Books - परिवार निर्माण
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Language: HINDI
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हमारा परिवार तथा भिन्न- भिन्न संबंध
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परिवार स्वयं ही एक आनन्द- उल्लास, संतोष, समाधान, निर्वाह, सहयोग जैसी सुखद सम्वेदनाओं एवं परिस्थितियों का भरापूरा गुल्दस्ता
है। उस कल्पवृक्ष की छाया में सभी सदस्यों की अपने- अपने ढंग
की विभूतियों से लाभान्वित होने का अवसर मिलता है। पति- पत्नी
गृहस्थ के बन्धनों में बँधकर एक प्रकार का रसास्वादन करते हैं।
भाई- भाई दूसरी तरह का, बहिन- बहिन तीसरी तरह का, भाई- बहिन चौथी
तरह का, माता- सन्तान पाँचवीं तरह का, अतिथि- आगन्तुक आठवीं तरह का,
पड़ोसी- सम्बन्धी नौवीं तरह का। इन रसास्वादनों
को कल्पना सम्वेदना की अनुभूति से घर के सभी सदस्यों की
आपबीती से भी बढ़कर अन्य बीती की गुदगुदी का आनन्द मिलता रहता
है। पोषण, सुरक्षा, सुविधा, सहायता, शिक्षा की अनेकानेक उपलब्धियाँ हर
किसी को मिलती हैं। साथ ही अनुशासन, उत्तरदायित्व और शिष्टाचार के
निर्वाह का ऐसा अभ्यास बनता है, जिसके बिना मनुष्य का स्तर
वनमानुष से बढ़कर नहीं हो सकता। सभ्यता और संस्कृति का आरम्भिक और
अमिट प्रभाव छोड़ने वाला विद्यालय परिवार का वातावरण ही है। वा. ४८/१.१६
परिवार समाज की एक छोटी इकाई है। जिसके आधार पर मनुष्य स्वयं में सामाजिक गुणों का विकास करके दुर्लभ लाभ प्राप्त करता है। इस तथ्य के अनुसार एक महत्वपूर्ण सूत्र उभरकर सामने आता है, वह यह कि परिवार का अर्थ मात्र पति- पत्नी और एकाध बच्चा नहीं। सामाजिक जीवन का अभ्यास तदनुकूल गुणों का विकास उतने मात्र से सम्भव नहीं। उसके लिए तो भारतीय पद्धति के संयुक्त परिवार जिसमें पति- पत्नी एवं बच्चों के अतिरिक्त चाचा, ताऊ, बाबा, दादा, मौसी, बुआ, भतीजे, भतीजियाँ आदि अनेक तरह के अनेक स्तर के व्यक्तियों का समावेश रहता है। विदेशों में बड़े परिवारों को बेकार का झंझट समझकर उनकी उपेक्षा करके पति- पत्नी एवं बच्चों के छोटे परिवार बसाने के प्रयोग किए गये हैं। निश्चित रूप से ऐसे परिवारों की रचना व्यक्तिगत मौज- मजे को लक्ष्य करके की जाती है। उसमें भी वे कितनी सफलता पाते हैं यह बात भिन्न है, किन्तु ऐसा करके वे परिवार संस्था के मूल उद्देश्य से ही भटक जाते हैं।
वा. ४८/१.२
परिवार एक प्रकार का प्रजातन्त्र है, जिसमें मुखिया प्रेसीडेन्ट तथा परिवार के अन्य सज्जन प्रजा हैं। पिता- माता, पुत्र- पुत्री, भाई- बहिन, चाचा- चाची, भईया- भाभी, नौकर इत्यादि सभी का इसमें सहयोग है। यदि सभी अपने सम्बन्ध आदर्श बनाने का प्रयत्न करें, तो हमारे समस्त झगड़े क्षण मात्र में दूर हो सकते हैं। वा. ४८/१.१८
क्या आप पिता है? यदि हैं तो आप पर उत्तरदायित्व का सबसे अधिक भार है। घर का प्रत्येक व्यक्ति आपसे पथप्रदर्शन की आशा करता है। संकट के समय सहायता, मानसिक क्लेश के समय सान्त्वना और शैथिल्य में प्रेरणात्मक उत्साह चाहता है। पिता बनना सबसे कठिन है क्योंकि इसमें छोटे- बड़ों सभी को इस प्रकार संतुष्ट रखना पड़ता है कि किसी से कटुता भी न हो और कार्य भी होता रहे। घर के सब झगड़े भी दूर होते चलें और किसी के मन में गाँठ भी न पड़े। परिवार के सब सदस्यों की आर्थिक आवश्यकताएँ भी पूर्ण होती रहें और कर्ज भी न हो, विवाह, उत्सव, यात्राएँ, दान भी यथाशक्ति दिये जाते रहें। आज के युग में पिता- पुत्र में जो कड़ुवाहट आ गयी है वह नितान्त संकुचित है। पुत्र अपने अधिकार माँगता है, किन्तु कर्त्तव्यों के प्रति मुख मोड़ता है। जमीन, जायदाद में हिस्सा माँगता है, किन्तु वृद्ध पिता के आत्म- सम्मान, स्वास्थ्य, उत्तरदायित्व, इच्छाओं पर कुठाराघात करता है। पुत्र ने परिवार के बन्धन शिथिल कर दिये हैं। घर- घर में व्यक्तिगत स्वतन्त्रता तथा अनुशासन विरोध का कुचक्र फैल रहा है। यह प्रत्येक दृष्टि से निन्दनीय एवं त्याज्य है। वा. ४८/१.१९
सन्तान के साथ हमारा व्यवहार
यह कभी न भूलें कि हमारे गृह में पदार्पण करने वाले हमारे आत्मस्वरूप ये बालक भावी नागरिक हैं, जो समाज और देश का निर्माण करने वाले हैं। ईश्वर की ओर से हमारा यह कर्तव्य है कि उनकी सुशिक्षा, शिष्टता तथा परिष्कार की समस्या में हम पर्याप्त दिलचस्पी लें। अपनी सन्तान को केवल जीवन के सुख और इच्छापूर्ति मात्र की ही शिक्षा न दो, वरन् उनको धार्मिक जीवन, सदाचार और कर्त्तव्यपालन, आध्यात्मिक जीवन की भी शिक्षा प्रदान करो। इस स्वार्थमय समय में ऐसे माता- पिता विशेषतः धनवानों में विरले ही मिलेंगे, जो संतान की शिक्षा के भार को, जो उनके ऊपर है, ठीक- ठीक परिमाण में तौल सकें।
जैसा वातावरण तुम्हारे घर का है, उसी साँचे में ढल कर तुम्हारी सन्तानों का मानसिक संस्थान, आदतें, सांस्कृतिक स्तर का निर्माण होगा। जबकि तुम अपने भाइयों के प्रति दयालु, उदार और संयमी नहीं हो, तो अपनी सन्तान से क्या आशा करते हो कि वे तुम्हारे प्रति प्रेम दिखलाएँगे। जब तुम अपना मन विषय- वासना, आमोद- प्रमोद तथा कुत्सित इच्छाओं से नहीं रोक सकते, तो भला वे क्यों न कामुक और इन्द्रिय लोलुप होंगे। यदि तुम माँस, मद्य या अन्य अभक्ष्य पदार्थों का उपयोग करते हो, तो वे भला किस प्रकार अपनी प्राकृतिक पवित्रता और दूध जैसी निष्कलंकता को दूर रख सकेंगे। यदि तुम अपनी अश्लील और निर्लज्ज आदतों, गन्दी गालियों, अशिष्ट व्यवहारों को नहीं छोड़ते, तो भला तुम्हारे बालक किस प्रकार गन्दी आदतें छोड़ सकेंगे।
तुम्हारे शब्द, व्यवहार, दैनिक कार्य, सोना, उठना- बैठना ऐसे साँचे हैं, जिनमें उनकी मुलायम प्रकृति और आदतें ढाली जाती हैं। वे तुम्हारी प्रत्येक सूक्ष्म बात देखते और उनका अनुकरण करते हैं। तुम उनके सामने एक मॉडल, एक नमूने या आदर्श हो, जिसके समीप वे पहुँच रहे हैं। इसलिए यह तुम्हीं पर निर्भर है कि तुम्हारी सन्तान मनुष्य हो या मनुष्याकृति वाले पशु। वा. ४८/१.२१
बड़ों के आदेश और उनका सम्मान
परिवार का संतुलन बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि उसमें वयोवृद्धों के प्रति क्या दृष्टिकोण है? सद्भाव सम्पन्न परिजनों में सभी एक दूसरे के सम्मान का ध्यान रखते हैं, किन्तु वयोवृद्धों के प्रति विशेष रूप से सम्मान व्यक्त करना आवश्यक है। उस सद्भाव के आधार पर ही उनके अनुभव एवं मार्गदर्शन का समुचित लाभ उठाया जा सकता है। वा. ४८/२.८५
बड़ों के प्रति सम्मान और अनुशासन होना पारिवारिक संगठन का आधार है। यह संगठन जहाँ प्रेम मूलक होता है, वहाँ पारस्परिक आत्मीयता होती है। एक सदस्य दूसरे सदस्य का ध्यान रखता है और अधिकार के स्थान पर कर्त्तव्य की प्रधानता रहती है। इस स्थिति में सुख और अमन के लिए बाह्य साधनों पर नितान्त अवलम्बित नहीं होना पड़ता। लोगों में पारस्परिक स्नेह और आत्मीयता हो तो कोई कारण नहीं कि घरेलू वातावरण कष्टप्रद लगे।
पारस्परिक अनुशासन सुख और व्यवस्था का मेरुदण्ड है, इसे अक्षुण्ण बनाये रखने के लिऐ यह आवश्यक है कि लोगों में बड़ों के प्रति आदर का भाव बना रहे। ऐसा होने से उस वातावरण में श्रद्धा और विश्वास में कमी नहीं होने पाती और वह संगठन सुदृढ़ स्थिति में कायम बना रहता है। जब तक यह संगठन कायम बना रहता है तब तक धन- धान्य की भी कमी नहीं रहती और बाहरी लोगों के आक्रमण भी सफल नहीं होते। इसलिए इस भावना को पवित्र दैवी तत्व माना गया है। पितरों को पूजने की प्रथा बड़ों के प्रति आस्था का ही चिह्न है। वा. ४८/२.८७
परिजनों के सुधार की पूर्ण प्रक्रिया
माता- पिता का दायित्व
अभिमन्यु को चक्रव्यूह भेदन की शिक्षा अर्जुन ने तब दी थी, जब वह अपनी माता सुभद्रा के गर्भ में था। प्रत्येक बालक अभिमन्यु की परिस्थिति में होता है, उसे जो कुछ सिखाया जाता है, वह हम अर्जुन की तरह अपनी वाणी, क्रिया द्वारा उसे सिखा सकते हैं। रानी मदालसा ने अपने बच्चों को गर्भ में ही ब्रह्मज्ञान की शिक्षा देकर ब्रह्मज्ञानी उत्पन्न किया था। जब उसके पति ने एक बालक राजकाज के उपयुक्त बनाने का अनुरोध किया तो मदालसा ने उन्हीं गुणों का एक तेजस्वी बालक उत्पन्न कर दिया। हर माता की स्थिति मदालसा की- सी होती है। यदि वह अपने गुण, कर्म, स्वभाव में आवश्यक सुधार कर ले तो वैसे ही गुणवान् बालक को जन्म दे सकती है, जैसा कि वह चाहे। ऊसर खेत और सड़े बीज के संयोग से जैसे बेतुके अविकसित पौधे पैदा हो सकते हैं, आज वैसे ही बच्चे हमारे घरों में जन्मते हैं। गुलाब के फूल बढ़िया खेत में अच्छे माली के पुरुषार्थ से उगाये जाते हैं, पर कँटीली झाड़ियाँ चाहे जहाँ, चाहे जब उपज पड़ती हैं। अच्छी संतान सुसंस्कारी माता- पिता ही प्रयत्नपूर्वक उत्पन्न कर सकते हैं, किन्तु कुसंस्कारी बालक हर कोई फूहड़ स्त्री- पुरुष उगलते रह सकते हैं। अच्छी सद्गुणी संतान की आकांक्षा गुलाब की फसल उगाने की तरह है, जिसके लिए माँ- बाप को काफी पहले अपने आपको संस्कारवान् बनाने के लिए तत्पर होना पड़ता है। यदि यह कार्य हमें कठिन लगता हो तो संस्कारवान् संतान की आकांक्षा भी छोड़ देनी चाहिए और जैसे भी उद्दंड, दुर्गुणी, कुसंस्कारी, दुर्मति बच्चे जन्में उन्हें अपनी करनी का फल मानकर संतोष कर लेना चाहिए।
भावनात्मक एकरूपता
इस युग में पारिवारिक सम्बन्धों में जो कड़ुवाहट आ गई है, वह मनुष्य के संकुचित दृष्टिकोण और स्वार्थपूर्ण प्रवृत्ति के परिणाम स्वरूप ही है। स्वार्थपरता आसुरी प्रवृत्ति है जो छीना- झपटी, विग्रह और कलह पैदा करती है। सद्भाव दैवीय प्रवृत्ति है। उससे प्रभावित परिवार का हर सदस्य एक दूसरे को देवताओं की तरह कुछ न कुछ देना ही चाहता है। इस मार्ग पर चलकर सभी सुख एवं सम्मान पाते हैं, वैसे- वैसे पिता और पुत्र, पिता और पुत्री के सम्बन्ध बड़े कोमल, मधुर और सात्विक होते हैं। इस अध्यात्मिक सम्बन्ध का सहृदयतापूर्वक पालन करने वाले व्यक्ति देव- श्रेणी में आते हैं। उनकी मान और प्रतिष्ठा होनी ही चाहिये।
व्यक्ति का भावनात्मक प्रशिक्षण माता करती है। उसके रक्त, माँस और ओजस् से बालक का निर्माण होता है। कितने कष्ट सहती है वह बेटे के लिए। स्वयं गीले बिस्तर में सोकर बच्चे को सूखे में सुलाते रहने की कष्टसाध्य क्रिया पूरी करने की हिम्मत भला है किसी में? माता का हृदय दया- पवित्रता से ओत- प्रोत है, उसे जलाओ तो भी दया की ही सुगन्ध निकलती है, पीसो तो दया का ही रस निकलता है। ऐसी दया और ममत्व की मूर्ति माता के प्रति हार्दिक सम्मान का भाव रखना कौन अनुचित कहेगा?
इसी क्रम में राम और भरत, गोरा और बादल के आदर्श भ्रातृ- प्रेम को फिर से पुनर्जीवित करना है। इससे हमारी शक्ति हमारी सद्भावनाएँ जाग्रत होंगी। हमारा साहस बढ़ेगा और पुरुषार्थ पनपेगा। स्नेहमयी बहिन, उदारता की मूर्ति भावजों को भी उसी तरह सम्मान प्रदर्शित करना चाहिये, जिस तरह माता के प्रति अपनी शालीनतापूर्ण भावनाएँ हों। घर का वातावरण कुछ इस तरह का शील- संयुक्त, हँसमुख और उदार बने, जिससे सारा परिवार हरा- भरा नजर आए। इसके लिए धन आदि उपकरणों की उतनी आवश्यकता नहीं है, जितनी अपने सम्बन्धियों के प्रति कर्तव्य और सेवा भावना की। परिवार में सौमनस्य हो तो वहाँ न तो सुख की कमी रहेगी, न शांति की। उस घर में आह्लाद फूट पड़ रहा होगा, जहाँ सबके दिल मिले होंगे। वा. ४८/२.१५
परिवार के सम्बन्धों की चर्चा उठते ही अभिभावकों एवं सन्तान का स्मरण अनायास ही हो जाता है। यह हर छोटे- बड़े परिवार के अनिवार्य घटक हैं। माता- पिता अथवा पुत्री- पुत्र के रूप में संसार के हर व्यक्ति को रहना ही पड़ता है। उनके परस्पर एक दूसरे के प्रति कर्तव्यों के बारे में बहुत कुछ कहा जाता रहा है। माता- पिता के संतान के प्रति तथा संतान के माता- पिता के प्रति कर्तव्यों की सूची बहुत विशद् है। उनका पालन करने वालों को लौकिक यश एवं समृद्धि तथा पारलौकिक पुण्य एवं सद्गति प्राप्त होने की बात कही जाती है। विवेक इस कथन को अलंकारपूर्ण तो मान सकता है, किन्तु निराधार नहीं।
सभी उक्तियों की गरिमा को सांसारिक, स्वार्थपरक दृष्टिकोण से नहीं नापा, आँका जा सकता है। सूक्ष्म संवेदनाओं को भुलाकर यदि स्थूल दलीलों से इन सम्बन्धों का मूल्यांकन करने का प्रयास किया जाय तो वे मात्र मखौल बनकर रह जावेंगे। उदाहरण के लिए ‘माँ’ के सम्बन्ध को लें। भारतीय संस्कृति में ‘माँ’ को सर्वोच्च सम्मान एवं गौरव दिया गया है। उसके द्वारा बालक को गर्भ में रखने, दूध पिलाने, पालने- पोसने जैसी अनेक भाव भरी उक्तियाँ प्रचलित हैं। उसके इस ऋण से उऋण होने की बात कही जाती है। सन्तान उसके अनुदानों की कल्पना मात्र से पुलकित, रोमांचित हो उठती है। माँ तो सन्तान की कल्पना के आधार पर ही प्रसव जैसे मर्मान्तक पीड़ा पहुँचाने वाले प्रकरण को भूल जाती है। यह संवेदनाएँ उस आत्मिक सुख- संतोष की अनुभूति कराती हैं, जिनके ऊपर संसार का बड़े से बड़ा सुख- वैभव न्योछावर किया जाना भी सामान्य सी बात लगती है। वा. ४८/२.८१
पिता- पुत्र के सम्बन्ध संसार में सबसे घनिष्ट होते हैं और कोमल भी। इतने घनिष्ट कि पुत्र पिता की आत्मा का अंश ही नहीं, उसका प्रतिबिम्ब होता है। पुत्र के गुण, कर्म, स्वभाव देखकर पिता के गुण, कर्म, स्वभाव का अनुमान किया जा सकता है और पिता के देख लेने के बाद पुत्र के देखने की ही जरूरत हो, ऐसा नहीं। पुत्र अधिकांशतः पिता का सर्वतो उत्तराधिकारी होता है। पिता- पुत्र की यह समानता उनकी घनिष्टता का ही प्रमाण है। यह सम्बन्ध कोमल भी कम नहीं होता। किसी ओर से प्रमाद हो जाने से यह टूट भी जल्दी जाते हैं। अनेक बार तो पिता- पुत्र के सम्बन्ध जब एक बार टूट जाते हैं, तब जीवन भर नहीं जुड़ते। बाहर से वे भले ही पास- पास रहते रहें, एक दूसरे के प्रति अपना कर्तव्य करते रहें, किन्तु अन्तर् में वह एकता नहीं रहती, जो पिता- पुत्र के सम्बन्धों की पवित्र शोभा है। इस सम्बन्ध को यथावत् तथा यथायोग्य बनाए रखने के लिए दोनों ओर से सतर्क और सावधान रहना चाहिये। केवल रक्त अथवा जन्म पर ही निर्भर रहने से प्रमाद हो जाने का डर रहता है।
आज पिता- पुत्र के बीच सम्बन्धों में वह सामीप्य और स्नेह, श्रद्धा कम देखने को मिलती है, जिसकी आशा की जाती है और जिसे होना भी चाहिये। यह अशोभनीय तथा अहितकर है। ऐसा नहीं होना चाहिये। पिता- पुत्र की इस कमी से परिवार का विकास रुक जाता है। आर्थिक पतन हो जाता है। प्रतिष्ठा जाती रहती है। लोग हँसते हैं। परिवार का भावी उत्तराधिकारी टूटकर अलग हो जाये तो पिता के बूढ़े होने पर उस धुरी को कौन धारण करेगा? कौटुम्बिक कार- व्यापार को कौन सँभालेगा? पिता- पुत्र में अन्तर होते ही लोग बीच में आकर स्थान बनाने का प्रयत्न करते हैं। दोनों को अलग- अलग पाकर लाभ उठाने और अपना हस्तक्षेप करने के लिये प्रयत्नशील होने लगते हैं। तरह- तरह के कारण गढ़ कर जनश्रुतियाँ बनाते, अफवाहें फैलाते और उपहास उड़ाते हैं। पिता को दृढ़ रहने और पुत्र को उत्तराधिकार माँगने के लिये उकसाते, सहायक बनते, परामर्श देते और न्यायालय तक ले जाते हैं। ऐसी दुष्टतायें समाज में कम नहीं चल रही हैं। इसलिए प्रत्येक सद्गृहस्थ को अत्यधिक सावधान रहना चाहिये। यहाँ तक कि पिता- पुत्र ही नहीं, परिवार के किन्हीं भी सदस्यों में फूट न पड़े। इसके लिये कोई भी त्याग करना पड़े, करने को तैयार रहना चाहिये। सहनशीलता तो एक दैवी गुण है, उसे तो ग्रहण करना ही चाहिये।
इस सम्बन्ध की रक्षा में पहला कर्तव्य पिता का है। पुत्र के अस्तित्व में आने से पूर्व ही पिता प्रौढ़, पूर्ण और योग्य हो चुका होता है। पुत्र उसके सामने जन्मता और उसकी गोद में खेलता, देख- रेख और निर्देश में पलता, बढ़ता और जवान होता है। इस बीच में सोलह- सत्रह साल की इतनी पर्याप्त अवधि होती है कि पुत्र को इच्छानुसार ढाला जा सकता है। यदि उसके संस्कार पुत्रोचित बना दिए जाएँ तो कोई कारण नहीं कि पुत्र जीवन भर पिता का आज्ञाकारी एवं अनुगत न बना रहे। तब तक उसका स्वभाव और संस्कार इतने गहरे हो सकते हैं कि बाहर का कोई भी प्रतिकूल प्रभाव उनको बदल सकना तो दूर हिला तक नहीं सकता, किन्तु खेद है कि लोग पिता तो आसानी से बन जाते है, किन्तु पुत्र को पुत्र बनाने का प्रयत्न नहीं करते। वे रक्त के नैसर्गिक सम्बन्ध के बलबूते बेखबर पड़े रहते और उसका निर्माण करना आवश्यक नहीं समझते। विधिवत् निर्माण के अभाव में वे जंगली झाड़ी की तरह जिधर चाहते बढ़ते रहते हैं, सँभाली (देख- भाल की हुई) पौध की तरह सुव्यवस्थित नहीं हो पाते। वा. ४८/२.८२
पुत्र पिता से क्या- क्या सीखता है?
पिता- पुत्र का सम्बन्ध बड़ा पवित्र है। पिता को पुत्र के मनोविकारों की अच्छी जानकारी होती है। उसका पुत्र के साथ तीन प्रकार का सम्बन्ध होता है- (१) पथप्रदर्शक का, (२) तत्त्व चिन्तक का, (३) मित्र का।
बुद्धिमान तथा सुशील पिता से जितना हम सीख सकते हैं, उतना सैकड़ों शिक्षकों से नहीं। पिता सबसे बढ़कर हितैषी- शिक्षक है, जिसके पाठ हम न केवल मुख से, वरन् उसके कार्यकलाप, आचार- व्यवहार, चरित्र, नैतिकता सबसे ग्रहण करते हैं। उसके धैर्य, आत्मनिग्रह, कोमल स्वभाव, सम्भावनाओं की तीव्रता, शिष्टता, पवित्रता और धर्म परायणता आदि गुणों का स्थायी प्रभाव पुत्र पर प्रतिपल पड़ता है। वा. ४८/१.१९
बनने को तो कोई भी पिता बन जाता है, किन्तु यह उत्तरदायित्व कम गम्भीर नहीं है। सन्तान पैदा करने का अर्थ है- समाज में एक नया नागरिक बनाना। यदि वह नागरिक योग्य हुआ तो समाज का हित करेगा, अयोग्य हुआ तो हानि पहुँचायेगा। उसके द्वारा पारिवारिक अशांति के विषय में तो कहा ही क्या जाये। एक अयोग्य संतान परिवार की अतीतकालिन प्रतिष्ठा ही नहीं गिरा देता, भविष्य भी खराब कर देता है। घर में फूट डाल देना, आर्थिक दशा बिगाड़ देना तो उसके लिए साधारण सी बात होती है। ऐसी ही अयोग्य सन्तानों में पिता- पुत्र के बीच नहीं बनती और वे एक- दूसरे के विरोधी तक बन जाते हैं।
पुत्र को पिता का प्रतिबिम्ब बतलाया गया है। जैसा पिता होगा, पुत्र भी बहुत कुछ वैसा ही होगा। पिता के रहन- सहन और आचार- विचार का पूरा प्रभाव बच्चों पर पड़ता है। इसलिए पुत्र को सुशील और योग्य बनाने के लिए पिता को स्वयं भी वैसा ही बनना पड़ेगा। व्यसनी, दुर्गुणी, क्रोधी, अनुदार अथवा संकीर्ण स्वभाव वाले पिता यदि यह चाहें कि उनको सुशील, सभ्य और विनम्र सन्तान मिल जाये, यह सम्भव नहीं। उन्हें अपनी ही तरह की सन्तान पाने और वह सब व्यवहार सहने के लिए तैयार रहना चाहिये, जैसा कि वे दूसरों से करते आ रहे हैं। पिता- पुत्र का जनक ही नहीं, उसका पथ- प्रदर्शक और मित्र भी है। जो पिता अपने पुत्र का ठीक- ठीक पथ- प्रदर्शन करते और मित्र की तरह व्यवहार करते हैं, उनके बीच कभी विरोध नहीं होता।
पुत्र को अपने स्नेही और स्पष्ट पिता के प्रति बड़ी श्रद्धा होती है। वे उनकी तरफ इतना आकर्षित रहते हैं कि पिता के बिना एक क्षण भी नहीं रह सकते। बहुत बार तो अपने गुणों के कारण पिता पुत्र को वश में करने में माँ को भी पीछे कर दिया करता है। अनेक परिवार ऐसे ढूँढ़े जा सकते हैं, जिनमें बच्चे पिता को ज्यादा चाहते और अधिक देर उन्हीं के पास रहना पसन्द करते हैं, जितनी देर पिता घर में रहता है, वे उसे छोड़कर कहीं जाना ही पसन्द नहीं करते। वे माँ की अपेक्षा पिता के साथ खाना- पीना, घूमना- फिरना और सोना ज्यादा पसन्द करते हैं। माँ के पास सोते रहने पर भी पिता की आहट पाकर उसके पास से उठ जाते हैं। बच्चों का स्वाभाविक आकर्षण होता तो माँ की तरफ ही है, किन्तु प्रेम की प्रबलता से वे पिता की ओर खिंच जाते हैं। सच बात तो यह है कि भावनात्मक संतुष्टि अन्य सभी आकर्षणों को पीछे छोड़ देती है। जिस परिवार में वह उपलब्ध हो, उस परिवार के लोग क्या छोटे, क्या बड़े, बाहर तरह- तरह की संगति में भटकते नहीं हैं।
देश, विदेश के किशोरों का सर्वेक्षण करने में यह तथ्य उभर कर सामने आये हैं कि जो बालक- बालिकायें, अभिभावकों से भावनात्मक संतुष्टि पाते हैं, वे संगी- साथियों, घूमने- फिरने और खेल- कूद के आकर्षण छोड़ कर भी उन्हीं के साथ अधिक से अधिक समय बिताना पसन्द करते हैं। ऐसी स्थिति में किसी प्रकार के विद्रोह, अवज्ञा जैसे प्रसंग खड़े होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। यह सोचना गलत है कि आज के बच्चे अनुशासन में रहना पसन्द नहीं करते। अनुशासन आतंक से नहीं, आत्मीयता से स्थापित होता है। सर्वेक्षण से स्पष्ट हुआ है कि बालक ढीले- पोले माता- पिता को नहीं, व्यवस्थित एवं अनुशासनप्रिय अभिभावकों को अधिक पसन्द करते हैं। हाँ उसका रूप भावनात्मक हो- आतंकपरक नहीं। वा. ४८/२.८३
भाई- भाई, भाई- बहिन
महत्त्वपूर्ण यह सम्बोधन नहीं, उनमें सन्निहिन भाव हैं। भाव हीन होने पर रक्त सम्बन्धी भाईयों व भाई- बहिन को भी किसी प्रकार औपचारिकता तक निभाना कठिन हो जाता है। और यदि वह भाव जग जाता है तो रक्त और वंश तो क्या यह सम्बन्ध अपनी गोद में सारे विश्व को ही समेट लेने में समर्थ हो जाते हैं। पारिवारिक सद्भाव एवं सुख- शांति से लेकर सामाजिक समानता, संगठन के लिये यह भाव अत्यधिक उपयोगी सिद्ध होते हैं। अस्तु हर घर में यह प्रयास किया जाना चाहिये कि प्रत्येक सदस्य में गहन भ्रातृभाव एवं भगिनि भाव का विकास हो सके। भाई- भाई के सम्बंध परिवार एवं समाज की सशक्त रचना के प्रमुख आधार हैं। सघनतम मित्र, आदर्श सहयोगी, विश्वस्त मार्गदर्शक, निष्ठावान् अनुगामी, हार्दिक समर्थक सभी भाव एक साथ मिला देने पर जो स्वरूप बनता है वह सब भाई के सम्बन्ध में समाहित हो जाता है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने परिवार रूपी शरीर में भाई की उपमा हाथ से दी है। शरीर पर वज्र भी टूटे तो यथासाध्य हाथ पहली चोट अपने ऊपर लेकर शरीर को बचाने का प्रयास करते हैं। वास्तव में सच्चे भाई में भी यह सब गुण होते हैं। वा. ४८/ २.८८
भाई- भाई का झगड़ा स्वाभाविक नहीं; किंतु वे आये दिन लड़ते रहते हैं। अलग होते और एक दूसरे के विरोधी बनते रहते हैं। इसके अनेक कारण हैं जैसेः- १. अधिकांश माता- पिता लड़कों को प्रकृति पर छोड़ देते हैं। उनके प्राकृतिक विकास में कोई हस्तक्षेप नहीं करते। मनमाने ढंग से बढ़ते हुए पौधे और बच्चे प्रायः गलत रूप ही पकड़ लेते हैं। माता- पिता को छोटेपन से ही यह देखते रहना चाहिये कि कोई लड़का उछृंखल, उद्दण्ड अथवा व्यतिक्रामक तो नहीं होता जा रहा। वह अपने दूसरे भाईयों का उचित ध्यान रखता है या नहीं। कहीं उसमें स्वार्थ और अपनेपन की भावना तो घर नहीं कर रही। यदि ऐसा है तो तत्काल उस पर प्रतिबन्ध लगा देना चाहिये और प्रयत्नपूर्वक उसकी अनानुकूलमुखी प्रवृत्ति को वांछनीय दिशा में मोड़ा जाना चाहिये।
२. ताड़ना एवं दण्ड का मार्ग उचित नहीं। इससे बच्चा सुधरने के बजाय और बिगड़ सकता है। ढीठ हो सकता है। जिसके सम्मुख ताड़ना दी गई है, उसका अधिक विरोधी हो सकता है।
३. दो छोटे भाईयों का झगड़ा मिटाने के लिये अनेक बार माता- पिता उनको एक दूसरे से बोलने, साथ खेलने और बैठने से मना कर देते हैं और यथा संभव इस निषेध का पालन करने का भी प्रयत्न करते हैं। यह उपाय बड़ा खतरनाक है। इससे पारस्परिक मनोमालिन्य पलता और जमा होता जाता है। कालान्तर में भाई- भाई परस्पर विरोधी बन जाते हैं।
४. रुचि वैचित्र्य भी भाई- भाई के झगड़े का एक कारण है। माता- पिता को चाहिये कि खाने- पहनने और खेल- मनोरंजन में उनकी रुचि वैचित्र्य को प्रोत्साहित न होने दें। भाई- भाई, भाई- बहिन जितना साथ- साथ खेलेंगे- खायेंगे और रहेंगे, वे एक दूसरे के अधिक समीप आते रहेंगे।
५. बच्चों की संगत पर बड़ा ध्यान रखना चाहिये। बहुत बार बाहर के अवांछित तत्त्व भाई- भाई में विरोध पैदा कर देते हैं। किसी बाहरी समवयस्क के प्रभाव में आकर बच्चे अपने भाईयों की उपेक्षा करने लगते हैं जो उनके मनमुटाव का कारण बनता है।
६. छोटे- बड़े का भेद, माता- पिता का पक्षपात भी भाई- भाई में मनोमालिन्य बढ़ा देता है। यह कमी माता- पिता की है। उन्हें इस सम्बन्ध में अपना सुधार कर ही लेना चाहिये। सब बच्चे उनके हैं। उनके लिये सब बराबर हैं। कोई भी कारण उन्हें विषम भाव रखने के लिये विवश न कर सके। यदि वे स्वयं असमान भाव रखेंगे तो कैसे आशा रख सकते हैं कि बालक परस्पर समान भाव रखें।
७. जिस परिवार में बहिन और भाई रहते हैं, वहाँ का वातावरण निस्संदेह कठोर हृदय को भी कोमलता में परिणत करने में सक्षम होता है। किन्तु इस वातावरण की सृष्टि में माता- पिता का योगदान ही प्रमुख रहता है, माता- पिता ही परिवार संस्था के संचालक, व्यवस्थापक तथा सम्पादक होते हैं। यदि उनके द्वारा बेटे और बेटी के प्रति स्वल्प वैषम्य का भाव अभिव्यक्त हुआ तो यह विषबेलि फिर फैलने लगती है। जिसका सूक्षम प्रभाव उन अबोध बालक मनों पर अप्रत्यक्ष रूप से पड़ने लगता है जो कालांतर में एक विष वृक्ष ही बन जाता है। विशेषकर बहिन और भाई के मध्य एक हीनत्व और अलगाव की भावना विकसित होने लगती है। साथ ही माता- पिता यदि समान रूप से प्यार तथा दुलार, सुविधा, सहयोग, शिक्षा और संस्कार पुत्र और पुत्री को देते हैं तो इस विसंगति से, इस विघटन से परिवार अछूता रहता है।
८. बड़े दुःख का विषय है, आजकल भाई- बहिन के संबंध में लेन- देन एवं उपहारों ने घुसपैठ कर कहीं खटाई का काम किया है। इस सांस्कृतिक दृष्टि से एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति ही कहा जा सकता है। बहिन का तो एक ही अभीष्ट रहना चाहिये -- भाई सुखी एवं प्रसन्न रहता है तो इससे बड़ा सद्भाव एवं सम्पदा और कुछ नहीं हो सकती। वा. ४८/२.८८ से २.९१
आदर्श सहेली- ननद, भाभी
परिवार में जब एक नूतन सदस्य पदार्पण करता है नववधू के रूप में, उस समय ननद अपनी भाभी के लिये मन में न जाने कौन- कौन से स्वप्न सँजोये रहती है, ऐसे अवसर पर ननद के मन में कितनी कमनीय कोमल कल्पनायें होती हैं, उसे एक नई सहेली मिलेगी, उससे अपने मन की खूब बातें करेगी, एक दूसरे की दुःख- सुख की बातें सुनेंगी, सुनायेंगी आदि अन्यान्य मनसूबे बाँधती रहती है ननद। उधर नई भाभी का मन भी हलचल से भरा रहता है, पतिगृह उसके लिये नया है, वह भी सबके लिये नई होगी। नूतन गृह के आचार- विचार, मान- मर्यादाओं से वह पूर्णतः अपरिचित तथा अनभिज्ञ है, कैसे समय कटेगा, परिवार के अधिकांश सदस्य बड़े तथा सम्माननीय होंगे, कैसे उनके समक्ष अपनी आंतरिक, अनुभूतियों को अभिव्यक्त करेगी, किन्तु उसे आशा की किरण इस ऊहापोह के निविड़तम में अन्ततोगत्वा ननद के रूप में मिल ही जाती है। एकमात्र ननद ही उसकी सच्ची सहेली है, जिससे उन्मुक्त प्यार सुलभ होगा, साथ ही घर की समस्त परम्पराओं रीति- रिवाजों का परिचय मिल जा�
परिवार समाज की एक छोटी इकाई है। जिसके आधार पर मनुष्य स्वयं में सामाजिक गुणों का विकास करके दुर्लभ लाभ प्राप्त करता है। इस तथ्य के अनुसार एक महत्वपूर्ण सूत्र उभरकर सामने आता है, वह यह कि परिवार का अर्थ मात्र पति- पत्नी और एकाध बच्चा नहीं। सामाजिक जीवन का अभ्यास तदनुकूल गुणों का विकास उतने मात्र से सम्भव नहीं। उसके लिए तो भारतीय पद्धति के संयुक्त परिवार जिसमें पति- पत्नी एवं बच्चों के अतिरिक्त चाचा, ताऊ, बाबा, दादा, मौसी, बुआ, भतीजे, भतीजियाँ आदि अनेक तरह के अनेक स्तर के व्यक्तियों का समावेश रहता है। विदेशों में बड़े परिवारों को बेकार का झंझट समझकर उनकी उपेक्षा करके पति- पत्नी एवं बच्चों के छोटे परिवार बसाने के प्रयोग किए गये हैं। निश्चित रूप से ऐसे परिवारों की रचना व्यक्तिगत मौज- मजे को लक्ष्य करके की जाती है। उसमें भी वे कितनी सफलता पाते हैं यह बात भिन्न है, किन्तु ऐसा करके वे परिवार संस्था के मूल उद्देश्य से ही भटक जाते हैं।
वा. ४८/१.२
परिवार एक प्रकार का प्रजातन्त्र है, जिसमें मुखिया प्रेसीडेन्ट तथा परिवार के अन्य सज्जन प्रजा हैं। पिता- माता, पुत्र- पुत्री, भाई- बहिन, चाचा- चाची, भईया- भाभी, नौकर इत्यादि सभी का इसमें सहयोग है। यदि सभी अपने सम्बन्ध आदर्श बनाने का प्रयत्न करें, तो हमारे समस्त झगड़े क्षण मात्र में दूर हो सकते हैं। वा. ४८/१.१८
क्या आप पिता है? यदि हैं तो आप पर उत्तरदायित्व का सबसे अधिक भार है। घर का प्रत्येक व्यक्ति आपसे पथप्रदर्शन की आशा करता है। संकट के समय सहायता, मानसिक क्लेश के समय सान्त्वना और शैथिल्य में प्रेरणात्मक उत्साह चाहता है। पिता बनना सबसे कठिन है क्योंकि इसमें छोटे- बड़ों सभी को इस प्रकार संतुष्ट रखना पड़ता है कि किसी से कटुता भी न हो और कार्य भी होता रहे। घर के सब झगड़े भी दूर होते चलें और किसी के मन में गाँठ भी न पड़े। परिवार के सब सदस्यों की आर्थिक आवश्यकताएँ भी पूर्ण होती रहें और कर्ज भी न हो, विवाह, उत्सव, यात्राएँ, दान भी यथाशक्ति दिये जाते रहें। आज के युग में पिता- पुत्र में जो कड़ुवाहट आ गयी है वह नितान्त संकुचित है। पुत्र अपने अधिकार माँगता है, किन्तु कर्त्तव्यों के प्रति मुख मोड़ता है। जमीन, जायदाद में हिस्सा माँगता है, किन्तु वृद्ध पिता के आत्म- सम्मान, स्वास्थ्य, उत्तरदायित्व, इच्छाओं पर कुठाराघात करता है। पुत्र ने परिवार के बन्धन शिथिल कर दिये हैं। घर- घर में व्यक्तिगत स्वतन्त्रता तथा अनुशासन विरोध का कुचक्र फैल रहा है। यह प्रत्येक दृष्टि से निन्दनीय एवं त्याज्य है। वा. ४८/१.१९
सन्तान के साथ हमारा व्यवहार
यह कभी न भूलें कि हमारे गृह में पदार्पण करने वाले हमारे आत्मस्वरूप ये बालक भावी नागरिक हैं, जो समाज और देश का निर्माण करने वाले हैं। ईश्वर की ओर से हमारा यह कर्तव्य है कि उनकी सुशिक्षा, शिष्टता तथा परिष्कार की समस्या में हम पर्याप्त दिलचस्पी लें। अपनी सन्तान को केवल जीवन के सुख और इच्छापूर्ति मात्र की ही शिक्षा न दो, वरन् उनको धार्मिक जीवन, सदाचार और कर्त्तव्यपालन, आध्यात्मिक जीवन की भी शिक्षा प्रदान करो। इस स्वार्थमय समय में ऐसे माता- पिता विशेषतः धनवानों में विरले ही मिलेंगे, जो संतान की शिक्षा के भार को, जो उनके ऊपर है, ठीक- ठीक परिमाण में तौल सकें।
जैसा वातावरण तुम्हारे घर का है, उसी साँचे में ढल कर तुम्हारी सन्तानों का मानसिक संस्थान, आदतें, सांस्कृतिक स्तर का निर्माण होगा। जबकि तुम अपने भाइयों के प्रति दयालु, उदार और संयमी नहीं हो, तो अपनी सन्तान से क्या आशा करते हो कि वे तुम्हारे प्रति प्रेम दिखलाएँगे। जब तुम अपना मन विषय- वासना, आमोद- प्रमोद तथा कुत्सित इच्छाओं से नहीं रोक सकते, तो भला वे क्यों न कामुक और इन्द्रिय लोलुप होंगे। यदि तुम माँस, मद्य या अन्य अभक्ष्य पदार्थों का उपयोग करते हो, तो वे भला किस प्रकार अपनी प्राकृतिक पवित्रता और दूध जैसी निष्कलंकता को दूर रख सकेंगे। यदि तुम अपनी अश्लील और निर्लज्ज आदतों, गन्दी गालियों, अशिष्ट व्यवहारों को नहीं छोड़ते, तो भला तुम्हारे बालक किस प्रकार गन्दी आदतें छोड़ सकेंगे।
तुम्हारे शब्द, व्यवहार, दैनिक कार्य, सोना, उठना- बैठना ऐसे साँचे हैं, जिनमें उनकी मुलायम प्रकृति और आदतें ढाली जाती हैं। वे तुम्हारी प्रत्येक सूक्ष्म बात देखते और उनका अनुकरण करते हैं। तुम उनके सामने एक मॉडल, एक नमूने या आदर्श हो, जिसके समीप वे पहुँच रहे हैं। इसलिए यह तुम्हीं पर निर्भर है कि तुम्हारी सन्तान मनुष्य हो या मनुष्याकृति वाले पशु। वा. ४८/१.२१
बड़ों के आदेश और उनका सम्मान
परिवार का संतुलन बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि उसमें वयोवृद्धों के प्रति क्या दृष्टिकोण है? सद्भाव सम्पन्न परिजनों में सभी एक दूसरे के सम्मान का ध्यान रखते हैं, किन्तु वयोवृद्धों के प्रति विशेष रूप से सम्मान व्यक्त करना आवश्यक है। उस सद्भाव के आधार पर ही उनके अनुभव एवं मार्गदर्शन का समुचित लाभ उठाया जा सकता है। वा. ४८/२.८५
बड़ों के प्रति सम्मान और अनुशासन होना पारिवारिक संगठन का आधार है। यह संगठन जहाँ प्रेम मूलक होता है, वहाँ पारस्परिक आत्मीयता होती है। एक सदस्य दूसरे सदस्य का ध्यान रखता है और अधिकार के स्थान पर कर्त्तव्य की प्रधानता रहती है। इस स्थिति में सुख और अमन के लिए बाह्य साधनों पर नितान्त अवलम्बित नहीं होना पड़ता। लोगों में पारस्परिक स्नेह और आत्मीयता हो तो कोई कारण नहीं कि घरेलू वातावरण कष्टप्रद लगे।
पारस्परिक अनुशासन सुख और व्यवस्था का मेरुदण्ड है, इसे अक्षुण्ण बनाये रखने के लिऐ यह आवश्यक है कि लोगों में बड़ों के प्रति आदर का भाव बना रहे। ऐसा होने से उस वातावरण में श्रद्धा और विश्वास में कमी नहीं होने पाती और वह संगठन सुदृढ़ स्थिति में कायम बना रहता है। जब तक यह संगठन कायम बना रहता है तब तक धन- धान्य की भी कमी नहीं रहती और बाहरी लोगों के आक्रमण भी सफल नहीं होते। इसलिए इस भावना को पवित्र दैवी तत्व माना गया है। पितरों को पूजने की प्रथा बड़ों के प्रति आस्था का ही चिह्न है। वा. ४८/२.८७
परिजनों के सुधार की पूर्ण प्रक्रिया
माता- पिता का दायित्व
अभिमन्यु को चक्रव्यूह भेदन की शिक्षा अर्जुन ने तब दी थी, जब वह अपनी माता सुभद्रा के गर्भ में था। प्रत्येक बालक अभिमन्यु की परिस्थिति में होता है, उसे जो कुछ सिखाया जाता है, वह हम अर्जुन की तरह अपनी वाणी, क्रिया द्वारा उसे सिखा सकते हैं। रानी मदालसा ने अपने बच्चों को गर्भ में ही ब्रह्मज्ञान की शिक्षा देकर ब्रह्मज्ञानी उत्पन्न किया था। जब उसके पति ने एक बालक राजकाज के उपयुक्त बनाने का अनुरोध किया तो मदालसा ने उन्हीं गुणों का एक तेजस्वी बालक उत्पन्न कर दिया। हर माता की स्थिति मदालसा की- सी होती है। यदि वह अपने गुण, कर्म, स्वभाव में आवश्यक सुधार कर ले तो वैसे ही गुणवान् बालक को जन्म दे सकती है, जैसा कि वह चाहे। ऊसर खेत और सड़े बीज के संयोग से जैसे बेतुके अविकसित पौधे पैदा हो सकते हैं, आज वैसे ही बच्चे हमारे घरों में जन्मते हैं। गुलाब के फूल बढ़िया खेत में अच्छे माली के पुरुषार्थ से उगाये जाते हैं, पर कँटीली झाड़ियाँ चाहे जहाँ, चाहे जब उपज पड़ती हैं। अच्छी संतान सुसंस्कारी माता- पिता ही प्रयत्नपूर्वक उत्पन्न कर सकते हैं, किन्तु कुसंस्कारी बालक हर कोई फूहड़ स्त्री- पुरुष उगलते रह सकते हैं। अच्छी सद्गुणी संतान की आकांक्षा गुलाब की फसल उगाने की तरह है, जिसके लिए माँ- बाप को काफी पहले अपने आपको संस्कारवान् बनाने के लिए तत्पर होना पड़ता है। यदि यह कार्य हमें कठिन लगता हो तो संस्कारवान् संतान की आकांक्षा भी छोड़ देनी चाहिए और जैसे भी उद्दंड, दुर्गुणी, कुसंस्कारी, दुर्मति बच्चे जन्में उन्हें अपनी करनी का फल मानकर संतोष कर लेना चाहिए।
भावनात्मक एकरूपता
इस युग में पारिवारिक सम्बन्धों में जो कड़ुवाहट आ गई है, वह मनुष्य के संकुचित दृष्टिकोण और स्वार्थपूर्ण प्रवृत्ति के परिणाम स्वरूप ही है। स्वार्थपरता आसुरी प्रवृत्ति है जो छीना- झपटी, विग्रह और कलह पैदा करती है। सद्भाव दैवीय प्रवृत्ति है। उससे प्रभावित परिवार का हर सदस्य एक दूसरे को देवताओं की तरह कुछ न कुछ देना ही चाहता है। इस मार्ग पर चलकर सभी सुख एवं सम्मान पाते हैं, वैसे- वैसे पिता और पुत्र, पिता और पुत्री के सम्बन्ध बड़े कोमल, मधुर और सात्विक होते हैं। इस अध्यात्मिक सम्बन्ध का सहृदयतापूर्वक पालन करने वाले व्यक्ति देव- श्रेणी में आते हैं। उनकी मान और प्रतिष्ठा होनी ही चाहिये।
व्यक्ति का भावनात्मक प्रशिक्षण माता करती है। उसके रक्त, माँस और ओजस् से बालक का निर्माण होता है। कितने कष्ट सहती है वह बेटे के लिए। स्वयं गीले बिस्तर में सोकर बच्चे को सूखे में सुलाते रहने की कष्टसाध्य क्रिया पूरी करने की हिम्मत भला है किसी में? माता का हृदय दया- पवित्रता से ओत- प्रोत है, उसे जलाओ तो भी दया की ही सुगन्ध निकलती है, पीसो तो दया का ही रस निकलता है। ऐसी दया और ममत्व की मूर्ति माता के प्रति हार्दिक सम्मान का भाव रखना कौन अनुचित कहेगा?
इसी क्रम में राम और भरत, गोरा और बादल के आदर्श भ्रातृ- प्रेम को फिर से पुनर्जीवित करना है। इससे हमारी शक्ति हमारी सद्भावनाएँ जाग्रत होंगी। हमारा साहस बढ़ेगा और पुरुषार्थ पनपेगा। स्नेहमयी बहिन, उदारता की मूर्ति भावजों को भी उसी तरह सम्मान प्रदर्शित करना चाहिये, जिस तरह माता के प्रति अपनी शालीनतापूर्ण भावनाएँ हों। घर का वातावरण कुछ इस तरह का शील- संयुक्त, हँसमुख और उदार बने, जिससे सारा परिवार हरा- भरा नजर आए। इसके लिए धन आदि उपकरणों की उतनी आवश्यकता नहीं है, जितनी अपने सम्बन्धियों के प्रति कर्तव्य और सेवा भावना की। परिवार में सौमनस्य हो तो वहाँ न तो सुख की कमी रहेगी, न शांति की। उस घर में आह्लाद फूट पड़ रहा होगा, जहाँ सबके दिल मिले होंगे। वा. ४८/२.१५
परिवार के सम्बन्धों की चर्चा उठते ही अभिभावकों एवं सन्तान का स्मरण अनायास ही हो जाता है। यह हर छोटे- बड़े परिवार के अनिवार्य घटक हैं। माता- पिता अथवा पुत्री- पुत्र के रूप में संसार के हर व्यक्ति को रहना ही पड़ता है। उनके परस्पर एक दूसरे के प्रति कर्तव्यों के बारे में बहुत कुछ कहा जाता रहा है। माता- पिता के संतान के प्रति तथा संतान के माता- पिता के प्रति कर्तव्यों की सूची बहुत विशद् है। उनका पालन करने वालों को लौकिक यश एवं समृद्धि तथा पारलौकिक पुण्य एवं सद्गति प्राप्त होने की बात कही जाती है। विवेक इस कथन को अलंकारपूर्ण तो मान सकता है, किन्तु निराधार नहीं।
सभी उक्तियों की गरिमा को सांसारिक, स्वार्थपरक दृष्टिकोण से नहीं नापा, आँका जा सकता है। सूक्ष्म संवेदनाओं को भुलाकर यदि स्थूल दलीलों से इन सम्बन्धों का मूल्यांकन करने का प्रयास किया जाय तो वे मात्र मखौल बनकर रह जावेंगे। उदाहरण के लिए ‘माँ’ के सम्बन्ध को लें। भारतीय संस्कृति में ‘माँ’ को सर्वोच्च सम्मान एवं गौरव दिया गया है। उसके द्वारा बालक को गर्भ में रखने, दूध पिलाने, पालने- पोसने जैसी अनेक भाव भरी उक्तियाँ प्रचलित हैं। उसके इस ऋण से उऋण होने की बात कही जाती है। सन्तान उसके अनुदानों की कल्पना मात्र से पुलकित, रोमांचित हो उठती है। माँ तो सन्तान की कल्पना के आधार पर ही प्रसव जैसे मर्मान्तक पीड़ा पहुँचाने वाले प्रकरण को भूल जाती है। यह संवेदनाएँ उस आत्मिक सुख- संतोष की अनुभूति कराती हैं, जिनके ऊपर संसार का बड़े से बड़ा सुख- वैभव न्योछावर किया जाना भी सामान्य सी बात लगती है। वा. ४८/२.८१
पिता- पुत्र के सम्बन्ध संसार में सबसे घनिष्ट होते हैं और कोमल भी। इतने घनिष्ट कि पुत्र पिता की आत्मा का अंश ही नहीं, उसका प्रतिबिम्ब होता है। पुत्र के गुण, कर्म, स्वभाव देखकर पिता के गुण, कर्म, स्वभाव का अनुमान किया जा सकता है और पिता के देख लेने के बाद पुत्र के देखने की ही जरूरत हो, ऐसा नहीं। पुत्र अधिकांशतः पिता का सर्वतो उत्तराधिकारी होता है। पिता- पुत्र की यह समानता उनकी घनिष्टता का ही प्रमाण है। यह सम्बन्ध कोमल भी कम नहीं होता। किसी ओर से प्रमाद हो जाने से यह टूट भी जल्दी जाते हैं। अनेक बार तो पिता- पुत्र के सम्बन्ध जब एक बार टूट जाते हैं, तब जीवन भर नहीं जुड़ते। बाहर से वे भले ही पास- पास रहते रहें, एक दूसरे के प्रति अपना कर्तव्य करते रहें, किन्तु अन्तर् में वह एकता नहीं रहती, जो पिता- पुत्र के सम्बन्धों की पवित्र शोभा है। इस सम्बन्ध को यथावत् तथा यथायोग्य बनाए रखने के लिए दोनों ओर से सतर्क और सावधान रहना चाहिये। केवल रक्त अथवा जन्म पर ही निर्भर रहने से प्रमाद हो जाने का डर रहता है।
आज पिता- पुत्र के बीच सम्बन्धों में वह सामीप्य और स्नेह, श्रद्धा कम देखने को मिलती है, जिसकी आशा की जाती है और जिसे होना भी चाहिये। यह अशोभनीय तथा अहितकर है। ऐसा नहीं होना चाहिये। पिता- पुत्र की इस कमी से परिवार का विकास रुक जाता है। आर्थिक पतन हो जाता है। प्रतिष्ठा जाती रहती है। लोग हँसते हैं। परिवार का भावी उत्तराधिकारी टूटकर अलग हो जाये तो पिता के बूढ़े होने पर उस धुरी को कौन धारण करेगा? कौटुम्बिक कार- व्यापार को कौन सँभालेगा? पिता- पुत्र में अन्तर होते ही लोग बीच में आकर स्थान बनाने का प्रयत्न करते हैं। दोनों को अलग- अलग पाकर लाभ उठाने और अपना हस्तक्षेप करने के लिये प्रयत्नशील होने लगते हैं। तरह- तरह के कारण गढ़ कर जनश्रुतियाँ बनाते, अफवाहें फैलाते और उपहास उड़ाते हैं। पिता को दृढ़ रहने और पुत्र को उत्तराधिकार माँगने के लिये उकसाते, सहायक बनते, परामर्श देते और न्यायालय तक ले जाते हैं। ऐसी दुष्टतायें समाज में कम नहीं चल रही हैं। इसलिए प्रत्येक सद्गृहस्थ को अत्यधिक सावधान रहना चाहिये। यहाँ तक कि पिता- पुत्र ही नहीं, परिवार के किन्हीं भी सदस्यों में फूट न पड़े। इसके लिये कोई भी त्याग करना पड़े, करने को तैयार रहना चाहिये। सहनशीलता तो एक दैवी गुण है, उसे तो ग्रहण करना ही चाहिये।
इस सम्बन्ध की रक्षा में पहला कर्तव्य पिता का है। पुत्र के अस्तित्व में आने से पूर्व ही पिता प्रौढ़, पूर्ण और योग्य हो चुका होता है। पुत्र उसके सामने जन्मता और उसकी गोद में खेलता, देख- रेख और निर्देश में पलता, बढ़ता और जवान होता है। इस बीच में सोलह- सत्रह साल की इतनी पर्याप्त अवधि होती है कि पुत्र को इच्छानुसार ढाला जा सकता है। यदि उसके संस्कार पुत्रोचित बना दिए जाएँ तो कोई कारण नहीं कि पुत्र जीवन भर पिता का आज्ञाकारी एवं अनुगत न बना रहे। तब तक उसका स्वभाव और संस्कार इतने गहरे हो सकते हैं कि बाहर का कोई भी प्रतिकूल प्रभाव उनको बदल सकना तो दूर हिला तक नहीं सकता, किन्तु खेद है कि लोग पिता तो आसानी से बन जाते है, किन्तु पुत्र को पुत्र बनाने का प्रयत्न नहीं करते। वे रक्त के नैसर्गिक सम्बन्ध के बलबूते बेखबर पड़े रहते और उसका निर्माण करना आवश्यक नहीं समझते। विधिवत् निर्माण के अभाव में वे जंगली झाड़ी की तरह जिधर चाहते बढ़ते रहते हैं, सँभाली (देख- भाल की हुई) पौध की तरह सुव्यवस्थित नहीं हो पाते। वा. ४८/२.८२
पुत्र पिता से क्या- क्या सीखता है?
पिता- पुत्र का सम्बन्ध बड़ा पवित्र है। पिता को पुत्र के मनोविकारों की अच्छी जानकारी होती है। उसका पुत्र के साथ तीन प्रकार का सम्बन्ध होता है- (१) पथप्रदर्शक का, (२) तत्त्व चिन्तक का, (३) मित्र का।
बुद्धिमान तथा सुशील पिता से जितना हम सीख सकते हैं, उतना सैकड़ों शिक्षकों से नहीं। पिता सबसे बढ़कर हितैषी- शिक्षक है, जिसके पाठ हम न केवल मुख से, वरन् उसके कार्यकलाप, आचार- व्यवहार, चरित्र, नैतिकता सबसे ग्रहण करते हैं। उसके धैर्य, आत्मनिग्रह, कोमल स्वभाव, सम्भावनाओं की तीव्रता, शिष्टता, पवित्रता और धर्म परायणता आदि गुणों का स्थायी प्रभाव पुत्र पर प्रतिपल पड़ता है। वा. ४८/१.१९
बनने को तो कोई भी पिता बन जाता है, किन्तु यह उत्तरदायित्व कम गम्भीर नहीं है। सन्तान पैदा करने का अर्थ है- समाज में एक नया नागरिक बनाना। यदि वह नागरिक योग्य हुआ तो समाज का हित करेगा, अयोग्य हुआ तो हानि पहुँचायेगा। उसके द्वारा पारिवारिक अशांति के विषय में तो कहा ही क्या जाये। एक अयोग्य संतान परिवार की अतीतकालिन प्रतिष्ठा ही नहीं गिरा देता, भविष्य भी खराब कर देता है। घर में फूट डाल देना, आर्थिक दशा बिगाड़ देना तो उसके लिए साधारण सी बात होती है। ऐसी ही अयोग्य सन्तानों में पिता- पुत्र के बीच नहीं बनती और वे एक- दूसरे के विरोधी तक बन जाते हैं।
पुत्र को पिता का प्रतिबिम्ब बतलाया गया है। जैसा पिता होगा, पुत्र भी बहुत कुछ वैसा ही होगा। पिता के रहन- सहन और आचार- विचार का पूरा प्रभाव बच्चों पर पड़ता है। इसलिए पुत्र को सुशील और योग्य बनाने के लिए पिता को स्वयं भी वैसा ही बनना पड़ेगा। व्यसनी, दुर्गुणी, क्रोधी, अनुदार अथवा संकीर्ण स्वभाव वाले पिता यदि यह चाहें कि उनको सुशील, सभ्य और विनम्र सन्तान मिल जाये, यह सम्भव नहीं। उन्हें अपनी ही तरह की सन्तान पाने और वह सब व्यवहार सहने के लिए तैयार रहना चाहिये, जैसा कि वे दूसरों से करते आ रहे हैं। पिता- पुत्र का जनक ही नहीं, उसका पथ- प्रदर्शक और मित्र भी है। जो पिता अपने पुत्र का ठीक- ठीक पथ- प्रदर्शन करते और मित्र की तरह व्यवहार करते हैं, उनके बीच कभी विरोध नहीं होता।
पुत्र को अपने स्नेही और स्पष्ट पिता के प्रति बड़ी श्रद्धा होती है। वे उनकी तरफ इतना आकर्षित रहते हैं कि पिता के बिना एक क्षण भी नहीं रह सकते। बहुत बार तो अपने गुणों के कारण पिता पुत्र को वश में करने में माँ को भी पीछे कर दिया करता है। अनेक परिवार ऐसे ढूँढ़े जा सकते हैं, जिनमें बच्चे पिता को ज्यादा चाहते और अधिक देर उन्हीं के पास रहना पसन्द करते हैं, जितनी देर पिता घर में रहता है, वे उसे छोड़कर कहीं जाना ही पसन्द नहीं करते। वे माँ की अपेक्षा पिता के साथ खाना- पीना, घूमना- फिरना और सोना ज्यादा पसन्द करते हैं। माँ के पास सोते रहने पर भी पिता की आहट पाकर उसके पास से उठ जाते हैं। बच्चों का स्वाभाविक आकर्षण होता तो माँ की तरफ ही है, किन्तु प्रेम की प्रबलता से वे पिता की ओर खिंच जाते हैं। सच बात तो यह है कि भावनात्मक संतुष्टि अन्य सभी आकर्षणों को पीछे छोड़ देती है। जिस परिवार में वह उपलब्ध हो, उस परिवार के लोग क्या छोटे, क्या बड़े, बाहर तरह- तरह की संगति में भटकते नहीं हैं।
देश, विदेश के किशोरों का सर्वेक्षण करने में यह तथ्य उभर कर सामने आये हैं कि जो बालक- बालिकायें, अभिभावकों से भावनात्मक संतुष्टि पाते हैं, वे संगी- साथियों, घूमने- फिरने और खेल- कूद के आकर्षण छोड़ कर भी उन्हीं के साथ अधिक से अधिक समय बिताना पसन्द करते हैं। ऐसी स्थिति में किसी प्रकार के विद्रोह, अवज्ञा जैसे प्रसंग खड़े होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। यह सोचना गलत है कि आज के बच्चे अनुशासन में रहना पसन्द नहीं करते। अनुशासन आतंक से नहीं, आत्मीयता से स्थापित होता है। सर्वेक्षण से स्पष्ट हुआ है कि बालक ढीले- पोले माता- पिता को नहीं, व्यवस्थित एवं अनुशासनप्रिय अभिभावकों को अधिक पसन्द करते हैं। हाँ उसका रूप भावनात्मक हो- आतंकपरक नहीं। वा. ४८/२.८३
भाई- भाई, भाई- बहिन
महत्त्वपूर्ण यह सम्बोधन नहीं, उनमें सन्निहिन भाव हैं। भाव हीन होने पर रक्त सम्बन्धी भाईयों व भाई- बहिन को भी किसी प्रकार औपचारिकता तक निभाना कठिन हो जाता है। और यदि वह भाव जग जाता है तो रक्त और वंश तो क्या यह सम्बन्ध अपनी गोद में सारे विश्व को ही समेट लेने में समर्थ हो जाते हैं। पारिवारिक सद्भाव एवं सुख- शांति से लेकर सामाजिक समानता, संगठन के लिये यह भाव अत्यधिक उपयोगी सिद्ध होते हैं। अस्तु हर घर में यह प्रयास किया जाना चाहिये कि प्रत्येक सदस्य में गहन भ्रातृभाव एवं भगिनि भाव का विकास हो सके। भाई- भाई के सम्बंध परिवार एवं समाज की सशक्त रचना के प्रमुख आधार हैं। सघनतम मित्र, आदर्श सहयोगी, विश्वस्त मार्गदर्शक, निष्ठावान् अनुगामी, हार्दिक समर्थक सभी भाव एक साथ मिला देने पर जो स्वरूप बनता है वह सब भाई के सम्बन्ध में समाहित हो जाता है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने परिवार रूपी शरीर में भाई की उपमा हाथ से दी है। शरीर पर वज्र भी टूटे तो यथासाध्य हाथ पहली चोट अपने ऊपर लेकर शरीर को बचाने का प्रयास करते हैं। वास्तव में सच्चे भाई में भी यह सब गुण होते हैं। वा. ४८/ २.८८
भाई- भाई का झगड़ा स्वाभाविक नहीं; किंतु वे आये दिन लड़ते रहते हैं। अलग होते और एक दूसरे के विरोधी बनते रहते हैं। इसके अनेक कारण हैं जैसेः- १. अधिकांश माता- पिता लड़कों को प्रकृति पर छोड़ देते हैं। उनके प्राकृतिक विकास में कोई हस्तक्षेप नहीं करते। मनमाने ढंग से बढ़ते हुए पौधे और बच्चे प्रायः गलत रूप ही पकड़ लेते हैं। माता- पिता को छोटेपन से ही यह देखते रहना चाहिये कि कोई लड़का उछृंखल, उद्दण्ड अथवा व्यतिक्रामक तो नहीं होता जा रहा। वह अपने दूसरे भाईयों का उचित ध्यान रखता है या नहीं। कहीं उसमें स्वार्थ और अपनेपन की भावना तो घर नहीं कर रही। यदि ऐसा है तो तत्काल उस पर प्रतिबन्ध लगा देना चाहिये और प्रयत्नपूर्वक उसकी अनानुकूलमुखी प्रवृत्ति को वांछनीय दिशा में मोड़ा जाना चाहिये।
२. ताड़ना एवं दण्ड का मार्ग उचित नहीं। इससे बच्चा सुधरने के बजाय और बिगड़ सकता है। ढीठ हो सकता है। जिसके सम्मुख ताड़ना दी गई है, उसका अधिक विरोधी हो सकता है।
३. दो छोटे भाईयों का झगड़ा मिटाने के लिये अनेक बार माता- पिता उनको एक दूसरे से बोलने, साथ खेलने और बैठने से मना कर देते हैं और यथा संभव इस निषेध का पालन करने का भी प्रयत्न करते हैं। यह उपाय बड़ा खतरनाक है। इससे पारस्परिक मनोमालिन्य पलता और जमा होता जाता है। कालान्तर में भाई- भाई परस्पर विरोधी बन जाते हैं।
४. रुचि वैचित्र्य भी भाई- भाई के झगड़े का एक कारण है। माता- पिता को चाहिये कि खाने- पहनने और खेल- मनोरंजन में उनकी रुचि वैचित्र्य को प्रोत्साहित न होने दें। भाई- भाई, भाई- बहिन जितना साथ- साथ खेलेंगे- खायेंगे और रहेंगे, वे एक दूसरे के अधिक समीप आते रहेंगे।
५. बच्चों की संगत पर बड़ा ध्यान रखना चाहिये। बहुत बार बाहर के अवांछित तत्त्व भाई- भाई में विरोध पैदा कर देते हैं। किसी बाहरी समवयस्क के प्रभाव में आकर बच्चे अपने भाईयों की उपेक्षा करने लगते हैं जो उनके मनमुटाव का कारण बनता है।
६. छोटे- बड़े का भेद, माता- पिता का पक्षपात भी भाई- भाई में मनोमालिन्य बढ़ा देता है। यह कमी माता- पिता की है। उन्हें इस सम्बन्ध में अपना सुधार कर ही लेना चाहिये। सब बच्चे उनके हैं। उनके लिये सब बराबर हैं। कोई भी कारण उन्हें विषम भाव रखने के लिये विवश न कर सके। यदि वे स्वयं असमान भाव रखेंगे तो कैसे आशा रख सकते हैं कि बालक परस्पर समान भाव रखें।
७. जिस परिवार में बहिन और भाई रहते हैं, वहाँ का वातावरण निस्संदेह कठोर हृदय को भी कोमलता में परिणत करने में सक्षम होता है। किन्तु इस वातावरण की सृष्टि में माता- पिता का योगदान ही प्रमुख रहता है, माता- पिता ही परिवार संस्था के संचालक, व्यवस्थापक तथा सम्पादक होते हैं। यदि उनके द्वारा बेटे और बेटी के प्रति स्वल्प वैषम्य का भाव अभिव्यक्त हुआ तो यह विषबेलि फिर फैलने लगती है। जिसका सूक्षम प्रभाव उन अबोध बालक मनों पर अप्रत्यक्ष रूप से पड़ने लगता है जो कालांतर में एक विष वृक्ष ही बन जाता है। विशेषकर बहिन और भाई के मध्य एक हीनत्व और अलगाव की भावना विकसित होने लगती है। साथ ही माता- पिता यदि समान रूप से प्यार तथा दुलार, सुविधा, सहयोग, शिक्षा और संस्कार पुत्र और पुत्री को देते हैं तो इस विसंगति से, इस विघटन से परिवार अछूता रहता है।
८. बड़े दुःख का विषय है, आजकल भाई- बहिन के संबंध में लेन- देन एवं उपहारों ने घुसपैठ कर कहीं खटाई का काम किया है। इस सांस्कृतिक दृष्टि से एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति ही कहा जा सकता है। बहिन का तो एक ही अभीष्ट रहना चाहिये -- भाई सुखी एवं प्रसन्न रहता है तो इससे बड़ा सद्भाव एवं सम्पदा और कुछ नहीं हो सकती। वा. ४८/२.८८ से २.९१
आदर्श सहेली- ननद, भाभी
परिवार में जब एक नूतन सदस्य पदार्पण करता है नववधू के रूप में, उस समय ननद अपनी भाभी के लिये मन में न जाने कौन- कौन से स्वप्न सँजोये रहती है, ऐसे अवसर पर ननद के मन में कितनी कमनीय कोमल कल्पनायें होती हैं, उसे एक नई सहेली मिलेगी, उससे अपने मन की खूब बातें करेगी, एक दूसरे की दुःख- सुख की बातें सुनेंगी, सुनायेंगी आदि अन्यान्य मनसूबे बाँधती रहती है ननद। उधर नई भाभी का मन भी हलचल से भरा रहता है, पतिगृह उसके लिये नया है, वह भी सबके लिये नई होगी। नूतन गृह के आचार- विचार, मान- मर्यादाओं से वह पूर्णतः अपरिचित तथा अनभिज्ञ है, कैसे समय कटेगा, परिवार के अधिकांश सदस्य बड़े तथा सम्माननीय होंगे, कैसे उनके समक्ष अपनी आंतरिक, अनुभूतियों को अभिव्यक्त करेगी, किन्तु उसे आशा की किरण इस ऊहापोह के निविड़तम में अन्ततोगत्वा ननद के रूप में मिल ही जाती है। एकमात्र ननद ही उसकी सच्ची सहेली है, जिससे उन्मुक्त प्यार सुलभ होगा, साथ ही घर की समस्त परम्पराओं रीति- रिवाजों का परिचय मिल जा�