Books - देखन मे छोटे लगे घाव करे गंभीर भाग-2
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Language: HINDI
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निराश्रितों की आश्रयदाता सिस्टर डुलसे
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ब्राजील (दक्षिण अमरीका) के बहिया नगर की एक पुरानी सड़क पर सिस्टर डुलसे चली जा रही थी कि उसे एक करुणाजनक पुकार सुनाई दी—‘‘सिस्टर! मुझे मरने से बचाओ?’’
सड़क के किनारे फुटपाथ पर एक फटी चटाई पर एक 12 वर्ष का लड़का मलेरिया ज्वर से कांप रहा था। सिस्टर ने झुक कर उसके सर पर हाथ रखा तो देखा कि वह तप रहा है। यद्यपि सिस्टर डुलसे को अपने ‘कन्वेंट’ (साधुनियों का मठ) में अध्यापिका की ट्रेनिंग दी गई थी और वह ‘नर्स’ के काम से अनजान थी, फिर भी इस निराश्रित पीड़ित बालक को देखकर उसकी करुणा का बांध टूट गया। पर प्रश्न यह था कि वह इस बालक को कहां रखे क्योंकि उसका कोई निजी घन न था। उसने सामने निगाह दौड़ाई और देखा कि बहुत-सी गरीबों के रहने की गंदी कोठरियां खाली पड़ी हैं और मालिकों ने उनको बंद कर रखा है। उसने एक राहगीर से कहा इनमें से एक कोठरी को मेरे लिए खोल दो। राहगीर खिड़की को तोड़कर भीतर घुस गया और दरवाजा खोल कर भाग गया। सिस्टर उस लड़के को कोठरी के भीतर उठा ले गई और शीघ्र ही ‘कन्वेंट’ में जाकर उसके लिए कुछ दवा, पथ्य और एक झाड़ू लेकर फिर वहां पहुंची। उसने अपने हाथ से उस गंदी कोठरी को साफ किया और लड़के को दवा देकर आराम से लिटा दिया।
सिस्टर डुलसे के करुणापूर्ण कार्य की चर्चा फैली तो अन्य बीमार और असमर्थ व्यक्ति भी उसके पास आने लगे। जब वह कोठरी भर गई तो उसने दूसरी कोठरी भी खुलवाई और उसमें बीमारों को रखा। इस प्रकार जब पांच मकान बीमारों से भर गए तो उनके मालिकों ने सिस्टर डुलसे के विरुद्ध अदालत में दावा किया और उसे मकानों से हट जाने की आज्ञा दी गई। तब उसने गिरिजाघर के बाहर खुले हुए बरामदों में टूटे-फूटे बक्स और कनस्तर आदि खड़े करके उनमें बीमारों को रखा। पर गिरिजाघर में आने वालों को भी इतने बीमारों और लूले-लंगड़े लोगों का दृश्य बुरा लगने लगा और वहां से भी हट जाने को कहा गया। उसने देखा कि एक सरकारी ‘मार्केट’ (मंडी) खाली पड़ा है तो सब बीमारों को उसी में ले जाकर ठहरा दिया। पर दस-पांच दिन में ही म्युनिसपैलिटी के सफाई कर्मचारियों ने उसका वहां रहना भी असंभव कर दिया। अंत में उसने अपने ‘कन्वेंट’ के पास ही एक गली में बीमारों के रहने की व्यवस्था की और जब वह स्थान भर गया तो वहीं पुराने ‘मुर्गी-पालन-गृह’ में उनको स्थान दिया। वह प्रार्थना करके डाक्टरों से इन बीमारों की बिना फीस के चिकित्सा कराती और जब आवश्यकता पड़ती तो उनसे आपरेशन करने का भी आग्रह करती।
इस प्रकार इस दयालु देवी के आश्रित दीन-दुःखी लोगों की संख्या निरंतर बढ़ती गई, क्योंकि नगर की सात लाख आबादी में से एक लाख व्यक्ति सड़कों और गंदे स्थानों में पड़े जीवन व्यतीत करते थे। सिस्टर डुलसे प्रतिदिन लगभग एक सौ व्यक्तियों को भोजन और सोने का स्थान देती और अपने हाथों से उनकी मरहम पट्टी और सेवा-सुश्रूषा करती।
पर जब इन अनाथ बालकों और निराश्रित लोगों की संख्या निरंतर बढ़ती ही गई और किसी ने कूड़े खाने में फेंका हुआ एक शिशु भी उसको लाकर दे दिया, एक मरणासन्न घायल व्यक्ति भी उसकी शरण में आ पड़ा तो बहिया नगर से प्राप्त हो सकने वाले साधन अपर्याप्त सिद्ध होने लगे। तब वह उत्तरी अमरीका वालों से सहायता प्राप्त करने का विचार करने लगी। इसी बीच एक दिन ‘जनरल मोटर्स’ के प्रतिनिधि ने उसको सूचित किया—‘‘मुझे आज सड़क पर पड़ी एक बीमार स्त्री मिली है। मैं उसके लिए व्यवस्था करने की दिन भर कोशिश करता रहा पर कहीं स्थान न मिल सका। क्या आप उसे रख सकेंगी।’’ बीस मिनट के भीतर ही डुलसे भागती हुई वहां पहुंचीं और स्त्री को, जो लगभग बेहोश थी, एक ट्रक में लिटाकर अपने यहां ले आई। ‘जनरल मोटर्स’ के प्रतिनिधि को जिसने निराश्रितों के इस ‘अस्पताल’ का दृश्य देखा था, बड़ी लज्जा अनुभव हुई कि हम साधन-सम्पन्न जो काम न कर सके, वह इस साधन रहित सिस्टर ने कर दिखाया है। उसी समय उसने इस कार्य में सहयोग देने का निश्चय कर लिया और अपने अमरीकन मित्रों की एक ‘सहायता कमेटी’ बना दी। इन लोगों ने अमरीका की परोपकारिणी संस्थाओं से लिखा-पढ़ी शुरू की और कुछ ही दिनों में डेट्रियट के ‘वर्ल्ड मेडिसिन रिलीफ इन्स्टीट्यूट’ की तरफ से दवाइयां आने लगी। ‘फूड एवड पीस आर्गेनिजेशन’ की तरफ से अनेक खाद्य पदार्थ भेजे गए। ‘कैथोलिक रिलीफ सर्विस’ की तरफ से अनेक खाद्य पदार्थ भेजे गए। ‘कैथोलिक रिलीफ सर्विस’ की तरफ से बहुत-सा सूखा दूध और कपड़े प्राप्त हुए। धीरे-धीरे डुलसे के सहायकों की संख्या बढ़ने लगी और उसने गरीब रोगियों के लिए एक नई इमारत बनवा कर उसमें 150 बीमारों के रहने की व्यवस्था कर दी। वह सड़कों पर फिरने वाले अनाथ और आवारा लड़कों को खाना और कपड़ा देकर सभ्य और शिक्षित बनाने का भी प्रयत्न करती, जिससे वे समाज के लिए अभिशाप न होकर उपयोगी सदस्य बन सकें।
सड़क के किनारे फुटपाथ पर एक फटी चटाई पर एक 12 वर्ष का लड़का मलेरिया ज्वर से कांप रहा था। सिस्टर ने झुक कर उसके सर पर हाथ रखा तो देखा कि वह तप रहा है। यद्यपि सिस्टर डुलसे को अपने ‘कन्वेंट’ (साधुनियों का मठ) में अध्यापिका की ट्रेनिंग दी गई थी और वह ‘नर्स’ के काम से अनजान थी, फिर भी इस निराश्रित पीड़ित बालक को देखकर उसकी करुणा का बांध टूट गया। पर प्रश्न यह था कि वह इस बालक को कहां रखे क्योंकि उसका कोई निजी घन न था। उसने सामने निगाह दौड़ाई और देखा कि बहुत-सी गरीबों के रहने की गंदी कोठरियां खाली पड़ी हैं और मालिकों ने उनको बंद कर रखा है। उसने एक राहगीर से कहा इनमें से एक कोठरी को मेरे लिए खोल दो। राहगीर खिड़की को तोड़कर भीतर घुस गया और दरवाजा खोल कर भाग गया। सिस्टर उस लड़के को कोठरी के भीतर उठा ले गई और शीघ्र ही ‘कन्वेंट’ में जाकर उसके लिए कुछ दवा, पथ्य और एक झाड़ू लेकर फिर वहां पहुंची। उसने अपने हाथ से उस गंदी कोठरी को साफ किया और लड़के को दवा देकर आराम से लिटा दिया।
सिस्टर डुलसे के करुणापूर्ण कार्य की चर्चा फैली तो अन्य बीमार और असमर्थ व्यक्ति भी उसके पास आने लगे। जब वह कोठरी भर गई तो उसने दूसरी कोठरी भी खुलवाई और उसमें बीमारों को रखा। इस प्रकार जब पांच मकान बीमारों से भर गए तो उनके मालिकों ने सिस्टर डुलसे के विरुद्ध अदालत में दावा किया और उसे मकानों से हट जाने की आज्ञा दी गई। तब उसने गिरिजाघर के बाहर खुले हुए बरामदों में टूटे-फूटे बक्स और कनस्तर आदि खड़े करके उनमें बीमारों को रखा। पर गिरिजाघर में आने वालों को भी इतने बीमारों और लूले-लंगड़े लोगों का दृश्य बुरा लगने लगा और वहां से भी हट जाने को कहा गया। उसने देखा कि एक सरकारी ‘मार्केट’ (मंडी) खाली पड़ा है तो सब बीमारों को उसी में ले जाकर ठहरा दिया। पर दस-पांच दिन में ही म्युनिसपैलिटी के सफाई कर्मचारियों ने उसका वहां रहना भी असंभव कर दिया। अंत में उसने अपने ‘कन्वेंट’ के पास ही एक गली में बीमारों के रहने की व्यवस्था की और जब वह स्थान भर गया तो वहीं पुराने ‘मुर्गी-पालन-गृह’ में उनको स्थान दिया। वह प्रार्थना करके डाक्टरों से इन बीमारों की बिना फीस के चिकित्सा कराती और जब आवश्यकता पड़ती तो उनसे आपरेशन करने का भी आग्रह करती।
इस प्रकार इस दयालु देवी के आश्रित दीन-दुःखी लोगों की संख्या निरंतर बढ़ती गई, क्योंकि नगर की सात लाख आबादी में से एक लाख व्यक्ति सड़कों और गंदे स्थानों में पड़े जीवन व्यतीत करते थे। सिस्टर डुलसे प्रतिदिन लगभग एक सौ व्यक्तियों को भोजन और सोने का स्थान देती और अपने हाथों से उनकी मरहम पट्टी और सेवा-सुश्रूषा करती।
पर जब इन अनाथ बालकों और निराश्रित लोगों की संख्या निरंतर बढ़ती ही गई और किसी ने कूड़े खाने में फेंका हुआ एक शिशु भी उसको लाकर दे दिया, एक मरणासन्न घायल व्यक्ति भी उसकी शरण में आ पड़ा तो बहिया नगर से प्राप्त हो सकने वाले साधन अपर्याप्त सिद्ध होने लगे। तब वह उत्तरी अमरीका वालों से सहायता प्राप्त करने का विचार करने लगी। इसी बीच एक दिन ‘जनरल मोटर्स’ के प्रतिनिधि ने उसको सूचित किया—‘‘मुझे आज सड़क पर पड़ी एक बीमार स्त्री मिली है। मैं उसके लिए व्यवस्था करने की दिन भर कोशिश करता रहा पर कहीं स्थान न मिल सका। क्या आप उसे रख सकेंगी।’’ बीस मिनट के भीतर ही डुलसे भागती हुई वहां पहुंचीं और स्त्री को, जो लगभग बेहोश थी, एक ट्रक में लिटाकर अपने यहां ले आई। ‘जनरल मोटर्स’ के प्रतिनिधि को जिसने निराश्रितों के इस ‘अस्पताल’ का दृश्य देखा था, बड़ी लज्जा अनुभव हुई कि हम साधन-सम्पन्न जो काम न कर सके, वह इस साधन रहित सिस्टर ने कर दिखाया है। उसी समय उसने इस कार्य में सहयोग देने का निश्चय कर लिया और अपने अमरीकन मित्रों की एक ‘सहायता कमेटी’ बना दी। इन लोगों ने अमरीका की परोपकारिणी संस्थाओं से लिखा-पढ़ी शुरू की और कुछ ही दिनों में डेट्रियट के ‘वर्ल्ड मेडिसिन रिलीफ इन्स्टीट्यूट’ की तरफ से दवाइयां आने लगी। ‘फूड एवड पीस आर्गेनिजेशन’ की तरफ से अनेक खाद्य पदार्थ भेजे गए। ‘कैथोलिक रिलीफ सर्विस’ की तरफ से अनेक खाद्य पदार्थ भेजे गए। ‘कैथोलिक रिलीफ सर्विस’ की तरफ से बहुत-सा सूखा दूध और कपड़े प्राप्त हुए। धीरे-धीरे डुलसे के सहायकों की संख्या बढ़ने लगी और उसने गरीब रोगियों के लिए एक नई इमारत बनवा कर उसमें 150 बीमारों के रहने की व्यवस्था कर दी। वह सड़कों पर फिरने वाले अनाथ और आवारा लड़कों को खाना और कपड़ा देकर सभ्य और शिक्षित बनाने का भी प्रयत्न करती, जिससे वे समाज के लिए अभिशाप न होकर उपयोगी सदस्य बन सकें।