Books - परिवार निर्माण
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Language: HINDI
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परिवारों का पुनर्निर्माण- एक अनिवार्य उपयोगी आवश्यकता
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परिवार निर्माण की सर्वतोमुखी सुखद सम्भावनाएँ
पारिवारिकता एक दर्शन है जिसे अपनाये बिना अन्य प्राणियों का काम तो किसी प्रकार चल भी सकता है, पर मनुष्य के लिए इसके बिना कोई गति ही नहीं। अस्तु, प्रकारान्तर से हर स्थिति के व्यक्ति को परिवार के साथ गुँथा रहना पड़ता है। ऐसी दशा में हर किसी के लिए आवश्यक है कि ऐसे महत्वपूर्ण संस्थान को परिष्कृत करने के लिए प्राणपण से प्रयत्न करे।
महिलाएँ प्रमुख भूमिका निभायें सो ठीक है, पर सब कुछ उन्हीं पर छोड़कर पुरुष वर्ग दूर से तमाशा देखे और उन्हीं से सब कुछ कर गुजरने की अपेक्षा रखे ऐसा नहीं हो सकता। मोर्चे पर लड़ना तो सैनिक को ही पड़ता है, किन्तु उसे ठीक तरह लड़ सकने और विजयी बनकर लौटने के लिए दूसरों को भी कम प्रयत्न नहीं करने पड़ते। सैनिकों को भोजन, वस्त्र, आयुध, वाहन, प्रशिक्षण, मार्ग- दर्शन आदि अनेकाने साधनों की आवश्यकता पड़ती है। इन्हें जुटाने में असंख्य मनुष्यों का अनवरत श्रम और नागरिकों का कर रूप में दिया गया अनुदान प्रचुर परिमाण में नियोजित होता है तब कहीं वह स्थिति बनती है जिसमें सैनिकों को सफलतापूर्वक मोर्चा सँभाल सकना संभव हो सके।
जाग्रत नारी की भूमिका अग्रिम होगी यह निश्चित है, पर परिवार निर्माण अभियान इतना बड़ा है जिसके लिए जाग्रत पुरुष को भी इससे कम नहीं अधिक ही प्रयास करने होंगे। सैनिक लड़ें तो पर उनका पथ प्रशस्त करने के लिए इंजीनियर, डॉक्टर, ड्राइवर, रसोइया, कारीगर आदि का अता- पता भी न हो तो विजय श्री प्राप्त करना तो दूर, मोर्चे तक पहुँचना एवं लड़ने के लिए सार्थक बनना तक सम्भव न हो सकेगा।
जाग्रत महिलाएँ परिवार निर्माण की अग्रिम भूमिकाएँ निभायें और दूसरे लोग उसको भरपूर सहयोग करने तथा साधन जुटाने में किसी प्रकार कमी न रखें तभी बात बनेगी। महिला जागरण से अभिप्राय उस पुरुष वर्ग को भी सम्मिलित रखने का है जो इस महान प्रयोजन की उपयोगिता समझते हैं और उसमें सहयोग देने के लिए उत्सुक हैं।
वा. ४८/२.४६
यह भेद अब मिटना ही चाहिये
परिवार के भावनात्मक सम्बन्धों पर आघात करके उन्हें जर्जर बनाने के लिये पुत्र और पुत्री के बीच का भेदभाव भी है। प्रारम्भ से ही उनके बीच भेद के बीज पड़ जाने से वे परिवार और समाज में अनेक शाखाओं, उपशाखाओं के रूप में फैलने लगते हैं। परिवार लड़के- लड़कियों, महिलाओं- पुरुषों से ही मिलकर बनता है। कन्या के साथ पक्षपातपूर्ण व्यवहार सिर्फ इसलिये कि वह कन्या है, नारी है, स्पष्ट रूप से मानवीय भावनाओं का हनन है। कारण जो भी रहे हों, इस स्तर का पक्षपात आज भारतीय समाज में बुरी तरह घुसा हुआ है। उसके कारण बच्चों के मनों में अहंकार अथवा आत्महीनता एवं द्वेष के बीज अनचाहे- अनजाने ही पड़ते चले जाते हैं।
पुत्र जन्मा तो बहार आ गई, हँसी- खुशी, राग- रंग, बधाइयाँ, भोज, दावतें और न जाने क्या- क्या? पुत्री जन्मी तो पतझर, दुःख, निराशा और भाग्यहीनता के उच्छ्वास। हमारी भारतीय संस्कृति में नारी की दयनीय दशा की करुण कहानी यहीं से प्रारम्भ होती है और अन्त तक दुःखान्त ही चली जाती है। बेटे का पालन- पोषण, लाड़- प्यार से इस तरह किया जाता है जैसे उसे अगले दिनों राजगद्दी मिलने वाली हो। कन्या को तो जीवन निर्वाह की सुविधायें प्रदान कर दी जाती हैं, यही क्या कम उपकार है उसके लिये?
शहरों की बात दूसरी है जहाँ सामाजिक जीवन अब नई करवट लेता जा रहा है, पर गाँवों में आज भी स्थिति यही है कि यदि किसी ने बच्ची को पढ़ाने- लिखाने का साहस दिखाया तो कक्षा ५ या अधिक से अधिक सुविधा वाले क्षेत्रों में कक्षा १० तक पढ़ा दिया और इस पढ़ाई तक पहुँचने से पूर्व ही उसके लिए साँकल तलाश दी। बेचारी ने जरा साँस ली कि गले में विवाह का बन्धन डाल दिया। लड़के अवारागर्दी करें तो माँ- बाप की यही इच्छा रहती है कि बेटा पढ़- लिखकर कुछ हो जाये उधर कन्या पढ़ने- लिखने की हार्दिक अभिलाषा को कुचलकर मन मसोस कर रह जाती है। फिर वह चाहे कितनी की बौद्धिक क्षमता सम्पन्न क्यों न हो। वा. ४८/२.८४
किसी भी पक्ष से देखें अभिभावकों एवं सन्तान के बीच भावनात्मक प्रगाढ़ता आवश्यक भी है और उपयोगी भी। बच्चों के मन में इसी आधार पर वह श्रद्धा- सद्भाव जाग्रत हो सकता है जो माता- पिता के लिए भी सुखद हो और बच्चों को जीवन में प्रगति की अनेक दिशायें खोल दे। इस सद्भाव के अभाव में ही घरों में लड़कों को बागी होते देखा जाता है। लड़कियाँ प्रत्यक्ष बगावत तो नहीं करतीं किन्तु उनके अन्दर जो असन्तोष एवं आत्महीनता दबी रहती है, वह उनकी संतानों में कुसंस्कार के बीजों के रूप में स्थापित हो जाती है। अस्तु, कुशल गृहिणी एवं गृहपति को परिवार में वह वातावरण प्रारम्भ से ही बनाना चाहिए जहाँ संतान पर समुचित अनुशासन कायम रखते हुए भी उनके बीच भावनात्मक निकटता भी बढ़ती चले। वा. ४८/२.८४
मिल- जुलकर रहने, योग्यतानुसार कमाने, आवश्यकतानुसार खर्च करने की आदर्शवादिता परिवार का मेरुदण्ड है। अध्यात्म की दृष्टि से अधिक लोगों का आत्मीयता के बन्धनों में बँधना सुख- दुःख को मिल- बाँटकर वहन करना, अधिकार को गौण और कर्तव्य को प्रमुख मानकर चलना पारिवारिकता है। वा. ४८/२.५
दूसरों की आदतें बदलने के लिए अपनी आदतें बदलनी होती हैं। दूसरों का स्वभाव सुधारने के लिए पहले अपना सुधारना होता है। उपदेशों से जानकारी भर दी जा सकती है, व्यक्ति को सुधारना उन्हीं के लिए सम्भव होता है जो अपने आपको आदर्श के रूप में विकसित कर सके हैं। शिक्षा तो सहज ही सुनी जा सकती है, पर प्रेरणा तभी मिलती है जब अनुकरण के लिए प्रभावशाली आदर्श सामने हो। ज्योतिवान दीपक ही दूसरे नयों को जलाता है। साँचे के अनुरूप ही खिलौने या पुर्जे ढलते हैं। दूसरे को कुछ सिखाना बताना भर हो तो बात दूसरी है अन्यथा, ढालने का लक्ष्य सामने हो तो सर्वप्रथम स्वयं ढलने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं।
उपदेशों को लोग मनोरंजन समझते हैं, उनसे प्रेरणा ग्रहण करने लायक उनकी मनःस्थिति नहीं होती। मनुष्य अनुकरणीय स्वभाव का है, बन्दर की तरह वह भी नकल उतारना जानता है। क्या कहा गया? इसे सुनने की अपेक्षा यह देखा जाता है कि क्या- क्या किया जा रहा है? जो किया जा रहा है वही मर्म- स्थल होता है। बाप दिन भर हुक्का गुड़गुड़ाता रहे और बेटे को छिपकर बीड़ी पीने के लिए मना करे तो वह उपदेश गले न उतरेगा। सोचा जाता है कि यदि तम्बाकू पीना वस्तुतः बुरा होता तो बाप स्वयं क्यों पीता? वह दुनिया का दुरंगापन देखता है और सोचता है कि हाथी के दाँत दिखाने के अलग और खाने के अलग होते हैं। दुनिया की कथनी और करनी में अन्तर रहता है। इस मान्यता के उपरान्त बच्चे झूठ बोलने लगते हैं। पूछने पर अपराध स्वीकार नहीं करते, उसे छिपाते हैं और दुर्व्यसनों के लिए पैसा या तो चुराते हैं या झूठ बोलकर किसी बहाने माँगकर ले जाते हैं। इस प्रकार चुपके- चुपके उनमें कुसंग, जुआ, सिनेमा, आवारागर्दी आदि दोष पनपते रहते हैं। जब प्रकट होते हैं, तब बुरी आदतें परिपक्व होकर चर्चा का विषय बन जाती हैं। वा. ४८/२.३०
परिवार को सुसंस्कारी बनाने के प्रयास में उसके लिए अग्रणी लोगों को सर्वप्रथम अपनी ही गढ़ाई करनी पड़ती है। इस सन्दर्भ में जो जितनी सफलता प्राप्त कर लेंगे उन्हें परिवार निर्माण में उसी अनुपात में सफलता मिलेगी। जो गुण सहचरों में उत्पन्न करने हैं वे सर्वप्रथम अपने में उत्पन्न करने होंगे। अनुकरणप्रिय मनुष्य प्राणी जो कुछ समझता है उसमें तो शिक्षकों के परिश्रम का फल भी कहा जा सकता है पर जो बनता है उसमें प्रायः उन्हीं के चरित्रों का योगदान होता है जो साथ रहते और प्रभावित करते हैं। कुसंग और सत्संग के परिणामों से सभी परिचित हैं, इनमें शिक्षण परामर्श नहीं वह प्रभाव काम करता है जो साथी की भली- बुरी विशिष्टता के कारण उत्पन्न होता है। वा. ४८/२.९
पारिवारिकता एक दर्शन है जिसे अपनाये बिना अन्य प्राणियों का काम तो किसी प्रकार चल भी सकता है, पर मनुष्य के लिए इसके बिना कोई गति ही नहीं। अस्तु, प्रकारान्तर से हर स्थिति के व्यक्ति को परिवार के साथ गुँथा रहना पड़ता है। ऐसी दशा में हर किसी के लिए आवश्यक है कि ऐसे महत्वपूर्ण संस्थान को परिष्कृत करने के लिए प्राणपण से प्रयत्न करे।
महिलाएँ प्रमुख भूमिका निभायें सो ठीक है, पर सब कुछ उन्हीं पर छोड़कर पुरुष वर्ग दूर से तमाशा देखे और उन्हीं से सब कुछ कर गुजरने की अपेक्षा रखे ऐसा नहीं हो सकता। मोर्चे पर लड़ना तो सैनिक को ही पड़ता है, किन्तु उसे ठीक तरह लड़ सकने और विजयी बनकर लौटने के लिए दूसरों को भी कम प्रयत्न नहीं करने पड़ते। सैनिकों को भोजन, वस्त्र, आयुध, वाहन, प्रशिक्षण, मार्ग- दर्शन आदि अनेकाने साधनों की आवश्यकता पड़ती है। इन्हें जुटाने में असंख्य मनुष्यों का अनवरत श्रम और नागरिकों का कर रूप में दिया गया अनुदान प्रचुर परिमाण में नियोजित होता है तब कहीं वह स्थिति बनती है जिसमें सैनिकों को सफलतापूर्वक मोर्चा सँभाल सकना संभव हो सके।
जाग्रत नारी की भूमिका अग्रिम होगी यह निश्चित है, पर परिवार निर्माण अभियान इतना बड़ा है जिसके लिए जाग्रत पुरुष को भी इससे कम नहीं अधिक ही प्रयास करने होंगे। सैनिक लड़ें तो पर उनका पथ प्रशस्त करने के लिए इंजीनियर, डॉक्टर, ड्राइवर, रसोइया, कारीगर आदि का अता- पता भी न हो तो विजय श्री प्राप्त करना तो दूर, मोर्चे तक पहुँचना एवं लड़ने के लिए सार्थक बनना तक सम्भव न हो सकेगा।
जाग्रत महिलाएँ परिवार निर्माण की अग्रिम भूमिकाएँ निभायें और दूसरे लोग उसको भरपूर सहयोग करने तथा साधन जुटाने में किसी प्रकार कमी न रखें तभी बात बनेगी। महिला जागरण से अभिप्राय उस पुरुष वर्ग को भी सम्मिलित रखने का है जो इस महान प्रयोजन की उपयोगिता समझते हैं और उसमें सहयोग देने के लिए उत्सुक हैं।
वा. ४८/२.४६
यह भेद अब मिटना ही चाहिये
परिवार के भावनात्मक सम्बन्धों पर आघात करके उन्हें जर्जर बनाने के लिये पुत्र और पुत्री के बीच का भेदभाव भी है। प्रारम्भ से ही उनके बीच भेद के बीज पड़ जाने से वे परिवार और समाज में अनेक शाखाओं, उपशाखाओं के रूप में फैलने लगते हैं। परिवार लड़के- लड़कियों, महिलाओं- पुरुषों से ही मिलकर बनता है। कन्या के साथ पक्षपातपूर्ण व्यवहार सिर्फ इसलिये कि वह कन्या है, नारी है, स्पष्ट रूप से मानवीय भावनाओं का हनन है। कारण जो भी रहे हों, इस स्तर का पक्षपात आज भारतीय समाज में बुरी तरह घुसा हुआ है। उसके कारण बच्चों के मनों में अहंकार अथवा आत्महीनता एवं द्वेष के बीज अनचाहे- अनजाने ही पड़ते चले जाते हैं।
पुत्र जन्मा तो बहार आ गई, हँसी- खुशी, राग- रंग, बधाइयाँ, भोज, दावतें और न जाने क्या- क्या? पुत्री जन्मी तो पतझर, दुःख, निराशा और भाग्यहीनता के उच्छ्वास। हमारी भारतीय संस्कृति में नारी की दयनीय दशा की करुण कहानी यहीं से प्रारम्भ होती है और अन्त तक दुःखान्त ही चली जाती है। बेटे का पालन- पोषण, लाड़- प्यार से इस तरह किया जाता है जैसे उसे अगले दिनों राजगद्दी मिलने वाली हो। कन्या को तो जीवन निर्वाह की सुविधायें प्रदान कर दी जाती हैं, यही क्या कम उपकार है उसके लिये?
शहरों की बात दूसरी है जहाँ सामाजिक जीवन अब नई करवट लेता जा रहा है, पर गाँवों में आज भी स्थिति यही है कि यदि किसी ने बच्ची को पढ़ाने- लिखाने का साहस दिखाया तो कक्षा ५ या अधिक से अधिक सुविधा वाले क्षेत्रों में कक्षा १० तक पढ़ा दिया और इस पढ़ाई तक पहुँचने से पूर्व ही उसके लिए साँकल तलाश दी। बेचारी ने जरा साँस ली कि गले में विवाह का बन्धन डाल दिया। लड़के अवारागर्दी करें तो माँ- बाप की यही इच्छा रहती है कि बेटा पढ़- लिखकर कुछ हो जाये उधर कन्या पढ़ने- लिखने की हार्दिक अभिलाषा को कुचलकर मन मसोस कर रह जाती है। फिर वह चाहे कितनी की बौद्धिक क्षमता सम्पन्न क्यों न हो। वा. ४८/२.८४
किसी भी पक्ष से देखें अभिभावकों एवं सन्तान के बीच भावनात्मक प्रगाढ़ता आवश्यक भी है और उपयोगी भी। बच्चों के मन में इसी आधार पर वह श्रद्धा- सद्भाव जाग्रत हो सकता है जो माता- पिता के लिए भी सुखद हो और बच्चों को जीवन में प्रगति की अनेक दिशायें खोल दे। इस सद्भाव के अभाव में ही घरों में लड़कों को बागी होते देखा जाता है। लड़कियाँ प्रत्यक्ष बगावत तो नहीं करतीं किन्तु उनके अन्दर जो असन्तोष एवं आत्महीनता दबी रहती है, वह उनकी संतानों में कुसंस्कार के बीजों के रूप में स्थापित हो जाती है। अस्तु, कुशल गृहिणी एवं गृहपति को परिवार में वह वातावरण प्रारम्भ से ही बनाना चाहिए जहाँ संतान पर समुचित अनुशासन कायम रखते हुए भी उनके बीच भावनात्मक निकटता भी बढ़ती चले। वा. ४८/२.८४
मिल- जुलकर रहने, योग्यतानुसार कमाने, आवश्यकतानुसार खर्च करने की आदर्शवादिता परिवार का मेरुदण्ड है। अध्यात्म की दृष्टि से अधिक लोगों का आत्मीयता के बन्धनों में बँधना सुख- दुःख को मिल- बाँटकर वहन करना, अधिकार को गौण और कर्तव्य को प्रमुख मानकर चलना पारिवारिकता है। वा. ४८/२.५
दूसरों की आदतें बदलने के लिए अपनी आदतें बदलनी होती हैं। दूसरों का स्वभाव सुधारने के लिए पहले अपना सुधारना होता है। उपदेशों से जानकारी भर दी जा सकती है, व्यक्ति को सुधारना उन्हीं के लिए सम्भव होता है जो अपने आपको आदर्श के रूप में विकसित कर सके हैं। शिक्षा तो सहज ही सुनी जा सकती है, पर प्रेरणा तभी मिलती है जब अनुकरण के लिए प्रभावशाली आदर्श सामने हो। ज्योतिवान दीपक ही दूसरे नयों को जलाता है। साँचे के अनुरूप ही खिलौने या पुर्जे ढलते हैं। दूसरे को कुछ सिखाना बताना भर हो तो बात दूसरी है अन्यथा, ढालने का लक्ष्य सामने हो तो सर्वप्रथम स्वयं ढलने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं।
उपदेशों को लोग मनोरंजन समझते हैं, उनसे प्रेरणा ग्रहण करने लायक उनकी मनःस्थिति नहीं होती। मनुष्य अनुकरणीय स्वभाव का है, बन्दर की तरह वह भी नकल उतारना जानता है। क्या कहा गया? इसे सुनने की अपेक्षा यह देखा जाता है कि क्या- क्या किया जा रहा है? जो किया जा रहा है वही मर्म- स्थल होता है। बाप दिन भर हुक्का गुड़गुड़ाता रहे और बेटे को छिपकर बीड़ी पीने के लिए मना करे तो वह उपदेश गले न उतरेगा। सोचा जाता है कि यदि तम्बाकू पीना वस्तुतः बुरा होता तो बाप स्वयं क्यों पीता? वह दुनिया का दुरंगापन देखता है और सोचता है कि हाथी के दाँत दिखाने के अलग और खाने के अलग होते हैं। दुनिया की कथनी और करनी में अन्तर रहता है। इस मान्यता के उपरान्त बच्चे झूठ बोलने लगते हैं। पूछने पर अपराध स्वीकार नहीं करते, उसे छिपाते हैं और दुर्व्यसनों के लिए पैसा या तो चुराते हैं या झूठ बोलकर किसी बहाने माँगकर ले जाते हैं। इस प्रकार चुपके- चुपके उनमें कुसंग, जुआ, सिनेमा, आवारागर्दी आदि दोष पनपते रहते हैं। जब प्रकट होते हैं, तब बुरी आदतें परिपक्व होकर चर्चा का विषय बन जाती हैं। वा. ४८/२.३०
परिवार को सुसंस्कारी बनाने के प्रयास में उसके लिए अग्रणी लोगों को सर्वप्रथम अपनी ही गढ़ाई करनी पड़ती है। इस सन्दर्भ में जो जितनी सफलता प्राप्त कर लेंगे उन्हें परिवार निर्माण में उसी अनुपात में सफलता मिलेगी। जो गुण सहचरों में उत्पन्न करने हैं वे सर्वप्रथम अपने में उत्पन्न करने होंगे। अनुकरणप्रिय मनुष्य प्राणी जो कुछ समझता है उसमें तो शिक्षकों के परिश्रम का फल भी कहा जा सकता है पर जो बनता है उसमें प्रायः उन्हीं के चरित्रों का योगदान होता है जो साथ रहते और प्रभावित करते हैं। कुसंग और सत्संग के परिणामों से सभी परिचित हैं, इनमें शिक्षण परामर्श नहीं वह प्रभाव काम करता है जो साथी की भली- बुरी विशिष्टता के कारण उत्पन्न होता है। वा. ४८/२.९