Books - परिवार निर्माण
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
संयुक्त परिवार- सौभाग्य और समुन्नति का द्वार
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
संयुक्त परिवार हर तरह से उपयोगी
संयुक्त परिवार के गुणों और दोषों दोनों का विचार एवं स्मरण आवश्यक है। संगठन और सहयोग से, प्रेम एवं आत्मीयता से उपलब्ध होने वाले आनन्द तथा लाभ सम्मिलित परिवारों की स्वाभाविक उपलब्धि है। किन्तु ये अच्छाइयाँ, तभी तक बनी रहती हैं, उनके सुफल तभी तक मिलते रहते हैं, जब तक उनके आधार कायम रहें और आवश्यक नियमों का पालन किया जाता रहे। संयुक्त- परिवार में सुख- शांति एवं सुव्यवस्था का आधार आत्मीयता एवं पारस्परिक सहयोग ही होता है। जिम्मेदारियों का आपसी बँटवारा सभी के सिर का बोझ उठा सकने योग्य बना देता है। सामूहिक उपार्जन से सबसे बड़ा लाभ यह है कि सम्मिलित सम्पत्ति की मात्रा अधिक होती है और उस पर हर एक को अपना अधिकार प्रतीत होने से प्रसन्नता होती है। पारिवारिक समृद्धि परिवार के प्रत्येक सदस्य को हर्ष देती है। वह जानता है कि हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति में उसका उपयोग होगा।
उपयोग के अतिरिक्त समृद्धि का होना अपने आप में लोगों की प्रसन्नता का आधार बनता है। इसका कारण उस समृद्धि के कारण हो सकने वाली सुरक्षा का बोध ही है। संयुक्त परिवार में यह बोध गलत भी नहीं सिद्ध होता। हारी- बीमारी, विपत्ति, दुर्घटना, शोक आदि के क्षणों में परिवार की सम्पत्ति एवं सहायता काम आती है। विवाह- शादियों तथा उल्लास के अन्य आयोजनों, उत्सवों में भी जो विशेष खर्च सिर पर आ पड़ता है, उसे संयुक्त परिवार की सुदृढ़ आर्थिक स्थिति तथा मिली- जुली पूँजी से सहजता से उठाया जा सकता है। बाद में उसे स्वाभाविक क्रम से पूरा किया जाता रहता है। इससे ऋण के ब्याज तथा मानसिक बोझ दोनों से मुक्ति मिलती है। एक -दूसरे के सहयोग से पहिया लुढ़कता रहता है और अत्यधिक श्रम तथा चिन्ता का अवसर नहीं आ पाता।
मनुष्य को आर्थिक सहयोग की तो जब- तब ही आवश्यकता पड़ती है, पर मानवीय सहयोग की आवश्यकता सदैव ही पड़ती रहती है। हर्ष- उल्लास और विपत्ति- पीड़ा के अवसर पर जब परिवार के लोग एक साथ ही उठ खड़े होते हैं तथा उपने- अपने ढंग से सहायता करते हैं, तो उससे होने वाली प्रसन्नता अनुभव की ही वस्तु है। वा. ४८/३.१९
सबके साथ रहने का उल्लास ही अलग है। मनुष्य सामाजिक प्राणी है। अपरिचितों के बीच पहुँचकर भी उसका दिमाग एकान्त के तनाव- बोझ से हलका होने लगता है, यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है। परिचितों से अपने अनुभवों का सम्प्रेषण करने, आदान- प्रदान करने की ललक हर एक में होती है। फिर आत्मीय- स्वजनों के बीच उत्पन्न होने वाले उल्लास का क्या कहना! माँ की ममता भरी दृष्टि, पिता का गम्भीर व्यक्तित्व, भाई- बहिनों का उमड़ता स्नेह, मीठी नोंक- झोंक, पत्नी का प्रेम तथा बच्चों की मधुर- मधुर नटखट, कुतूहल- जिज्ञासा, तुतलाहट इन सबका सम्मिलित आनन्द मन को सरस- सक्रिय बनाये रहता है। कष्ट की स्थिति में उपलब्ध सेवा सुश्रुषा, आत्मीयता की छाया, उसे सहज तथा हलका बना देती है। मिल- जुलकर रहने से समाज में परिवार की साख बढ़ती है। लोग भी सम्मान करते हैं। विरोधी चाहे जब अहित करने की कुचेष्टा का दुस्साहस नहीं कर पाते।
संयुक्त परिवार की सम्मिलित पूँजी और विश्वस्त सहयोग नये उद्योग प्रारम्भ करने का आधार बन सकता है। दूसरे सहयोगी या नौकर लाभ के प्रति उतने उत्सुक नहीं होते या फिर निश्छल नहीं होते, अकेले लाभ कमाने के चक्कर में रहते हैं, दिन- रात जुटना भी पसन्द नहीं करते। घर की पूँजी और घर का श्रम, विश्वस्त आत्मीयों का सहयोग- सहभागिता निश्चय ही अधिक लाभ का आधार बनती है। खेती, बागवानी, पशुपालन एवं गृह उद्योग में घर के लोगों का सम्मिलित श्रम ही लाभकारी सिद्ध होता है। छोटे- बड़े, बच्चे- बूढ़े, सबके उपयुक्त काम की गुंजाइश भी होती है। न कोई निठल्ला रहता है, न बेकार। सभी शक्ति अनुसार काम करते और आवश्यकतानुसार सुविधा- साधन प्राप्त करते रहते हैं।
श्रद्धा- सम्मान, विनम्रता, सौजन्य, सन्तुलन जैसे सद्गुणों के प्रशिक्षण का सर्वाधिक उपयुक्त स्थल संयुक्त परिवार ही है। बड़ों के प्रति श्रद्धा की अभिव्यक्ति, छोटों के प्रति प्यार- दुलार की मधुरता, शील- संकोच, कब खुलकर बात करना, कब चुप रहना, कैसे- क्यों कहना, मनोरंजन आदि के समय भी कैसे मर्यादा बनाये रखना, ये सब संयुक्त परिवार में दैनन्दिन जीवन में ही स्वभाव का अंग बनते जाते हैं। अपनी आवश्यकताएँ दूसरों के तारतम्य के अनुसार मर्यादित करना, दूसरों के अंश का भी ध्यान रखना, दूसरों के लिये त्याग की तत्परता जैसे अमूल्य सद्गुण संयुक्त परिवार में ही स्वाभाविकता से सीखे जाते हैं। पति- पत्नी, बच्चों वाले परिवार में बच्चों को श्रेष्ठ गुण सीखने के अवसर कम ही मिलते हैं। उन्हें लेना ही लेना आता है, देने की त्याग की वृत्ति का उनका नियमित प्रशिक्षण नहीं हो पाता। यह भावनात्मक प्रशिक्षण संयुक्त परिवार प्रथा की सबसे बड़ी विशेषता है। श्रमशीलता, सहयोग, आत्मानुशासन, मितव्ययिता जैसे प्रगति के लिये आवश्यक गुणों का विकास पारिवारिक भावना की स्वाभाविक निष्पत्ति है। शिष्टाचार, वाक्- संयम, आवेग- आवेश पर नियन्त्रण का अभ्यास परिवार के वातावरण में अनायास होता चलता है।
साथ- साथ रहने पर कई तरह की बचत होती है। चार भाई अलग रहकर चार चुल्हे जलायेंगे। चार कमरे, चार उपकरण, चार अलग- अलग व्यवस्थाएँ जुटानी होंगी। यही बात प्रकाश, साज- सामान आदि पर लागू होती है। साथ रहने पर कम खर्च आता है। आमोद- प्रमोद के साधनों में तो अच्छी खासी बचत हो जाती है। एक रेडियो, एक अखबार, सम्मिलित पुस्तकालय से सबका काम चल जाता है। बच्चों की पुस्तकें भी एक दूसरे के काम आ जाती हैं। एक ही कक्षा के बच्चे किताबों के एक सेट से काम चला लेते हैं। इसी प्रकार अनेक मदों में बचत होती रहती है। छोटी- छोटी बचत ही कुल मिलाकर बड़ा रूप ले लेती है और ठोस लाभ का आधार बन जाती है। अपनी पत्नी- बच्चों को लेकर अलग परिवार बसा लेने वालों को रोग- विपत्ति, प्रसव- काल तथा बच्चों के लालन- पालन के समय आटा- दाल का भाव मालूम पड़ता है। ऐसे परिवार में पति या पत्नी अथवा छोटे बच्चे में एक से अधिक बीमार पड़ा, तो सारा कामकाज अव्यवस्थित होने लगता है। पत्नी रोग शय्या पर है तो घर और बच्चे की व्यवस्था सम्हालने के लिये पति अवकाश ले और खीझता- झन्नाता जैसे- तैसे काम निपटाए। घर का काम ही इतना हो जाता है कि रोगी की समुचित सुश्रुषा, देखभाल नहीं हो पाती और उसके अच्छा होने में अधिक समय लगता है। माता- पिता, भाई- बहन के साथ रहने पर, एक- दो व्यक्तियों की बीमारी से उनकी परिचर्या समान्य क्रम में ही होती रहती है, किसी एक को पूरे समय खपना नहीं पड़ता। घर में कोई अस्त- व्यस्तता नहीं आती।
यही स्थिति दुर्घटना, संकट, आकस्मिक विपत्ति के समय होती है। अकेले आदमी के ऐसे समय हाथ- पाँव ही फूलने लगते हैं। कहीं अपाहिज- असमर्थ हो गये, तो आजीविका का विकट प्रश्न आ खड़ा होता है। नौकरी छूट जाने पर बच्चों की पढ़ाई बन्द होने व उनके भूखों मरने तक की नौबत आ जाती है। संयुक्त परिवार में ऐसी भयंकर स्थिति कभी नहीं आती। परस्पर सहयोग से सब झेल लिया जाता है। जिस पत्नी को लेकर, सन्तान के अधिक अच्छे ढंग से लालन- पालन की कामना से अलग घर बसाया गया था, वह जब सचमुच ही आसन्न- प्रसवा होती है, तो खुशी का वह अवसर भी चिन्ता एवं परेशानी का पहाड़ साथ लिये आया लगने लगता है। अस्पताल में भी प्रसव- काल में घर- परिवार या परिचय की किसी स्त्री की उपस्थिति आवश्यक होती है। उस समय आत्मीय सहायक की उपस्थिति कष्ट के उन क्षणों को हलका बनाती है। प्रसव के उपरान्त लम्बे समय तक जच्चा को सेवा- सुश्रूषा की अत्यधिक आवश्यकता होती है। संयुक्त परिवार में यह सब सुगमता से होता रहता है। जबकि एकाकी परिवारों की दशा उस समय अत्यधिक कठिनाइयों से भरी हो जाती है। इसका जच्चा और बच्चा, दोनों पर हानिकारक प्रभाव पड़ सकता है। प्रसव से टूटी स्त्री लम्बे समय तक पनप नहीं पाती। उस समय यदि अधिक श्रम करना पड़ गया, उचित विश्राम न मिल पाया तो पोषक पदार्थों का संग्रह किसी काम नहीं आने का। थकान में वह खाया ही न जायेगा। शरीर टूट जायेगा, बच्चे को भी पौष्टिक दूध न मिल सकेगा। एकाकीपन अत्यधिक महँगा सिद्ध होगा। वा. ४८/३.१९
बच्चों का पालन- पोषण भी कोई हँसी- खेल नहीं है। उनके उमड़ते उल्लास से भरपूर अनन्त जिज्ञासा को प्रतिपल उचित समाधान चाहिए, कल्पना- प्रिय मन को किस्से- कहानियों का भण्डार चाहिए और सक्रिय शरीर को संरक्षक- मार्गदर्शक साथी चाहिए। बड़े- बूढ़े इन सभी आवश्यकताओं की स्वाभाविक पूर्ति करते हैं। उनके पास समय और अनुभव दोनों भरपूर होते हैं। बच्चों- बूढ़ों की जोड़ी खूब जमती है। इस प्रकार संयुक्त परिवार प्रथा से बच्चों, बूढ़ों, वयस्कों सभी को अनगिनत लाभ हैं। वयस्कों को बड़े- बूढ़ों के प्रति कृतज्ञता का मानवीय भाव रखना ही चाहिए। उनके जरा- जीर्ण शरीर को अपना बोझ आप ढोने, बिना सेवा- सहायता के दुर्गति सहने के लिये छोड़ देना कठोरता एवं कृतघ्रता है। अपने संकीर्ण सुखों की भ्रान्त कामना के कारण अपने पालकों, जीवन दाताओं को निस्सहाय छोड़ देना क्या उचित है? संयुक्त परिवार ही वह एकमात्र व्यवस्था है, जिसमें किसी विधवा या परित्यक्ता को ससम्मान मायके में शरण मिल जाती है। उसका शील पूर्णतः सुरक्षित रहता है तथा एकाकी आर्थिक भार भी नहीं उठाना पड़ता। अपनी क्षमता भर श्रम करने से उसका भी परितोष होता है और सामान्य क्रम में गुजारा हो जाता है। इसी प्रकार विधुरों को गृह- व्यवस्था की ऊब भरी झंझट नहीं मोल लेनी पड़ती। संयुक्त परिवार ही वह प्रणाली है, जिसमें असमर्थ, असहाय, अयोग्य, अविकसित लोग भी खप सकते हैं, अन्यथा वे दर- दर की ठोकरें खाते फिरते हैं और समाज के नियमों के लिये एक समस्या बने रहते हैं।
इस प्रकार संयुक्त परिवार हर तरह से उपयोगी लाभकारी एवं आवश्यक है, लेकिन सिर्फ तब, जब वे अपने आधारों पर खड़े हों। अपनी अन्तर्निहित प्रेरणाओं से भरे हों।
वा. ४८/३.२१
सामंजस्य की रीति- नीति
जिस परिवार में सुख, शान्ति और संतोष विद्यमान हो वह स्वर्ग के समान है। इसके विपरीत जिस घर में कलह, अशांति और असन्तोष हो वह नर्क के समान होता है। इसमें कोई सन्देह नहीं।
भारत में अधिकतर संयुक्त परिवार परिपाटी चली आ रही है। पाश्चात्य देशों में विवाह होने पर पुत्र और पुत्रवधू परिवार से अलग रहने लगते हैं। माता- पिता के लिए मासिक या वार्षिक पेन्शन भेजकर अपने कर्त्तव्य की इति- श्री समझ बैठते हैं। माता- पिता या कोई पारिवारिक सदस्य अस्पताल में बीमार पड़ा हो तो पुत्र औपचारिकता के नाते सम्वेदना का तार भिजवाकर संतोष कर लेता है, परन्तु हमारे देश में अभी तक ऐसी स्थिति पैदा नहीं हुई है। यहाँ भी पारिवारिक विघटन की स्थिति प्रायः पैदा हो रही है। माँ- बाप के सुनहले स्वप्न साकार नहीं हो पाते। पुत्र पैदा होने पर यही इच्छा रहती है कि कब बड़ा हो? कब हमारे जीते जी इसका विवाह हो? कब बहू आए? कब बहू आए? इत्यादि। कभी- कभी वे बाल- विवाह कर देने में कोई हर्ज नहीं समझते। ऐसी स्थिति में कोई (अबोध नवदम्पत्ति) अपने कर्त्तव्य को कैसे समझ पाएगा? कभी- कभी चट मँगनी और पट ब्याह भी हो जाती है।
नई बहू परिवार के प्रत्येक सदस्य के लिए आकर्षण का केन्द्र बन जाती है। स्वभावतः पुत्र द्वारा माँ के स्नेह में कमी आ जाती है। यदि दुर्भाग्यवश बहू को दहेज कम मिला हो तो सास के सामने सिर उठाने की हिम्मत नहीं पड़ती। कोई न कोई बहाना ढूँढ़कर बहू को डाँटने, फटकारने, भला- बुरा कहने में कोई और कोर- कसर बाकी नहीं रखती। कोई सुशील स्वभाव की बहू हो तो चुपचाप कड़वा घूँट पीकर आत्महीनता एवं ग्लानि का जीवन जी लेती है। यदि तेज तर्रार हुई तो खूब जम कर ठनती है। पति दुविधा में पड़ जाता है कि क्या किया जाए? किसका पक्ष लिया जाए? सास- बहू, ननद- भावज और देवरानी- जेठानी के कलह से सारा परिवार परेशान हो जाता है। वा. ४८/३.३६
भारतीय परिवारों में सास- बहू का झगड़ा सदियों पुराना बन गया है। बहू एक नये भिन्न परिवार की लड़की है, जिसे अपने ससुराल की कोई जानकारी नहीं। घर का काम- काज और सदस्य उसके लिए अजनबी है। उसे उचित मार्गदर्शन की आवश्यकता है। वह अपनी सास से माँ का प्रेम प्राप्त करना चाहती है, किसी कमाण्डर जैसे व्यवहार को नहीं। उससे किसी भी कार्य से गलती होना स्वाभाविक है, अतः अच्छी प्रकार उसे काम समझाया जाना चाहिए। वह अपने मायके की हेठी और आलोचना सहन नहीं कर सकती, भले ही वह किसी निर्धन परिवार की लड़की हो। आत्म सम्मान की रक्षा हर व्यक्ति करना चाहता है फिर उसे क्यों वंचित किया जाए? यह जरूरी नहीं कि बहू तो सर्वगुण सम्पन्न हो और सास झगड़े की जड़। बहू जब अपने कर्त्तव्य में जान- बूझकर उपेक्षा करती है, धृष्टता, दुर्जनता का व्यवहार करती है, तो सास बड़ी होने के नाते यह कैसे सहन कर लेगी? जहाँ सास से यह अपेक्षा की जाती है कि वह बहू को पुत्रीवत् देखे, मातृवत् स्नेह दे, वहाँ बहू से भी यह आशा की जाती है कि वह सास को सर्वोपरि सम्मान दे। घरेलू काम- काज को कर्त्तव्य समझकर करती रहे, भावज और देवरानी के बच्चों को नहलाए, उनके कपड़े साफ करे और उन्हें प्यार करे। परिवार के सभी बड़ों की यथायोग्य सेवा करे। सहनशीलता, सूझ- बूझ, कार्य- कुशलता और श्रमशीलता का परिचय दे। किसी से अशिष्ट व्यवहार न करे। तभी पारिवारिक कलह की समूल समाप्ति हो सकती है।
माँ- बाप बच्चों को जन्म दे देते हैं, किन्तु सही लालन- पालन सुसंस्कार देने की आवश्यकता नहीं समझते। बच्चे परिवार की इकाइयाँ हैं। इनकी उपेक्षा देश के प्रति उपेक्षा होगी। बच्चों को संस्कारवान एवं स्वस्थ बनाने के लिए निम्रलिखित बातों की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए।
(१) माता- पिता अपने लाड़ले को अनावश्यक कुछ भी न सिखाएँ। खाने- पीने और शौचादि का समय निश्चित कर दीजिए। कम से कम एक वर्ष तक माँ को अपने बालक को स्तनपान कराना ही चाहिए। तभी माँ के संस्कार बच्चे में प्रविष्ट हो सकते हैं। बच्चे को आवश्यकता से अधिक न खिलाएँ, हर वक्त खिलाते रहने से उसे अपच ही होगा।
(२) बच्चों को भूत- प्रेत और अन्धेरे का भय मत दिखाइए। इस से बच्चे का स्वभाव शंकालु और डरपोक हो जाता है। व्यक्तित्व के विकास के लिए निडरता का होना परमावश्यक है।
(३) पारिवारिक कलह के घिनौने वातावरण से बच्चों को दूर रखा जाए। गाली- गलौज देने वालों से बच्चों का सम्पर्क न हो। शिष्टाचार के पालन में तनिक भी कठोरता न बरती जाए।
(४) पारिवारिक व्यक्ति अपने व्यसनों का प्रदर्शन बच्चों के सामने न करें। बच्चा- बन्दर की भाँति नकलची होता है। धूम्रपान करने वाला और शराबी पिता अनायास ही ये दुर्गुण विरासत में अपनी सन्तान को दे देता है।
(५) जादू- परियों और दैत्यों की कहानी के बजाय महापुरुषों के प्रेरक प्रसंग बच्चों के मनःस्तरानुसार सुनाने चाहिए, जिससे उनमें निर्भीकता, वीरता, साहस, सज्जनता, दया, विवेक और परहित कातरता आदि गुण स्वतः विकसित हो सकें।
पारिवारिक शांति, समृद्धि एवं हित के लिए अपव्यय को रोकना आवश्यक है। फैशन, मृत्युभोज, ब्रह्मभोज एवं अन्य असंगत कार्यों पर धन खर्च करने की अपेक्षा बच्चों को सुशिक्षित, सुसंस्कारी बनाने पर धन खर्च किया जाना चाहिए।
समय का अपव्यय भी एक विकट समस्या है। स्त्रियाँ खाली समय में प्रायः निरर्थक बातें या किसी की निन्दा करती हैं। खाली समय में परिवार की शिक्षित स्त्रियाँ घर की सजावट- सफाई का कार्य कर सकती हैं अथवा कोई अन्य दस्तकारी का काम कर सकती हैं। इससे परिवार की आर्थिक स्थिति कुछ हद तक सुधर सकती है। परिवार के प्रबुद्ध व्यक्ति अपने व्यस्त जीवन से समय निकालकर परिवार के सदस्यों की सम्भावित त्रुटियाँ दूर करने के लिए प्रेम तथा लगन से काम करें। उन्हें चरित्रवान्, सद्गुणी एवं परोपकारी बनाने के लिए उत्साहित करें। यह तभी सम्भव हो सकता है यदि परिवार का मुखिया इस स्तर का व्यक्ति हो। वा. ४८/३.३७
पृथकता छोड़ें- सामूहिकता अपनायें
यह समस्त विश्व एक शरीर की तरह है। इसमें मनुष्य का स्थान एक उँगली के बराबर समझा जा सकता है। उँगली का महत्व तभी तक है जब तक कि वह शरीर के साथ जुड़ी हुई है।
असंख्य आत्माओं में जगमगाने वाली चेतना की ज्योति का केन्द्र एक ही है। पानी की प्रत्येक लहर पर एक- अलग सूर्य चमकता है, पर वस्तुतः वह एक ही सूर्य की अनेक प्रति- छवियाँ हैं। समुद्र की हर लहर का अस्तित्व भिन्न दिखाई पड़ने पर भी वस्तुतः वे विशाल सागर की हिलोरें ही हैं। इस समस्त विश्व में केवल एक ही समष्टि आत्मा है- जिसे परमात्मा के नाम से पुकारते हैं। सबमें वही प्रतिभाषित हो रहा है, जो माला की मणियों के मध्य पिरोये हुए धागे की तरह पृथक दीखने वाले प्राणियों को परस्पर एक सूत्र में बाँधे हुए है। इस बन्धन में बँधे रहना ही श्रेयस्कर है। समग्र का परित्याग कर जब हम पृथक होते हैं, अपने अहंकार की पूर्ति के लिये अपना वर्चस्व प्रकट करने और अलग रहकर अधिक सुविधा प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं तब हम भारी भूल करते हैं। पाते कुछ नहीं खोते बहुत हैं। समग्रता के वैभव से लाभान्वित होने की सुविधा खो बैठते हैं और एकाकीपन के साथ मिलने वाली तुच्छता हर दृष्टि से अपर्याप्त सिद्ध होती है।
अँगुली हाथ से अलग कटकर रहने की तैयारी करते समय यह सोचती है कि मैं क्यों सारे दिन हाथ का आदाब बजाऊँ? क्यों उसके इशारे पर नाचूँ? इसमें मेरा क्या लाभ? मेरे परिश्रम और वर्चस्व का लाभ मुझे क्यों न मिले? यह अलग रहकर ही हो सकता है। इसलिए अलग ही रहना चाहिए। अपने श्रम और उपार्जन का लाभ स्वयं ही उठाना चाहिए। यह सोचकर हाथ से कटकर अलग रहने वाली उँगली कुछ ही समय में देखती है कि उसका अनुमान गलत था। शरीर के साथ जुड़े रहने पर उसे जो जीवनदाता रक्त मिलता था वह मिलना बन्द हो गया। उसके अभाव में वह सूख कर सड़ गई। उस सड़े टुकड़े को छूने में भी लोगों ने परहेज किया जब कि हाथ में साथ जुड़े रहने पर वह भगवान का पूजन करती थी। हाथ मिलाते समय बड़ों के स्पर्श का आनन्द लेती थी। महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखती थी। बड़े काम करने का श्रेय प्राप्त करती थी। पृथक होने के साथ- साथ वह सारी सुविधाएँ भी समाप्त हो गईं। अँगुली नफे में नहीं घाटे में रही।
फूल का अपना अलग भी महत्व है, पर वह नहीं जो माला में गुँथे रहने पर होता है। एकाकी फूल किसी महापुरुष या देवता के गले में नहीं लिपट सकता। यह आकांक्षा तो सूत्रात्मा को आत्म समर्पण कर माला में गुँथने के बाद ही पूरी हो सकती है। व्यक्तिवादी, एकाकी स्वार्थी, संकीर्ण मनुष्य समूहगत चेतना से अपने को अलग रखने की सोच सकता है। अपने ही लाभ में निमग्न रह सकता है। दूसरों की उपेक्षा कर सकता है, उन्हें क्षति पहुँचा सकता है और इस प्रकार अपने उपार्जन को, शोषणात्मक उपलब्धियों को अपने लिए अधिक मात्रा में संग्रह कर सकता है, पर अन्ततः यह दृष्टिकोण अदूरदर्शितापूर्ण सिद्ध होता है। पृथकता के साथ जुड़ी हुई दुर्बलता उसे उन सब लाभों से वंचित कर देती है, जो समूह का अंग बनकर रहने से ही मिल सकते थे।
समुद्र की हर लहर अपना सरंजाम अलग खड़ा करे तो वे तनिक से जल के रूप में बिखर जायेंगी और ज्वार- भाटे के समय उनका जो गौरव देखकर लोग आश्चर्यचकित रह जाते थे, उससे उन्हें वंचित ही रहना पड़ेगा। नौकाओं को पलट देने की शक्ति, गरजती हुई ध्वनि फिर उनमें कहाँ रहेगी? किसी गढ्डे में पड़ी सूख जायेंगी। अपने स्वरूप को भी स्थिर न रख सकेंगी। सूखने के बाद उनका अस्तित्व, उनकी सरसता की चर्चा का अस्तित्व भी मिटा देगा। वहाँ सूखा नमक भर शमशान की राख की तरह पड़ा होगा? लहरें समुद्र से पृथक अपने अस्तित्व का स्वतंत्र निर्माण करने की एषणा, महत्वाकांक्षा के आवेश में भटकने का ही उपक्रम करती हैं। लाभ के लोभ में घाटा ही वरण करती हैं।
ईंटों के समन्वय से भवन बनते हैं। बूँदों के मिश्रण से बादल बनते हैं। परमाणुओं का सहयोग पदार्थ की रचना करता है। अवयवों का संगठित स्वरूप शरीर है। पुर्जों की घनिष्टता मशीन के रूप में परिणत होती है। पंचतत्वों से मिलकर यह विश्व सृजा है। पंच प्राण इस काया को जीवित रखे हुए हैं। दलबद्ध योद्धा ही समर्थ सेना है। कर्मचारियों का गठित समूह ही सरकार चलाता है। यदि इन संघटकों में पृथकतावादी प्रवृत्ति पनपे और डेढ़ चावल की खिचड़ी अलग- अलग पकने लगे तो जो कुछ महान दिखाई पड़ता है तुच्छता में बदल जायगा। वा. ४८/३.३९
तुच्छता अपना अस्तित्व तक बनाये रख सकने में असमर्थ है। प्रगति भी पारस्परिक सहयोग पर निर्भर है। दूसरों को पीछे छोड़कर एकाकी आगे बढ़ जाने की बात सोचने वाले उन संकटों से अपरिचित रहते हैं जो एकाकी के अस्तित्व को ही संकट में डाल सकते हैं। अँगुली हाथ से कटकर अलग से अपने बलबूते पर प्रगति करने की कल्पना भर कर सकती है। व्यावहारिक क्षेत्र में उतरने पर ही यह कडुई सच्चाई सामने आती है कि पृथकता लाभदायक दीखती भर है वस्तुतः लाभदायक तो सामूहिकता ही है।
एक ही आत्मा सबमें समाया हुआ है। इस तथ्य को गम्भीरतापूर्वक समझना चाहिए और एक ही सूर्य की असंख्य लहरों पर चमकने के पीछे सन्निहित वस्तुस्थिति पर ध्यान देना चाहिए। हम सब परस्पर सघनतापूर्वक एक- दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं। मानवीय प्रगति का गौरवशाली इतिहास उसकी समूहवादी प्रवृत्ति का ही सत्परिणाम है। बुद्धि का विकास भी सामूहिक चेतना के फलस्वरूप ही सम्भव हुआ है। बुद्धि ने सामूहिकता विकसित नहीं की, सहयोग की वृत्ति ने बुद्धि का विकास संभव किया है।
हमें समूह का एक अंग होकर रहना चाहिए। अपने को समाज का एक घटक अनुभव करना चाहिए। प्रगति एकाकी नहीं हो सकती। सुविधाओं का उपभोग एकाकी किया जाय तो उससे अगणित विकृतियाँ उत्पन्न होंगी। बाहर ईर्ष्या- द्वेष बढ़ेगा, आक्रमणकारी बढ़ेंगे और व्यसनों की भरमार आ धमकेगी। अन्तस में चोर जैसी आत्मग्लानि खाने लगेगी और परिवार में आपा- धापी पैदा होगी। व्यक्तिगत बड़प्पन के प्रयत्नों को ही तो स्वार्थ कहा जाता है। स्वार्थी सम्मान नहीं तिरस्कार प्राप्त करता है। उस मार्ग पर चलते हुए उत्थान नहीं पतन ही हाथ लगता है। संकीर्णता की परिधि में आबद्ध पोखर का जल सड़ेगा और सूखेगा ही। स्वच्छता और सजीवता तो प्रवाह के साथ जुड़ी हुई है। बहता हुआ जल ही सराहा जाता रहा है।
हम पृथकतावादी न बनें। व्यक्तिगत बड़प्पन के फेर में न पड़ें। अपनी प्रतिभा अलग से चमकाने का झंझट मोल न लें। समूह के अंग बनकर रहें। सबकी उन्नति में अपनी उन्नति देखें और सबके सुख में अपना सुख खोजें। यह मानकर चलें कि उपलब्ध प्रतिभा, सम्पदा एवं गरिमा समाज का अनुदान है और उसका श्रेष्ठतम उपयोग समाज को सज्जनतापूर्वक लौटा देने में ही है।
समुद्र बादलों को देता है, बादल जमीन को देता है, जमीन नदियों के द्वारा उस जल को पुनः समुद्र में पहुँचा देती है। यही क्रम विश्व की स्थिरता, हरितिमा शांति और शीतलता का आधार है। हम अपने को विस्तृत करें। सबको अपने में और अपने को सब में देखें। आत्माओं में चमकती हुई परमात्मा की सत्ता को समझें। यदि ऐसा कर सके तो हमें व्यक्तिवाद की तुच्छता छोड़कर समूहवाद की महानता ही वरण करनी पड़ेगी। वा. ४८/३.४०
संयुक्त परिवार के गुणों और दोषों दोनों का विचार एवं स्मरण आवश्यक है। संगठन और सहयोग से, प्रेम एवं आत्मीयता से उपलब्ध होने वाले आनन्द तथा लाभ सम्मिलित परिवारों की स्वाभाविक उपलब्धि है। किन्तु ये अच्छाइयाँ, तभी तक बनी रहती हैं, उनके सुफल तभी तक मिलते रहते हैं, जब तक उनके आधार कायम रहें और आवश्यक नियमों का पालन किया जाता रहे। संयुक्त- परिवार में सुख- शांति एवं सुव्यवस्था का आधार आत्मीयता एवं पारस्परिक सहयोग ही होता है। जिम्मेदारियों का आपसी बँटवारा सभी के सिर का बोझ उठा सकने योग्य बना देता है। सामूहिक उपार्जन से सबसे बड़ा लाभ यह है कि सम्मिलित सम्पत्ति की मात्रा अधिक होती है और उस पर हर एक को अपना अधिकार प्रतीत होने से प्रसन्नता होती है। पारिवारिक समृद्धि परिवार के प्रत्येक सदस्य को हर्ष देती है। वह जानता है कि हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति में उसका उपयोग होगा।
उपयोग के अतिरिक्त समृद्धि का होना अपने आप में लोगों की प्रसन्नता का आधार बनता है। इसका कारण उस समृद्धि के कारण हो सकने वाली सुरक्षा का बोध ही है। संयुक्त परिवार में यह बोध गलत भी नहीं सिद्ध होता। हारी- बीमारी, विपत्ति, दुर्घटना, शोक आदि के क्षणों में परिवार की सम्पत्ति एवं सहायता काम आती है। विवाह- शादियों तथा उल्लास के अन्य आयोजनों, उत्सवों में भी जो विशेष खर्च सिर पर आ पड़ता है, उसे संयुक्त परिवार की सुदृढ़ आर्थिक स्थिति तथा मिली- जुली पूँजी से सहजता से उठाया जा सकता है। बाद में उसे स्वाभाविक क्रम से पूरा किया जाता रहता है। इससे ऋण के ब्याज तथा मानसिक बोझ दोनों से मुक्ति मिलती है। एक -दूसरे के सहयोग से पहिया लुढ़कता रहता है और अत्यधिक श्रम तथा चिन्ता का अवसर नहीं आ पाता।
मनुष्य को आर्थिक सहयोग की तो जब- तब ही आवश्यकता पड़ती है, पर मानवीय सहयोग की आवश्यकता सदैव ही पड़ती रहती है। हर्ष- उल्लास और विपत्ति- पीड़ा के अवसर पर जब परिवार के लोग एक साथ ही उठ खड़े होते हैं तथा उपने- अपने ढंग से सहायता करते हैं, तो उससे होने वाली प्रसन्नता अनुभव की ही वस्तु है। वा. ४८/३.१९
सबके साथ रहने का उल्लास ही अलग है। मनुष्य सामाजिक प्राणी है। अपरिचितों के बीच पहुँचकर भी उसका दिमाग एकान्त के तनाव- बोझ से हलका होने लगता है, यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है। परिचितों से अपने अनुभवों का सम्प्रेषण करने, आदान- प्रदान करने की ललक हर एक में होती है। फिर आत्मीय- स्वजनों के बीच उत्पन्न होने वाले उल्लास का क्या कहना! माँ की ममता भरी दृष्टि, पिता का गम्भीर व्यक्तित्व, भाई- बहिनों का उमड़ता स्नेह, मीठी नोंक- झोंक, पत्नी का प्रेम तथा बच्चों की मधुर- मधुर नटखट, कुतूहल- जिज्ञासा, तुतलाहट इन सबका सम्मिलित आनन्द मन को सरस- सक्रिय बनाये रहता है। कष्ट की स्थिति में उपलब्ध सेवा सुश्रुषा, आत्मीयता की छाया, उसे सहज तथा हलका बना देती है। मिल- जुलकर रहने से समाज में परिवार की साख बढ़ती है। लोग भी सम्मान करते हैं। विरोधी चाहे जब अहित करने की कुचेष्टा का दुस्साहस नहीं कर पाते।
संयुक्त परिवार की सम्मिलित पूँजी और विश्वस्त सहयोग नये उद्योग प्रारम्भ करने का आधार बन सकता है। दूसरे सहयोगी या नौकर लाभ के प्रति उतने उत्सुक नहीं होते या फिर निश्छल नहीं होते, अकेले लाभ कमाने के चक्कर में रहते हैं, दिन- रात जुटना भी पसन्द नहीं करते। घर की पूँजी और घर का श्रम, विश्वस्त आत्मीयों का सहयोग- सहभागिता निश्चय ही अधिक लाभ का आधार बनती है। खेती, बागवानी, पशुपालन एवं गृह उद्योग में घर के लोगों का सम्मिलित श्रम ही लाभकारी सिद्ध होता है। छोटे- बड़े, बच्चे- बूढ़े, सबके उपयुक्त काम की गुंजाइश भी होती है। न कोई निठल्ला रहता है, न बेकार। सभी शक्ति अनुसार काम करते और आवश्यकतानुसार सुविधा- साधन प्राप्त करते रहते हैं।
श्रद्धा- सम्मान, विनम्रता, सौजन्य, सन्तुलन जैसे सद्गुणों के प्रशिक्षण का सर्वाधिक उपयुक्त स्थल संयुक्त परिवार ही है। बड़ों के प्रति श्रद्धा की अभिव्यक्ति, छोटों के प्रति प्यार- दुलार की मधुरता, शील- संकोच, कब खुलकर बात करना, कब चुप रहना, कैसे- क्यों कहना, मनोरंजन आदि के समय भी कैसे मर्यादा बनाये रखना, ये सब संयुक्त परिवार में दैनन्दिन जीवन में ही स्वभाव का अंग बनते जाते हैं। अपनी आवश्यकताएँ दूसरों के तारतम्य के अनुसार मर्यादित करना, दूसरों के अंश का भी ध्यान रखना, दूसरों के लिये त्याग की तत्परता जैसे अमूल्य सद्गुण संयुक्त परिवार में ही स्वाभाविकता से सीखे जाते हैं। पति- पत्नी, बच्चों वाले परिवार में बच्चों को श्रेष्ठ गुण सीखने के अवसर कम ही मिलते हैं। उन्हें लेना ही लेना आता है, देने की त्याग की वृत्ति का उनका नियमित प्रशिक्षण नहीं हो पाता। यह भावनात्मक प्रशिक्षण संयुक्त परिवार प्रथा की सबसे बड़ी विशेषता है। श्रमशीलता, सहयोग, आत्मानुशासन, मितव्ययिता जैसे प्रगति के लिये आवश्यक गुणों का विकास पारिवारिक भावना की स्वाभाविक निष्पत्ति है। शिष्टाचार, वाक्- संयम, आवेग- आवेश पर नियन्त्रण का अभ्यास परिवार के वातावरण में अनायास होता चलता है।
साथ- साथ रहने पर कई तरह की बचत होती है। चार भाई अलग रहकर चार चुल्हे जलायेंगे। चार कमरे, चार उपकरण, चार अलग- अलग व्यवस्थाएँ जुटानी होंगी। यही बात प्रकाश, साज- सामान आदि पर लागू होती है। साथ रहने पर कम खर्च आता है। आमोद- प्रमोद के साधनों में तो अच्छी खासी बचत हो जाती है। एक रेडियो, एक अखबार, सम्मिलित पुस्तकालय से सबका काम चल जाता है। बच्चों की पुस्तकें भी एक दूसरे के काम आ जाती हैं। एक ही कक्षा के बच्चे किताबों के एक सेट से काम चला लेते हैं। इसी प्रकार अनेक मदों में बचत होती रहती है। छोटी- छोटी बचत ही कुल मिलाकर बड़ा रूप ले लेती है और ठोस लाभ का आधार बन जाती है। अपनी पत्नी- बच्चों को लेकर अलग परिवार बसा लेने वालों को रोग- विपत्ति, प्रसव- काल तथा बच्चों के लालन- पालन के समय आटा- दाल का भाव मालूम पड़ता है। ऐसे परिवार में पति या पत्नी अथवा छोटे बच्चे में एक से अधिक बीमार पड़ा, तो सारा कामकाज अव्यवस्थित होने लगता है। पत्नी रोग शय्या पर है तो घर और बच्चे की व्यवस्था सम्हालने के लिये पति अवकाश ले और खीझता- झन्नाता जैसे- तैसे काम निपटाए। घर का काम ही इतना हो जाता है कि रोगी की समुचित सुश्रुषा, देखभाल नहीं हो पाती और उसके अच्छा होने में अधिक समय लगता है। माता- पिता, भाई- बहन के साथ रहने पर, एक- दो व्यक्तियों की बीमारी से उनकी परिचर्या समान्य क्रम में ही होती रहती है, किसी एक को पूरे समय खपना नहीं पड़ता। घर में कोई अस्त- व्यस्तता नहीं आती।
यही स्थिति दुर्घटना, संकट, आकस्मिक विपत्ति के समय होती है। अकेले आदमी के ऐसे समय हाथ- पाँव ही फूलने लगते हैं। कहीं अपाहिज- असमर्थ हो गये, तो आजीविका का विकट प्रश्न आ खड़ा होता है। नौकरी छूट जाने पर बच्चों की पढ़ाई बन्द होने व उनके भूखों मरने तक की नौबत आ जाती है। संयुक्त परिवार में ऐसी भयंकर स्थिति कभी नहीं आती। परस्पर सहयोग से सब झेल लिया जाता है। जिस पत्नी को लेकर, सन्तान के अधिक अच्छे ढंग से लालन- पालन की कामना से अलग घर बसाया गया था, वह जब सचमुच ही आसन्न- प्रसवा होती है, तो खुशी का वह अवसर भी चिन्ता एवं परेशानी का पहाड़ साथ लिये आया लगने लगता है। अस्पताल में भी प्रसव- काल में घर- परिवार या परिचय की किसी स्त्री की उपस्थिति आवश्यक होती है। उस समय आत्मीय सहायक की उपस्थिति कष्ट के उन क्षणों को हलका बनाती है। प्रसव के उपरान्त लम्बे समय तक जच्चा को सेवा- सुश्रूषा की अत्यधिक आवश्यकता होती है। संयुक्त परिवार में यह सब सुगमता से होता रहता है। जबकि एकाकी परिवारों की दशा उस समय अत्यधिक कठिनाइयों से भरी हो जाती है। इसका जच्चा और बच्चा, दोनों पर हानिकारक प्रभाव पड़ सकता है। प्रसव से टूटी स्त्री लम्बे समय तक पनप नहीं पाती। उस समय यदि अधिक श्रम करना पड़ गया, उचित विश्राम न मिल पाया तो पोषक पदार्थों का संग्रह किसी काम नहीं आने का। थकान में वह खाया ही न जायेगा। शरीर टूट जायेगा, बच्चे को भी पौष्टिक दूध न मिल सकेगा। एकाकीपन अत्यधिक महँगा सिद्ध होगा। वा. ४८/३.१९
बच्चों का पालन- पोषण भी कोई हँसी- खेल नहीं है। उनके उमड़ते उल्लास से भरपूर अनन्त जिज्ञासा को प्रतिपल उचित समाधान चाहिए, कल्पना- प्रिय मन को किस्से- कहानियों का भण्डार चाहिए और सक्रिय शरीर को संरक्षक- मार्गदर्शक साथी चाहिए। बड़े- बूढ़े इन सभी आवश्यकताओं की स्वाभाविक पूर्ति करते हैं। उनके पास समय और अनुभव दोनों भरपूर होते हैं। बच्चों- बूढ़ों की जोड़ी खूब जमती है। इस प्रकार संयुक्त परिवार प्रथा से बच्चों, बूढ़ों, वयस्कों सभी को अनगिनत लाभ हैं। वयस्कों को बड़े- बूढ़ों के प्रति कृतज्ञता का मानवीय भाव रखना ही चाहिए। उनके जरा- जीर्ण शरीर को अपना बोझ आप ढोने, बिना सेवा- सहायता के दुर्गति सहने के लिये छोड़ देना कठोरता एवं कृतघ्रता है। अपने संकीर्ण सुखों की भ्रान्त कामना के कारण अपने पालकों, जीवन दाताओं को निस्सहाय छोड़ देना क्या उचित है? संयुक्त परिवार ही वह एकमात्र व्यवस्था है, जिसमें किसी विधवा या परित्यक्ता को ससम्मान मायके में शरण मिल जाती है। उसका शील पूर्णतः सुरक्षित रहता है तथा एकाकी आर्थिक भार भी नहीं उठाना पड़ता। अपनी क्षमता भर श्रम करने से उसका भी परितोष होता है और सामान्य क्रम में गुजारा हो जाता है। इसी प्रकार विधुरों को गृह- व्यवस्था की ऊब भरी झंझट नहीं मोल लेनी पड़ती। संयुक्त परिवार ही वह प्रणाली है, जिसमें असमर्थ, असहाय, अयोग्य, अविकसित लोग भी खप सकते हैं, अन्यथा वे दर- दर की ठोकरें खाते फिरते हैं और समाज के नियमों के लिये एक समस्या बने रहते हैं।
इस प्रकार संयुक्त परिवार हर तरह से उपयोगी लाभकारी एवं आवश्यक है, लेकिन सिर्फ तब, जब वे अपने आधारों पर खड़े हों। अपनी अन्तर्निहित प्रेरणाओं से भरे हों।
वा. ४८/३.२१
सामंजस्य की रीति- नीति
जिस परिवार में सुख, शान्ति और संतोष विद्यमान हो वह स्वर्ग के समान है। इसके विपरीत जिस घर में कलह, अशांति और असन्तोष हो वह नर्क के समान होता है। इसमें कोई सन्देह नहीं।
भारत में अधिकतर संयुक्त परिवार परिपाटी चली आ रही है। पाश्चात्य देशों में विवाह होने पर पुत्र और पुत्रवधू परिवार से अलग रहने लगते हैं। माता- पिता के लिए मासिक या वार्षिक पेन्शन भेजकर अपने कर्त्तव्य की इति- श्री समझ बैठते हैं। माता- पिता या कोई पारिवारिक सदस्य अस्पताल में बीमार पड़ा हो तो पुत्र औपचारिकता के नाते सम्वेदना का तार भिजवाकर संतोष कर लेता है, परन्तु हमारे देश में अभी तक ऐसी स्थिति पैदा नहीं हुई है। यहाँ भी पारिवारिक विघटन की स्थिति प्रायः पैदा हो रही है। माँ- बाप के सुनहले स्वप्न साकार नहीं हो पाते। पुत्र पैदा होने पर यही इच्छा रहती है कि कब बड़ा हो? कब हमारे जीते जी इसका विवाह हो? कब बहू आए? कब बहू आए? इत्यादि। कभी- कभी वे बाल- विवाह कर देने में कोई हर्ज नहीं समझते। ऐसी स्थिति में कोई (अबोध नवदम्पत्ति) अपने कर्त्तव्य को कैसे समझ पाएगा? कभी- कभी चट मँगनी और पट ब्याह भी हो जाती है।
नई बहू परिवार के प्रत्येक सदस्य के लिए आकर्षण का केन्द्र बन जाती है। स्वभावतः पुत्र द्वारा माँ के स्नेह में कमी आ जाती है। यदि दुर्भाग्यवश बहू को दहेज कम मिला हो तो सास के सामने सिर उठाने की हिम्मत नहीं पड़ती। कोई न कोई बहाना ढूँढ़कर बहू को डाँटने, फटकारने, भला- बुरा कहने में कोई और कोर- कसर बाकी नहीं रखती। कोई सुशील स्वभाव की बहू हो तो चुपचाप कड़वा घूँट पीकर आत्महीनता एवं ग्लानि का जीवन जी लेती है। यदि तेज तर्रार हुई तो खूब जम कर ठनती है। पति दुविधा में पड़ जाता है कि क्या किया जाए? किसका पक्ष लिया जाए? सास- बहू, ननद- भावज और देवरानी- जेठानी के कलह से सारा परिवार परेशान हो जाता है। वा. ४८/३.३६
भारतीय परिवारों में सास- बहू का झगड़ा सदियों पुराना बन गया है। बहू एक नये भिन्न परिवार की लड़की है, जिसे अपने ससुराल की कोई जानकारी नहीं। घर का काम- काज और सदस्य उसके लिए अजनबी है। उसे उचित मार्गदर्शन की आवश्यकता है। वह अपनी सास से माँ का प्रेम प्राप्त करना चाहती है, किसी कमाण्डर जैसे व्यवहार को नहीं। उससे किसी भी कार्य से गलती होना स्वाभाविक है, अतः अच्छी प्रकार उसे काम समझाया जाना चाहिए। वह अपने मायके की हेठी और आलोचना सहन नहीं कर सकती, भले ही वह किसी निर्धन परिवार की लड़की हो। आत्म सम्मान की रक्षा हर व्यक्ति करना चाहता है फिर उसे क्यों वंचित किया जाए? यह जरूरी नहीं कि बहू तो सर्वगुण सम्पन्न हो और सास झगड़े की जड़। बहू जब अपने कर्त्तव्य में जान- बूझकर उपेक्षा करती है, धृष्टता, दुर्जनता का व्यवहार करती है, तो सास बड़ी होने के नाते यह कैसे सहन कर लेगी? जहाँ सास से यह अपेक्षा की जाती है कि वह बहू को पुत्रीवत् देखे, मातृवत् स्नेह दे, वहाँ बहू से भी यह आशा की जाती है कि वह सास को सर्वोपरि सम्मान दे। घरेलू काम- काज को कर्त्तव्य समझकर करती रहे, भावज और देवरानी के बच्चों को नहलाए, उनके कपड़े साफ करे और उन्हें प्यार करे। परिवार के सभी बड़ों की यथायोग्य सेवा करे। सहनशीलता, सूझ- बूझ, कार्य- कुशलता और श्रमशीलता का परिचय दे। किसी से अशिष्ट व्यवहार न करे। तभी पारिवारिक कलह की समूल समाप्ति हो सकती है।
माँ- बाप बच्चों को जन्म दे देते हैं, किन्तु सही लालन- पालन सुसंस्कार देने की आवश्यकता नहीं समझते। बच्चे परिवार की इकाइयाँ हैं। इनकी उपेक्षा देश के प्रति उपेक्षा होगी। बच्चों को संस्कारवान एवं स्वस्थ बनाने के लिए निम्रलिखित बातों की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए।
(१) माता- पिता अपने लाड़ले को अनावश्यक कुछ भी न सिखाएँ। खाने- पीने और शौचादि का समय निश्चित कर दीजिए। कम से कम एक वर्ष तक माँ को अपने बालक को स्तनपान कराना ही चाहिए। तभी माँ के संस्कार बच्चे में प्रविष्ट हो सकते हैं। बच्चे को आवश्यकता से अधिक न खिलाएँ, हर वक्त खिलाते रहने से उसे अपच ही होगा।
(२) बच्चों को भूत- प्रेत और अन्धेरे का भय मत दिखाइए। इस से बच्चे का स्वभाव शंकालु और डरपोक हो जाता है। व्यक्तित्व के विकास के लिए निडरता का होना परमावश्यक है।
(३) पारिवारिक कलह के घिनौने वातावरण से बच्चों को दूर रखा जाए। गाली- गलौज देने वालों से बच्चों का सम्पर्क न हो। शिष्टाचार के पालन में तनिक भी कठोरता न बरती जाए।
(४) पारिवारिक व्यक्ति अपने व्यसनों का प्रदर्शन बच्चों के सामने न करें। बच्चा- बन्दर की भाँति नकलची होता है। धूम्रपान करने वाला और शराबी पिता अनायास ही ये दुर्गुण विरासत में अपनी सन्तान को दे देता है।
(५) जादू- परियों और दैत्यों की कहानी के बजाय महापुरुषों के प्रेरक प्रसंग बच्चों के मनःस्तरानुसार सुनाने चाहिए, जिससे उनमें निर्भीकता, वीरता, साहस, सज्जनता, दया, विवेक और परहित कातरता आदि गुण स्वतः विकसित हो सकें।
पारिवारिक शांति, समृद्धि एवं हित के लिए अपव्यय को रोकना आवश्यक है। फैशन, मृत्युभोज, ब्रह्मभोज एवं अन्य असंगत कार्यों पर धन खर्च करने की अपेक्षा बच्चों को सुशिक्षित, सुसंस्कारी बनाने पर धन खर्च किया जाना चाहिए।
समय का अपव्यय भी एक विकट समस्या है। स्त्रियाँ खाली समय में प्रायः निरर्थक बातें या किसी की निन्दा करती हैं। खाली समय में परिवार की शिक्षित स्त्रियाँ घर की सजावट- सफाई का कार्य कर सकती हैं अथवा कोई अन्य दस्तकारी का काम कर सकती हैं। इससे परिवार की आर्थिक स्थिति कुछ हद तक सुधर सकती है। परिवार के प्रबुद्ध व्यक्ति अपने व्यस्त जीवन से समय निकालकर परिवार के सदस्यों की सम्भावित त्रुटियाँ दूर करने के लिए प्रेम तथा लगन से काम करें। उन्हें चरित्रवान्, सद्गुणी एवं परोपकारी बनाने के लिए उत्साहित करें। यह तभी सम्भव हो सकता है यदि परिवार का मुखिया इस स्तर का व्यक्ति हो। वा. ४८/३.३७
पृथकता छोड़ें- सामूहिकता अपनायें
यह समस्त विश्व एक शरीर की तरह है। इसमें मनुष्य का स्थान एक उँगली के बराबर समझा जा सकता है। उँगली का महत्व तभी तक है जब तक कि वह शरीर के साथ जुड़ी हुई है।
असंख्य आत्माओं में जगमगाने वाली चेतना की ज्योति का केन्द्र एक ही है। पानी की प्रत्येक लहर पर एक- अलग सूर्य चमकता है, पर वस्तुतः वह एक ही सूर्य की अनेक प्रति- छवियाँ हैं। समुद्र की हर लहर का अस्तित्व भिन्न दिखाई पड़ने पर भी वस्तुतः वे विशाल सागर की हिलोरें ही हैं। इस समस्त विश्व में केवल एक ही समष्टि आत्मा है- जिसे परमात्मा के नाम से पुकारते हैं। सबमें वही प्रतिभाषित हो रहा है, जो माला की मणियों के मध्य पिरोये हुए धागे की तरह पृथक दीखने वाले प्राणियों को परस्पर एक सूत्र में बाँधे हुए है। इस बन्धन में बँधे रहना ही श्रेयस्कर है। समग्र का परित्याग कर जब हम पृथक होते हैं, अपने अहंकार की पूर्ति के लिये अपना वर्चस्व प्रकट करने और अलग रहकर अधिक सुविधा प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं तब हम भारी भूल करते हैं। पाते कुछ नहीं खोते बहुत हैं। समग्रता के वैभव से लाभान्वित होने की सुविधा खो बैठते हैं और एकाकीपन के साथ मिलने वाली तुच्छता हर दृष्टि से अपर्याप्त सिद्ध होती है।
अँगुली हाथ से अलग कटकर रहने की तैयारी करते समय यह सोचती है कि मैं क्यों सारे दिन हाथ का आदाब बजाऊँ? क्यों उसके इशारे पर नाचूँ? इसमें मेरा क्या लाभ? मेरे परिश्रम और वर्चस्व का लाभ मुझे क्यों न मिले? यह अलग रहकर ही हो सकता है। इसलिए अलग ही रहना चाहिए। अपने श्रम और उपार्जन का लाभ स्वयं ही उठाना चाहिए। यह सोचकर हाथ से कटकर अलग रहने वाली उँगली कुछ ही समय में देखती है कि उसका अनुमान गलत था। शरीर के साथ जुड़े रहने पर उसे जो जीवनदाता रक्त मिलता था वह मिलना बन्द हो गया। उसके अभाव में वह सूख कर सड़ गई। उस सड़े टुकड़े को छूने में भी लोगों ने परहेज किया जब कि हाथ में साथ जुड़े रहने पर वह भगवान का पूजन करती थी। हाथ मिलाते समय बड़ों के स्पर्श का आनन्द लेती थी। महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखती थी। बड़े काम करने का श्रेय प्राप्त करती थी। पृथक होने के साथ- साथ वह सारी सुविधाएँ भी समाप्त हो गईं। अँगुली नफे में नहीं घाटे में रही।
फूल का अपना अलग भी महत्व है, पर वह नहीं जो माला में गुँथे रहने पर होता है। एकाकी फूल किसी महापुरुष या देवता के गले में नहीं लिपट सकता। यह आकांक्षा तो सूत्रात्मा को आत्म समर्पण कर माला में गुँथने के बाद ही पूरी हो सकती है। व्यक्तिवादी, एकाकी स्वार्थी, संकीर्ण मनुष्य समूहगत चेतना से अपने को अलग रखने की सोच सकता है। अपने ही लाभ में निमग्न रह सकता है। दूसरों की उपेक्षा कर सकता है, उन्हें क्षति पहुँचा सकता है और इस प्रकार अपने उपार्जन को, शोषणात्मक उपलब्धियों को अपने लिए अधिक मात्रा में संग्रह कर सकता है, पर अन्ततः यह दृष्टिकोण अदूरदर्शितापूर्ण सिद्ध होता है। पृथकता के साथ जुड़ी हुई दुर्बलता उसे उन सब लाभों से वंचित कर देती है, जो समूह का अंग बनकर रहने से ही मिल सकते थे।
समुद्र की हर लहर अपना सरंजाम अलग खड़ा करे तो वे तनिक से जल के रूप में बिखर जायेंगी और ज्वार- भाटे के समय उनका जो गौरव देखकर लोग आश्चर्यचकित रह जाते थे, उससे उन्हें वंचित ही रहना पड़ेगा। नौकाओं को पलट देने की शक्ति, गरजती हुई ध्वनि फिर उनमें कहाँ रहेगी? किसी गढ्डे में पड़ी सूख जायेंगी। अपने स्वरूप को भी स्थिर न रख सकेंगी। सूखने के बाद उनका अस्तित्व, उनकी सरसता की चर्चा का अस्तित्व भी मिटा देगा। वहाँ सूखा नमक भर शमशान की राख की तरह पड़ा होगा? लहरें समुद्र से पृथक अपने अस्तित्व का स्वतंत्र निर्माण करने की एषणा, महत्वाकांक्षा के आवेश में भटकने का ही उपक्रम करती हैं। लाभ के लोभ में घाटा ही वरण करती हैं।
ईंटों के समन्वय से भवन बनते हैं। बूँदों के मिश्रण से बादल बनते हैं। परमाणुओं का सहयोग पदार्थ की रचना करता है। अवयवों का संगठित स्वरूप शरीर है। पुर्जों की घनिष्टता मशीन के रूप में परिणत होती है। पंचतत्वों से मिलकर यह विश्व सृजा है। पंच प्राण इस काया को जीवित रखे हुए हैं। दलबद्ध योद्धा ही समर्थ सेना है। कर्मचारियों का गठित समूह ही सरकार चलाता है। यदि इन संघटकों में पृथकतावादी प्रवृत्ति पनपे और डेढ़ चावल की खिचड़ी अलग- अलग पकने लगे तो जो कुछ महान दिखाई पड़ता है तुच्छता में बदल जायगा। वा. ४८/३.३९
तुच्छता अपना अस्तित्व तक बनाये रख सकने में असमर्थ है। प्रगति भी पारस्परिक सहयोग पर निर्भर है। दूसरों को पीछे छोड़कर एकाकी आगे बढ़ जाने की बात सोचने वाले उन संकटों से अपरिचित रहते हैं जो एकाकी के अस्तित्व को ही संकट में डाल सकते हैं। अँगुली हाथ से कटकर अलग से अपने बलबूते पर प्रगति करने की कल्पना भर कर सकती है। व्यावहारिक क्षेत्र में उतरने पर ही यह कडुई सच्चाई सामने आती है कि पृथकता लाभदायक दीखती भर है वस्तुतः लाभदायक तो सामूहिकता ही है।
एक ही आत्मा सबमें समाया हुआ है। इस तथ्य को गम्भीरतापूर्वक समझना चाहिए और एक ही सूर्य की असंख्य लहरों पर चमकने के पीछे सन्निहित वस्तुस्थिति पर ध्यान देना चाहिए। हम सब परस्पर सघनतापूर्वक एक- दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं। मानवीय प्रगति का गौरवशाली इतिहास उसकी समूहवादी प्रवृत्ति का ही सत्परिणाम है। बुद्धि का विकास भी सामूहिक चेतना के फलस्वरूप ही सम्भव हुआ है। बुद्धि ने सामूहिकता विकसित नहीं की, सहयोग की वृत्ति ने बुद्धि का विकास संभव किया है।
हमें समूह का एक अंग होकर रहना चाहिए। अपने को समाज का एक घटक अनुभव करना चाहिए। प्रगति एकाकी नहीं हो सकती। सुविधाओं का उपभोग एकाकी किया जाय तो उससे अगणित विकृतियाँ उत्पन्न होंगी। बाहर ईर्ष्या- द्वेष बढ़ेगा, आक्रमणकारी बढ़ेंगे और व्यसनों की भरमार आ धमकेगी। अन्तस में चोर जैसी आत्मग्लानि खाने लगेगी और परिवार में आपा- धापी पैदा होगी। व्यक्तिगत बड़प्पन के प्रयत्नों को ही तो स्वार्थ कहा जाता है। स्वार्थी सम्मान नहीं तिरस्कार प्राप्त करता है। उस मार्ग पर चलते हुए उत्थान नहीं पतन ही हाथ लगता है। संकीर्णता की परिधि में आबद्ध पोखर का जल सड़ेगा और सूखेगा ही। स्वच्छता और सजीवता तो प्रवाह के साथ जुड़ी हुई है। बहता हुआ जल ही सराहा जाता रहा है।
हम पृथकतावादी न बनें। व्यक्तिगत बड़प्पन के फेर में न पड़ें। अपनी प्रतिभा अलग से चमकाने का झंझट मोल न लें। समूह के अंग बनकर रहें। सबकी उन्नति में अपनी उन्नति देखें और सबके सुख में अपना सुख खोजें। यह मानकर चलें कि उपलब्ध प्रतिभा, सम्पदा एवं गरिमा समाज का अनुदान है और उसका श्रेष्ठतम उपयोग समाज को सज्जनतापूर्वक लौटा देने में ही है।
समुद्र बादलों को देता है, बादल जमीन को देता है, जमीन नदियों के द्वारा उस जल को पुनः समुद्र में पहुँचा देती है। यही क्रम विश्व की स्थिरता, हरितिमा शांति और शीतलता का आधार है। हम अपने को विस्तृत करें। सबको अपने में और अपने को सब में देखें। आत्माओं में चमकती हुई परमात्मा की सत्ता को समझें। यदि ऐसा कर सके तो हमें व्यक्तिवाद की तुच्छता छोड़कर समूहवाद की महानता ही वरण करनी पड़ेगी। वा. ४८/३.४०