Books - गीत माला भाग १५
Media: TEXT
Language: EN
Language: EN
सभी जन्म से शुद्र किन्तु
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
सभी जन्म से शुद्र किन्तु
सभी जन्म से शुद्र किन्तु, द्विज बन जाते संस्कार से।
संस्कारित होते हैं मानव, पावन पुनीत विचार से॥
भारतीय के संस्कृति को, संस्कारों का पूरा ध्यान है।
इसीलिए सोलह, संस्कारों का कर दिया विधान है॥
गर्भाधान क्षणों से लेकर मरणोत्तर जीवन पर अंत।
संस्कारों से गूंथ गये है, जीवन को ऋषि मुनि सतसंग॥
भवन व्यक्ति का ऊँचा उठता, है सुदृढ़ आधार से॥
माँ ‘मदालसा’ ने पुत्रों पर, संस्कार जो डाले थे।
उनसे दैवी गुण संस्कारों, द्वारा गये उछाले थे॥
मनचाहा निर्माण कर लिया, यूँ अपनी सन्तानों का।
धर्मतंत्र वे कल्पवृक्ष है, फल देते मनुहार से॥
वन में रहकर भी ‘लव- कुश’ को, माँ से वे संस्कार मिले।
राजतंत्र से दूर रहे पर, विरोचित उपहार मिले॥
कुम्भकार बनकर सीता ने, उनका था निर्माण किया।
और बाल्मीकि आश्रम ने, उनका श्रेष्ठ संस्कार किया॥
इसी साध ने उन्हें सँवारा, रघुकुल के श्रृंगार से॥
अब भी नहीं सम्भाल सके तो, कल हम ही पछतायेंगे।
संस्कृति, भाषा और धर्म, इतिहास सभी मिट जायेंगे॥
त्यागवाद के बिना मानवी, संस्कृति फिर विधवा होगी।
बिन आध्यात्मिक साम्यवाद के, वह न अरे! सधवा होगी॥
क्या न हमें पीड़ा होती है, उसकी करुण पुकार से॥
सभी जन्म से शुद्र किन्तु, द्विज बन जाते संस्कार से।
संस्कारित होते हैं मानव, पावन पुनीत विचार से॥
भारतीय के संस्कृति को, संस्कारों का पूरा ध्यान है।
इसीलिए सोलह, संस्कारों का कर दिया विधान है॥
गर्भाधान क्षणों से लेकर मरणोत्तर जीवन पर अंत।
संस्कारों से गूंथ गये है, जीवन को ऋषि मुनि सतसंग॥
भवन व्यक्ति का ऊँचा उठता, है सुदृढ़ आधार से॥
माँ ‘मदालसा’ ने पुत्रों पर, संस्कार जो डाले थे।
उनसे दैवी गुण संस्कारों, द्वारा गये उछाले थे॥
मनचाहा निर्माण कर लिया, यूँ अपनी सन्तानों का।
धर्मतंत्र वे कल्पवृक्ष है, फल देते मनुहार से॥
वन में रहकर भी ‘लव- कुश’ को, माँ से वे संस्कार मिले।
राजतंत्र से दूर रहे पर, विरोचित उपहार मिले॥
कुम्भकार बनकर सीता ने, उनका था निर्माण किया।
और बाल्मीकि आश्रम ने, उनका श्रेष्ठ संस्कार किया॥
इसी साध ने उन्हें सँवारा, रघुकुल के श्रृंगार से॥
अब भी नहीं सम्भाल सके तो, कल हम ही पछतायेंगे।
संस्कृति, भाषा और धर्म, इतिहास सभी मिट जायेंगे॥
त्यागवाद के बिना मानवी, संस्कृति फिर विधवा होगी।
बिन आध्यात्मिक साम्यवाद के, वह न अरे! सधवा होगी॥
क्या न हमें पीड़ा होती है, उसकी करुण पुकार से॥