Books - परिवार निर्माण
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Language: HINDI
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परिवार को सफल बनाने के लिये सच्ची पारिवारिक भावना जरूरी
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स्मरण रखा जाना चाहिए कि ‘‘आनन्द पाने से अधिक बाँटने में मिलता है।’’ यदि पति- पत्नी यह दृष्टिकोण अपनाएँ कि हमें अपने जीवन- साथी को सुखी व संतुष्ट रखना है तथा उसके लिए स्वयं असुविधाग्रस्त
रहते हुए भी जीवन- साथी के लिए सुविधाएँ जुटाते रहना है तो
पारिवारिक जीवन के प्रति आ गयी निराशा को भी दूर हटाया- भगाया
जा सकता है। वस्तुतः पारिवारिक जीवन में कलह, असंतोष, खिन्नता और
उदासी की परिस्थितियाँ उत्पन्न होती भी इसीलिए हैं कि पति- पत्नी
अपने साथी के लिए स्वयं की आकाक्षांओं को कुर्बान करने के स्थान पर उन्हें पूरा करने की माँग को प्रधानता देते हैं। वा. ४८/१.२
घर में जब प्रत्येक सदस्य दूसरे के लिए त्याग करने को तत्पर रहे, उसका अपना स्वार्थ दूसरों के स्वार्थ के साथ जुड़ा हो, एक की पीड़ा सबकी पीड़ा और एक की उन्नति सबकी उन्नति बनकर प्रकट हो, तब समझना चाहिए कि हम पारिवारिक जीवनयापन कर रहे हैं। दूसरे हमसे अच्छा खायें, पहनें, घर की सुख- सुविधा का उपभोग पहले दूसरे लोग करें, हमारी खुशी इसी में है। हमारा कर्तव्य तो अधिकाधिक त्याग और दूसरों की सुख- शांति और विकास में सहायक होना है। ‘मेरे रहते किसी को दुःख तकलीफ न हो’ आदि की उदार भावना ही पारिवारिक भावना को प्रकट करती है। वा. ४८/१.८
परिवार एक पवित्र तथा उपयोगी संस्था है। इसमें मानव की सर्वांगीण उन्नति का आधार सहयोग, सहायता और पारस्परिकता का भाव रहता है। यह भाव वह शक्ति है जिसके आधार पर मनुष्य आदि- जंगली स्थिति से उन्नति करता- करता आज की सभ्य स्थिति में पहुँचा है। सहयोग की भावना ही मनुष्य जाति की उन्नति का मूल कारण रही है। एकता, सामाजिकता, मैत्री आदि की सहयोगमूलक शक्ति ने आज मानव सभ्यता को उच्चता पर पहुँचा दिया है। सभ्यता के प्रारम्भिक युग में जिस व्यक्ति ने सहयोग की शक्ति समझकर उसका प्रकटीकरण तथा प्रवर्तन किया होगा, वह निश्चित ही एक बड़ा दार्शनिक तथा समाज हितैषी महापुरुष रहा होगा। सहयोग की शक्ति जानकर लोगों ने अपनी स्थूल तथा सूक्ष्म विशेषताओं को मिलाकर संगठन की चेतना प्रबुद्ध की होगी और कन्धे- से, विचार से विचार, शक्ति से शक्ति तथा साधन से साधन मिलाकर एक तन- मन से काम किया होगा, जिसके फलस्वरूप सभ्यता तथा मानवीय समृद्धि के एक के बाद एक द्वार खुलते चले गये होंगे।
आज भी तो पूरा समाज सहयोग और पारस्परिकता के बल पर ही चल रहा है। यदि समाज से सहयोग की भावना नष्ट हो जाये तो तुरन्त ही चलते हुए कारखाने, होती हुई खेती और बढ़ती हुई योजनाएँ व विकास पाती हुई कलाएँ, शिल्प, साहित्य आदि की प्रगति रुक जाये और कुछ ही समय में समाज जड़ता से अभिभूत होकर नष्ट हो जाये। सहयोग मानव विशेषताओं में एक बड़ी विशेषता है, परिवार में जिसका होना नितान्त आवश्यक है। इसी पर परिवार बनता, चलता और उन्नति करता है। वा. ४८/१.९
परिवार की प्रतिष्ठा हमारी प्रतिष्ठा, परिवार की उन्नति हमारी उन्नति, उसकी समृद्धि हमारी समृद्धि और उसकी लाभ- हानि हमारी लाभ- हानि है, ऐसी आत्म- भावना पारिवारिकता का विशेष लक्षण है। हम कोई ऐसा काम न करें, जिससे परिवार की प्रतिष्ठा पर आँच आये। किसी सदस्य पर कोई अवांछनीय प्रभाव पड़े, परिवार की उन्नति में अवरोध उत्पन्न हो अथवा उसकी समृद्धि एवं वृद्धि में प्रतिकूलता आये, ऐसा सतर्क भाव ही तो पारिवारिकता कहा जायेगा। जहाँ यह सब बातें पाई जायें, वहाँ समझना चाहिए कि लोग वास्तविक रूप में परिवार बनकर रह रहे हैं। जहाँ स्वार्थ, वैमनस्य, भाव- वैषम्य, अथवा सुख- दुःख में विषमता की गन्ध पाई जाये, वहाँ मानना होगा कि एक साथ अनेक के रहने पर भी वहाँ परिवार भावना नहीं है। लोग किसी कारणवश एक साथ रहे जा रहे हैं।
परिवार में जब तक सच्ची पारिवारिक भावना नहीं होती, उसका उद्देश्य पूरा नहीं होता। आज सच्ची पारिवारिक भावना के अभाव में ही तो परिवार टूटते, बिखरते जा रहे हैं। उनकी शक्ति तथा दक्षता नष्ट होती जा रही है। उनकी वृद्धि- समृद्धि रुकती जा रही है और दिन- दिन उन्हें दीनता, दरिद्रता घेरती चली आ रही है। पारिवारिक भावना के अभाव में ही भाई- भाई लड़ते, बहिनें एक दूसरे से मन- मुटाव मानती, सास- बहू के बीच बनती नहीं और देवरानी- जेठानी एक दूसरे से डाह व ईर्ष्या करती हैं। जितने मुकदमे दूसरों से विवाद के नहीं चलते, उससे कई गुना मुकदमे पारिवारिक कलह के कारण दायर होते और चलते रहते हैं। चाचा- ताऊ, बाप- बेटों और बाबा- पोतों तक में संघर्ष होता रहता है। इस अनिष्ट का एकमात्र कारण यही है कि एक परिवार होते हुए भी वे सब पारिवारिक भावना से रहित हैं। अपना भिन्न तथा पृथक् अस्तित्व मानते और तदनुरूप ही आचरण करते हैं। सच्ची पारिवारिक भावना का विकास तो तब ही होता है, जब परिवार का प्रत्येक सदस्य अपना अस्तित्व पूूरे परिवार में मिलाकर अभिन्न हो जाता है। इस आत्मविसर्जन के पुण्य से ही लोगों में सच्चे प्रेम और सच्ची आत्मीयता का विकास होता है। परिवारों से मिलकर समाज और समाज से राष्ट्र का निर्माण होता है। यदि परिवार संगठित, शक्ति- सम्पन्न और समृद्ध हो जायें तो समाज अपने आप ही बन जायेगा। उसके लिये अलग से कोई प्रयत्न करने की आवश्यकता न रह जायेगी। परिवारों में सच्ची पारिवारिक भावना का अभाव किन कारणों से हुआ है या हो रहा है, यदि इस पर विचार करते हैं, तो यह विदित होता है कि आज का हमारा रहन- सहन और आचार- विचार इसके लिए मुख्य रूप से उत्तरदायी है। वा. ४८/१.९
गृहस्थ- जीवन को पृथ्वी पर स्वर्ग कहा गया है। मनुष्य का युग- युग का अनुभव बतलाता है कि जो सुख पारिवारिक जीवन जीने में है वह किसी अन्य प्रकार की जीवन पद्धति में नहीं है। आश्रम व्यवस्था का प्रचलन करने वाले ऋषि- मुनियों ने गृहस्थ आश्रम को सबसे पुनीत एवं उपयोगी बताया है। जीवन की सारी व्यवस्था परिवार पर निर्भर रहती है। शेष तीन आश्रम भी गृहस्थ आश्रम पर निर्भर रहते आये हैं। पारिवारिक जीवन एक प्रकार की सुन्दर, स्वस्थ सहकारी जीवन पद्धति है। परिवार के प्रत्येक सदस्य का सुख- दुःख एक- दूसरे से जुड़ा रहता है। सभी एक- दूसरे की सुख- सुविधा में सहायक होते हैं। गृहपति यदि परिवार चलाने के लिये श्रम करता है तो गृहस्वामिनी उसके लिये समय पर भोजन तथा आराम की व्यवस्था करती है।
पति जो कुछ कमा कर लाता है, पत्नी उसे सँजोती है; उसका इस प्रकार से अधिक से अधिक सदुपयोग करती है, जिससे कि घर की व्यवस्था रोचक, मनोरम एवं प्रसन्नतापूर्ण बनी रहे। माता- पिता बच्चों का पालन- पोषण करने में श्रम करते हैं तो बच्चे भी उन्हें अपनी किलकारियों तथा आज्ञानुवर्तिता से आनन्दित करते रहते हैं। बूढ़े हो जाने पर अपने माता- पिता के हाथ- पाँव बनकर उन्हें किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने देते।
सम्मिलित परिवारों में अनेक की कमाई एक साथ घर आती और एक साथ भोजन व्यवस्था होने से घर- बार भरा- पूरा बना रहता है। एक सदस्य के बीमार हो जाने पर सारे सदस्य उसकी चिन्ता एवं सेवासुश्रूषा करते हैं, जिससे रोगी बड़ा ही आश्वस्त अनुभव करता और शीघ्र अच्छा हो जाता है। सदस्यों के मिल- जुलकर रहने से परिवार की प्रतिष्ठा एवं शक्ति बढ़ती है, जिससे कोई दुष्ट अनायास उसे हानि पहुँचाने की हिम्मत नहीं कर पाता। इस प्रकार यदि परिवार संगठित, सुव्यवस्थित तथा सुमतिपूर्ण है तो उसकी तुलना में स्वर्ग का सुख भी तुच्छ आँका जायेगा। वा. ४८/१.६७
पारिवारिकता अपनाने में ही मनुष्य का कल्याण है
पारिवारिकता एक दर्शन है, जो गृहस्थी के लिए ही नहीं, विरक्तों के लिए भी अपनाये जाने योग्य है। कुमार और कुमारी उसमें बँधे रहते हैं। स्त्री- बच्चों का परिवार भी परिवार की परिधि में गिना जा सकता है, किन्तु इस महान् संस्था को इतने ही लोगों तक सीमित कर दिया जाना सर्वथा आपत्तिजनक है। घर में स्वभावतः कई व्यक्ति रहते हैं और वे कई स्तर के होते हैं। वयोवृद्ध, कामकाजी, प्रौढ़, विद्यार्थी, किशोर, नन्हें- मुन्ने, वयस्क महिलाएँ, छोटे- बड़े बहिन- भाई, विधवाएँ, आश्रित सम्बन्धी आदि कई सम्बन्ध सूत्रों से जुड़े हुए कई व्यक्तियों को मिलाकर एक परिवार बनता है। इन सबकी मनःस्थिति एवं परिस्थिति एक दूसरे से भिन्न होती हैं। कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व भी भिन्न- भिन्न होते हैं। उनकी आवश्यकताएँ एवं अपेक्षाएँ भी एक दूसरे से भिन्न प्रकार की होती हैं। इस सबका तालमेल बिठाना, हर एक को उचित सुविधा देना और हर किसी में पनपने वाली सहज विश्रृंखलता का नियमन करना- देखने में छोटा, किन्तु समझने में बहुत बड़ा काम है। इसे ठीक तरह सम्पन्न करने के लिए कुशल प्रशासक की दूरदर्शिता, सन्त जैसी उदार निस्पृहता और माता जैसी ममता चाहिए। इन तीनों का जो समन्वय कर लेगा, वही सफल परिवार- संचालक सिद्ध हो सकेगा। अन्यथा कांजीहाउस में बन्द पशुओं को जिस तरह एक ग्वाला भूसा- पानी देता और उछल- कूद करने वालों को डण्डे से पीटता रहता है, उसी प्रकार कोई भी अनाड़ी, अविचारी कुटुम्ब को बढ़ाता और उसकी दुर्गति का भांडा खेल खेलता रह सकता है। वा. ४८/१.१४
परिवार की आवश्यकता और महत्ता
समाज निर्माण की बात सोचने वालों को यह तथ्य भली प्रकार समझ लेना चाहिये कि समाज की स्वतंत्र सत्ता कुछ नहीं वह मात्र परिवारों का समुच्चय है। परिवार जैसे हों उनका मिला जुला स्वरूप ही समाज का भला बुरा स्तर बन कर सामने आ खड़ा होगा। सरकारी कर्मचारी और प्रजाजन दोनों ही परिवारों की फैक्टरियों में ढलते हैं। शिल्पी, व्यवसायी, श्रमिक, कलाकार, बुद्घिजीवी वर्ग के अग्रणी समझे जाने वाले लोग भी अपनी कुशलता पर पारिवारिक दृष्टिकोण की छाप लादे रहते हैं। उद्दण्डताओं और अपराधों की वर्षा बादलों में से नहीं होती, यह सारी फसल परिवार के खेत- खलिहानों में से इकट्ठी होती है। आलसी, प्रमादी, सनकी, दुर्गुणी, छली, भीरू, व्यसनी प्रकृति के गये- गुजरे लोगों से अपना समाज भरा पड़ा है। यह टिड्डियों की तरह कहीं से उड़ते नहीं चले आये हैं। सारे परिवारों की कीचड़ में से इन कृमि- कीटकों की उत्पत्ति हुई है।
समाज निर्माण का स्वर- संगीत, वस्तुतः परिवार के स्वर- सप्तकों की झंकार करने में निनादित हो सकेगा। परिवार निर्माण हृदय एवं उसका क्षेत्र विस्तार धड़ है। व्यक्ति उसका सिर और समाज हाथ पैर का ढाँचा ढकोसला। यदि विश्व मानव की स्थिति सुधारनी है तो रुग्ण हृदय की चिकित्सा करनी होगी अन्यथा धड़कन, रक्तचाप, शोथ से लेकर गतिरोध होने पर मरण संकट की आशंका बनी ही रहेगी। वा.४८,/२.७७
जीवन निर्माणकारी साहित्य के एक लेखक ने एकाकी जीवन को एक अभिशाप बताते हुए लिखा है- ‘‘यह अभिशाप अपना भयंकर रूप तब धारण करता है, जब व्यक्ति जीवन यात्रा के बिलकुल मध्यवर्ती पड़ाव पर पहुँच जाता है। उस समय अनुभव होता है कि खाली घर का सूनापन किस कदर उबाऊ हो जाता है। घर में प्रवेश करते ही जब अन्दर से स्वागत करने वाली कोई आवाज नहीं होती तो व्यक्ति अपने को बाहरी दुनिया से निकलने पर, जहाँ अधिकांश सम्बन्ध स्वार्थों के सम्बन्ध होते हैं, अधिकांश रिश्ते केवल औपचारिक होते हैं और वातावरण में बनावटीपन भरा रहता है- ऐसी दुनिया से बाहर आने पर घर की खामोशी व्यक्ति को अपने अकेलेपन का अहसास कराती है। विशेषतः ऐसे व्यक्ति जिन्हें विवाह के बाद यह अकेलापन मिला है वे अनुभव करते हैं कि सूने घर में प्रवेश और पत्नी की मुस्कान के स्वागत का अनुभव करते हुए घर में प्रवेश करने में कितना भारी अन्तर होता है?’’
पारिवारिक जीवन में, जीवन- साथी उस मित्र की आवश्यकता को पूरा करता है, जो पूर्णतया निष्पक्ष, निर्दोष और यथासम्भव सही परामर्श देता है। इसलिए कि परिवार में पति- पत्नी के लाभ व हित एक- दूसरे पर निर्भर करते हैं, उन्हें दोनों का लाभ साथ- साथ दीखता है और वे परस्पर दूसरे पक्ष की भलाई में अपनी भलाई समझते हैं। केवल उत्तरदायित्वों के बोझ से खिन्न होकर पारिवारिक जीवन के प्रति निराश और उदास दृष्टिकोण अपना लिया जाय तो दुःखी व परेशान रहने के अलावा और कोई परिणाम नहीं निकलता। वा. ४८/१.१
सुसंस्कृत परिवार सर्वोत्तम मित्र- मंडली की भूमिका भी बखूबी निबाहता है। दुःख- सुख, उतार- चढ़ाव, व्यथा- विनोद में गहरी सहभागिता की प्रवृत्ति सुसंस्कृत परिवार को एक श्रेष्ठ मित्र- मंडली ही बनाये रखती है। उनमें पारस्परिक हितों का टकराव भी नहीं होता, क्योंकि सभी के हित एक ही होते हैं। बच्चों की मीठी बोली, तोतली बोली, माँ का प्राणशक्तिदायक वात्सल्य, भाई- बहिनों का सौन्दर्य- उल्लास, पत्नी का प्रेमपूर्ण समर्पण, पारस्परिक घनिष्ट सहयोग ये सब मित्र मंडली के सभी तत्वों का समुचित स्वरूप ही तो होता है। छोटे बच्चों का खेलना, बड़े बच्चों का पढ़ना, कहीं कढ़ाई- बुनाई, कहीं संगीत, कहीं अध्ययन, कहीं आगन्तुकों से शिष्ट, मधुर- कुशल वार्तालाप, अनुभवपूर्ण बातें, धर्मचर्चा और प्रेरक कहानियाँ, परिवार द्वारा मनोरंजन, उल्लास और प्रेरणा आदि के वे सभी कार्य अधिक उत्तम रीति से पूरे हो जाते हैं, जो एक श्रेष्ठ मित्र- मंडली में होते हैं। प्रगाढ़ आत्मीयता के भाव से युक्त सुसंस्कारवान परिजनों से हर विषय में जितना उत्तम एवं हितपरक परामर्श मिल सकता है, उतना अन्य मित्रों से कदाचित् ही मिल सके। परिवार से प्राप्त होने वाले इस प्रकार के साधन- सुविधा एवं समर्थन सहयोगपरक अनेक लाभ हैं, जिन्हें पाने के लिए मनुष्य परिवार बनाता है।
बच्चों के निर्माण में पिता का व्यक्तिगत आचरण बहुत महत्त्व रखता है। बच्चे सहज ही अनुकरणशील होते हैं, वे जैसा पिता को करते देखते हैं, वैसी ही सीख लेते हैं। अतः पिता को अपना रहन- सहन, आचार- विचार और स्वभाव उसके अनुकूल रखना चाहिए, जिस आदर्श में वह अपने बच्चों को ढालना चाहता है। यदि पिता अपने इस महान दायित्व को समझे और अपने को त्याग, प्रेम, परिश्रम, पुरुषार्थ, सदाचार के आदर्श के रूप में प्रस्तुत करे तो कोई कारण नहीं कि उसके बच्चे वैसे न बन जायें। जो पिता स्वार्थी, क्रोधी, कर्कश, और व्यसनी, विलासी होता है, वह न तो आदर का पात्र होता है और न उसके बच्चे ही अच्छे बन पाते हैं।
माता के व्यक्तिगत आचरण का प्रभाव कन्याओं पर विशेष रूप से पड़ता है। जो माताएँ अधिक साज- सज्जा, शृंगार, फैशन, पाउडर, लिपस्टिक और गहनों में रुचि रखती हैं और सास, ननद, देवरानी, जेठानी आदि से लड़ती- झगड़ती रहती हैं, उनकी कन्याएँ भी फैशनेबुल, छबीली और विलासप्रियता की शिकार बन जाती हैं और उनके स्वभाव में भी विवाद, असहयोग और कलह के अंकुर उग आते हैं। माता- पिता को चाहिए कि परिवार के सारे सदस्यों तथा व्यक्तियों से यथायोग्य प्रेम और आदर का व्यवहार करें सबके लिये त्याग तथा उदार भावना को प्रश्रय दें, अधिक से अधिक सादगी और शालीनता से रहें, इससे उनके बच्चों पर पारिवारिकता के अनुकूल प्रतिक्रया होगी। वे प्रेमभाव की मिठास और त्याग का महत्व समझेंगे।
अभिभावकों के व्यक्तिगत आचरण के साथ परिवार का वातावरण भी बच्चों और सदस्यों के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करता हैं। जिन घरों में दिन- रात लड़ाई- झगड़ा तथा आपा- धापी होती रहती है, उस परिवार के बच्चे और अन्य सदस्य परस्पर सहयोग का मूल्य नहीं समझ सकते। उनमें स्वार्थ और कलह की प्रमुखता हो जायेगी। चाचा- ताऊ आदि जो भी सदस्य एक परिवार में रहते हों, जो भी भाई- बहिन एक घर में रहते हों उन सबको अपना तथा अपने बच्चों से अधिक ख्याल भाई- बहन के बच्चों और उन खुद का रखना चाहिए। परिवारों में बच्चों के प्रति अपना- अपना भाव रखने से ही अधिकतर कलह के अंकुर उगते हैं। यदि सब बच्चों को अपना बच्चा और अपने को उनका सगा अभिभावक समझा जाये और वैसा ही प्रेमपूर्ण व्यवहार किया जाये तो कोई कारण नहीं कि सब समान रूप से सारे गुरुजनों का आदर न करें अथवा अनुशासन न मानें। सारे प्रौढ़ सभी बच्चों को अपने बच्चे और सारे बच्चे सभी गुरुजनों को अपना शुभचिन्तक और अभिभावक मानकर वैसा ही आचरण करने लगें, तो निश्चय ही परिवार में दृढ़ता और स्थिरता के साथ- साथ सुख- शांति की परिस्थितियाँ रहने लगें।
इसके साथ ही परिवार का वातावरण अधिक से अधिक पवित्र तथा शालीन रहना चाहिए। घरों में ऐसा साहित्य, ऐसे चित्र तथा ऐसे मनोरंजन को नहीं घुसने देना चाहिए जिससे बच्चों के स्वभाव अथवा आचरण पर अवांछनीय प्रभाव पड़े। घरों में गन्दी मजाक, तानाकशी और हल्का विनोद अथवा गाली- गलौज का वातावरण नहीं होना चाहिए। रूढ़िवादिता, कुरीतियाँ और कुप्रथाओं के बहिष्कार से बच्चों के निर्माण में बहुत कुछ सहायता मिलेगी। पारिवारिक रूढ़ियाँ और अन्धविश्वास बच्चों पर इतना बुरा प्रभाव डालते हैं कि वे जीवन भर के लिये पढ़े- लिखे होने पर भी विचारों की स्वतन्त्रता तथा नवीनता से वंचित रह जाते हैं। यह विकृति उन्हें निश्चित रूप से पक्षपाती, दुराग्रही तथा स्वार्थी बना देती है।
इस प्रकार व्यक्तिगत आचरण, घरेलू वातावरण तथा विचार विकृति दूर कर परिवार का निर्माण कीजिये, आपके घरों से कलह, क्लेश तथा फूट- टूट की दूषित विकृति दूर हो जायेगी और उसके स्थान पर सच्ची पारिवारिकता, सहयोग, प्रेम तथा पारस्परिकता की भावना बढ़ेगी, जिससे परिवार के साथ समाज तथा देश का कल्याण होगा। वा. ४८/१.१०
घर में जब प्रत्येक सदस्य दूसरे के लिए त्याग करने को तत्पर रहे, उसका अपना स्वार्थ दूसरों के स्वार्थ के साथ जुड़ा हो, एक की पीड़ा सबकी पीड़ा और एक की उन्नति सबकी उन्नति बनकर प्रकट हो, तब समझना चाहिए कि हम पारिवारिक जीवनयापन कर रहे हैं। दूसरे हमसे अच्छा खायें, पहनें, घर की सुख- सुविधा का उपभोग पहले दूसरे लोग करें, हमारी खुशी इसी में है। हमारा कर्तव्य तो अधिकाधिक त्याग और दूसरों की सुख- शांति और विकास में सहायक होना है। ‘मेरे रहते किसी को दुःख तकलीफ न हो’ आदि की उदार भावना ही पारिवारिक भावना को प्रकट करती है। वा. ४८/१.८
परिवार एक पवित्र तथा उपयोगी संस्था है। इसमें मानव की सर्वांगीण उन्नति का आधार सहयोग, सहायता और पारस्परिकता का भाव रहता है। यह भाव वह शक्ति है जिसके आधार पर मनुष्य आदि- जंगली स्थिति से उन्नति करता- करता आज की सभ्य स्थिति में पहुँचा है। सहयोग की भावना ही मनुष्य जाति की उन्नति का मूल कारण रही है। एकता, सामाजिकता, मैत्री आदि की सहयोगमूलक शक्ति ने आज मानव सभ्यता को उच्चता पर पहुँचा दिया है। सभ्यता के प्रारम्भिक युग में जिस व्यक्ति ने सहयोग की शक्ति समझकर उसका प्रकटीकरण तथा प्रवर्तन किया होगा, वह निश्चित ही एक बड़ा दार्शनिक तथा समाज हितैषी महापुरुष रहा होगा। सहयोग की शक्ति जानकर लोगों ने अपनी स्थूल तथा सूक्ष्म विशेषताओं को मिलाकर संगठन की चेतना प्रबुद्ध की होगी और कन्धे- से, विचार से विचार, शक्ति से शक्ति तथा साधन से साधन मिलाकर एक तन- मन से काम किया होगा, जिसके फलस्वरूप सभ्यता तथा मानवीय समृद्धि के एक के बाद एक द्वार खुलते चले गये होंगे।
आज भी तो पूरा समाज सहयोग और पारस्परिकता के बल पर ही चल रहा है। यदि समाज से सहयोग की भावना नष्ट हो जाये तो तुरन्त ही चलते हुए कारखाने, होती हुई खेती और बढ़ती हुई योजनाएँ व विकास पाती हुई कलाएँ, शिल्प, साहित्य आदि की प्रगति रुक जाये और कुछ ही समय में समाज जड़ता से अभिभूत होकर नष्ट हो जाये। सहयोग मानव विशेषताओं में एक बड़ी विशेषता है, परिवार में जिसका होना नितान्त आवश्यक है। इसी पर परिवार बनता, चलता और उन्नति करता है। वा. ४८/१.९
परिवार की प्रतिष्ठा हमारी प्रतिष्ठा, परिवार की उन्नति हमारी उन्नति, उसकी समृद्धि हमारी समृद्धि और उसकी लाभ- हानि हमारी लाभ- हानि है, ऐसी आत्म- भावना पारिवारिकता का विशेष लक्षण है। हम कोई ऐसा काम न करें, जिससे परिवार की प्रतिष्ठा पर आँच आये। किसी सदस्य पर कोई अवांछनीय प्रभाव पड़े, परिवार की उन्नति में अवरोध उत्पन्न हो अथवा उसकी समृद्धि एवं वृद्धि में प्रतिकूलता आये, ऐसा सतर्क भाव ही तो पारिवारिकता कहा जायेगा। जहाँ यह सब बातें पाई जायें, वहाँ समझना चाहिए कि लोग वास्तविक रूप में परिवार बनकर रह रहे हैं। जहाँ स्वार्थ, वैमनस्य, भाव- वैषम्य, अथवा सुख- दुःख में विषमता की गन्ध पाई जाये, वहाँ मानना होगा कि एक साथ अनेक के रहने पर भी वहाँ परिवार भावना नहीं है। लोग किसी कारणवश एक साथ रहे जा रहे हैं।
परिवार में जब तक सच्ची पारिवारिक भावना नहीं होती, उसका उद्देश्य पूरा नहीं होता। आज सच्ची पारिवारिक भावना के अभाव में ही तो परिवार टूटते, बिखरते जा रहे हैं। उनकी शक्ति तथा दक्षता नष्ट होती जा रही है। उनकी वृद्धि- समृद्धि रुकती जा रही है और दिन- दिन उन्हें दीनता, दरिद्रता घेरती चली आ रही है। पारिवारिक भावना के अभाव में ही भाई- भाई लड़ते, बहिनें एक दूसरे से मन- मुटाव मानती, सास- बहू के बीच बनती नहीं और देवरानी- जेठानी एक दूसरे से डाह व ईर्ष्या करती हैं। जितने मुकदमे दूसरों से विवाद के नहीं चलते, उससे कई गुना मुकदमे पारिवारिक कलह के कारण दायर होते और चलते रहते हैं। चाचा- ताऊ, बाप- बेटों और बाबा- पोतों तक में संघर्ष होता रहता है। इस अनिष्ट का एकमात्र कारण यही है कि एक परिवार होते हुए भी वे सब पारिवारिक भावना से रहित हैं। अपना भिन्न तथा पृथक् अस्तित्व मानते और तदनुरूप ही आचरण करते हैं। सच्ची पारिवारिक भावना का विकास तो तब ही होता है, जब परिवार का प्रत्येक सदस्य अपना अस्तित्व पूूरे परिवार में मिलाकर अभिन्न हो जाता है। इस आत्मविसर्जन के पुण्य से ही लोगों में सच्चे प्रेम और सच्ची आत्मीयता का विकास होता है। परिवारों से मिलकर समाज और समाज से राष्ट्र का निर्माण होता है। यदि परिवार संगठित, शक्ति- सम्पन्न और समृद्ध हो जायें तो समाज अपने आप ही बन जायेगा। उसके लिये अलग से कोई प्रयत्न करने की आवश्यकता न रह जायेगी। परिवारों में सच्ची पारिवारिक भावना का अभाव किन कारणों से हुआ है या हो रहा है, यदि इस पर विचार करते हैं, तो यह विदित होता है कि आज का हमारा रहन- सहन और आचार- विचार इसके लिए मुख्य रूप से उत्तरदायी है। वा. ४८/१.९
गृहस्थ- जीवन को पृथ्वी पर स्वर्ग कहा गया है। मनुष्य का युग- युग का अनुभव बतलाता है कि जो सुख पारिवारिक जीवन जीने में है वह किसी अन्य प्रकार की जीवन पद्धति में नहीं है। आश्रम व्यवस्था का प्रचलन करने वाले ऋषि- मुनियों ने गृहस्थ आश्रम को सबसे पुनीत एवं उपयोगी बताया है। जीवन की सारी व्यवस्था परिवार पर निर्भर रहती है। शेष तीन आश्रम भी गृहस्थ आश्रम पर निर्भर रहते आये हैं। पारिवारिक जीवन एक प्रकार की सुन्दर, स्वस्थ सहकारी जीवन पद्धति है। परिवार के प्रत्येक सदस्य का सुख- दुःख एक- दूसरे से जुड़ा रहता है। सभी एक- दूसरे की सुख- सुविधा में सहायक होते हैं। गृहपति यदि परिवार चलाने के लिये श्रम करता है तो गृहस्वामिनी उसके लिये समय पर भोजन तथा आराम की व्यवस्था करती है।
पति जो कुछ कमा कर लाता है, पत्नी उसे सँजोती है; उसका इस प्रकार से अधिक से अधिक सदुपयोग करती है, जिससे कि घर की व्यवस्था रोचक, मनोरम एवं प्रसन्नतापूर्ण बनी रहे। माता- पिता बच्चों का पालन- पोषण करने में श्रम करते हैं तो बच्चे भी उन्हें अपनी किलकारियों तथा आज्ञानुवर्तिता से आनन्दित करते रहते हैं। बूढ़े हो जाने पर अपने माता- पिता के हाथ- पाँव बनकर उन्हें किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने देते।
सम्मिलित परिवारों में अनेक की कमाई एक साथ घर आती और एक साथ भोजन व्यवस्था होने से घर- बार भरा- पूरा बना रहता है। एक सदस्य के बीमार हो जाने पर सारे सदस्य उसकी चिन्ता एवं सेवासुश्रूषा करते हैं, जिससे रोगी बड़ा ही आश्वस्त अनुभव करता और शीघ्र अच्छा हो जाता है। सदस्यों के मिल- जुलकर रहने से परिवार की प्रतिष्ठा एवं शक्ति बढ़ती है, जिससे कोई दुष्ट अनायास उसे हानि पहुँचाने की हिम्मत नहीं कर पाता। इस प्रकार यदि परिवार संगठित, सुव्यवस्थित तथा सुमतिपूर्ण है तो उसकी तुलना में स्वर्ग का सुख भी तुच्छ आँका जायेगा। वा. ४८/१.६७
पारिवारिकता अपनाने में ही मनुष्य का कल्याण है
पारिवारिकता एक दर्शन है, जो गृहस्थी के लिए ही नहीं, विरक्तों के लिए भी अपनाये जाने योग्य है। कुमार और कुमारी उसमें बँधे रहते हैं। स्त्री- बच्चों का परिवार भी परिवार की परिधि में गिना जा सकता है, किन्तु इस महान् संस्था को इतने ही लोगों तक सीमित कर दिया जाना सर्वथा आपत्तिजनक है। घर में स्वभावतः कई व्यक्ति रहते हैं और वे कई स्तर के होते हैं। वयोवृद्ध, कामकाजी, प्रौढ़, विद्यार्थी, किशोर, नन्हें- मुन्ने, वयस्क महिलाएँ, छोटे- बड़े बहिन- भाई, विधवाएँ, आश्रित सम्बन्धी आदि कई सम्बन्ध सूत्रों से जुड़े हुए कई व्यक्तियों को मिलाकर एक परिवार बनता है। इन सबकी मनःस्थिति एवं परिस्थिति एक दूसरे से भिन्न होती हैं। कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व भी भिन्न- भिन्न होते हैं। उनकी आवश्यकताएँ एवं अपेक्षाएँ भी एक दूसरे से भिन्न प्रकार की होती हैं। इस सबका तालमेल बिठाना, हर एक को उचित सुविधा देना और हर किसी में पनपने वाली सहज विश्रृंखलता का नियमन करना- देखने में छोटा, किन्तु समझने में बहुत बड़ा काम है। इसे ठीक तरह सम्पन्न करने के लिए कुशल प्रशासक की दूरदर्शिता, सन्त जैसी उदार निस्पृहता और माता जैसी ममता चाहिए। इन तीनों का जो समन्वय कर लेगा, वही सफल परिवार- संचालक सिद्ध हो सकेगा। अन्यथा कांजीहाउस में बन्द पशुओं को जिस तरह एक ग्वाला भूसा- पानी देता और उछल- कूद करने वालों को डण्डे से पीटता रहता है, उसी प्रकार कोई भी अनाड़ी, अविचारी कुटुम्ब को बढ़ाता और उसकी दुर्गति का भांडा खेल खेलता रह सकता है। वा. ४८/१.१४
परिवार की आवश्यकता और महत्ता
समाज निर्माण की बात सोचने वालों को यह तथ्य भली प्रकार समझ लेना चाहिये कि समाज की स्वतंत्र सत्ता कुछ नहीं वह मात्र परिवारों का समुच्चय है। परिवार जैसे हों उनका मिला जुला स्वरूप ही समाज का भला बुरा स्तर बन कर सामने आ खड़ा होगा। सरकारी कर्मचारी और प्रजाजन दोनों ही परिवारों की फैक्टरियों में ढलते हैं। शिल्पी, व्यवसायी, श्रमिक, कलाकार, बुद्घिजीवी वर्ग के अग्रणी समझे जाने वाले लोग भी अपनी कुशलता पर पारिवारिक दृष्टिकोण की छाप लादे रहते हैं। उद्दण्डताओं और अपराधों की वर्षा बादलों में से नहीं होती, यह सारी फसल परिवार के खेत- खलिहानों में से इकट्ठी होती है। आलसी, प्रमादी, सनकी, दुर्गुणी, छली, भीरू, व्यसनी प्रकृति के गये- गुजरे लोगों से अपना समाज भरा पड़ा है। यह टिड्डियों की तरह कहीं से उड़ते नहीं चले आये हैं। सारे परिवारों की कीचड़ में से इन कृमि- कीटकों की उत्पत्ति हुई है।
समाज निर्माण का स्वर- संगीत, वस्तुतः परिवार के स्वर- सप्तकों की झंकार करने में निनादित हो सकेगा। परिवार निर्माण हृदय एवं उसका क्षेत्र विस्तार धड़ है। व्यक्ति उसका सिर और समाज हाथ पैर का ढाँचा ढकोसला। यदि विश्व मानव की स्थिति सुधारनी है तो रुग्ण हृदय की चिकित्सा करनी होगी अन्यथा धड़कन, रक्तचाप, शोथ से लेकर गतिरोध होने पर मरण संकट की आशंका बनी ही रहेगी। वा.४८,/२.७७
जीवन निर्माणकारी साहित्य के एक लेखक ने एकाकी जीवन को एक अभिशाप बताते हुए लिखा है- ‘‘यह अभिशाप अपना भयंकर रूप तब धारण करता है, जब व्यक्ति जीवन यात्रा के बिलकुल मध्यवर्ती पड़ाव पर पहुँच जाता है। उस समय अनुभव होता है कि खाली घर का सूनापन किस कदर उबाऊ हो जाता है। घर में प्रवेश करते ही जब अन्दर से स्वागत करने वाली कोई आवाज नहीं होती तो व्यक्ति अपने को बाहरी दुनिया से निकलने पर, जहाँ अधिकांश सम्बन्ध स्वार्थों के सम्बन्ध होते हैं, अधिकांश रिश्ते केवल औपचारिक होते हैं और वातावरण में बनावटीपन भरा रहता है- ऐसी दुनिया से बाहर आने पर घर की खामोशी व्यक्ति को अपने अकेलेपन का अहसास कराती है। विशेषतः ऐसे व्यक्ति जिन्हें विवाह के बाद यह अकेलापन मिला है वे अनुभव करते हैं कि सूने घर में प्रवेश और पत्नी की मुस्कान के स्वागत का अनुभव करते हुए घर में प्रवेश करने में कितना भारी अन्तर होता है?’’
पारिवारिक जीवन में, जीवन- साथी उस मित्र की आवश्यकता को पूरा करता है, जो पूर्णतया निष्पक्ष, निर्दोष और यथासम्भव सही परामर्श देता है। इसलिए कि परिवार में पति- पत्नी के लाभ व हित एक- दूसरे पर निर्भर करते हैं, उन्हें दोनों का लाभ साथ- साथ दीखता है और वे परस्पर दूसरे पक्ष की भलाई में अपनी भलाई समझते हैं। केवल उत्तरदायित्वों के बोझ से खिन्न होकर पारिवारिक जीवन के प्रति निराश और उदास दृष्टिकोण अपना लिया जाय तो दुःखी व परेशान रहने के अलावा और कोई परिणाम नहीं निकलता। वा. ४८/१.१
सुसंस्कृत परिवार सर्वोत्तम मित्र- मंडली की भूमिका भी बखूबी निबाहता है। दुःख- सुख, उतार- चढ़ाव, व्यथा- विनोद में गहरी सहभागिता की प्रवृत्ति सुसंस्कृत परिवार को एक श्रेष्ठ मित्र- मंडली ही बनाये रखती है। उनमें पारस्परिक हितों का टकराव भी नहीं होता, क्योंकि सभी के हित एक ही होते हैं। बच्चों की मीठी बोली, तोतली बोली, माँ का प्राणशक्तिदायक वात्सल्य, भाई- बहिनों का सौन्दर्य- उल्लास, पत्नी का प्रेमपूर्ण समर्पण, पारस्परिक घनिष्ट सहयोग ये सब मित्र मंडली के सभी तत्वों का समुचित स्वरूप ही तो होता है। छोटे बच्चों का खेलना, बड़े बच्चों का पढ़ना, कहीं कढ़ाई- बुनाई, कहीं संगीत, कहीं अध्ययन, कहीं आगन्तुकों से शिष्ट, मधुर- कुशल वार्तालाप, अनुभवपूर्ण बातें, धर्मचर्चा और प्रेरक कहानियाँ, परिवार द्वारा मनोरंजन, उल्लास और प्रेरणा आदि के वे सभी कार्य अधिक उत्तम रीति से पूरे हो जाते हैं, जो एक श्रेष्ठ मित्र- मंडली में होते हैं। प्रगाढ़ आत्मीयता के भाव से युक्त सुसंस्कारवान परिजनों से हर विषय में जितना उत्तम एवं हितपरक परामर्श मिल सकता है, उतना अन्य मित्रों से कदाचित् ही मिल सके। परिवार से प्राप्त होने वाले इस प्रकार के साधन- सुविधा एवं समर्थन सहयोगपरक अनेक लाभ हैं, जिन्हें पाने के लिए मनुष्य परिवार बनाता है।
बच्चों के निर्माण में पिता का व्यक्तिगत आचरण बहुत महत्त्व रखता है। बच्चे सहज ही अनुकरणशील होते हैं, वे जैसा पिता को करते देखते हैं, वैसी ही सीख लेते हैं। अतः पिता को अपना रहन- सहन, आचार- विचार और स्वभाव उसके अनुकूल रखना चाहिए, जिस आदर्श में वह अपने बच्चों को ढालना चाहता है। यदि पिता अपने इस महान दायित्व को समझे और अपने को त्याग, प्रेम, परिश्रम, पुरुषार्थ, सदाचार के आदर्श के रूप में प्रस्तुत करे तो कोई कारण नहीं कि उसके बच्चे वैसे न बन जायें। जो पिता स्वार्थी, क्रोधी, कर्कश, और व्यसनी, विलासी होता है, वह न तो आदर का पात्र होता है और न उसके बच्चे ही अच्छे बन पाते हैं।
माता के व्यक्तिगत आचरण का प्रभाव कन्याओं पर विशेष रूप से पड़ता है। जो माताएँ अधिक साज- सज्जा, शृंगार, फैशन, पाउडर, लिपस्टिक और गहनों में रुचि रखती हैं और सास, ननद, देवरानी, जेठानी आदि से लड़ती- झगड़ती रहती हैं, उनकी कन्याएँ भी फैशनेबुल, छबीली और विलासप्रियता की शिकार बन जाती हैं और उनके स्वभाव में भी विवाद, असहयोग और कलह के अंकुर उग आते हैं। माता- पिता को चाहिए कि परिवार के सारे सदस्यों तथा व्यक्तियों से यथायोग्य प्रेम और आदर का व्यवहार करें सबके लिये त्याग तथा उदार भावना को प्रश्रय दें, अधिक से अधिक सादगी और शालीनता से रहें, इससे उनके बच्चों पर पारिवारिकता के अनुकूल प्रतिक्रया होगी। वे प्रेमभाव की मिठास और त्याग का महत्व समझेंगे।
अभिभावकों के व्यक्तिगत आचरण के साथ परिवार का वातावरण भी बच्चों और सदस्यों के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करता हैं। जिन घरों में दिन- रात लड़ाई- झगड़ा तथा आपा- धापी होती रहती है, उस परिवार के बच्चे और अन्य सदस्य परस्पर सहयोग का मूल्य नहीं समझ सकते। उनमें स्वार्थ और कलह की प्रमुखता हो जायेगी। चाचा- ताऊ आदि जो भी सदस्य एक परिवार में रहते हों, जो भी भाई- बहिन एक घर में रहते हों उन सबको अपना तथा अपने बच्चों से अधिक ख्याल भाई- बहन के बच्चों और उन खुद का रखना चाहिए। परिवारों में बच्चों के प्रति अपना- अपना भाव रखने से ही अधिकतर कलह के अंकुर उगते हैं। यदि सब बच्चों को अपना बच्चा और अपने को उनका सगा अभिभावक समझा जाये और वैसा ही प्रेमपूर्ण व्यवहार किया जाये तो कोई कारण नहीं कि सब समान रूप से सारे गुरुजनों का आदर न करें अथवा अनुशासन न मानें। सारे प्रौढ़ सभी बच्चों को अपने बच्चे और सारे बच्चे सभी गुरुजनों को अपना शुभचिन्तक और अभिभावक मानकर वैसा ही आचरण करने लगें, तो निश्चय ही परिवार में दृढ़ता और स्थिरता के साथ- साथ सुख- शांति की परिस्थितियाँ रहने लगें।
इसके साथ ही परिवार का वातावरण अधिक से अधिक पवित्र तथा शालीन रहना चाहिए। घरों में ऐसा साहित्य, ऐसे चित्र तथा ऐसे मनोरंजन को नहीं घुसने देना चाहिए जिससे बच्चों के स्वभाव अथवा आचरण पर अवांछनीय प्रभाव पड़े। घरों में गन्दी मजाक, तानाकशी और हल्का विनोद अथवा गाली- गलौज का वातावरण नहीं होना चाहिए। रूढ़िवादिता, कुरीतियाँ और कुप्रथाओं के बहिष्कार से बच्चों के निर्माण में बहुत कुछ सहायता मिलेगी। पारिवारिक रूढ़ियाँ और अन्धविश्वास बच्चों पर इतना बुरा प्रभाव डालते हैं कि वे जीवन भर के लिये पढ़े- लिखे होने पर भी विचारों की स्वतन्त्रता तथा नवीनता से वंचित रह जाते हैं। यह विकृति उन्हें निश्चित रूप से पक्षपाती, दुराग्रही तथा स्वार्थी बना देती है।
इस प्रकार व्यक्तिगत आचरण, घरेलू वातावरण तथा विचार विकृति दूर कर परिवार का निर्माण कीजिये, आपके घरों से कलह, क्लेश तथा फूट- टूट की दूषित विकृति दूर हो जायेगी और उसके स्थान पर सच्ची पारिवारिकता, सहयोग, प्रेम तथा पारस्परिकता की भावना बढ़ेगी, जिससे परिवार के साथ समाज तथा देश का कल्याण होगा। वा. ४८/१.१०