Books - परिवार निर्माण
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Language: HINDI
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परिवार और हमारे कर्तव्य
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वास्तव में परिवार एक ऐसी प्रयोगशाला है, जहाँ सद्गृहस्थ की
क्षमताओं का विकास निरन्तर होता जाता है। गृहस्थ जीवन की महिमा
तभी है, जब सद्गृहस्थ बन कर परिवार के प्रति अपने कर्तव्यों का
सर्वतोमुखी पालन किया जाय, अन्यथा वही परिवार दुःख और कष्ट का
कारण बन जाता है। शादी करने का दृष्टिकोण यही होना चाहिए कि
इसके माध्यम से समाज को योग्य राष्ट्रप्रेमी प्रदान किया जाय, अन्यथा काम- सेवन की दृष्टि से किया गया विवाह नरक का ही सृजन करता है।
हर व्यक्ति समाज का ऋणी है। हम आज जो भी हैं, समाज द्वारा ही विनिर्मित हैं। समाज के प्रति हमारे कर्त्तव्य की जानकारी हमें होनी चाहिए। समाज ने शिक्षा, ज्ञान, अन्न, वस्त्र आदि कितने ही प्रकार की सुविधाएँ देकर हमें प्रगति के मार्ग पर अग्रसर किया है तो हमारा भी कर्त्तव्य है कि समाज को योग्य नागरिक प्रदान कर अपनी सामाजिक- निष्ठा का परिचय दें। इसीलिए हमारे वैदिक मनीषियों ने गृहस्थाश्रम को एक प्रमुख आश्रम बताया तथा इसे धर्म का एक अंग बनाया। संसार रहने लायक तभी तक है, जब तक यहाँ प्रेम का विस्तार है। हम समाज- प्रेमी व्यक्ति समाज में बढ़ा सकते हैं, अगर गृहस्थाश्रम की महत्ता को हृदयंगम कर लेते हैं। अन्यथा वही होगा जो पश्चिमी सभ्यता के परिवारों में होता है। वहाँ के परिवार किस तरह बिखर रहे हैं, किसी से छिपा नहीं है। वा. ४८/२.१६
परिवार के सदस्यों को दुर्गुणी बनने देना समाज एवं राष्ट्र के साथ अपराध करने के समान है। समाज में अगणित चोर, डाकू, बेईमान, व्यभिचारी भरे पड़े हैं। इन कलाओं को सीखने का कोई विधिवत् विद्यालय कहीं खुला नहीं है। हमारे घर ही इन बुराईयों को सिखाने की पाठशाला होते हैं। बच्चे चुपके- चुपके यहीं से सब कुछ सीखते हैं और यहीं से प्राप्त हुई आदतें भयंकर अपराधों का रूप धारण कर लेती हैं। शिक्षा का स्थान स्कूल हो सकते हैं पर दीक्षा का स्थान तो घर ही है। बेचारा अध्यापक गणित, भूगोल, इतिहास आदि को ही पढ़ा सकता है। गुण, कर्म, स्वभाव को उत्तम बनाने की दीक्षा देने का उत्तरदायित्व घर वालों पर है, माता- पिता पर है जिन माता- पिता ने जाने या अनजाने में बुरी आदतें सिखाकर अपने बालकों को एक दुष्ट नागरिक के रूप में राष्ट्र के सामने उपस्थित किया, उन्होंने सचमुच समाज की एक बड़ी कुसेवा की है। बच्चों का भविष्य बिगाड़ने एवं अपने लिए जीवन भर कुढ़ने का सरंजाम जमा कर लेने का उत्तरदायित्व भी उनका ही मानना पड़ेगा।
हमारा पूर्ण शरीर परिवार के सभी सदस्यों से मिलकर बना है। इसे स्वस्थ रखना ही हमारा कर्तव्य है। जिस प्रकार अनुपयुक्त विचारों से हमारी देह रोगग्रस्त होती है उसी प्रकार अपने कर्तव्य को भुला देने से, परिवार के प्रति अपना दृष्टिकोण सही न रखने से ही हमारा यह कुटुम्ब- शरीर रोगग्रस्त होता है। पारिवारिक स्वास्थ्य का सुधार भी शारीरिक स्वास्थ्य को सुधारने की तरह पूर्णतया सम्भव है पर इसके लिए हमें अपने को ही सुधारना पड़ेगा, अपनी विचारधारा को ही ठीक करना पड़ेगा। अपने को सुधारने से दूसरे स्वतः ही सुधरने लगते हैं।
विलासिता के साधनों का उपभोग करने की आदत यदि छोटेपन से ही पड़ जाय तो अनावश्यक खर्च भी आवश्यक जैसे प्रतीत होने लगेंगे और उनकी पूर्ति न हो सकने पर निरन्तर दुःख बना रहेगा। जीवन की पगडण्डी बड़ी ऊबड़- खाबड़ है। कहा नहीं जा सकता है कि कब, किसे, किस स्थिति का सामना करना पड़े। आवश्यक नहीं कि जो सम्पन्नता आज है वह भविष्य में भी बनी ही रहेगी। जो आज की आमदनी है वह भविष्य में बच्चों को भी उपलब्ध होती ही रहेगी। यदि घटिया परिस्थितियाँ सामने आईं और कम खर्च में गुजारा करना पड़ा तो वे विलासी आदतें जो अभिभावकों ने लाड़- चाव में लगा दी थीं समस्त जीवनकाल में दुःखदायी रहेंगी। अभावग्रस्तता यदि सहन न हो सकी तो वे अपराधी रीति- नीति अपना लेंगे और अपना लोक- परलोक दोनों बिगाड़ेंगे। इन दूरगामी परिणामों पर जो ध्यान नहीं देते वे ही अपने परिवार को अनावश्यक विलासी साधनों का अभ्यस्त बनाते चले जाते हैं। वे नहीं जानते कि यह लाड़ चाव प्रकारान्तर से परिवार के सदस्यों के साथ शत्रुता बरतने जैसा व्यवहार ही है।
परिवार के प्रत्येक सदस्य को सुसंस्कारी बनाना गृहपति का सबसे महत्वपूर्ण और सबसे आवश्यक कर्तव्य है। सद्गुणों को स्वभाव का अंग बनाया जा सके- कर्मनिष्ठा में उत्साह स्थिर रह सके, ऐसे अभ्यास आरम्भ से ही कराये जाने चाहिए। परिस्थितियाँ ऐसी उत्पन्न करनी चाहिए जिनमें रहकर बालक मानवोचित सद्गुणों की शिक्षा प्राप्त कर सके और जीवन संग्राम में तैयारी के साथ उतर सके। परिजनों में ऐसी कर्मठता और साहसिकता उत्पन्न करने के लिए जिन अभिभावकों ने प्रबल प्रयत्न किये उन्हीं को सच्चे अर्थों में परिवार का पालनकर्ता कह सकते हैं। बुरी आदतों का अभ्यासी बनाकर जिन्दगी भर कँटीली झाड़ियों में भटकने के लिए जिन्होंने अपनी सन्तान को असहाय छोड़ दिया उन्होंने प्रकारान्तर से शत्रुता ही बरती। बालकों को विलासिता, अहंकारिता और उच्छ्रंखलता बरतने के खुले अवसर देना वस्तुतः गृह संचालक के पवित्र कर्तव्य से सर्वथा विपरीत स्तर का काम है। वा. ४८/१.४९
बड़ों को संतुष्ट रखने के लिए उनका सम्मान करना, शिष्टाचार बरतना, आदरणीय संबोधन करना, नित्य प्रणाम करना, उनके कामों में सहयोग देना, कोई नया काम करते समय उनका आशीर्वाद लेना, उनकी सुविधाओं का ध्यान रखना छोटों का कर्त्तव्य है। पर कई बार उनके विचार अनुपयुक्त, असामयिक एवं अवास्तविक होते हैं, वे ऐसे आदेश थोपते हैं जो मानने योग्य नहीं होते।
कई बार वे घूँघट, छुआछूत, दहेज, धूमधाम में अपव्यय जैसी विकृत परम्पराओं से चिपटे रहने का आग्रह करने लगते हैं। कई बार समाज- सेवा जैसे श्रेष्ठ कार्यों में अड़ंगा डालते हैं तथा स्वार्थवश केवल अपने काम से काम की सीख देने लगते हैं। इसलिए उचित- अनुचित की बात विवेक की कसौटी पर परखने के बाद ही किसी आज्ञा का पालन करना चाहिए। अनुचित आज्ञा की उपेक्षा की जा सकती है। हाँ उस अवज्ञा में भी नम्रता बनाये रखनी चाहिये। ऐसे प्रसंगों में भी उत्तेजित होने से बचना चाहिए व अवसर देखकर ही विनम्रता पूर्वक अपनी बात समझानी चाहिए।
एक- दूसरे का सहयोग करना परिवार की स्वस्थ परम्परा होनी चाहिए। हारी- बीमारी में सब सबकी पूछताछ करें और देखभाल, चिकित्सा, परिचर्या, सहानुभूति व्यक्त करने के लिए तत्परता बरतें। बड़े बच्चे छोटों को पढ़ाया करें। बड़े- बूढ़े फालतू न बैठें वरन् छोटों को कह़ानियाँ सुनाने से लेकर उन्हें टहलाने, हँसाने, खेल- खिलाने, गृह- उद्योग सिखाने, प्रश्नोत्तर से ज्ञानवृद्धि करने तथा अपनी सामर्थ्य के अनुसार पारिवारिक कार्यों में हाथ बटाने के लिए तत्पर रहें। निरर्थक समय गँवाते रहने की सुविधा को प्रतिष्ठा का प्रश्न न बनायें। मिल- जुलकर काम करने की परम्परा अपनाएँ। भोजन बनाने, सफाई रखने जैसे कार्यों का बोझ एक पर न डालकर उसमें अन्य लोग भी सहयोग करें तो उनकी मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया बहुत ही अच्छी होगी। इन सिद्धान्तों के अनुरूप हमें अपना व्यक्त्वि ढालना चाहिए और परिवार में तदनुरूप परम्पराएँ प्रचलित करनी चाहिए। ऐसे ही वातावरण में पल कर बच्चे सुसंस्कारी बनते हैं। अगली पीढ़ी को यदि उच्च शिक्षा दिला सकने की, उनके लिए सम्पत्ति छोड़ मरने की अपनी स्थिति न हो तो हर्ज नहीं, यदि उसे सद्गुणी- सुसंस्कारी बना दिया गया है तो निश्चित रहना चाहिए कि वे हर परिस्थिति में सुखी रह सकेंगे। वा. ४८/१.५५
सुधार- परिवर्तन की सरल प्रक्रिया
जिस प्रकार कृषि, व्यवसाय, उद्योग, शिल्प आदि में उसकी समग्रता अर्जित करने के लिए पूरा ध्यान देना पड़ता है। उसी प्रकार परिवार संचालन में भी सतर्कता बरतनी पड़ती है। यदि उसका एक भी पक्ष गड़बड़ाने लगे तो छोटे पुर्जे की खराबी से पूरी मशीन बन्द हो जाने जैसा संकट उठ खड़ा होता है। सम्पन्नता कितनी ही आवश्यक क्यों न हो, पर वही सब कुछ नहीं है। कई बार तो वह सर्प को दूध पिलाने की तरह अनर्थकारी भी बन जाती है। दुर्गुणों को पोषण मिलता है और वे दुष्प्रवृत्तियों का रूप धारण करके ऐसे संकट खड़े करती है, जिनसे गरीब मध्यवर्ती लोग सहज ही बच जाते हैं।
वा. ४८/२.१९
हर व्यक्ति समाज का ऋणी है। हम आज जो भी हैं, समाज द्वारा ही विनिर्मित हैं। समाज के प्रति हमारे कर्त्तव्य की जानकारी हमें होनी चाहिए। समाज ने शिक्षा, ज्ञान, अन्न, वस्त्र आदि कितने ही प्रकार की सुविधाएँ देकर हमें प्रगति के मार्ग पर अग्रसर किया है तो हमारा भी कर्त्तव्य है कि समाज को योग्य नागरिक प्रदान कर अपनी सामाजिक- निष्ठा का परिचय दें। इसीलिए हमारे वैदिक मनीषियों ने गृहस्थाश्रम को एक प्रमुख आश्रम बताया तथा इसे धर्म का एक अंग बनाया। संसार रहने लायक तभी तक है, जब तक यहाँ प्रेम का विस्तार है। हम समाज- प्रेमी व्यक्ति समाज में बढ़ा सकते हैं, अगर गृहस्थाश्रम की महत्ता को हृदयंगम कर लेते हैं। अन्यथा वही होगा जो पश्चिमी सभ्यता के परिवारों में होता है। वहाँ के परिवार किस तरह बिखर रहे हैं, किसी से छिपा नहीं है। वा. ४८/२.१६
परिवार के सदस्यों को दुर्गुणी बनने देना समाज एवं राष्ट्र के साथ अपराध करने के समान है। समाज में अगणित चोर, डाकू, बेईमान, व्यभिचारी भरे पड़े हैं। इन कलाओं को सीखने का कोई विधिवत् विद्यालय कहीं खुला नहीं है। हमारे घर ही इन बुराईयों को सिखाने की पाठशाला होते हैं। बच्चे चुपके- चुपके यहीं से सब कुछ सीखते हैं और यहीं से प्राप्त हुई आदतें भयंकर अपराधों का रूप धारण कर लेती हैं। शिक्षा का स्थान स्कूल हो सकते हैं पर दीक्षा का स्थान तो घर ही है। बेचारा अध्यापक गणित, भूगोल, इतिहास आदि को ही पढ़ा सकता है। गुण, कर्म, स्वभाव को उत्तम बनाने की दीक्षा देने का उत्तरदायित्व घर वालों पर है, माता- पिता पर है जिन माता- पिता ने जाने या अनजाने में बुरी आदतें सिखाकर अपने बालकों को एक दुष्ट नागरिक के रूप में राष्ट्र के सामने उपस्थित किया, उन्होंने सचमुच समाज की एक बड़ी कुसेवा की है। बच्चों का भविष्य बिगाड़ने एवं अपने लिए जीवन भर कुढ़ने का सरंजाम जमा कर लेने का उत्तरदायित्व भी उनका ही मानना पड़ेगा।
हमारा पूर्ण शरीर परिवार के सभी सदस्यों से मिलकर बना है। इसे स्वस्थ रखना ही हमारा कर्तव्य है। जिस प्रकार अनुपयुक्त विचारों से हमारी देह रोगग्रस्त होती है उसी प्रकार अपने कर्तव्य को भुला देने से, परिवार के प्रति अपना दृष्टिकोण सही न रखने से ही हमारा यह कुटुम्ब- शरीर रोगग्रस्त होता है। पारिवारिक स्वास्थ्य का सुधार भी शारीरिक स्वास्थ्य को सुधारने की तरह पूर्णतया सम्भव है पर इसके लिए हमें अपने को ही सुधारना पड़ेगा, अपनी विचारधारा को ही ठीक करना पड़ेगा। अपने को सुधारने से दूसरे स्वतः ही सुधरने लगते हैं।
विलासिता के साधनों का उपभोग करने की आदत यदि छोटेपन से ही पड़ जाय तो अनावश्यक खर्च भी आवश्यक जैसे प्रतीत होने लगेंगे और उनकी पूर्ति न हो सकने पर निरन्तर दुःख बना रहेगा। जीवन की पगडण्डी बड़ी ऊबड़- खाबड़ है। कहा नहीं जा सकता है कि कब, किसे, किस स्थिति का सामना करना पड़े। आवश्यक नहीं कि जो सम्पन्नता आज है वह भविष्य में भी बनी ही रहेगी। जो आज की आमदनी है वह भविष्य में बच्चों को भी उपलब्ध होती ही रहेगी। यदि घटिया परिस्थितियाँ सामने आईं और कम खर्च में गुजारा करना पड़ा तो वे विलासी आदतें जो अभिभावकों ने लाड़- चाव में लगा दी थीं समस्त जीवनकाल में दुःखदायी रहेंगी। अभावग्रस्तता यदि सहन न हो सकी तो वे अपराधी रीति- नीति अपना लेंगे और अपना लोक- परलोक दोनों बिगाड़ेंगे। इन दूरगामी परिणामों पर जो ध्यान नहीं देते वे ही अपने परिवार को अनावश्यक विलासी साधनों का अभ्यस्त बनाते चले जाते हैं। वे नहीं जानते कि यह लाड़ चाव प्रकारान्तर से परिवार के सदस्यों के साथ शत्रुता बरतने जैसा व्यवहार ही है।
परिवार के प्रत्येक सदस्य को सुसंस्कारी बनाना गृहपति का सबसे महत्वपूर्ण और सबसे आवश्यक कर्तव्य है। सद्गुणों को स्वभाव का अंग बनाया जा सके- कर्मनिष्ठा में उत्साह स्थिर रह सके, ऐसे अभ्यास आरम्भ से ही कराये जाने चाहिए। परिस्थितियाँ ऐसी उत्पन्न करनी चाहिए जिनमें रहकर बालक मानवोचित सद्गुणों की शिक्षा प्राप्त कर सके और जीवन संग्राम में तैयारी के साथ उतर सके। परिजनों में ऐसी कर्मठता और साहसिकता उत्पन्न करने के लिए जिन अभिभावकों ने प्रबल प्रयत्न किये उन्हीं को सच्चे अर्थों में परिवार का पालनकर्ता कह सकते हैं। बुरी आदतों का अभ्यासी बनाकर जिन्दगी भर कँटीली झाड़ियों में भटकने के लिए जिन्होंने अपनी सन्तान को असहाय छोड़ दिया उन्होंने प्रकारान्तर से शत्रुता ही बरती। बालकों को विलासिता, अहंकारिता और उच्छ्रंखलता बरतने के खुले अवसर देना वस्तुतः गृह संचालक के पवित्र कर्तव्य से सर्वथा विपरीत स्तर का काम है। वा. ४८/१.४९
बड़ों को संतुष्ट रखने के लिए उनका सम्मान करना, शिष्टाचार बरतना, आदरणीय संबोधन करना, नित्य प्रणाम करना, उनके कामों में सहयोग देना, कोई नया काम करते समय उनका आशीर्वाद लेना, उनकी सुविधाओं का ध्यान रखना छोटों का कर्त्तव्य है। पर कई बार उनके विचार अनुपयुक्त, असामयिक एवं अवास्तविक होते हैं, वे ऐसे आदेश थोपते हैं जो मानने योग्य नहीं होते।
कई बार वे घूँघट, छुआछूत, दहेज, धूमधाम में अपव्यय जैसी विकृत परम्पराओं से चिपटे रहने का आग्रह करने लगते हैं। कई बार समाज- सेवा जैसे श्रेष्ठ कार्यों में अड़ंगा डालते हैं तथा स्वार्थवश केवल अपने काम से काम की सीख देने लगते हैं। इसलिए उचित- अनुचित की बात विवेक की कसौटी पर परखने के बाद ही किसी आज्ञा का पालन करना चाहिए। अनुचित आज्ञा की उपेक्षा की जा सकती है। हाँ उस अवज्ञा में भी नम्रता बनाये रखनी चाहिये। ऐसे प्रसंगों में भी उत्तेजित होने से बचना चाहिए व अवसर देखकर ही विनम्रता पूर्वक अपनी बात समझानी चाहिए।
एक- दूसरे का सहयोग करना परिवार की स्वस्थ परम्परा होनी चाहिए। हारी- बीमारी में सब सबकी पूछताछ करें और देखभाल, चिकित्सा, परिचर्या, सहानुभूति व्यक्त करने के लिए तत्परता बरतें। बड़े बच्चे छोटों को पढ़ाया करें। बड़े- बूढ़े फालतू न बैठें वरन् छोटों को कह़ानियाँ सुनाने से लेकर उन्हें टहलाने, हँसाने, खेल- खिलाने, गृह- उद्योग सिखाने, प्रश्नोत्तर से ज्ञानवृद्धि करने तथा अपनी सामर्थ्य के अनुसार पारिवारिक कार्यों में हाथ बटाने के लिए तत्पर रहें। निरर्थक समय गँवाते रहने की सुविधा को प्रतिष्ठा का प्रश्न न बनायें। मिल- जुलकर काम करने की परम्परा अपनाएँ। भोजन बनाने, सफाई रखने जैसे कार्यों का बोझ एक पर न डालकर उसमें अन्य लोग भी सहयोग करें तो उनकी मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया बहुत ही अच्छी होगी। इन सिद्धान्तों के अनुरूप हमें अपना व्यक्त्वि ढालना चाहिए और परिवार में तदनुरूप परम्पराएँ प्रचलित करनी चाहिए। ऐसे ही वातावरण में पल कर बच्चे सुसंस्कारी बनते हैं। अगली पीढ़ी को यदि उच्च शिक्षा दिला सकने की, उनके लिए सम्पत्ति छोड़ मरने की अपनी स्थिति न हो तो हर्ज नहीं, यदि उसे सद्गुणी- सुसंस्कारी बना दिया गया है तो निश्चित रहना चाहिए कि वे हर परिस्थिति में सुखी रह सकेंगे। वा. ४८/१.५५
सुधार- परिवर्तन की सरल प्रक्रिया
जिस प्रकार कृषि, व्यवसाय, उद्योग, शिल्प आदि में उसकी समग्रता अर्जित करने के लिए पूरा ध्यान देना पड़ता है। उसी प्रकार परिवार संचालन में भी सतर्कता बरतनी पड़ती है। यदि उसका एक भी पक्ष गड़बड़ाने लगे तो छोटे पुर्जे की खराबी से पूरी मशीन बन्द हो जाने जैसा संकट उठ खड़ा होता है। सम्पन्नता कितनी ही आवश्यक क्यों न हो, पर वही सब कुछ नहीं है। कई बार तो वह सर्प को दूध पिलाने की तरह अनर्थकारी भी बन जाती है। दुर्गुणों को पोषण मिलता है और वे दुष्प्रवृत्तियों का रूप धारण करके ऐसे संकट खड़े करती है, जिनसे गरीब मध्यवर्ती लोग सहज ही बच जाते हैं।
वा. ४८/२.१९