ी। ‘‘मित्र! यदि आप चाहते तो धनवान ही नहीं, धनकुबेर भी बन सकते थे, क्योंकि कई विधाओं में आपकी गति है। आप बहु भाषाविद् हैं। बीस भाषाओं पर आपका अधिकार है, संगीतज्ञ हैं। गणितज्ञ हैं। वैज्ञानिक, कृषि वैज्ञानिक, साहित्यकार, दार्शनिक क्या क्या नहीं हैं। यदि आप चाहते तो इस बहुमुखी प्रतिभा के माध्यम से अब तक इतना धन इकट्ठा कर लेते कि आपकी सातों पीढ़ियां पीढ़िया उससे अपना निर्वाह करती रहतीं, पर आपने उनका उपयोग मानव कल्याण के लिए ही करना उचित समझा। 70 वर्ष की आयु में भी फकीरी की जिंदगी, औसत नागरिक स्तर से भी नीचे का निर्वाह आपने अंगीकार किया, क्योंकि मानव की दुर्वस्था के प्रति आपके मन में रह-रह कर टीस उठती रही। आप जैसे व्यक्ति समाज की धरोहर हैं, प्रतिमान हैं, मार्गदर्शक हैं। उदाहरण बन कर दिशा हीन समाज को, विवेकहीन व्यक्ति को वस्तुतः आपने दिशा दी है।’’ संत क्रोपाटकिन निस्पृह भाव से ये उद्गार सुन रहे थे। ‘‘मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि इतने वर्षों तक हम धन लोलुप स्वार्थवश गलत रास्ते पर चलते रहे, आपका ही रास्ता ठीक था। सही अर्थों में जीवन का सदुपयोग आपने ही किया। मेरे विचार से आप मार्क्सवाद के समर्थक हैं।’’ उनके स्वर में दृढ़ता और विश्वास था।
‘‘नहीं-नहीं मैं थोथे मार्क्सवाद का समर्थक नहीं हूं। मार्क्सवादी स्वयं को साम्यवादी समाज व्यवस्था का सबसे प्रबल पक्षधर और बड़ा संगठन मानते हैं, किन्तु यदि इस समाज-व्यवस्था का डिसेक्शन करके देखें तो पायेंगे कि इन्हें अपनी प्रणाली की सबसे अधिक चिंता है। मनुष्य तो उसका एक गौण अंग भर है और महत्वहीन भी। सिद्धांत संबंधी विचार-भिन्न होने पर वे उसके शरीर और आत्मा को पृथक-पृथक कर देने में भी तनिक संकोच नहीं करते, जबकि हम एनार्किस्टों के लिए मनुष्य सबसे प्रधान है। हम सबसे पहले मनुष्य की चिंता करते हैं।’’
ब्रेल्सफोर्ड चौंके! ‘‘अराजकतावादी-एनार्किस्ट?’’-उन्होंने मन ही मन दुहराया।
‘‘प्रिंस! यदि बुरा न मानो, तो एक बात कहूं।’’
‘‘हां-हां, निःसंकोच!’’
‘‘तो सुनो, आपके विचारों में अंतर्विरोध है। एक तरफ आप आध्यात्मिक साम्यवाद वास्तविक एकता-समता की बात करते हैं और दूसरी ओर स्वयं को अराजकतावादी कहते हैं। तनिक विचार तो कीजिए। क्या यह विरोधाभास नहीं है।’’
क्रोपाटकिन मुस्कराये। उन्होंने कहा—‘‘वैसे आपका कहना अपने स्थान पर सही है, पर थोड़ी गहराई में उतरेंगे तो भाव स्पष्ट हो जायेगा। हम अराजकतावादी शब्द का प्रयोग जिन अर्थों में करते हैं, उसका भाव अराजकता के प्रति संघर्ष है, मुहिम खड़ी करनी है, न कि समाज में अराजकता फैलाना और उथल-पुथल करना है। हम अन्याय, शोषण, उत्पीड़न के प्रबल विरोधी हैं, न कि इनके पृष्ठ पोषण। हमारे साध्य और साधन दोनों पवित्र हैं। हम गलत तरीके से अच्छे लक्ष्य की प्राप्ति का उतना ही विरोध करते हैं, जितना अच्छे तरीके से गलत-गलत लक्ष्य की प्राप्ति का। हमारी समाज व्यवस्था में मार्ग और लक्ष्य दोनों पवित्र हैं। हम व्यक्ति को सुखी देखना चाहते हैं, पर दूसरे का सुख छीनकर नहीं, उसका शोषण-उत्पीड़न जहां होगा, वहां हम उसका प्रतिरोध करेंगे, संघर्ष करेंगे, क्रांति करेंगे। हमारा अराजकतावाद इन्हीं अर्थों में है। इसी कारण हम स्वयं को अराजकतावादी कहते हैं।’’
मित्र का समाधान हो चुका था। उसके चेहरे पर संतोष की झलक थी और क्रोपाटकिन के प्रति श्रद्धा के भाव। धुंधलका घिर आया था। सोफी ने आगंतुकों को भोजन कराया और फिर सभी विदा हुए। सब गदगद भाव से मन ही मन क्रोपाटकिन की सराहना कर रहे थे, जिसने निस्पृह अपरिग्रही की तरह अपना सारा जीवन समाज को समर्पित कर दिया।
विकट तंगी की स्थिति में भी मेहमानवाजी का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करने वाले आतिथेय थे—रूस के महान् क्रांतिकारी विचारक और सुधारवादी-उदारवादी महामानव प्रिंस पीटर क्रोपाटकिन।
सन् 1890 के एक दिन उनकी इंग्लैंड स्थित कुटिया में उनके तीन मित्र बरनार्ड शा, नैविनसन और ब्रेल्सफोर्ड पधारे। वे कहने लगे-‘‘मित्र! इस तंगी की स्थिति में आप अतिथि सत्कार का झंझट क्यों मोल लेते हो?’’
प्रिंस एकबारगी चौंके।
‘‘क्या कहा! अतिथि सत्कार?’’
‘‘नहीं मित्र! इसे सत्कार जितना छोटा दर्जा मत दो। यह मेरी आत्म-तुष्टि है, आत्म–संतोष है, आत्मा की पुकार है। इसमें न तो दिखावा है, न कोई औपचारिकता। इससे मुझे इतना आनंद मिलता है कि मैं बता नहीं सकता। यह अभिव्यंजना से बाहर की बात है।’’
बरनार्ड शा बीच में ही बोल पड़े—‘‘हां, भारतीय ऋषियों के बारे में सुना भर था कि उनके द्वार पर कोई भूखा आ जाता तो पहले वे उसे भोजन कराते, फिर स्वयं करते। आज उसी भारतीय संस्कृति का मूर्तिमान रूप आप में देख रहा हूं। संभवतः ऐसी ही कुछ विशेषताओं के कारण उसे देव संस्कृति की संज्ञा दी गयी है।’’
‘‘निस्संदेह बंधु! देव संस्कृति वही हो सकती है, जिसमें देव तुल्य लोग बसते हों और इसमें दो मत नहीं कि प्राचीन भारतीय ऋषि मनुष्य शरीर में देवता थे।’’
‘‘अच्छा एक बात बताओ प्रिंस’’-नैविनसन ने उन्हें टोकते हुए कहा-‘‘हमारी बाइबिल कहती है कि भगवान् पांचवें आसमान पर निवास करते हैं। भारतीयों के देवता भी इन्हीं का एक रूप हैं। फिर भी वे मनुष्यों को देवता किस आधार पर मानते हैं? यह हमारी समझ में आया नहीं?’’
क्रोपाटकिन मुस्कराये, बोले—‘‘यह तो बड़ी छोटी-सी बात है। इसे बच्चा भी जानता है कि भगवान् अथवा देवता निराकार सत्ता है। वे सद्गुणों, सत्प्रवृत्तियों, उच्च आदर्शों के समुच्चय हैं। फिर जिस व्यक्ति में इनकी जितनी मात्रा संचित होती जाती है, वे देव कोटि की दिशा में प्रवृत्त होने लगते हैं। इसी परंपरा में भारतीय संस्कृति में महापुरुषों को देवता अथवा भगवान् के नाम से अभिहित किया जाता है। उसे भगवान् के समकक्ष मान लिया जाता है।’’
‘‘पर मुझे तो आज के धनपतियों पर तरस आता है’’—ब्रेल्सफोर्ड बिफर पड़े—‘‘एक तरफ तो हम प्राचीन भारतीय देव परम्परा का उदात्त उदाहरण देखते हैं और दूसरी ओर आज की दैन्य परम्परा का प्रतिमान सामने पाते हैं। कैसी विडंबना है! कैसा विरोधाभास! प्राचीन और नवीन इन दो संस्कृतियों में।’’
बरनार्ड शा अचकचाये—‘‘दैत्य परम्परा?’’
‘‘हां-हां, दैत्य परम्परा! इसे क्रूर दैत्य परम्परा नहीं तो और क्या कहें? जिसमें यदि आतिथेय का वश चले तो वे अतिथि को भी लूटकर उसका कीमा बनाने से भी बाज न आयें—‘‘ब्रेल्सफोर्ड ने प्रतिवाद किया।
‘‘ठीक कहते हो दोस्त! आज धन ही भगवान् है। हर जगह उसी की पूजा होती है। निर्धनों को तो लोग हिकारत की दृष्टि से देखते हैं। हाय री दुनिया! तू कहां से कहां पहुंच गयी। आज व्यक्ति ही व्यक्ति की आंखों में चुभने लगा। दोस्त अवसरवादी बन गए। धन के लोभ में सहोदरों की हत्या होने लगी। बहु-बेटियां आग की भेंट चढ़ने लगीं। यह क्रूरतम उदाहरण संभवतः इतिहास में सबसे वीभत्स है, जिसमें इन्सान धन के पीछे हैवान बना हो। इन्सानियत तो अब जैसे मानवी विशेषता रही ही नहीं। दृष्टिगत होती भी है तो यत्र-तत्र, यदा-कदा दुर्लभ दैवी गुण के रूप में ही।’’ तीनों मित्र क्रोपाटकिन को मंत्रमुग्ध हो सुन रहे थे।
अनायास ही बरनार्ड शा की अभिव्यक्ति निकट पड़ी। ‘‘मित्र! यदि आप चाहते तो धनवान ही नहीं, धनकुबेर भी बन सकते थे, क्योंकि कई विधाओं में आपकी गति है। आप बहु भाषाविद् हैं। बीस भाषाओं पर आपका अधिकार है, संगीतज्ञ हैं। गणितज्ञ हैं। वैज्ञानिक, कृषि वैज्ञानिक, साहित्यकार, दार्शनिक क्या क्या नहीं हैं। यदि आप चाहते तो इस बहुमुखी प्रतिभा के माध्यम से अब तक इतना धन इकट्ठा कर लेते कि आपकी सातों पीढ़ियां पीढ़िया उससे अपना निर्वाह करती रहतीं, पर आपने उनका उपयोग मानव कल्याण के लिए ही करना उचित समझा। 70 वर्ष की आयु में भी फकीरी की जिंदगी, औसत नागरिक स्तर से भी नीचे का निर्वाह आपने अंगीकार किया, क्योंकि मानव की दुर्वस्था के प्रति आपके मन में रह-रह कर टीस उठती रही। आप जैसे व्यक्ति समाज की धरोहर हैं, प्रतिमान हैं, मार्गदर्शक हैं। उदाहरण बन कर दिशा हीन समाज को, विवेकहीन व्यक्ति को वस्तुतः आपने दिशा दी है।’’ संत क्रोपाटकिन निस्पृह भाव से ये उद्गार सुन रहे थे। ‘‘मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि इतने वर्षों तक हम धन लोलुप स्वार्थवश गलत रास्ते पर चलते रहे, आपका ही रास्ता ठीक था। सही अर्थों में जीवन का सदुपयोग आपने ही किया। मेरे विचार से आप मार्क्सवाद के समर्थक हैं।’’ उनके स्वर में दृढ़ता और विश्वास था।
‘‘नहीं-नहीं मैं थोथे मार्क्सवाद का समर्थक नहीं हूं। मार्क्सवादी स्वयं को साम्यवादी समाज व्यवस्था का सबसे प्रबल पक्षधर और बड़ा संगठन मानते हैं, किन्तु यदि इस समाज-व्यवस्था का डिसेक्शन करके देखें तो पायेंगे कि इन्हें अपनी प्रणाली की सबसे अधिक चिंता है। मनुष्य तो उसका एक गौण अंग भर है और महत्वहीन भी। सिद्धांत संबंधी विचार-भिन्न होने पर वे उसके शरीर और आत्मा को पृथक-पृथक कर देने में भी तनिक संकोच नहीं करते, जबकि हम एनार्किस्टों के लिए मनुष्य सबसे प्रधान है। हम सबसे पहले मनुष्य की चिंता करते हैं।’’
ब्रेल्सफोर्ड चौंके! ‘‘अराजकतावादी-एनार्किस्ट?’’-उन्होंने मन ही मन दुहराया।
‘‘प्रिंस! यदि बुरा न मानो, तो एक बात कहूं।’’
‘‘हां-हां, निःसंकोच!’’
‘‘तो सुनो, आपके विचारों में अंतर्विरोध है। एक तरफ आप आध्यात्मिक साम्यवाद वास्तविक एकता-समता की बात करते हैं और दूसरी ओर स्वयं को अराजकतावादी कहते हैं। तनिक विचार तो कीजिए। क्या यह विरोधाभास नहीं है।’’
क्रोपाटकिन मुस्कराये। उन्होंने कहा—‘‘वैसे आपका कहना अपने स्थान पर सही है, पर थोड़ी गहराई में उतरेंगे तो भाव स्पष्ट हो जायेगा। हम अराजकतावादी शब्द का प्रयोग जिन अर्थों में करते हैं, उसका भाव अराजकता के प्रति संघर्ष है, मुहिम खड़ी करनी है, न कि समाज में अराजकता फैलाना और उथल-पुथल करना है। हम अन्याय, शोषण, उत्पीड़न के प्रबल विरोधी हैं, न कि इनके पृष्ठ पोषण। हमारे साध्य और साधन दोनों पवित्र हैं। हम गलत तरीके से अच्छे लक्ष्य की प्राप्ति का उतना ही विरोध करते हैं, जितना अच्छे तरीके से गलत-गलत लक्ष्य की प्राप्ति का। हमारी समाज व्यवस्था में मार्ग और लक्ष्य दोनों पवित्र हैं। हम व्यक्ति को सुखी देखना चाहते हैं, पर दूसरे का सुख छीनकर नहीं, उसका शोषण-उत्पीड़न जहां होगा, वहां हम उसका प्रतिरोध करेंगे, संघर्ष करेंगे, क्रांति करेंगे। हमारा अराजकतावाद इन्हीं अर्थों में है। इसी कारण हम स्वयं को अराजकतावादी कहते हैं।’’
मित्र का समाधान हो चुका था। उसके चेहरे पर संतोष की झलक थी और क्रोपाटकिन के प्रति श्रद्धा के भाव। धुंधलका घिर आया था। सोफी ने आगंतुकों को भोजन कराया और फिर सभी विदा हुए। सब गदगद भाव से मन ही मन क्रोपाटकिन की सराहना कर रहे थे, जिसने निस्पृह अपरिग्रही की तरह अपना सारा जीवन समाज को समर्पित कर दिया।