Books - परिवार निर्माण
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Language: HINDI
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पारिवारिक जीवन की समस्याएँ व समाधान
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पारिवारिक जीवन की गाड़ी सदस्यों के त्याग, प्रेम, स्नेह, उदारता,
सेवा, सहिष्णुता और परस्पर आदर भाव पर चलती है। परिवार को सहअस्तित्व, सामूहिक जीवन, सेवा और सहिष्णुता की पाठशाला माना गया है, किन्तु जब परस्पर के सम्बन्ध स्वार्थपूर्ण,
संकीर्णता, असहिष्णुता से भर जाते हैं तो परिवार नरक की साक्षात्
अभिव्यक्ति के रूप में परिणत हो जाते हैं। पारिवारिक जीवन की
दुर्दशा का मुख्य कारण है व्यावहारिक जीवन की शिक्षा का अभाव।
लड़के और लड़कियों को अनुभवी वृद्ध गुरुजनों के सम्पर्क में रहकर
व्यावहारिक जीवन में जीने की जो शिक्षा मिलनी चाहिए उसका आजकल
सर्वथा अभाव है। विवाह से पहले कन्या को यह शिक्षा नहीं मिलती
कि उसे पति- गृह में जाकर कैसे जीवनयापन करना है? उसका कर्त्तव्य-
उत्तरदायित्व क्या है? उसे किन- किन सद्गुणों के द्वारा परिवार को
चलाना है? यही बात लड़कों के सम्बन्ध में भी है। पारिवारिक जीवन
की शिक्षा का अभाव ही गृहस्थ जीवन की दुर्दशा का मूल कारण है। वा. ४८/४.१५
परिवार एक आदर्श प्रजातन्त्र है
परिवार में जब अपने- अपने स्वार्थ का भ्रष्टाचार बढ़ता है, लोग कर्तव्य की आध्यात्मिक भावना को भुला देते हैं तभी गृहस्थ की दुर्दशा होती है। कितने कृतघ्र होंगे वे लोग जो अपने स्वार्थ के लिये परिवार के प्रति अपने उत्तरदायित्व भुलाकर अपना चूल्हा- चौका अलग रखने में अपनी बुद्धिमानी समझते हैं। किसी ने ऐसे कुटिल व्यक्तियों को कभी फलते- फूलते भी नहीं देखा होगा जो फूट के बीज बोकर सारी पारिवारिक व्यवस्था को तहस- नहस कर डालते हैं।
पिता अपने पुत्र के लिये सारे जीवन- भर क्या नहीं करता? श्रम करता है, जब वह खुद सो रहा होता है, तब आधी रात उठकर खेतों में जाता है, हल चलाता है, मजदूरी करता है, नौकरी करता है। क्या सब कुछ अपने लिये करता है? नहीं। एक व्यक्ति का पेट पालना हो तो चार- छह आने की मजदूरी काफी है दिन- भर श्रम करने का क्या लाभ? पर बेचारा बाप सोचता है बच्चे के लिए दूध की व्यवस्था करनी है, दवा लानी है, कपड़े सिलाने है, फीस देनी है, पुस्तकें लानी हैं और उसके भावी जीवन की सुख- सुविधा के लिए कुछ छोड़ भी जाना है। जब तक शक्तियाँ काम देती हैं कोई कसर नहीं उठा रखता। अपने पेट को गौण मानकर बेटे के लिये आजीवन अनवरत श्रम करने का साहस कोई बाप ही कर सकता है। वा. ४८/४.४
पाल- पोसकर बड़ा कर दिया। शिक्षा- दीक्षा पूरी कराई, विवाह- शादी करा दी, धन्धा लग गया। पिता से पुत्र की कमाई बढ़ गई। उसके अपने बेटे हो गये, स्त्री की आकांक्षायें बढ़ीं। बेटे ने बाप के सारे उपकारों पर पानी फेर दिया, कोई न कोई बहाना बनाकर बाप से अलग हो गया। हायरी तृष्णा! हाय रे अभागे इंसान! तू कितना नीच है, कितना पतित है! जिस बाप ने तेरे लिये इतना सब कुछ किया और तू उसकी वृद्धावस्था का पाथेय भी न बन सका? इस कृतघ्नता से बढ़कर इस संसार में और कौन- सा पाप हो सकता है? अपने स्वार्थ, भोग, लिप्सा, स्वेच्छाचारिता के लिए बाप को ठुकरा देने वालों को पामर न कहा जाय तो और कौन सा सम्बोधन उचित हो सकता है?
पिता परिवार का अधिष्ठाता, आदेशकर्ता और संरक्षक होता है। उसकी जिम्मेदारियाँ बड़ी होती हैं। सबकी देख- रेख, सबके प्रति न्याय, सबकी सुरक्षा रखने वाला पिता होता है। क्या उसके प्रति उपेक्षा का भाव मानवीय हो सकता है? कोई राक्षस वृत्ति का मनुष्य ही ऐसा कर सकता है जो अपने माता- पिता को उनकी वृद्धावस्था में असहाय छोड़ देता है। परिवार में पिता को सम्मान मिलता है तो उसके दीर्घकालीन अनुभव, योग्य संचालन, पथ प्रदर्शन, भावी योजनाओं को नियंत्रित करने का लाभ भी परिवार को मिलता है। अपने प्रेम, वात्सल्य, करुणा, उदारता, संगठनात्मक बुद्धि से वह सब पर छाया किये रहता है, वह परिवार का पालन करता है। पिता की उचित सेवा- सुश्रुषा और देख- रेख रखना परमात्मा की उपासना से कम फलदायक नहीं होता। पिता का आशीर्वाद पाकर पुत्र की आकांक्षायें तृप्त होती हैं, जीवन सुमधुर, नियंत्रित और बाधारहित बनता है।
इस युग में पिता- पुत्र के सम्बन्धों में जो कडुवाहट आ गई है वह मनुष्य के संकुचित दृष्टिकोण और स्वार्थपूर्ण प्रवृत्ति के परिणाम स्वरूप ही है। पिता, पुत्र के लिये अपना सर्वस्व अर्पित कर दे और पुत्र व्यक्तिगत स्वतन्त्रता हेतु अनुशासन की अवज्ञा करे तो उस बेटे को निन्दनीय ही समझा जाना चाहिये। मनुष्य का सबसे शुभचिन्तक मित्र, हितैषी, पथ- प्रदर्शक, उदार जीवन रक्षक पिता ही होता है। वह समझता है कि बेटे को किस रास्ते लगाया जाया कि वह सुखी हो, समुन्नत हो, क्योंकि उसकी त्रुटियों का ज्ञान पिता को ही होता है। जो इन विशेषताओं का लाभ नहीं उठाते उन्हें अन्त में दुःख और दैन्यताओं का ही मुँह देखना पड़ता है। परिवार में माता का स्थान पिता के समतुल्य ही होता है। एक से दूसरे को बड़ा- छोटा नहीं कहा जा सकता।
पिता कर्म है तो माता भावना। कर्म और भावना के सम्मिश्रण से जीवन में पूर्णता आती है। गृहस्थी की पूर्णता तब है जब उसमें पिता और माता दोनों को समान रूप से सम्मान मिले। माता का महत्व किसी भी अवस्था में कम नहीं हो सकता।
व्यक्ति का भावनात्मक प्रशिक्षण माता करती है। उसी के रक्त, माँस और ओजस से बालक का निर्माण होता है। कितने कष्ट सहती है वह बेटे के लिए। स्वयं गीले विस्तर में सोकर बच्चे को सूखे में सुलाते रहने की कष्टसाध्य क्रिया पूरी करने की हिम्मत भला है किसी में? माता का हृदय दया और पवित्रता से ओत- प्रोत होता है, उसे जलाओ तो भी दया की ही सुगन्ध निकलती है, पीसो तो दया का ही रस निकलता है। ऐसी दया और ममत्व की मूर्ति माता को जिसने पूज्यभाव से नहीं देखा, उसका सम्मान नहीं किया, आदर की भावनाएँ व्यक्त नहीं की वह मनुष्य नर- पिशाच ही कहलाने योग्य हो सकता है। वा. ४८/४.५
कई व्यक्ति अपने परिवार को सुसंस्कृत तो बनाना चाहते हैं, पर उसके लिए केवल अपशब्द कहना, क्रोधित रहना, निंदा करना, गाली- गलौज या मारपीट करना जैसे बेहूदे तरीके ही उनके पास होते हैं। इन उपायों से किसी का सुधर सकना तो दूर, उलटे अधिक बिगड़ने, चिड़चिड़े होने और विरोधी बनने का ही परिणाम सामने आ सकता है। इस प्रकार स्कूल के बच्चों को पढ़ाने के लिए अध्यापकों को, गृहस्वामियों और कुलपतियों को भी अपने परिवार का प्रशिक्षण करने की क्रमबद्ध शिक्षा प्राप्त करनी पड़ेगी। दुःख की बात है कि जहाँ मशीनें चलाने ओर नौकरी करने जैसे कामों की ट्रेनिंग के लिए अनेक स्थानों पर प्रशिक्षण चलते हैं वहाँ अपना जीवन भलमनसाहत के साथ जीने और अपने अंगभूत परिवार को सुसंस्कृत बनाने की क्षमता प्राप्त करने का कोई प्रशिक्षण संस्थान नहीं है। लगता है कि उस अभाव की पूर्ति के लिए भी हमें ही एक व्यापक प्रभावपूर्ण व्यवस्था बनानी पड़ेगी। जब तक ऐसी कोई व्यावहारिक शिक्षण व्यवस्था नहीं बन जाती, तब तक इस प्रकार के साहित्य द्वारा ही बहुत कुछ मार्गदर्शन मिल सकेगा। वा. ४८/४.७
माता- पिता की सेवा करके उनका आशीर्वाद लेने का, भाई- बहिनों को सेवा- सहायता करने का, बच्चों के साथ खेलने- खिलाने का, मिल- जुल कर खाने- बैठने का, एक दूसरे के प्रेम और विश्वास का जो लाभ इकट्ठे रहने में मिलता है, वह अकेले रहने वालों को कहाँ मिलेगा? मरघट के पीपल की तरफ वह बेखटक खड़ा तो रहता है, पर सूनेपन में उसे मानसिक दृष्टि से भारी अभाव ही बना रहता है। उलझनों और जिम्मेदारियों का बोझ भी अकेले रहने पर अकेले ही भुगतना पड़ता है, जो कई बार अलग जीवन की सुविधा की अपेक्षा बहुत अधिक चिंता और कष्ट का कारण बनता है। वा. ४८/४.८
पारिवारिक जीवन में उत्पन्न होने वाली मुख्य कठिनाइयाँ
(१) अधिकार मद से उत्पन्न असन्तुलन, पक्षपात एवं मनमानी।
(२) परिवार के सदस्यों में कार्य तथा अधिकार का उचित बँटवारा न होना। (३) विचार- भ्रम एवं अनावश्यक संकोच।
(४) अनुचित कमाई से उत्पन्न बुद्धि दोष।
(५) दुराव- छिपाव।
(६) उजड्डता एवं मनमानी।
(७) आत्मानुशासन एवं पारिवारिक अनुशासन का अभाव।
(८) आय- व्यय तथा अन्य महत्वपूर्ण बातों की परिवार में सभी वयस्कों को जानकारी न होना तथा सबके विचार- विमर्श से निर्णय न किया जाना।
इन सबके समाधान
(१) पारिवारिक भावना का होना यानी पारस्परिक आत्मीयता- सद्भाव।
(२) सभी के स्वाभिमान की रक्षा, परस्पर सम्मान एवं शिष्टाचार।
(३) बजट बनाकर ही खर्च किया जाये।
(४) आय- व्यय की पूरी जानकारी हर वयस्क सदस्य को हो।
(५) पारिवारिक गोष्ठियाँ हों, जिनमें खुली एवं सौजन्यतापूर्ण चर्चा हो तथा महत्वपूर्ण निर्णय लिये जायें।
(६) पारिवारिक मर्यादा का निर्वाह किया जाय, अनुशासन एवं आत्मानुशासन हो।
(७) शील एवं सदाचार कभी न छोड़ा न जाय। परिश्रम तथा ईमानदारी की कमाई ही की जाय।
(८) किसी का अहंकार न बढ़ने दिया जाये और असमानता का पोषण न होने दिया जाये। समस्याओं का समाधान कठिन नहीं। पारस्परिक प्रेम अक्षुण्य रहे तथा व्यापक दृष्टिकोण अपनाया जाय, तो संयुक्त परिवार सुख- शान्ति के उत्कृष्ट आधार बन सकते हैं और हर सदस्य को उनसे आनन्द की ही अनुभूति होगी। जहाँ यह संभव न हो, वहाँ भावनाविहीन प्राण रहित ढाँचे को ढोते रहना व्यर्थ ही है। वा. ४८/३.५५
पारिवारिक सदस्यों में जब तक समर्पण, त्याग, उत्सर्ग का भाव बना रहता है तब तक उसकी सुदृढ़ एकता को आँच नहीं आने पाती। परिवार में रहने वाला प्रत्येक सदस्य कर्त्तव्यों को प्रधान और अधिकारों को गौण मान, अपनी नहीं दूसरों की सुख- सुविधा को प्राथमिकता दे तो आपस में मन- मुटाव तथा विक्षोभ की स्थिति उत्पन्न नहीं होगी। इस त्याग- उदारता के उदात्त भाव को माता के हृदय में सहज ही देखा जा सकता है। माता के मन में छोटे बच्चों के प्रति कितना स्नेह वात्सल्य रहता है। बच्चों के लालन- पालन में स्वयं भूखे रहकर भी उसके पोषण की व्यवस्था जुटाती है। स्वयं गीले में सोकर उसे सूखे में सुलाती है। बच्चे को किसी प्रकार का कष्ट न हो इसके लिए वह हँसते- हँसते बड़े से बड़ा कष्ट झेल लेती है। माता न केवल बच्चे को दूध- पसीने से सिंचति बल्कि अपने रक्त, माँस, हड्डी का एक- एक अंश भी बच्चे के निर्माण में लगा देती है। त्याग का ऐसा उदाहरण अन्यत्र मिलना दुर्लभ है। माता को त्याग की जीवन्त प्रतिमा कहा जा सकता है। ऐसा त्याग भाव यदि कुछ अंश में भी परिवार के हर सदस्य में आ जाय तो कलह विग्रह की स्थिति उत्पन्न न हो।
उदारता, सहिष्णुता का समावेश दैनिक जीवन के प्रत्येक क्रिया- कलाप में रहना चाहिए। प्रत्येक सदस्य यह ध्यान रखे कि हमारे व्यवहार से किसी का अहित न हो। जाने- अनजाने में ऐसे कटु शब्दों का प्रयोग न हो जो आपसी मन- मुटाव को जन्म दे। व्यवहार एवं वाणी में नम्रता, मधुरता का यह प्रारम्भिक अभ्यास आगे चलकर व्यक्ति के सामाजिक जीवन में भी बहुत उपयोगी सिद्ध होता है। यह नम्रता केवल अपने से बड़ों के प्रति ही नहीं हो, छोटों का हृदय भी मधुर व्यवहार द्वारा ही जीता जा सकता है। बच्चों को भी प्यार के साथ सम्मान की आकांक्षा रहती है। इसके अभाव में या तो उनमें आत्महीनता का अभाव पनपता है या वे उद्दण्ड, उच्छृंखल बन जाते हैं। बच्चों के लिए भी तुम या आप जैसे सम्मान सूचक सम्बोधन का प्रयोग किया जाना चाहिए। सामान्य शिष्टाचार का शिक्षण बच्चे यहीं से लेते हैं। जहाँ भी चार- पाँच व्यक्तियों का संगठन हो उनके स्वभाव, आदतों, विचारों में कुछ न कुछ भेद अवश्य पाया जायेगा। एक ही माँ- बाप की सगी सन्तानें एक जैसी नहीं होती। हाथ की पाँचों अंगुलियाँ बराबर कहाँ होती हैं? पर सबके सामंजस्य- सहकार से ही कोई काम हो पाता है। हम चाहें कि सभी व्यक्ति हमारे अनुरूप हो जायें तो यह कदापि सम्भव नहीं। इसके लिए तो दोनों ही पक्षों को कुछ न कुछ उदारता बरतनी ही होगी। ठीक यही बात पारिवारिक सदस्यों के लिए भी लागू होती है। प्रत्येक सदस्य के आपसी सामंजस्य पर परिवार की एकता व संगठन निर्भर करते हैं। स्वभावगत भिन्नता के कारण नयी बातें खड़ी हो सकती हैं, लेकिन यदि दूसरे के व्यवहार से होने वाली असुविधा को हँसते- हँसते टाल दिया जाय तो आपसी मन- मुटाव तो दूर एक दूसरे की गलतियों में भी सहज सुधार होता रह सकता है। जहाँ अपनी गलती हो उसे तुरन्त स्वीकार कर लेने में सामने वाले को कुछ कहने सोचने का अवसर ही न मिलेगा। ये बातें लगती तो छोटी हैं लेकिन व्यावहारिक जीवन में इनका बड़ा महत्व है। वा. ४८/४.२
बड़ों के प्रति सम्मान तथा श्रद्धा, छोटों के प्रति स्नेह, प्यार की अभिव्यक्ति ही पारिवारिक सुख- शान्ति का मेरुदण्ड है। यह जिस भी परिवार में जितना ही अधिक होगा वह उतना ही संगठित रहेगा, आनन्द एवं संतोष की निर्झरिणी उन्हीं परिवारों में बहती दिखाई देती है, जिनके प्रत्येक सदस्य सद्भावना एवं सदाशयता से ओत- प्रोत रहते हैं। बच्चों को यह शिक्षा आरम्भ से ही दी जानी चाहिए कि वे बड़ों का सदा आदर करें। शालीनता एवं नम्रता उनके संस्कारों में घोलने के लिए प्रत्यक्ष एवं परोक्ष हर प्रकार के सम्भव प्रयास किए जाने चाहिए। इसमें एक कड़ी और भी जोड़नी होगी कि परिवार में जो बड़े हैं, उन्हें बच्चों की भावनाओं की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। उनकी भी कुछ मनोवैज्ञानिक कठिनाइयाँ और समस्याएँ होती हैं जिनकी उपेक्षा करने पर उनके भीतर कुण्ठा एवं निराशा की भावना पनपती है। इन छोटी- छोटी बातों की प्रायः अधिकांश लोग उपेक्षा कर जाते हैं। जबकि ये ही पारिवारिक एकता एवं विकास की मूलभूत आधार हैं, जिनका अवलम्बन करके हर परिवार अपनी सामान्य परिस्थिति में भी सुख एवं शांति से भरी स्वर्गीय परिस्थितियों का लाभ उठा सकता है। वा. ४८/४.३
परिवार का मेरुदण्ड पत्नी होती है। पुरुष दिन भर घर से बाहर रहता है। जितनी देर घर पर रहता है उसमें भी अधिकांश समय शौच, स्नान, भोजन, निद्रा आदि नित्य कर्मों में लग जाता है। प्रायः सारा दिन स्त्री को घर पर रहना होता है। उसका ही सीधा सम्बन्ध परिवार के छोटे- बड़े सब से रहता है। घर की अन्य स्त्रियाँ तथा बच्चे तो दिन भर घर पर रहते हैं, उनके साथ पूरा व्यवहार- क्रम पत्नी को ही चलाना पड़ता है। पुरुष जब घर आते हैं तो उनकी व्यवस्था भी उसे ही करनी पड़ती है। इसलिए घर का व्यावहारिक संतुलन बनाये रखना प्रायः स्त्री के हाथ में रहता है। पुरुष आर्थिक समस्याएँ हल कर सकते हैं, पर नियमित और परिपूर्ण संचालन वे नहीं कर सकते, यह कार्य स्त्री को ही करना होता है। सबके स्वास्थ्य, शिक्षा, संस्कृति एवं भावना की परिपूर्ण व्यवस्था रखनी चाहिए। कुछ दोष- दुर्गुण सबमें होते हैं, हममें से किसी की भी पत्नी ऐसी नहीं होती जो पूर्णतया सब प्रकार उपयुक्त हो। माँ- बाप के घर से कुछ शिक्षा लेकर स्त्रियाँ आती हैं, कुछ बातें उनमें जन्मजात भी होती हैं, पर सबसे अधिक निर्माण कार्य ससुराल में होता है। ससुराल में भी यह कार्य विशेष रूप से पति करता है। पति यदि सुयोग्य हो तो फूहड़ पत्नी को भी सद्गुणों की खान और उन विशेषताओं से सम्पन्न बना सकता है जो पारिवारिक जीवन को सुसंचालित रखने के लिए आवश्यक हैं। अपने पिता का भरा- पूरा घर, अपने जन्म- परिवार के स्नेह- सौजन्य को छोड़कर जब नारी ससुराल आती है तो उसे इस जीवन क्रान्ति में एकमात्र प्रकाश स्तम्भ पति का प्रेम ही दीखता है। यों ससुराल में सभी से उसे सद्व्यवहार की आशा होती है, पर सबसे अधिक आकांक्षा पति की गहन आत्मीयता की होती है। वह अपने बिछुड़े हुए पितृ परिवार की सारी ममता और आत्मीयता की क्षति- पूर्ति पति के प्रेम- प्रतिदान द्वारा पूर्ण करना चाहती है। यदि वह मिल गया तो विपुल वर्षा होने पर उर्वर भूमि में लगने वाली वनस्पति की तरह उसका व्यक्तित्व अनेक सद्गुणों की हरियाली से लहलहाने लगता है। यदि यह प्राप्त न हुआ तो जिस प्रकार सुखा पड़ जाने या तुषारापात होने पर हरी- भरी फसल भी नष्ट हो जाती है उसी प्रकार नारी के संचित सद्गुण भी असंतोष की आग में जल- भुन कर समाप्त हो जाते हैं। नारी की स्वाभाविक आकांक्षा आत्मीयता को दिये बिना कोई पति उसका सच्चा प्रेम और सहयोग प्राप्त कर नहीं सकता।
हिस्टेरिया, मिर्गी, चिड़चिड़ापन, दुःस्वप्न, अनिद्रा, दिल की धड़कन, मासिक धर्म की खराबी, सिर दर्द, कमर दुखना आदि अनेक शारीरिक रोगों की जड़ स्त्रियों के आन्तरिक असंतोष में रहती है। वे स्वाभाविक लज्जावश अपनी वेदना किसी से कह तो नहीं पाती, कहें भी तो अनुकूलता उत्पन्न करने का कोई उपाय उनके पास नहीं होता। ऐसी दशा में वे चुपचाप सहती तो रहती हैं, पर आन्तरिक असंतोष उनके अनेकों सद्गुणों को जलाता- भूनता रहता है। उनका कोमल मस्तिष्क एक प्रकार से विक्षिप्त रहने लगता है, फलस्वरूप शारीरिक स्वास्थ्य ही खोखला नहीं होता, वरन् वे मानसिक विशेषताएँ भी नष्ट होने लगती हैं जो पारिवारिक सुव्यवस्था एवं विकास के लिए अत्यन्त आवश्यक होती हैं।
मनु भगवान की उक्ति है कि ‘‘जहाँ नारी संतुष्ट है उस घर में समृद्धि की वर्षा होगी और जहाँ उसे असंतोष रहेगा वहाँ सब कुछ नष्ट हो जायगा।’’ असंतोष के छोटे- मोटे कारण व्यवस्था, श्रम सम्बन्धी असुविधा, जीवनोपयोगी वस्तुओं के अभाव, तात्कालिक घटनाएँ एवं दूसरे लोगों का असद्व्यवहार आदि कारण भी होते हैं, पर उसका प्रभाव बहुत गहरा नहीं होता। उनमें सुधार भी हो सकता है, भुलाया भी जा सकता है और संतोष भी किया जा सकता है, पर जो कमी और किसी प्रकार पूरी नहीं हो सकती वह पति के प्रेम की कमी है। उपेक्षित नारी विधवा से भी अधिक दुःखी रहती है। विधवा अपने दुर्भाग्य को अटल मानकर संतोष कर लेती है, पर सुहागिन को तो अपनी स्थिति पर आँसू ही बहाते रहना पड़ता हैं।
असंतुष्ट नारी के गर्भ से कभी सद्गुणी सन्तान उत्पन्न नहीं हो सकती। अवैध संतान के गर्भकाल में माता अनेकों चिन्ताओं ,, विक्षोभों और भय, लज्जा, दुर्भाव आदि में ग्रस्त रहती है इसलिए आमतौर से ऐसे बच्चे उद्दण्ड और दुर्गुणी निकलते हैं। इसी प्रकार पति के प्रेम के अभाव या अन्य किन्हीं कारणों से यदि नारी असंतुष्ट और विक्षुब्ध बनी रहती है तो उसका प्रभाव गर्भस्थ संतति पर निश्चित रूप से पड़ने वाला है। ऐसे बालक को उच्च शिक्षा भी उसके मानसिक एवं आत्मिक दुर्गुणों से रहित नहीं बना सकती। इसलिए संतान को सुयोग्य और प्रबुद्ध बनाने की भूमिका के रूप में पत्नी को संतुष्ट, सुखी और निश्चिंत बनाने की व्यवस्था के लिए तो यह कार्य अनिवार्य ही है, क्योंकि बाहर से स्वस्थ दीखने पर भी जो भीतर से विक्षुब्ध रहती है उस नारी के आचरण में व्यवस्था, शिष्टता आदि की कमी बनी ही रहेगी। वह सुयोग्य गृहिणी नहीं बन सकेगी। अविचल विश्वास और परिपूर्ण प्रेम पाकर नारी परम संतुष्ट रह सकती है। जहाँ उसे स्नेह और सम्मान मिलता है, सहानुभूति और कृतज्ञता से देखा जाता है वहाँ वह आत्म- समर्पण करके सब कुछ होम देने को तैयार हो जाती है। नारी का रंग- रूप, वेश- विन्यास, बनाव- श्रृंगार देखना निरर्थक है, यह चीजें बहुत ही तुच्छ और क्षणिक हैं। आन्तरिक सौन्दर्य काले, कुरूप, अशिक्षित और अस्वस्थ शरीर में भी हो सकता है। उस सच्चे सौन्दर्य का पुष्प भावनाओं की टहनी पर खिलता है। इस आन्तरिक सौन्दर्य का रसास्वादन पति- पत्नी जहाँ आपस में किया करते हैं, वहाँ स्वर्ग ही विराजमान रहता है। जिन पति- पत्नी ने अपनी अन्तरात्मा को एक करके एकता और आत्मीयता की, प्रेम और विश्वास की गंगा प्रवाहित कर ली, उनके परिवार में सदा मंगल ही मंगल रहेगा। एकता वहाँ की नष्ट न होगी, लक्ष्मी वहाँ से टाले न टलेगी। ऐसे घर के हर व्यक्ति का भविष्य आशा और उत्साह की दिशा में ही अग्रसर होगा। वा. ४८/४.९
व्यक्ति से ही समाज और समाज से ही राष्ट्र बनते हैं। ऐसा व्यक्ति जिसका परिवार अंतर्कलह से ग्रस्त है, समाज और राष्ट्र के निर्माण में क्या योगदान दे सकता है? गृहस्थ जीवन, जिसके ऊपर समाज और राष्ट्र की स्थिति निर्भर है, उसकी इस दुर्दशा का समाधान किए बिना सुख- शांति, उन्नति विकास की कल्पना करना एक विडम्बना होगी। जो व्यक्ति गृहस्थ जीवन की दुर्घटनाग्रस्त गाड़ी के मलबे में दबा हुआ सिसक रहा है, वेदना से छटपटा रहा है वह समाज अथवा राष्ट्र के कल्याण के लिए सोच ही क्या सकता है? और क्या कर सकता है? वा. ४८/४.१५
हमारा पारिवारिक जीवन और गृह- कलह
शास्त्रकार ने पिता को उसके दायित्वों का बोध कराते हुए स्पष्ट कहा है - मालाकारो यथा वृक्षान्प्रभु प्रदत्ता सुसिञ्चति। वात्सल्येन तथा सुष्ठु पालयेत्कृत्य निष्ठाया॥
कन्या सुपुत्रयोस्तुल्यं वात्सल्यं च भवेत सदा।
तुल्यानन्दं विजानीपाद द्वयोभर्तसि प्राप्तयोः॥
अर्थात्? जिस प्रकार माली उद्यान के हर वृक्ष को निराई, गुड़ाई, सिंचाई द्वारा विकसित करने में लगा रहता है उसी प्रकार सभी बालक चाहे वह पुत्र हो या पुत्री परमात्मा द्वारा प्रदत्त पुष्प- वृक्षों की तरह हैं उनका लालन- पालन समान भाव से करना चाहिए। वा. ४८/४.२०
परिवार यों न तोडें
‘‘सभी युगों में नर- नारियों के जीवन के दो प्रधान अवलम्बन रहे हैं एक विवाह- दूसरा घर। वर्तमान युग में यह दोनों आधार तलाक नामक अमंगलकारी प्रेत के प्रभाव से ध्वस्त हो गये हैं। इसने नर- नारियों के हृदयों को भय से भर दिया है, इससे समाज को महान क्षति उठानी पड़ रही है। परिवार टूटते जा रहे हैं, बच्चों का भविष्य संकट में पड़ गया है।’’ पारस्परिक सहयोग, प्रेम, स्नेह की भावना का विकास विवाह- विच्छेद की परिकल्पना से रुक जायेगा एवं परिवार टूटते जायेंगे। इस कल्पना से हृदय काँप जाता है। अलगाव की इस प्रवृत्ति को तब तक निरुत्साहित ही करना चाहिए जब तक कि वैसा करने के लिए अनिवार्य विवशता ही सामने न आ खड़ी हो। वा. ४८/४.२३
परिवार में एक- दूसरे के प्रति हमारा क्या कर्त्तव्य होना चाहिए? छोटों के प्रति बड़ों का क्या उत्तरदायित्व होता है? बड़े अपने छोटों के प्रति किस तरह निष्पक्ष रूप से व्यवहार और निर्णय करें। आपसी न्याय का प्रतिपादन किस प्रकार किया जाय? पारिवारिक जीवन में सद्भावना का क्या स्थान है आदि ऐसे महत्वपूर्ण पहलू हैं जिसका अनुपालन परिवार में होने लग जाय तो सुख और शान्ति की आनन्दानुभूति सबको होने लग जाय।
इस गुलशन को उजाड़ें नहीं सँवारें
सराय एवं होटलों में सारी चीजें उपलब्ध रहती हैं। पैसे द्वारा उन्हें खरीदा जा सकता है। पर बहिन का स्नेह और माँ की ममता, पिता का वात्सल्य तथा पत्नी का प्यार भारी कीमत देकर भी नहीं प्राप्त किया जा सकता है। ऐसी कोई भी संस्था अथवा संगठन अब तक नहीं बन सके हैं जो परिवार संस्था का स्थानापन्न बन सकें और मनुष्य की शरीर से इतर मनः एवं भाव जगत की आवश्यकताओं को पूरा कर सकें। घूम- फिर कर नजर सदियों से चली आ रही परिवार संस्था पर ही जाती है। जहाँ मानसिक एवं भाव जगत की परितृप्ति संभव है।
वा. ४८/४.२४
हम पारिवारिक संवेदना खो ही देंगे क्या?
अमुक व्यक्ति ने आत्म- हत्या कर ली, भाई द्वारा भाई की हत्या कर दी गयी, कपड़ों में मिट्टी का तेल छिड़क कर पत्नी ने खुदखुशी कर ली, महिला बच्चों समेत कुएँ में कूदी, बहू की हत्या के जुर्म में पति, सास व देवर को आजीवन कारावास- ऐसी घटनाएँ आये दिन समाचार पत्रों में प्रकाशित होती रहती हैं। शायद ही कोई ऐसा दिन होगा जिस दिन परिवारों में कलह, हिंसा, मारपीट आदि के समाचार न मिलते हों। यह समाचार एक ओर उस पतन के द्योतक हैं जिससे आज का समाज बुरी तरह ग्रस्त होता चला जा रहा है। दूसरी ओर वे इस तथ्य के प्रमाण भी हैं कि हमारा पारिवारिक स्नेह, आत्मीयता और सौमनस्य किस तरह पीड़ा और पतन का प्रतीक बन गया है। वा. ४८/४.२९
इस युग में ऐसे परिवारों की संख्या बहुत कम ही होगी जिसमें स्नेह- सौजन्य एवं सहयोग रूपी अमृत की धारा बहती हो। घर- घर में प्रत्येक सदस्य के बीच कलह- क्लेश, ईर्ष्या- द्वेष, वैमनस्य तथा मनोमालिन्य की भावनाएँ दृष्टिगोचर होती हैं। परिवार में पति- पत्नी, पिता- पुत्र, भाई- भाई, सास- बहू के मध्य जो प्यार और कर्त्तव्य- भावना होनी चाहिए, उसकी सभी उपेक्षा करते दिखाई देते हैं।
परिवार की इन असह्य विकृतियों के कारण लोग पारिवारिक जीवन से ऊबे, शोक- सन्ताप में डूबे अपने भाग्य को कोसते नजर आते हैं। ऐसे कलुषित एवं कलह पूर्ण पारिवारिक जीवन में सुधार लाने के लिए आवश्यक है कि उसमें स्नेह, ममता, सौहार्द्र, उदारता इत्यादि दैवी गुणों के बीज बोये जायें और उसे सुव्यवस्थित बनाया जाये, क्योंकि व्यवस्थाक्रम में गड़बड़ी होने पर ही मनोमालिन्य, असन्तोष तथा लड़ाई- झगड़ों की शाखाएँ फूटने लगती हैं। परिणाम स्वरूप उस वातावरण में सुख- समृद्धि, उन्न्ति का मार्ग अवरूद्ध होता जाता है। इन्हीं परिस्थितियों के उत्पन्न होने के कारण ही गृहस्थ जीवन की दिशा निर्धारित नहीं होती। चलने से पूर्व यदि अपने गन्तव्य स्थान का निर्धारण कर लिया जाय तो मंजिल तक पहुँचने में किसी प्रकार की कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ता। इसी प्रकार पारिवारिक जीवन प्रारम्भ करने से पहले उसका आयोजन समझ लिया जाय और उसके अनुरूप ही चला जाय तो ही उत्पन्न होने वाली विकृतियों का उभार सम्भव है। अतः गृहस्थ बसाने से पूर्व उसका अर्थ एवं उद्देश्य भली प्रकार समझ लेना प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है। मूलतः गृहस्थ का अर्थ परिवार में दूसरे के प्रति आत्मीयता और संवेदना के भावों से होता है। भारतीय संस्कृति में पारिवारिक जीवन का एक निश्चित एवं श्रेष्ठ उद्देश्य रहा है। सुखी और समृद्ध जीवन के साथ- साथ सेवा, संवेदना, त्याग, उदारता आदि दैवी गुणों का विकास ही उसका मूल आधार है। वा. ४८/४.३०
परिवार एक आदर्श प्रजातन्त्र है
परिवार में जब अपने- अपने स्वार्थ का भ्रष्टाचार बढ़ता है, लोग कर्तव्य की आध्यात्मिक भावना को भुला देते हैं तभी गृहस्थ की दुर्दशा होती है। कितने कृतघ्र होंगे वे लोग जो अपने स्वार्थ के लिये परिवार के प्रति अपने उत्तरदायित्व भुलाकर अपना चूल्हा- चौका अलग रखने में अपनी बुद्धिमानी समझते हैं। किसी ने ऐसे कुटिल व्यक्तियों को कभी फलते- फूलते भी नहीं देखा होगा जो फूट के बीज बोकर सारी पारिवारिक व्यवस्था को तहस- नहस कर डालते हैं।
पिता अपने पुत्र के लिये सारे जीवन- भर क्या नहीं करता? श्रम करता है, जब वह खुद सो रहा होता है, तब आधी रात उठकर खेतों में जाता है, हल चलाता है, मजदूरी करता है, नौकरी करता है। क्या सब कुछ अपने लिये करता है? नहीं। एक व्यक्ति का पेट पालना हो तो चार- छह आने की मजदूरी काफी है दिन- भर श्रम करने का क्या लाभ? पर बेचारा बाप सोचता है बच्चे के लिए दूध की व्यवस्था करनी है, दवा लानी है, कपड़े सिलाने है, फीस देनी है, पुस्तकें लानी हैं और उसके भावी जीवन की सुख- सुविधा के लिए कुछ छोड़ भी जाना है। जब तक शक्तियाँ काम देती हैं कोई कसर नहीं उठा रखता। अपने पेट को गौण मानकर बेटे के लिये आजीवन अनवरत श्रम करने का साहस कोई बाप ही कर सकता है। वा. ४८/४.४
पाल- पोसकर बड़ा कर दिया। शिक्षा- दीक्षा पूरी कराई, विवाह- शादी करा दी, धन्धा लग गया। पिता से पुत्र की कमाई बढ़ गई। उसके अपने बेटे हो गये, स्त्री की आकांक्षायें बढ़ीं। बेटे ने बाप के सारे उपकारों पर पानी फेर दिया, कोई न कोई बहाना बनाकर बाप से अलग हो गया। हायरी तृष्णा! हाय रे अभागे इंसान! तू कितना नीच है, कितना पतित है! जिस बाप ने तेरे लिये इतना सब कुछ किया और तू उसकी वृद्धावस्था का पाथेय भी न बन सका? इस कृतघ्नता से बढ़कर इस संसार में और कौन- सा पाप हो सकता है? अपने स्वार्थ, भोग, लिप्सा, स्वेच्छाचारिता के लिए बाप को ठुकरा देने वालों को पामर न कहा जाय तो और कौन सा सम्बोधन उचित हो सकता है?
पिता परिवार का अधिष्ठाता, आदेशकर्ता और संरक्षक होता है। उसकी जिम्मेदारियाँ बड़ी होती हैं। सबकी देख- रेख, सबके प्रति न्याय, सबकी सुरक्षा रखने वाला पिता होता है। क्या उसके प्रति उपेक्षा का भाव मानवीय हो सकता है? कोई राक्षस वृत्ति का मनुष्य ही ऐसा कर सकता है जो अपने माता- पिता को उनकी वृद्धावस्था में असहाय छोड़ देता है। परिवार में पिता को सम्मान मिलता है तो उसके दीर्घकालीन अनुभव, योग्य संचालन, पथ प्रदर्शन, भावी योजनाओं को नियंत्रित करने का लाभ भी परिवार को मिलता है। अपने प्रेम, वात्सल्य, करुणा, उदारता, संगठनात्मक बुद्धि से वह सब पर छाया किये रहता है, वह परिवार का पालन करता है। पिता की उचित सेवा- सुश्रुषा और देख- रेख रखना परमात्मा की उपासना से कम फलदायक नहीं होता। पिता का आशीर्वाद पाकर पुत्र की आकांक्षायें तृप्त होती हैं, जीवन सुमधुर, नियंत्रित और बाधारहित बनता है।
इस युग में पिता- पुत्र के सम्बन्धों में जो कडुवाहट आ गई है वह मनुष्य के संकुचित दृष्टिकोण और स्वार्थपूर्ण प्रवृत्ति के परिणाम स्वरूप ही है। पिता, पुत्र के लिये अपना सर्वस्व अर्पित कर दे और पुत्र व्यक्तिगत स्वतन्त्रता हेतु अनुशासन की अवज्ञा करे तो उस बेटे को निन्दनीय ही समझा जाना चाहिये। मनुष्य का सबसे शुभचिन्तक मित्र, हितैषी, पथ- प्रदर्शक, उदार जीवन रक्षक पिता ही होता है। वह समझता है कि बेटे को किस रास्ते लगाया जाया कि वह सुखी हो, समुन्नत हो, क्योंकि उसकी त्रुटियों का ज्ञान पिता को ही होता है। जो इन विशेषताओं का लाभ नहीं उठाते उन्हें अन्त में दुःख और दैन्यताओं का ही मुँह देखना पड़ता है। परिवार में माता का स्थान पिता के समतुल्य ही होता है। एक से दूसरे को बड़ा- छोटा नहीं कहा जा सकता।
पिता कर्म है तो माता भावना। कर्म और भावना के सम्मिश्रण से जीवन में पूर्णता आती है। गृहस्थी की पूर्णता तब है जब उसमें पिता और माता दोनों को समान रूप से सम्मान मिले। माता का महत्व किसी भी अवस्था में कम नहीं हो सकता।
व्यक्ति का भावनात्मक प्रशिक्षण माता करती है। उसी के रक्त, माँस और ओजस से बालक का निर्माण होता है। कितने कष्ट सहती है वह बेटे के लिए। स्वयं गीले विस्तर में सोकर बच्चे को सूखे में सुलाते रहने की कष्टसाध्य क्रिया पूरी करने की हिम्मत भला है किसी में? माता का हृदय दया और पवित्रता से ओत- प्रोत होता है, उसे जलाओ तो भी दया की ही सुगन्ध निकलती है, पीसो तो दया का ही रस निकलता है। ऐसी दया और ममत्व की मूर्ति माता को जिसने पूज्यभाव से नहीं देखा, उसका सम्मान नहीं किया, आदर की भावनाएँ व्यक्त नहीं की वह मनुष्य नर- पिशाच ही कहलाने योग्य हो सकता है। वा. ४८/४.५
कई व्यक्ति अपने परिवार को सुसंस्कृत तो बनाना चाहते हैं, पर उसके लिए केवल अपशब्द कहना, क्रोधित रहना, निंदा करना, गाली- गलौज या मारपीट करना जैसे बेहूदे तरीके ही उनके पास होते हैं। इन उपायों से किसी का सुधर सकना तो दूर, उलटे अधिक बिगड़ने, चिड़चिड़े होने और विरोधी बनने का ही परिणाम सामने आ सकता है। इस प्रकार स्कूल के बच्चों को पढ़ाने के लिए अध्यापकों को, गृहस्वामियों और कुलपतियों को भी अपने परिवार का प्रशिक्षण करने की क्रमबद्ध शिक्षा प्राप्त करनी पड़ेगी। दुःख की बात है कि जहाँ मशीनें चलाने ओर नौकरी करने जैसे कामों की ट्रेनिंग के लिए अनेक स्थानों पर प्रशिक्षण चलते हैं वहाँ अपना जीवन भलमनसाहत के साथ जीने और अपने अंगभूत परिवार को सुसंस्कृत बनाने की क्षमता प्राप्त करने का कोई प्रशिक्षण संस्थान नहीं है। लगता है कि उस अभाव की पूर्ति के लिए भी हमें ही एक व्यापक प्रभावपूर्ण व्यवस्था बनानी पड़ेगी। जब तक ऐसी कोई व्यावहारिक शिक्षण व्यवस्था नहीं बन जाती, तब तक इस प्रकार के साहित्य द्वारा ही बहुत कुछ मार्गदर्शन मिल सकेगा। वा. ४८/४.७
माता- पिता की सेवा करके उनका आशीर्वाद लेने का, भाई- बहिनों को सेवा- सहायता करने का, बच्चों के साथ खेलने- खिलाने का, मिल- जुल कर खाने- बैठने का, एक दूसरे के प्रेम और विश्वास का जो लाभ इकट्ठे रहने में मिलता है, वह अकेले रहने वालों को कहाँ मिलेगा? मरघट के पीपल की तरफ वह बेखटक खड़ा तो रहता है, पर सूनेपन में उसे मानसिक दृष्टि से भारी अभाव ही बना रहता है। उलझनों और जिम्मेदारियों का बोझ भी अकेले रहने पर अकेले ही भुगतना पड़ता है, जो कई बार अलग जीवन की सुविधा की अपेक्षा बहुत अधिक चिंता और कष्ट का कारण बनता है। वा. ४८/४.८
पारिवारिक जीवन में उत्पन्न होने वाली मुख्य कठिनाइयाँ
(१) अधिकार मद से उत्पन्न असन्तुलन, पक्षपात एवं मनमानी।
(२) परिवार के सदस्यों में कार्य तथा अधिकार का उचित बँटवारा न होना। (३) विचार- भ्रम एवं अनावश्यक संकोच।
(४) अनुचित कमाई से उत्पन्न बुद्धि दोष।
(५) दुराव- छिपाव।
(६) उजड्डता एवं मनमानी।
(७) आत्मानुशासन एवं पारिवारिक अनुशासन का अभाव।
(८) आय- व्यय तथा अन्य महत्वपूर्ण बातों की परिवार में सभी वयस्कों को जानकारी न होना तथा सबके विचार- विमर्श से निर्णय न किया जाना।
इन सबके समाधान
(१) पारिवारिक भावना का होना यानी पारस्परिक आत्मीयता- सद्भाव।
(२) सभी के स्वाभिमान की रक्षा, परस्पर सम्मान एवं शिष्टाचार।
(३) बजट बनाकर ही खर्च किया जाये।
(४) आय- व्यय की पूरी जानकारी हर वयस्क सदस्य को हो।
(५) पारिवारिक गोष्ठियाँ हों, जिनमें खुली एवं सौजन्यतापूर्ण चर्चा हो तथा महत्वपूर्ण निर्णय लिये जायें।
(६) पारिवारिक मर्यादा का निर्वाह किया जाय, अनुशासन एवं आत्मानुशासन हो।
(७) शील एवं सदाचार कभी न छोड़ा न जाय। परिश्रम तथा ईमानदारी की कमाई ही की जाय।
(८) किसी का अहंकार न बढ़ने दिया जाये और असमानता का पोषण न होने दिया जाये। समस्याओं का समाधान कठिन नहीं। पारस्परिक प्रेम अक्षुण्य रहे तथा व्यापक दृष्टिकोण अपनाया जाय, तो संयुक्त परिवार सुख- शान्ति के उत्कृष्ट आधार बन सकते हैं और हर सदस्य को उनसे आनन्द की ही अनुभूति होगी। जहाँ यह संभव न हो, वहाँ भावनाविहीन प्राण रहित ढाँचे को ढोते रहना व्यर्थ ही है। वा. ४८/३.५५
पारिवारिक सदस्यों में जब तक समर्पण, त्याग, उत्सर्ग का भाव बना रहता है तब तक उसकी सुदृढ़ एकता को आँच नहीं आने पाती। परिवार में रहने वाला प्रत्येक सदस्य कर्त्तव्यों को प्रधान और अधिकारों को गौण मान, अपनी नहीं दूसरों की सुख- सुविधा को प्राथमिकता दे तो आपस में मन- मुटाव तथा विक्षोभ की स्थिति उत्पन्न नहीं होगी। इस त्याग- उदारता के उदात्त भाव को माता के हृदय में सहज ही देखा जा सकता है। माता के मन में छोटे बच्चों के प्रति कितना स्नेह वात्सल्य रहता है। बच्चों के लालन- पालन में स्वयं भूखे रहकर भी उसके पोषण की व्यवस्था जुटाती है। स्वयं गीले में सोकर उसे सूखे में सुलाती है। बच्चे को किसी प्रकार का कष्ट न हो इसके लिए वह हँसते- हँसते बड़े से बड़ा कष्ट झेल लेती है। माता न केवल बच्चे को दूध- पसीने से सिंचति बल्कि अपने रक्त, माँस, हड्डी का एक- एक अंश भी बच्चे के निर्माण में लगा देती है। त्याग का ऐसा उदाहरण अन्यत्र मिलना दुर्लभ है। माता को त्याग की जीवन्त प्रतिमा कहा जा सकता है। ऐसा त्याग भाव यदि कुछ अंश में भी परिवार के हर सदस्य में आ जाय तो कलह विग्रह की स्थिति उत्पन्न न हो।
उदारता, सहिष्णुता का समावेश दैनिक जीवन के प्रत्येक क्रिया- कलाप में रहना चाहिए। प्रत्येक सदस्य यह ध्यान रखे कि हमारे व्यवहार से किसी का अहित न हो। जाने- अनजाने में ऐसे कटु शब्दों का प्रयोग न हो जो आपसी मन- मुटाव को जन्म दे। व्यवहार एवं वाणी में नम्रता, मधुरता का यह प्रारम्भिक अभ्यास आगे चलकर व्यक्ति के सामाजिक जीवन में भी बहुत उपयोगी सिद्ध होता है। यह नम्रता केवल अपने से बड़ों के प्रति ही नहीं हो, छोटों का हृदय भी मधुर व्यवहार द्वारा ही जीता जा सकता है। बच्चों को भी प्यार के साथ सम्मान की आकांक्षा रहती है। इसके अभाव में या तो उनमें आत्महीनता का अभाव पनपता है या वे उद्दण्ड, उच्छृंखल बन जाते हैं। बच्चों के लिए भी तुम या आप जैसे सम्मान सूचक सम्बोधन का प्रयोग किया जाना चाहिए। सामान्य शिष्टाचार का शिक्षण बच्चे यहीं से लेते हैं। जहाँ भी चार- पाँच व्यक्तियों का संगठन हो उनके स्वभाव, आदतों, विचारों में कुछ न कुछ भेद अवश्य पाया जायेगा। एक ही माँ- बाप की सगी सन्तानें एक जैसी नहीं होती। हाथ की पाँचों अंगुलियाँ बराबर कहाँ होती हैं? पर सबके सामंजस्य- सहकार से ही कोई काम हो पाता है। हम चाहें कि सभी व्यक्ति हमारे अनुरूप हो जायें तो यह कदापि सम्भव नहीं। इसके लिए तो दोनों ही पक्षों को कुछ न कुछ उदारता बरतनी ही होगी। ठीक यही बात पारिवारिक सदस्यों के लिए भी लागू होती है। प्रत्येक सदस्य के आपसी सामंजस्य पर परिवार की एकता व संगठन निर्भर करते हैं। स्वभावगत भिन्नता के कारण नयी बातें खड़ी हो सकती हैं, लेकिन यदि दूसरे के व्यवहार से होने वाली असुविधा को हँसते- हँसते टाल दिया जाय तो आपसी मन- मुटाव तो दूर एक दूसरे की गलतियों में भी सहज सुधार होता रह सकता है। जहाँ अपनी गलती हो उसे तुरन्त स्वीकार कर लेने में सामने वाले को कुछ कहने सोचने का अवसर ही न मिलेगा। ये बातें लगती तो छोटी हैं लेकिन व्यावहारिक जीवन में इनका बड़ा महत्व है। वा. ४८/४.२
बड़ों के प्रति सम्मान तथा श्रद्धा, छोटों के प्रति स्नेह, प्यार की अभिव्यक्ति ही पारिवारिक सुख- शान्ति का मेरुदण्ड है। यह जिस भी परिवार में जितना ही अधिक होगा वह उतना ही संगठित रहेगा, आनन्द एवं संतोष की निर्झरिणी उन्हीं परिवारों में बहती दिखाई देती है, जिनके प्रत्येक सदस्य सद्भावना एवं सदाशयता से ओत- प्रोत रहते हैं। बच्चों को यह शिक्षा आरम्भ से ही दी जानी चाहिए कि वे बड़ों का सदा आदर करें। शालीनता एवं नम्रता उनके संस्कारों में घोलने के लिए प्रत्यक्ष एवं परोक्ष हर प्रकार के सम्भव प्रयास किए जाने चाहिए। इसमें एक कड़ी और भी जोड़नी होगी कि परिवार में जो बड़े हैं, उन्हें बच्चों की भावनाओं की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। उनकी भी कुछ मनोवैज्ञानिक कठिनाइयाँ और समस्याएँ होती हैं जिनकी उपेक्षा करने पर उनके भीतर कुण्ठा एवं निराशा की भावना पनपती है। इन छोटी- छोटी बातों की प्रायः अधिकांश लोग उपेक्षा कर जाते हैं। जबकि ये ही पारिवारिक एकता एवं विकास की मूलभूत आधार हैं, जिनका अवलम्बन करके हर परिवार अपनी सामान्य परिस्थिति में भी सुख एवं शांति से भरी स्वर्गीय परिस्थितियों का लाभ उठा सकता है। वा. ४८/४.३
परिवार का मेरुदण्ड पत्नी होती है। पुरुष दिन भर घर से बाहर रहता है। जितनी देर घर पर रहता है उसमें भी अधिकांश समय शौच, स्नान, भोजन, निद्रा आदि नित्य कर्मों में लग जाता है। प्रायः सारा दिन स्त्री को घर पर रहना होता है। उसका ही सीधा सम्बन्ध परिवार के छोटे- बड़े सब से रहता है। घर की अन्य स्त्रियाँ तथा बच्चे तो दिन भर घर पर रहते हैं, उनके साथ पूरा व्यवहार- क्रम पत्नी को ही चलाना पड़ता है। पुरुष जब घर आते हैं तो उनकी व्यवस्था भी उसे ही करनी पड़ती है। इसलिए घर का व्यावहारिक संतुलन बनाये रखना प्रायः स्त्री के हाथ में रहता है। पुरुष आर्थिक समस्याएँ हल कर सकते हैं, पर नियमित और परिपूर्ण संचालन वे नहीं कर सकते, यह कार्य स्त्री को ही करना होता है। सबके स्वास्थ्य, शिक्षा, संस्कृति एवं भावना की परिपूर्ण व्यवस्था रखनी चाहिए। कुछ दोष- दुर्गुण सबमें होते हैं, हममें से किसी की भी पत्नी ऐसी नहीं होती जो पूर्णतया सब प्रकार उपयुक्त हो। माँ- बाप के घर से कुछ शिक्षा लेकर स्त्रियाँ आती हैं, कुछ बातें उनमें जन्मजात भी होती हैं, पर सबसे अधिक निर्माण कार्य ससुराल में होता है। ससुराल में भी यह कार्य विशेष रूप से पति करता है। पति यदि सुयोग्य हो तो फूहड़ पत्नी को भी सद्गुणों की खान और उन विशेषताओं से सम्पन्न बना सकता है जो पारिवारिक जीवन को सुसंचालित रखने के लिए आवश्यक हैं। अपने पिता का भरा- पूरा घर, अपने जन्म- परिवार के स्नेह- सौजन्य को छोड़कर जब नारी ससुराल आती है तो उसे इस जीवन क्रान्ति में एकमात्र प्रकाश स्तम्भ पति का प्रेम ही दीखता है। यों ससुराल में सभी से उसे सद्व्यवहार की आशा होती है, पर सबसे अधिक आकांक्षा पति की गहन आत्मीयता की होती है। वह अपने बिछुड़े हुए पितृ परिवार की सारी ममता और आत्मीयता की क्षति- पूर्ति पति के प्रेम- प्रतिदान द्वारा पूर्ण करना चाहती है। यदि वह मिल गया तो विपुल वर्षा होने पर उर्वर भूमि में लगने वाली वनस्पति की तरह उसका व्यक्तित्व अनेक सद्गुणों की हरियाली से लहलहाने लगता है। यदि यह प्राप्त न हुआ तो जिस प्रकार सुखा पड़ जाने या तुषारापात होने पर हरी- भरी फसल भी नष्ट हो जाती है उसी प्रकार नारी के संचित सद्गुण भी असंतोष की आग में जल- भुन कर समाप्त हो जाते हैं। नारी की स्वाभाविक आकांक्षा आत्मीयता को दिये बिना कोई पति उसका सच्चा प्रेम और सहयोग प्राप्त कर नहीं सकता।
हिस्टेरिया, मिर्गी, चिड़चिड़ापन, दुःस्वप्न, अनिद्रा, दिल की धड़कन, मासिक धर्म की खराबी, सिर दर्द, कमर दुखना आदि अनेक शारीरिक रोगों की जड़ स्त्रियों के आन्तरिक असंतोष में रहती है। वे स्वाभाविक लज्जावश अपनी वेदना किसी से कह तो नहीं पाती, कहें भी तो अनुकूलता उत्पन्न करने का कोई उपाय उनके पास नहीं होता। ऐसी दशा में वे चुपचाप सहती तो रहती हैं, पर आन्तरिक असंतोष उनके अनेकों सद्गुणों को जलाता- भूनता रहता है। उनका कोमल मस्तिष्क एक प्रकार से विक्षिप्त रहने लगता है, फलस्वरूप शारीरिक स्वास्थ्य ही खोखला नहीं होता, वरन् वे मानसिक विशेषताएँ भी नष्ट होने लगती हैं जो पारिवारिक सुव्यवस्था एवं विकास के लिए अत्यन्त आवश्यक होती हैं।
मनु भगवान की उक्ति है कि ‘‘जहाँ नारी संतुष्ट है उस घर में समृद्धि की वर्षा होगी और जहाँ उसे असंतोष रहेगा वहाँ सब कुछ नष्ट हो जायगा।’’ असंतोष के छोटे- मोटे कारण व्यवस्था, श्रम सम्बन्धी असुविधा, जीवनोपयोगी वस्तुओं के अभाव, तात्कालिक घटनाएँ एवं दूसरे लोगों का असद्व्यवहार आदि कारण भी होते हैं, पर उसका प्रभाव बहुत गहरा नहीं होता। उनमें सुधार भी हो सकता है, भुलाया भी जा सकता है और संतोष भी किया जा सकता है, पर जो कमी और किसी प्रकार पूरी नहीं हो सकती वह पति के प्रेम की कमी है। उपेक्षित नारी विधवा से भी अधिक दुःखी रहती है। विधवा अपने दुर्भाग्य को अटल मानकर संतोष कर लेती है, पर सुहागिन को तो अपनी स्थिति पर आँसू ही बहाते रहना पड़ता हैं।
असंतुष्ट नारी के गर्भ से कभी सद्गुणी सन्तान उत्पन्न नहीं हो सकती। अवैध संतान के गर्भकाल में माता अनेकों चिन्ताओं ,, विक्षोभों और भय, लज्जा, दुर्भाव आदि में ग्रस्त रहती है इसलिए आमतौर से ऐसे बच्चे उद्दण्ड और दुर्गुणी निकलते हैं। इसी प्रकार पति के प्रेम के अभाव या अन्य किन्हीं कारणों से यदि नारी असंतुष्ट और विक्षुब्ध बनी रहती है तो उसका प्रभाव गर्भस्थ संतति पर निश्चित रूप से पड़ने वाला है। ऐसे बालक को उच्च शिक्षा भी उसके मानसिक एवं आत्मिक दुर्गुणों से रहित नहीं बना सकती। इसलिए संतान को सुयोग्य और प्रबुद्ध बनाने की भूमिका के रूप में पत्नी को संतुष्ट, सुखी और निश्चिंत बनाने की व्यवस्था के लिए तो यह कार्य अनिवार्य ही है, क्योंकि बाहर से स्वस्थ दीखने पर भी जो भीतर से विक्षुब्ध रहती है उस नारी के आचरण में व्यवस्था, शिष्टता आदि की कमी बनी ही रहेगी। वह सुयोग्य गृहिणी नहीं बन सकेगी। अविचल विश्वास और परिपूर्ण प्रेम पाकर नारी परम संतुष्ट रह सकती है। जहाँ उसे स्नेह और सम्मान मिलता है, सहानुभूति और कृतज्ञता से देखा जाता है वहाँ वह आत्म- समर्पण करके सब कुछ होम देने को तैयार हो जाती है। नारी का रंग- रूप, वेश- विन्यास, बनाव- श्रृंगार देखना निरर्थक है, यह चीजें बहुत ही तुच्छ और क्षणिक हैं। आन्तरिक सौन्दर्य काले, कुरूप, अशिक्षित और अस्वस्थ शरीर में भी हो सकता है। उस सच्चे सौन्दर्य का पुष्प भावनाओं की टहनी पर खिलता है। इस आन्तरिक सौन्दर्य का रसास्वादन पति- पत्नी जहाँ आपस में किया करते हैं, वहाँ स्वर्ग ही विराजमान रहता है। जिन पति- पत्नी ने अपनी अन्तरात्मा को एक करके एकता और आत्मीयता की, प्रेम और विश्वास की गंगा प्रवाहित कर ली, उनके परिवार में सदा मंगल ही मंगल रहेगा। एकता वहाँ की नष्ट न होगी, लक्ष्मी वहाँ से टाले न टलेगी। ऐसे घर के हर व्यक्ति का भविष्य आशा और उत्साह की दिशा में ही अग्रसर होगा। वा. ४८/४.९
व्यक्ति से ही समाज और समाज से ही राष्ट्र बनते हैं। ऐसा व्यक्ति जिसका परिवार अंतर्कलह से ग्रस्त है, समाज और राष्ट्र के निर्माण में क्या योगदान दे सकता है? गृहस्थ जीवन, जिसके ऊपर समाज और राष्ट्र की स्थिति निर्भर है, उसकी इस दुर्दशा का समाधान किए बिना सुख- शांति, उन्नति विकास की कल्पना करना एक विडम्बना होगी। जो व्यक्ति गृहस्थ जीवन की दुर्घटनाग्रस्त गाड़ी के मलबे में दबा हुआ सिसक रहा है, वेदना से छटपटा रहा है वह समाज अथवा राष्ट्र के कल्याण के लिए सोच ही क्या सकता है? और क्या कर सकता है? वा. ४८/४.१५
हमारा पारिवारिक जीवन और गृह- कलह
शास्त्रकार ने पिता को उसके दायित्वों का बोध कराते हुए स्पष्ट कहा है - मालाकारो यथा वृक्षान्प्रभु प्रदत्ता सुसिञ्चति। वात्सल्येन तथा सुष्ठु पालयेत्कृत्य निष्ठाया॥
कन्या सुपुत्रयोस्तुल्यं वात्सल्यं च भवेत सदा।
तुल्यानन्दं विजानीपाद द्वयोभर्तसि प्राप्तयोः॥
अर्थात्? जिस प्रकार माली उद्यान के हर वृक्ष को निराई, गुड़ाई, सिंचाई द्वारा विकसित करने में लगा रहता है उसी प्रकार सभी बालक चाहे वह पुत्र हो या पुत्री परमात्मा द्वारा प्रदत्त पुष्प- वृक्षों की तरह हैं उनका लालन- पालन समान भाव से करना चाहिए। वा. ४८/४.२०
परिवार यों न तोडें
‘‘सभी युगों में नर- नारियों के जीवन के दो प्रधान अवलम्बन रहे हैं एक विवाह- दूसरा घर। वर्तमान युग में यह दोनों आधार तलाक नामक अमंगलकारी प्रेत के प्रभाव से ध्वस्त हो गये हैं। इसने नर- नारियों के हृदयों को भय से भर दिया है, इससे समाज को महान क्षति उठानी पड़ रही है। परिवार टूटते जा रहे हैं, बच्चों का भविष्य संकट में पड़ गया है।’’ पारस्परिक सहयोग, प्रेम, स्नेह की भावना का विकास विवाह- विच्छेद की परिकल्पना से रुक जायेगा एवं परिवार टूटते जायेंगे। इस कल्पना से हृदय काँप जाता है। अलगाव की इस प्रवृत्ति को तब तक निरुत्साहित ही करना चाहिए जब तक कि वैसा करने के लिए अनिवार्य विवशता ही सामने न आ खड़ी हो। वा. ४८/४.२३
परिवार में एक- दूसरे के प्रति हमारा क्या कर्त्तव्य होना चाहिए? छोटों के प्रति बड़ों का क्या उत्तरदायित्व होता है? बड़े अपने छोटों के प्रति किस तरह निष्पक्ष रूप से व्यवहार और निर्णय करें। आपसी न्याय का प्रतिपादन किस प्रकार किया जाय? पारिवारिक जीवन में सद्भावना का क्या स्थान है आदि ऐसे महत्वपूर्ण पहलू हैं जिसका अनुपालन परिवार में होने लग जाय तो सुख और शान्ति की आनन्दानुभूति सबको होने लग जाय।
इस गुलशन को उजाड़ें नहीं सँवारें
सराय एवं होटलों में सारी चीजें उपलब्ध रहती हैं। पैसे द्वारा उन्हें खरीदा जा सकता है। पर बहिन का स्नेह और माँ की ममता, पिता का वात्सल्य तथा पत्नी का प्यार भारी कीमत देकर भी नहीं प्राप्त किया जा सकता है। ऐसी कोई भी संस्था अथवा संगठन अब तक नहीं बन सके हैं जो परिवार संस्था का स्थानापन्न बन सकें और मनुष्य की शरीर से इतर मनः एवं भाव जगत की आवश्यकताओं को पूरा कर सकें। घूम- फिर कर नजर सदियों से चली आ रही परिवार संस्था पर ही जाती है। जहाँ मानसिक एवं भाव जगत की परितृप्ति संभव है।
वा. ४८/४.२४
हम पारिवारिक संवेदना खो ही देंगे क्या?
अमुक व्यक्ति ने आत्म- हत्या कर ली, भाई द्वारा भाई की हत्या कर दी गयी, कपड़ों में मिट्टी का तेल छिड़क कर पत्नी ने खुदखुशी कर ली, महिला बच्चों समेत कुएँ में कूदी, बहू की हत्या के जुर्म में पति, सास व देवर को आजीवन कारावास- ऐसी घटनाएँ आये दिन समाचार पत्रों में प्रकाशित होती रहती हैं। शायद ही कोई ऐसा दिन होगा जिस दिन परिवारों में कलह, हिंसा, मारपीट आदि के समाचार न मिलते हों। यह समाचार एक ओर उस पतन के द्योतक हैं जिससे आज का समाज बुरी तरह ग्रस्त होता चला जा रहा है। दूसरी ओर वे इस तथ्य के प्रमाण भी हैं कि हमारा पारिवारिक स्नेह, आत्मीयता और सौमनस्य किस तरह पीड़ा और पतन का प्रतीक बन गया है। वा. ४८/४.२९
इस युग में ऐसे परिवारों की संख्या बहुत कम ही होगी जिसमें स्नेह- सौजन्य एवं सहयोग रूपी अमृत की धारा बहती हो। घर- घर में प्रत्येक सदस्य के बीच कलह- क्लेश, ईर्ष्या- द्वेष, वैमनस्य तथा मनोमालिन्य की भावनाएँ दृष्टिगोचर होती हैं। परिवार में पति- पत्नी, पिता- पुत्र, भाई- भाई, सास- बहू के मध्य जो प्यार और कर्त्तव्य- भावना होनी चाहिए, उसकी सभी उपेक्षा करते दिखाई देते हैं।
परिवार की इन असह्य विकृतियों के कारण लोग पारिवारिक जीवन से ऊबे, शोक- सन्ताप में डूबे अपने भाग्य को कोसते नजर आते हैं। ऐसे कलुषित एवं कलह पूर्ण पारिवारिक जीवन में सुधार लाने के लिए आवश्यक है कि उसमें स्नेह, ममता, सौहार्द्र, उदारता इत्यादि दैवी गुणों के बीज बोये जायें और उसे सुव्यवस्थित बनाया जाये, क्योंकि व्यवस्थाक्रम में गड़बड़ी होने पर ही मनोमालिन्य, असन्तोष तथा लड़ाई- झगड़ों की शाखाएँ फूटने लगती हैं। परिणाम स्वरूप उस वातावरण में सुख- समृद्धि, उन्न्ति का मार्ग अवरूद्ध होता जाता है। इन्हीं परिस्थितियों के उत्पन्न होने के कारण ही गृहस्थ जीवन की दिशा निर्धारित नहीं होती। चलने से पूर्व यदि अपने गन्तव्य स्थान का निर्धारण कर लिया जाय तो मंजिल तक पहुँचने में किसी प्रकार की कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ता। इसी प्रकार पारिवारिक जीवन प्रारम्भ करने से पहले उसका आयोजन समझ लिया जाय और उसके अनुरूप ही चला जाय तो ही उत्पन्न होने वाली विकृतियों का उभार सम्भव है। अतः गृहस्थ बसाने से पूर्व उसका अर्थ एवं उद्देश्य भली प्रकार समझ लेना प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है। मूलतः गृहस्थ का अर्थ परिवार में दूसरे के प्रति आत्मीयता और संवेदना के भावों से होता है। भारतीय संस्कृति में पारिवारिक जीवन का एक निश्चित एवं श्रेष्ठ उद्देश्य रहा है। सुखी और समृद्ध जीवन के साथ- साथ सेवा, संवेदना, त्याग, उदारता आदि दैवी गुणों का विकास ही उसका मूल आधार है। वा. ४८/४.३०