Books - परिवार निर्माण
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Language: HINDI
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परिवार निर्माण के स्वर्णिम सूत्र
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(क) पारिवारिक पंचशील
(ख) परिवार में आस्तिकता का वातावरण बनाएँ
(ग) गुण जो हर सदस्य में अनिवार्यतः विकसित करें
(घ) परिवार निर्माण के अन्य महत्त्वपूर्ण सूत्र
(क) पारिवारिक पंचशील
दुर्भावना के वातावरण में पंचशील के सिद्धान्त अन्तराष्ट्रीय जगत में भले ही सफल न हुए हों पर पारिवारिक जगत में वे सदा सफल होते हैं। पारिवारिक पंचशील पालन करने से घर में शक्ति बनी रहती है और प्रेम तथा सुव्यवस्था का वातावरण बना रहता है। यह पारिवारिक पंचशील हैं -
(१) परस्पर आदर- भाव से देखना
परस्पर के दोषों को देखकर आलोचना करना अनुचित है। सभी मनुष्यों में कमजोरियाँ हैं, भूल होना भी मनुष्य का स्वभाव है। प्रत्येक व्यक्ति आपके घर का सदस्य होने के कारण उसका भी उस घर पर पूरा अधिकार है। यदि रुचि में साम्य न हो अथवा मत वैभिन्नता हो तो वह निरादर का पात्र नहीं है। यह सम्भव नहीं है कि आपकी रुचि सब से मिल सके। छोटे बच्चे भी आदर के पात्र होते हैं। वे भी अपने आदर- निरादर को समझते हैं। यदि आप किसी बच्चे से स्नेह से बोलेंगे तो वह निश्चय ही आपके गले से लिपट जायेगा। यदि आप उसे झिड़क देंगे तो वह कभी आपके पास आने का नाम भी नहीं लेगा। कड़ुवी बात जहर से भी बुरी होती है। यदि आपकी वाणी मधुर नहीं है तो जीवन में कटुता बढ़ती ही चली जायेगी। घर के किसी सदस्य की तीखी आलोचना करना अवश्य ही बर्दाश्त से बाहर हो सकती है। आपकी भ्रान्त धारणा, चाहे वह भ्रान्ति न होकर सत्य ही हो तो भी, दूसरे पर तीखी चोट कर सकती है, और तब वाणी का वह घाव जीवन भर भरने में नहीं आता। विद्वानों का कहना है कि मनुष्य तलवार के घाव से नहीं घबराता, वह उसे हँसते- हँसते सह लेता है, परन्तु वाणी का घाव कलेजे में गहरा होता जाता है और वह जीवन भर भरने में नहीं आता।
(२) अपनी भूल स्वीकार करना
अपनी ओर से कोई ऐसी बात मत आने दो जिससे कोई विवाद हो जाये, बल्कि दूसरी ओर से होने वाले विवाद को भी शान्तिपूर्वक निपटा देना ही बुद्धिमानी है। अपने द्वारा हुई भूल को तुरन्त स्वीकार कर लीजिए। आपकी इस स्पष्टवादिता और आदर्श मनोवृत्ति का दूसरों पर अवश्य ही प्रभाव पड़ेगा। यदि आप भूल करके भी उसे स्वीकार नहीं करते तो दूसरों पर उसकी गलत प्रतिक्रिया होगी और क्षमाभाव के बजाय मन में भ्रान्त धारण बनी रहेगी। परस्पर विरोध रहने के कारण अनबन चल रही हो तो उस अनबन को समझौते द्वारा तय कीजिए और आगे के लिए ऐसा ढंग अपनाइये कि समस्या जटिल न होने पावे। अनबन का अन्त यदि शीघ्र ही नहीं होता तो वह धीरे- धीरे भीषण रूप धारण कर लेती है और फिर उसका समाधान बहुत कठिन हो जाता है।
(३) आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना
सभी के विचार पृथक्- पृथक् हो सकते हैं। यदि आपके परिवार के किसी सदस्य के विचार आप से नहीं मिलते और वह अपनी विचारधारा के अनुसार कार्य करता है तो उसके मार्ग में रुकावट न डालिए। उदाहरण के लिए मान लिजिए कि आप राम के उपासक हैं और आपका पुत्र शिव की उपासना करता है, वह राम को नहीं मानता तो उसे अपने मन के अनुसार करने दीजिए। अथवा आप किसी एक राजनैतिक दल से सम्बद्ध है और आपका पुत्र किसी अन्य राजनैतिक दल का सदस्य हो जाता है, तो उसके इच्छित कार्य से रुष्ट मत होइए। यदि आप उसके विचारों के प्रति अपना दृष्टिकोण उदार रखेंगे तो किसी प्रकार के गृह- कलह की सम्भावना न रहेगी।
(४) भेदभाव न रखना
घर में भेद- भाव भी कलह का कारण बन जाता है। आपके दो पुत्र हैं- एक को अच्छा भोजन वस्त्र देते हैं और दूसरे को वैसा नहीं देते तो यह भेद अवश्य ही खटकने वाला होगा। हाँ, परिस्थितिवश एक को एक प्रकार की सुख- सुविधा और दूसरे को दूसरे प्रकार की सुख- सुविधा देते हैं, तो वह आपका दोष नहीं होगा। फिर भी यदि उनमें से किसी एक को वह बात खले तो उसे भी ठीक करने की चेष्टा करनी चाहिए।
(५) विवादों का निष्पक्ष निपटारा
किसी मामले में आपको मध्यस्थ बनाया जाय तो एकदम सत्यता पर आ जाइये। कोई कितना भी प्रिय हो, यदि उसके द्वारा ज्यादती हुई है तो उसकी ज्यादती की घोषणा कीजिए और जिसकी हानि हुई है उसके मन का सन्तोष कीजिए। यदि आप निष्पक्ष न रहे तो आपको उसका भीषण परिणाम भुगतना पड़ेगा। आपका सम्मान इसी में है कि आप सबके विश्वास- पात्र बनें। यदि आप सबको एक समान समझेंगे तो परिवार के सभी सदस्य आपकी बात मानने में सन्तोष करेंगे। अनजाने में यदि आप से कभी कोई भूल हो भी जायगी, तो उसका कोई ख्याल नहीं करेगा और आपकी प्रतिष्ठा ज्यों- की बनी रहेगी।
एक कहावत है कि चार बर्तन होते हैं तो खटकते ही हैं। अतः घर में कभी कुछ कलह उपस्थित हो जाय तो उसे मनुष्य स्वभाव की कमजोरी मानकर अधिक तूल मत दीजिए। झगड़ों को शांत करने का एक बहुत बड़ा नुस्खा है- त्याग। यदि आपने किंचित भी त्याग प्रदर्शित किया तो, झगड़ा समाप्त होने में देर न लगेगी। झगड़ों को युद्ध की- सी चुनौती के रूप में मत मानिए। विपक्षी का दमन करने की बात मत सोचिए, बल्कि झगड़े के कारण पर विचार कीजिए, और प्रयत्न कीजिए कि वह कारण दूर हो जाय। यदि ऐसा हो सका तो झगड़ा दूर करने में आपको शीघ्र ही सफलता मिल जायगी। गृह- कलह को समाप्त करने का यह प्रमुख सिद्धान्त है। इस पर चलकर देखिये और सफलता मिले तो दूसरों को भी इसका उपदेश कीजिए। यदि आप घर में ही अपने पंचशील को सफल न बना सके तो बाहर उसकी सफलता की आशा कैसे कर सकते हैं? वा. ४८/१.२३
महिलाएँ यह अच्छी तरह समझें कि परिश्रम जीवन की मूल पूँजी है अतः परिवार में क्रियाशीलता को बढ़ायें, परिवार के प्रत्येक सदस्य में कठोर परिश्रम का अभ्यास पैदा करें और अभिरुचि जगायें। वा. ४८/१.३०
(ख) परिवार में आस्तिकता का वातावरण बनाएँ
मानव जीवन की प्रगति उसके सद्गुणों पर निर्भर है। जिनके गुण, कर्म, स्वभाव का निर्माण एवं विकास ठीक प्रकार हुआ है वे सुसंयत व्यक्तित्व वाले सज्जन मनुष्य अनेक बाधाओं और कठिनाइयों को पार करते हुए अपनी प्रगति का रास्ता ढूँढ़ लेते हैं। विपरीत परिस्थितियों एवं बुरे स्वभाव के व्यक्तित्वों को भी, प्रतिकूलताओं को भी, सुसंस्कृत मनुष्य अपने प्रभाव एवं व्यवहार से बदल सकता है और उन्हें अनुकूलता में परिणत कर सकता है। इसके विपरीत जिसके स्वभाव में दोष- दुर्गुण भरे पड़े होंगे, वह अपने दूषित दृष्टिकोण के कारण अच्छी परिस्थितियों को भी दूषित कर देगा। संयोगवश उन्हें अनुकूलता द्वारा सुविधा प्राप्त भी हो तो दुर्गुणों के आगे वह देर तक ठहर न सकेगी। दूषित दृष्टिकोण जहाँ भी होगा, वहाँ नारकीय वातावरण बना रहेगा। अनेक विपत्तियाँ वहाँ से उलझती रहेंगी।
प्रत्येक विचारशील व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि वह अपने जीवन को सार्थक एवं भविष्य को उज्ज्वल बनाने की आधारशिला- आस्तिकता को जीवन में प्रमुख स्थान देने का प्रयत्न करे। ईश्वर को अपना साथी, सहचर मानकर हर घड़ी निर्भय रहे और सन्मार्ग से ईश्वर की कृपा एवं कुमार्ग से ईश्वर की सजा प्राप्त होने के अविचल सिद्धान्त को हृदयंगम करता हुआ अपने विचार और आचरण को सज्जनोचित बनाने का प्रयत्न करता रहे। इसी प्रकार जिसे अपने परिवार में, स्त्री बच्चों से सच्चा प्रेम हो, उसे भी यही प्रयत्न करना चाहिए कि घर के प्रत्येक सदस्य के जीवन में किसी न किसी प्रकार आस्तिकता का प्रवेश हो। परिवार का बच्चा- बच्चा ईश्वर विश्वासी बने।
अपने परिवार के लोगों के शरीर और मन को विकसित करने के लिए जिस प्रकार भोजन और शिक्षण की व्यवस्था की जाती है, उसी प्रकार आत्मिक दृष्टि से स्वस्थ बनाने के लिए घर में बाल, वृद्ध सभी की उपासना में निष्ठा एवं अभिरुचि बनी रहे। इसके लिए समझाने- बुझाने का तरीका सबसे अच्छा है। गृहपति का अनुकरण भी परिवार के लोग करते हैं, इसलिए स्वयं नित्य नियमपूर्वक नियत समय पर उपासना करने के कार्यक्रम को ठीक तरह निबाहते रहा जाय। घर के लोगों से जरा जोर देकर भी उनकी ढील- पोल को दूर किया जा सकता है। आमतौर से अच्छी बातें पसन्द नहीं की जातीं और उन्हें उपहास- उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता है। यही वातावरण अपने घर में घुसा हुआ हो सकता है, पर उसे हटाया तो जाना ही चाहिए। देर तक सोना, गंदे रहना, पढ़ने में लापरवाही करना, ज्यादा खर्च करना, बुरे लोगों की संगति आदि बुराइयाँ घर के किसी सदस्य में हों तो उन्हें छुड़ाने के लिए प्रयत्न करना पड़ता है। क्योंकि यह बातें उनके भविष्य को अन्धकारमय बनाने वाली, अहितकर सिद्ध हो सकती हैं। उसी प्रकार नास्तिकता और उपासना की उपेक्षा जैसे आध्यात्मिक दुर्गुणों को भी हटाने के लिए घर के लोगों को जरा अधिक सावधानी और सफाई से कहा सुना जाय तो भी उसे उचित ही माना जायगा। वा. ४८/१.७९
परिवारों का धार्मिक वातावरण बनाने में सहायता करने वाले पाँच प्रचलन मुख्य हैं- (१) नमन वन्दन, (२) यज्ञीय आचरण, (३) सामूहिक प्रार्थना, आरती, सहगान, (४) स्वाध्याय- अंशदान, (५) सत्संग, कथा श्रवण। इन पाँचों को सरलतापूर्वक हर घर में सम्पन्न किया जा सकता है और इसका श्रेयस्कर प्रभाव अविलम्ब देखा जा सकता है।
(१) नमन- वन्दन- नमन- वन्दन का दूसरा स्वरूप यह है कि घर के छोटे लोग अपने से बड़ों का अभिवादन करें। जिन्हें चरण स्पर्श करने में संकोच न पड़ता हो वे वैसा करें अन्यथा हाथ जोड़कर नमस्कार करना तो अनिवार्य ही रहे। भूल जाने पर बड़े भी छोटों को अभिवादन करें, इसमें बड़ों के सम्मान करने एवं वरिष्ठों का अनुशासन मानने का भाव है। यह प्रचलन घर के सदस्यों में निश्चित रूप से सद्भावना की वृद्घि करता है। अस्तु देव वन्दन और वरिष्ठ वन्दन की दोनों ही परम्पराओं का निर्वाह परिवार निर्माण अभियान के अन्तर्गत वातावरण बनाने के लिये आवश्यक माना जाना चाहिए।
(२) यज्ञीय आचरण- यज्ञ अर्थात् पवित्र- परमार्थ। जीवन यज्ञ अर्थात् पवित्र जीवन। परमार्थ परायणता का लक्ष्य। अग्नि होत्र में अपने प्रिय पदार्थों को लोक- कल्याण के लिए वायुमण्डल में बिखेरने की प्रक्रिया सम्पन्न की जाती है। परमार्थ प्रवृत्ति को जन- जन में जगाया जाना चाहिए और उसका प्रतीक मानकर समय, श्रम एवं सद्भाव समर्पण ही प्रकारान्तर से यज्ञीय कर्मकाण्ड का सार तत्व है। इस देव यज्ञीय आचरणप्रवृत्ति पूजन को अपने परिवारों से आरम्भ करना चाहिए। वा. ४८/१.८३
‘बलि वैश्व यज्ञ परम्परा’ को दैनिक धर्मकृत्य माना गया है। उसका प्रचलन इन दिनों लुप्त प्रायः हो गया है। हमारे परिवारों से उसका पुनर्जीवन आरम्भ होना चाहिए। चौके में जब भोजन तैयार हो जाय तो खाना आरम्भ करने से पूर्व चूल्हे में से अग्नि बाहर निकालकर प्रज्जवलित की जाय और रोटी के छोटे- छोटे टुकड़े घी और शक्कर मिलाकर गायत्री मन्त्र उच्चारण करते हुए पाँच बार में होम कर दिये जाएँ। बाद में जल अंजलि की परिक्रमा उस अग्नि के चारों ओर परिक्रमा रूप में घुमा दी जाय। इस अग्नि को पवित्र माना जाय। बुझने पर भस्म को सुरक्षित रख लिया जाय और सुविधानुसार किसी गमले, क्यारी अथवा पवित्र जलाशय में विसर्जित कर दिया जाय। यही है बलिवैश्व, अग्निहोत्र की सरल प्रक्रिया जिसे महिलाएँ बड़ी आसानी से बिना किसी अड़चन के अपने घरों में नियमित रूप से करती रह सकती हैं। इस पुनीत प्रक्रिया में भावभरा आदर्श यह सन्निहित है कि यज्ञीय परम्परा का परिपोषण करने में इस परिवार की सुनिश्चित आस्था है। वा. ४८/१.८४
थाली में जूठन न छोड़ने की आदत घर के हर सदस्य में डाली जानी चाहिए। वर्तमान परिस्थितियों में अन्न का एक दाना भी बर्बाद नहीं किया जाना चाहिए। खाते समय देख लिया जाय कि कहीं थाली में किसी वस्तु की अनावश्यक मात्रा तो नहीं आ गई है। दुबारा माँगने में हर्ज नहीं, अधिक प्रतीत होता हो उसे पहले से ही निकाल दिया जाना चाहिये। इसमें परोसने वाले को भी अनावश्यक शिष्टाचार बरतने की अपेक्षा समझदारी से काम लेना चाहिये। सप्ताह में एक दिन या एक समय उपवास करने की, शाकाहार पर रहने की परम्परा चल पड़े तो इससे पेट को विश्राम मिलने से स्वास्थ्य भी सुधरेगा और अन्न की देशव्यापी कमी को सहज ही पूरा कर लेने का एक बहुत उपयोगी मार्ग बन जायेगा।
वा. ४८/२.५७
(३) सामूहिक प्रार्थना, आरती, सहगान- हमारे घरों में पूजा- उपासना का वातावरण रहना चाहिए। अच्छा तो यह है कि परिवार के सभी लोग प्रातःकाल नित्यकर्म से निपट कर कुछ समय ईश्वर की गोद में बैठने की भावना के साथ उपासना के लिए शांतचित्त से एकान्त में बैठें। गायत्री मन्त्र का जप और उगते हुए सूर्य की दिव्य किरणें अपने शरीर, मन और अन्तःकरण में प्रविष्ट होने का ध्यान करें समय का अभाव हो तो पन्द्रह मिनट भी इसके लिए लगाते रहने से काम चलता रहता है। उपासना भी नित्य के दैनिक कार्यों में सम्मिलित रहनी चाहिए। यदि अधिक व्यस्तता या अरुचि का वातावरण हो तो भी इतना तो होना ही चाहिए कि पूजा- स्थल पर गायत्री माता का- भगवान का चित्र स्थापित हो और काम- काज में लगने से पहले वहाँ जाकर, घर का प्रत्येक सदस्य दो मिनट मौन खड़ा होकर गायत्री मन्त्र का पाँच बार जप मन ही मन कर लिया करे और प्रणाम करके इस छोटे से उपासना क्रम को पूरा कर लिया करे। इसमें बाधा केवल अरुचि और उपेक्षा के कारण ही हो सकती है, परन्तु आस्तिकता के अनेक प्रकार के लाभों को समझा देने पर श्रद्धा के बीजांकुर उगाये जा सकते हैं।
वा. ४८/२.३१
(४) स्वाध्याय- अंशदान- परिवार में यदि युग साहित्य नियमित रूप से पढ़ा जाने लगे तो राम परिवार को वशिष्ठ के सान्निध्य का जो लाभ मिलता रहा था, प्रायः वही लाभ परिवार निर्माण अभियान के हर सदस्य को मिलता रह सकता है। ज्ञानघट की स्थापना युग साहित्य की व्यवस्था और अनिवार्य स्वाध्याय की प्रथा- परम्परा जिन घरों में चल पड़े समझना चाहिए वहाँ त्रिवेणी संगम जैसा सुयोग बना। यह प्रयास किसी धूमधाम के साथ अपनी गरिमा का डंका भले ही न पीटे, किन्तु इतना निश्चित है कि जिन परिवारों में इस प्रचलन को उपयुक्त स्थान मिलेगा उनमें सत्प्रवृत्तियों का सम्वर्द्धन होगा व उनका सत्परिणाम पूरे परिवार को मिलेगा।
(५) सत्संग, कथा श्रवण- बच्चों को कहानियाँ सुनने का शौक होता है, इसमें मनोरंजन और उच्चस्तरीय प्रशिक्षण के दोनों तत्व हैं। प्राचीनकाल में वृद्धाएँ घर के बालकों को कथा, कहानियाँ नियमित रूप से सुनाती थीं। उसके माध्यम से कोमल मनों पर सुसंस्कारिता की स्थायी छाप डालती थीं। देखने में ‘नानी की कहानी’ बाल और वृद्धों का मनोरंजन भर प्रतीत होता है, पर वास्तविकता यह है कि यदि इस कथा, श्रवण को उद्देश्यपूर्ण बनाया और सुनियोजित किया जा सके तो उसका सत्परिणाम हर दृष्टि से श्रेयस्कर हो सकता है। वा. ४८/१.८५
घर की कोई सुयोग्य महिला इस उच्चस्तरीय कार्य को उठाये। समय नियत रहे। एक- दो कथा- कहानियाँ नियमित रूप से कहने की शैली में मनोरंजन और विषय में प्रभावोत्पादक तत्व होंगे तो न केवल बालक वरन् बड़ी आयु के भी सब लोग उसे चावपूर्वक सुनेंगे। नमन- वन्दन, बलिवैश्व, आरती, कीर्तन, स्वाध्याय प्रचलन, कथा श्रवण के उपरोक्त पाँच कार्य ऐसे हैं जो हर घर में सरलतापूर्वक आरम्भ किये जा सकते हैं कार्यों के छोटे स्वरूप को देखते हुए बड़े परिणाम की आशा सामान्य बुद्धि से नहीं की जा सकती, किन्तु यदि इन्हें कार्यान्वित किया जा सके तो प्रतीत होगा कि इन प्रयत्नों के सम्मिलित परिणाम कितने सुखद प्रतिफल प्रस्तुत करते हैं। वा. ४८/१.८६
(ग) गुण जो परिवार के हर सदस्य में अनिवार्यतः विकसित करें
(१) सुदृढ़ दिनचर्याः- परिवार के छोटे- बड़े सभी सदस्यों को अपनी जीवन- चर्या बड़ी सुसंतुलित रखनी चाहिए। हाथी- नदी या तालाब में उतरता है तो हर कदम आहिस्ता से टटोल- टटोल कर आगे बढ़ाता है। पारिवारिक जीवन में बुराइयों का समावेश न हो, इसके लिए प्रत्येक सदस्य की विशेषतया गृहपति एवं गृहिणी की दिनचर्या ऐसी होनी चाहिए, जिसमें गन्दगी और फूहड़पन न दिखाई दे।
प्रधान रूप से ध्यान देने वाली बात यह है कि किसी भी सदस्य के मस्तिष्क में दूषित प्रभाव डालने वाला कार्य हम न करें, हमारी दिनचर्या कुछ इस तरह व्यवस्थित की हुई होनी चाहिए। प्रातःकाल सोकर उठने से लेकर सायंकाल सोने तक हम प्रत्येक कार्य हाथी की तरह टटोल- टटोल कर करें और इस बात की सावधानी रखें- कहीं कोई ऐसा गड्ढा न आ जाय, ऐसी बुराई न बन जाय, जिससे बाद में पश्चाताप करना पड़े। इस प्रकार की सावधानी, आहार- विहार, वार्तालाप, चलने, उठने, बैठने के प्रत्येक तौर- तरीके में होनी चाहिए। सुदृढ़ दिनचर्या परिवार निर्माण का प्रथम सूत्र है।
(२) कर्तव्य पालनः- परिवार छोटा रहे तो कुछ हर्ज नहीं, पर उसे व्यवस्थित रखना चाहिए। घर का कौन सा बच्चा कहाँ है? क्या कर रहा है? अमुक व्यक्ति किस काम में लगा है? उसके लिये भोजन पहुँचा या नहीं? किसी को मानसिक या शारीरिक कष्ट तो नहीं? इन सब बातों की आवश्यक जानकारी और उनकी पूर्ति समय पर यथारीति होती रहे। अव्यवस्था ही परिवारों में अशांति उत्पन्न करने में डाकिन का काम करती है। उससे दूर रहना आवश्यक है। घर के बड़े बुजुर्गों, माताओं का एक- दूसरें के प्रति यह कर्तव्य है कि वे घर की हर व्यवस्था का पाबन्दी के साथ पालन करते- कराते रहें।
(३) सुसंस्कृत वेश- भूषाः स्वभाव की छोटी- छोटी बातें भी सामूहिक तौर पर बड़ी प्रभावशाली होती हैं। आज जो सर्वत्र चारित्रिक पतन के दृश्य दिखाई देते हैं, उनका एक कारण विकृत वेश- विन्यास माना जाता है। बाल- बुद्धि के लोग शारीरिक सौन्दर्य और रूप का आकर्षण बढ़ाने के लिए तरह- तरह के वेश- विन्यास और रूपसज्जा किया करते हैं। इससे आत्म- संतोष तो क्याहोता है, भड़कीला वेश- विन्यास और बाहरी चमक बढ़ाने में मनुष्य के चरित्र का ही पतन होता है। अभारतीय वस्त्रों और सजावट से बचकर रहने में ही अपना कल्याण है, अपने धर्म अपनी संस्कृति के अनुरूप केश, वस्त्र और वेश- भूषा में चरित्र और आत्मिक- बल बढ़ाने वाली सादगी एवं शालीनता पाई जाती है, उसका परित्याग करना अशोभनीय ही कहा जा सकता है। वा. ४८/४.५९
वस्त्र पहनने की जो परम्परा पूर्व पुरुषों की थी, वह बड़ी सरल और उपयोगी रही है। पुरुष धोती, कुर्ता, जाकेट, टोपी तथा स्त्रियाँ साड़ी और सलूके पहनती रही हैं। यह चयन सादगी और सरलता की दृष्टि से तो श्रेष्ठ है ही, इसका सम्बन्ध स्वास्थ्य एवं मनोवैज्ञानिक रीति से बुराइयों से बचाने वाला भी रहा है। हमें अपनी वेश- भूषा पर गर्व करना चाहिए और भड़कीले, बचकाने वेश- विन्यास से सदैव बचना चाहिए। घर में ऐसी फैशन- परस्ती को प्रवेश न करने देना चाहिए, जिसे उच्छृंखलता या रंगीली- शौकीनी कहा जा सके।
(४) सात्विक आहारः- मनुष्य के स्वास्थ्य और मानसिक स्थिति का निर्माण आहार पर निर्भर है। भारतीय मनीषियों ने स्वास्थ्य, सद्गुण और सदाचार की दृष्टि से सदैव सात्विक भोजन पर ही जोर दिया है। माँस, मदिरा, मछली, अण्डे, तीखे,कसैले, चटपटे भोजन का यहाँ सदैव बहिष्कार किया गया है, क्योंकि ये पदार्थ आत्मिक दुर्बलता पैदा करने वाले होते हैं, हमें गीता के इस आदेश का पालन करना चाहिए-
आयुः सत्व बलारोग्य सुख प्रीति विवर्धनाः।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्विक प्रियाः॥
सात्विक आहार ही आयु, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति की वृद्धि करने वाला होता है, इसके विपरीत राजसिक आहार, चाहे वह अधिक स्वादिष्ट तथा चटपटे क्यों न हों, प्रारम्भ में अच्छे- भले ही लगें, पर वे अन्त में रोग, दुःख और चिन्ता उत्पन्न करने वाले ही सिद्ध होते हैं। सात्विक भोजन से आध्यात्मिक भावों की वृद्धि होती है। यह विशेष रूप से महिला सदस्यों का कर्तव्य है कि वे सरल, सुपाच्य और सादा भोजन तैयार करें। साथ ही यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि कोई चोरी से छिपकर बाजार की गन्दी चीजें न खायें। इससे स्वास्थ्य की हानि तो है ही, नैतिक दृष्टि से भी यह चोरी अथवा ओछापन माना जाता है। अच्छा, पौष्टिक भोजन लोगों को घर पर ही मिले, ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए।
(५) सुमधुर वाणीः- मधुर, शान्त एवं पवित्र शब्दों का उच्चारण करने वाले व्यक्ति अपने शब्दों द्वारा न केवल अपने विचारों, भावनाओं एवं संस्कारों को परिमार्जित करते हैं, अपितु अन्य परिजनों को प्रभावित करके उनके जीवन में भी नई स्फूर्ति, नई प्रेरणा व नया मोड़ उत्पन्न करते हैं। पारिवारिक जीवन में इसका बड़ा महत्त्व है, इससे परिवार में स्नेह और प्रेम बना रहता है। हमें अमृतमय वाणी बोलने के साथ ही कम बोलने का भी अभ्यास बनाना चाहिए।
शब्दों के सदुपयोग से सम्बन्ध जुड़ते हैं, कटु वचनों से कलह और उत्पात बढ़ता है। अपने परिवारों की सुस्थिरता के लिए इस सूत्र को सदैव ध्यान में रखना चाहिए और भूलकर भी कोई अप्रिय बात मुख से नहीं निकालनी चाहिए। अधिकारवश कठोर वचन निकालना भी बुरा होता है, चाहे बच्चे से ही कुछ कहा जाय, पर शांत- संयम एवं यथाशक्ति नम्र वाणी का ही प्रयोग किया जाना अच्छा होता है।
(६) शालीनताः- छठवें शील- शालीनता को शीलों का सार भी कह सकते हैं। शिष्टता, सज्जनता, विनम्रता, साधुता जैसे सद्गुणों का समुच्चय शालीनता है। इसके चिह्न हैं- ईमानदारी, प्रामाणिकता, नागरिकता, मर्यादा का निर्वाह। शालीनता को मात्र शिष्टाचार समझने की भूल नहीं करनी चाहिए। शिष्टाचार यदि अतिरिक्त शालीनता से रहित हो तो वह रूखा कर्मकाण्ड या ‘मैनरिज्म’ बनकर रह जाता। शालीनता न केवल शब्दों से, अपितु हावभाव समेत सम्पूर्ण आचरण से अभिव्यक्त होती है और सीधे हृदय पर अपनी अमिट छाप छोड़ती है।
(७) संस्कार- स्रोत- ईश्वर की उपासना से बुद्धि की सूक्ष्म ग्रहणशीलता और संस्कारों की संवेदनशीलता जाग्रत होती है। फलस्वरूप लोगों के भौतिक मन आध्यात्मिक जीवन की ओर मुड़ जाते हैं। शांति, सुख, स्थिरता और समृद्धि इन चारों के लिये इस प्रकार का जीवन आवश्यक है, जो केवल आस्तिकता से ही संभव है। परिवार तभी नष्ट होते हैं, जब उनमें स्वार्थ और भौतिकता घुस जाती है। उससे बचने के लिए परिवारों में धार्मिक वातावरण बनाये रखना आवश्यक है। भारतीय संस्कृति में पग- पग पर पर्व, संस्कारों के प्रचलन का उद्देश्य भी यही रहा है कि लोग आत्म- परायण बने रहें। मनुष्य जीवन का ध्रुव सत्य भी यही है।
पारिवारिक जीवन मे सरलता और सत्य- निष्ठा बनाये रखने के लिये हम लोगों को सच्चे अर्थों में आस्तिक रहना चाहिए। इसमें व्यक्तिगत आत्म- कल्याण की सम्भावनायें तो सन्निहित हैं ही साथ ही पारिवारिक समुन्नति और द्वेष- दुर्गुणों से बचे रहने का आधार भी यही है।
(८) स्वच्छता और सफाईः- गन्दगी एक दुर्गुण है, उससे मनुष्य का जीवन दीन- हीन और मलिन बनता है। रोग की परिस्थितियाँ सामने आती हैं। इससे बचने का आसान तरीका यही है कि प्रत्येक दैनिक कार्य में, घर, बाहर, आँगन, द्वार, दीवार, छत इन सबकी सफाई और स्वच्छता का ध्यान रहे। अपने बच्चों के, धर्म- पत्नी के, भाई- भाभी सबके कपड़ों की स्वच्छता पर एक दृष्टि अवश्य रखनी चाहिए। अपने आप में सभी सदस्यों की स्वच्छता और सफाई का महत्व मालूम होना चाहिए। इसकी उपेक्षा करने से स्वास्थ्य पर अहितकर प्रभाव पड़ सकता है, अतः शरीर, वस्त्र, निवास आदि से सम्बन्धित प्रत्येक वस्तु, हर क्रिया में स्वच्छता का ध्यान रहना चाहिए। सप्ताह या महीने में एक दिन सामूहिक सफाई की व्यवस्था भी रहनी चाहिए। इससे सबके स्वास्थ्य और आरोग्य लाभ की आशा बनी रहती है। वा. ४८/४.६०
(९) शारीरिक श्रमः- आजकल लोगों की ऐसी धारणा हो गई है, जो जितनी अधिक आराम की जिन्दगी बिताता है, वह उतना ही बड़ा है, अब इसे बदलना चाहिए। वस्तुतः मनुष्य की महत्ता का आधार यह है कि वह कितना श्रम करता है? अपने घर के लोग श्रम से जी चुराते हों तो यह दुर्भाग्य की बात ही होगी। यदि कोई इसी में अपना सौभाग्य समझता है तो उसका बड़प्पन एक दिन धूल में मिलता दिखाई देगा। बापू के शब्दों में- ‘‘किसी तरह का परिश्रम न करने वाला व्यक्ति संसार की किसी वस्तु का उपभोग करता है तो यह चोरी है।’’ यह तो व्यक्तिगत आत्म- कल्याण की दृष्टि से हुआ, सामूहिक रूप से गृहस्थ की समुन्नति बाहरी झगड़ों से, रोग- शोक से बचने के लिए भी श्रमशीलता आवश्यक है। काम से जी चुराना एक बहुत बड़ा दुर्गुण है। परिवार के ऐसे सदस्य ही घरों में कठिनाइयाँ उत्पन्न करते हैं। अतः पहले से ही घरों का वातावरण श्रमप्रेरक होना चाहिए। आलस्य और प्रमाद पारिवारिक संगठन के दो रावण और मेघनाद सरीखे शत्रु हैं, इनसे बचकर ही पारिवारिक सुख- समुन्नति की रक्षा सम्भव है। लोकमान्य तिलक कहा करते थे- ‘‘संसार में एक ही वस्तु को मैं परम पवित्र मानता हूँ, वह है मनुष्य का अपनी विकास यात्रा के लिये अनवरत श्रम।’’ परिवार के प्रत्येक सदस्य में एक- दूसरे के प्रति सद्भावनायें रखकर ईर्ष्या- द्वेष आदि दुर्भावनाओं से दूर रहकर निष्काम भाव से श्रमरत रहना जीवन की सर्वोच्च साधना है। इससे कभी विमुख नहीं होना चाहिए।’’
(१०) समय का सदुपयोगः- समय का विभाजन, निर्धारण और उसका मुस्तैदी के साथ पालन, यह ऐसा सद्गुण है जो महत्वपूर्ण उत्तरदायित्वों के निर्वाह में असाधारण रूप से सहायक सिद्ध होता है। घर के हर सदस्य को इस दिशा में उपेक्षा न बरतने के लिए कहा, समझाया जाना चाहिए। हर किसी की दिनचर्या निर्धारित होनी चाहिए और जब तक कि और असाधारण अड़चन न आ जाय तब तक उसका पूरी मुस्तैदी के साथ पालन करने की आदत डालनी चाहिए।
रात को जल्दी सोने और प्रातः जल्दी उठने की आदत इतनी अच्छी है कि उसकी जितनी प्रशंसा की जाय उतनी ही कम है। अक्सर लोग रात को दस बारह बजे तक गपशप करते रहते हैं और सबेरे बहुत देर से धूप चढ़े उठते हैं। ऐसे लोग उस बहुमूल्य अवसर को गँवा देते हैं जो प्रातः जल्दी उठकर काम करने पर दूनी, चौगुनी सफलता के रूप में मिलता है। घर के प्रमुख सदस्य यदि अपने नियम इस प्रकार के बना लें तो ऐसा वातावरण बनने लगे जिसके प्रभाव से सारे सदस्य उसी क्रम में सहज ही ढल जावें। वा. ४८/२.६७
आलस्य में इधर- उधर समय गँवाना पाप ही कहा जायेगा। उन्नति के लिये और पारिवारिक जीवन में प्राण और प्रसन्नता जागृत रखने के लिये धन की आवश्यकता होती है, वह समय के सदुपयोग से ही सम्भव है। समय ही धन है, उसे व्यर्थ में कभी भी नहीं गँवाना चाहिए।
(११) शिक्षाः- पारिवारिक जीवन को सुविकसित करने के लिये जिस मानसिक विकास की आवश्यकता होती है, वह है- ‘शिक्षा’
(ख) परिवार में आस्तिकता का वातावरण बनाएँ
(ग) गुण जो हर सदस्य में अनिवार्यतः विकसित करें
(घ) परिवार निर्माण के अन्य महत्त्वपूर्ण सूत्र
(क) पारिवारिक पंचशील
दुर्भावना के वातावरण में पंचशील के सिद्धान्त अन्तराष्ट्रीय जगत में भले ही सफल न हुए हों पर पारिवारिक जगत में वे सदा सफल होते हैं। पारिवारिक पंचशील पालन करने से घर में शक्ति बनी रहती है और प्रेम तथा सुव्यवस्था का वातावरण बना रहता है। यह पारिवारिक पंचशील हैं -
(१) परस्पर आदर- भाव से देखना
परस्पर के दोषों को देखकर आलोचना करना अनुचित है। सभी मनुष्यों में कमजोरियाँ हैं, भूल होना भी मनुष्य का स्वभाव है। प्रत्येक व्यक्ति आपके घर का सदस्य होने के कारण उसका भी उस घर पर पूरा अधिकार है। यदि रुचि में साम्य न हो अथवा मत वैभिन्नता हो तो वह निरादर का पात्र नहीं है। यह सम्भव नहीं है कि आपकी रुचि सब से मिल सके। छोटे बच्चे भी आदर के पात्र होते हैं। वे भी अपने आदर- निरादर को समझते हैं। यदि आप किसी बच्चे से स्नेह से बोलेंगे तो वह निश्चय ही आपके गले से लिपट जायेगा। यदि आप उसे झिड़क देंगे तो वह कभी आपके पास आने का नाम भी नहीं लेगा। कड़ुवी बात जहर से भी बुरी होती है। यदि आपकी वाणी मधुर नहीं है तो जीवन में कटुता बढ़ती ही चली जायेगी। घर के किसी सदस्य की तीखी आलोचना करना अवश्य ही बर्दाश्त से बाहर हो सकती है। आपकी भ्रान्त धारणा, चाहे वह भ्रान्ति न होकर सत्य ही हो तो भी, दूसरे पर तीखी चोट कर सकती है, और तब वाणी का वह घाव जीवन भर भरने में नहीं आता। विद्वानों का कहना है कि मनुष्य तलवार के घाव से नहीं घबराता, वह उसे हँसते- हँसते सह लेता है, परन्तु वाणी का घाव कलेजे में गहरा होता जाता है और वह जीवन भर भरने में नहीं आता।
(२) अपनी भूल स्वीकार करना
अपनी ओर से कोई ऐसी बात मत आने दो जिससे कोई विवाद हो जाये, बल्कि दूसरी ओर से होने वाले विवाद को भी शान्तिपूर्वक निपटा देना ही बुद्धिमानी है। अपने द्वारा हुई भूल को तुरन्त स्वीकार कर लीजिए। आपकी इस स्पष्टवादिता और आदर्श मनोवृत्ति का दूसरों पर अवश्य ही प्रभाव पड़ेगा। यदि आप भूल करके भी उसे स्वीकार नहीं करते तो दूसरों पर उसकी गलत प्रतिक्रिया होगी और क्षमाभाव के बजाय मन में भ्रान्त धारण बनी रहेगी। परस्पर विरोध रहने के कारण अनबन चल रही हो तो उस अनबन को समझौते द्वारा तय कीजिए और आगे के लिए ऐसा ढंग अपनाइये कि समस्या जटिल न होने पावे। अनबन का अन्त यदि शीघ्र ही नहीं होता तो वह धीरे- धीरे भीषण रूप धारण कर लेती है और फिर उसका समाधान बहुत कठिन हो जाता है।
(३) आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना
सभी के विचार पृथक्- पृथक् हो सकते हैं। यदि आपके परिवार के किसी सदस्य के विचार आप से नहीं मिलते और वह अपनी विचारधारा के अनुसार कार्य करता है तो उसके मार्ग में रुकावट न डालिए। उदाहरण के लिए मान लिजिए कि आप राम के उपासक हैं और आपका पुत्र शिव की उपासना करता है, वह राम को नहीं मानता तो उसे अपने मन के अनुसार करने दीजिए। अथवा आप किसी एक राजनैतिक दल से सम्बद्ध है और आपका पुत्र किसी अन्य राजनैतिक दल का सदस्य हो जाता है, तो उसके इच्छित कार्य से रुष्ट मत होइए। यदि आप उसके विचारों के प्रति अपना दृष्टिकोण उदार रखेंगे तो किसी प्रकार के गृह- कलह की सम्भावना न रहेगी।
(४) भेदभाव न रखना
घर में भेद- भाव भी कलह का कारण बन जाता है। आपके दो पुत्र हैं- एक को अच्छा भोजन वस्त्र देते हैं और दूसरे को वैसा नहीं देते तो यह भेद अवश्य ही खटकने वाला होगा। हाँ, परिस्थितिवश एक को एक प्रकार की सुख- सुविधा और दूसरे को दूसरे प्रकार की सुख- सुविधा देते हैं, तो वह आपका दोष नहीं होगा। फिर भी यदि उनमें से किसी एक को वह बात खले तो उसे भी ठीक करने की चेष्टा करनी चाहिए।
(५) विवादों का निष्पक्ष निपटारा
किसी मामले में आपको मध्यस्थ बनाया जाय तो एकदम सत्यता पर आ जाइये। कोई कितना भी प्रिय हो, यदि उसके द्वारा ज्यादती हुई है तो उसकी ज्यादती की घोषणा कीजिए और जिसकी हानि हुई है उसके मन का सन्तोष कीजिए। यदि आप निष्पक्ष न रहे तो आपको उसका भीषण परिणाम भुगतना पड़ेगा। आपका सम्मान इसी में है कि आप सबके विश्वास- पात्र बनें। यदि आप सबको एक समान समझेंगे तो परिवार के सभी सदस्य आपकी बात मानने में सन्तोष करेंगे। अनजाने में यदि आप से कभी कोई भूल हो भी जायगी, तो उसका कोई ख्याल नहीं करेगा और आपकी प्रतिष्ठा ज्यों- की बनी रहेगी।
एक कहावत है कि चार बर्तन होते हैं तो खटकते ही हैं। अतः घर में कभी कुछ कलह उपस्थित हो जाय तो उसे मनुष्य स्वभाव की कमजोरी मानकर अधिक तूल मत दीजिए। झगड़ों को शांत करने का एक बहुत बड़ा नुस्खा है- त्याग। यदि आपने किंचित भी त्याग प्रदर्शित किया तो, झगड़ा समाप्त होने में देर न लगेगी। झगड़ों को युद्ध की- सी चुनौती के रूप में मत मानिए। विपक्षी का दमन करने की बात मत सोचिए, बल्कि झगड़े के कारण पर विचार कीजिए, और प्रयत्न कीजिए कि वह कारण दूर हो जाय। यदि ऐसा हो सका तो झगड़ा दूर करने में आपको शीघ्र ही सफलता मिल जायगी। गृह- कलह को समाप्त करने का यह प्रमुख सिद्धान्त है। इस पर चलकर देखिये और सफलता मिले तो दूसरों को भी इसका उपदेश कीजिए। यदि आप घर में ही अपने पंचशील को सफल न बना सके तो बाहर उसकी सफलता की आशा कैसे कर सकते हैं? वा. ४८/१.२३
महिलाएँ यह अच्छी तरह समझें कि परिश्रम जीवन की मूल पूँजी है अतः परिवार में क्रियाशीलता को बढ़ायें, परिवार के प्रत्येक सदस्य में कठोर परिश्रम का अभ्यास पैदा करें और अभिरुचि जगायें। वा. ४८/१.३०
(ख) परिवार में आस्तिकता का वातावरण बनाएँ
मानव जीवन की प्रगति उसके सद्गुणों पर निर्भर है। जिनके गुण, कर्म, स्वभाव का निर्माण एवं विकास ठीक प्रकार हुआ है वे सुसंयत व्यक्तित्व वाले सज्जन मनुष्य अनेक बाधाओं और कठिनाइयों को पार करते हुए अपनी प्रगति का रास्ता ढूँढ़ लेते हैं। विपरीत परिस्थितियों एवं बुरे स्वभाव के व्यक्तित्वों को भी, प्रतिकूलताओं को भी, सुसंस्कृत मनुष्य अपने प्रभाव एवं व्यवहार से बदल सकता है और उन्हें अनुकूलता में परिणत कर सकता है। इसके विपरीत जिसके स्वभाव में दोष- दुर्गुण भरे पड़े होंगे, वह अपने दूषित दृष्टिकोण के कारण अच्छी परिस्थितियों को भी दूषित कर देगा। संयोगवश उन्हें अनुकूलता द्वारा सुविधा प्राप्त भी हो तो दुर्गुणों के आगे वह देर तक ठहर न सकेगी। दूषित दृष्टिकोण जहाँ भी होगा, वहाँ नारकीय वातावरण बना रहेगा। अनेक विपत्तियाँ वहाँ से उलझती रहेंगी।
प्रत्येक विचारशील व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि वह अपने जीवन को सार्थक एवं भविष्य को उज्ज्वल बनाने की आधारशिला- आस्तिकता को जीवन में प्रमुख स्थान देने का प्रयत्न करे। ईश्वर को अपना साथी, सहचर मानकर हर घड़ी निर्भय रहे और सन्मार्ग से ईश्वर की कृपा एवं कुमार्ग से ईश्वर की सजा प्राप्त होने के अविचल सिद्धान्त को हृदयंगम करता हुआ अपने विचार और आचरण को सज्जनोचित बनाने का प्रयत्न करता रहे। इसी प्रकार जिसे अपने परिवार में, स्त्री बच्चों से सच्चा प्रेम हो, उसे भी यही प्रयत्न करना चाहिए कि घर के प्रत्येक सदस्य के जीवन में किसी न किसी प्रकार आस्तिकता का प्रवेश हो। परिवार का बच्चा- बच्चा ईश्वर विश्वासी बने।
अपने परिवार के लोगों के शरीर और मन को विकसित करने के लिए जिस प्रकार भोजन और शिक्षण की व्यवस्था की जाती है, उसी प्रकार आत्मिक दृष्टि से स्वस्थ बनाने के लिए घर में बाल, वृद्ध सभी की उपासना में निष्ठा एवं अभिरुचि बनी रहे। इसके लिए समझाने- बुझाने का तरीका सबसे अच्छा है। गृहपति का अनुकरण भी परिवार के लोग करते हैं, इसलिए स्वयं नित्य नियमपूर्वक नियत समय पर उपासना करने के कार्यक्रम को ठीक तरह निबाहते रहा जाय। घर के लोगों से जरा जोर देकर भी उनकी ढील- पोल को दूर किया जा सकता है। आमतौर से अच्छी बातें पसन्द नहीं की जातीं और उन्हें उपहास- उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता है। यही वातावरण अपने घर में घुसा हुआ हो सकता है, पर उसे हटाया तो जाना ही चाहिए। देर तक सोना, गंदे रहना, पढ़ने में लापरवाही करना, ज्यादा खर्च करना, बुरे लोगों की संगति आदि बुराइयाँ घर के किसी सदस्य में हों तो उन्हें छुड़ाने के लिए प्रयत्न करना पड़ता है। क्योंकि यह बातें उनके भविष्य को अन्धकारमय बनाने वाली, अहितकर सिद्ध हो सकती हैं। उसी प्रकार नास्तिकता और उपासना की उपेक्षा जैसे आध्यात्मिक दुर्गुणों को भी हटाने के लिए घर के लोगों को जरा अधिक सावधानी और सफाई से कहा सुना जाय तो भी उसे उचित ही माना जायगा। वा. ४८/१.७९
परिवारों का धार्मिक वातावरण बनाने में सहायता करने वाले पाँच प्रचलन मुख्य हैं- (१) नमन वन्दन, (२) यज्ञीय आचरण, (३) सामूहिक प्रार्थना, आरती, सहगान, (४) स्वाध्याय- अंशदान, (५) सत्संग, कथा श्रवण। इन पाँचों को सरलतापूर्वक हर घर में सम्पन्न किया जा सकता है और इसका श्रेयस्कर प्रभाव अविलम्ब देखा जा सकता है।
(१) नमन- वन्दन- नमन- वन्दन का दूसरा स्वरूप यह है कि घर के छोटे लोग अपने से बड़ों का अभिवादन करें। जिन्हें चरण स्पर्श करने में संकोच न पड़ता हो वे वैसा करें अन्यथा हाथ जोड़कर नमस्कार करना तो अनिवार्य ही रहे। भूल जाने पर बड़े भी छोटों को अभिवादन करें, इसमें बड़ों के सम्मान करने एवं वरिष्ठों का अनुशासन मानने का भाव है। यह प्रचलन घर के सदस्यों में निश्चित रूप से सद्भावना की वृद्घि करता है। अस्तु देव वन्दन और वरिष्ठ वन्दन की दोनों ही परम्पराओं का निर्वाह परिवार निर्माण अभियान के अन्तर्गत वातावरण बनाने के लिये आवश्यक माना जाना चाहिए।
(२) यज्ञीय आचरण- यज्ञ अर्थात् पवित्र- परमार्थ। जीवन यज्ञ अर्थात् पवित्र जीवन। परमार्थ परायणता का लक्ष्य। अग्नि होत्र में अपने प्रिय पदार्थों को लोक- कल्याण के लिए वायुमण्डल में बिखेरने की प्रक्रिया सम्पन्न की जाती है। परमार्थ प्रवृत्ति को जन- जन में जगाया जाना चाहिए और उसका प्रतीक मानकर समय, श्रम एवं सद्भाव समर्पण ही प्रकारान्तर से यज्ञीय कर्मकाण्ड का सार तत्व है। इस देव यज्ञीय आचरणप्रवृत्ति पूजन को अपने परिवारों से आरम्भ करना चाहिए। वा. ४८/१.८३
‘बलि वैश्व यज्ञ परम्परा’ को दैनिक धर्मकृत्य माना गया है। उसका प्रचलन इन दिनों लुप्त प्रायः हो गया है। हमारे परिवारों से उसका पुनर्जीवन आरम्भ होना चाहिए। चौके में जब भोजन तैयार हो जाय तो खाना आरम्भ करने से पूर्व चूल्हे में से अग्नि बाहर निकालकर प्रज्जवलित की जाय और रोटी के छोटे- छोटे टुकड़े घी और शक्कर मिलाकर गायत्री मन्त्र उच्चारण करते हुए पाँच बार में होम कर दिये जाएँ। बाद में जल अंजलि की परिक्रमा उस अग्नि के चारों ओर परिक्रमा रूप में घुमा दी जाय। इस अग्नि को पवित्र माना जाय। बुझने पर भस्म को सुरक्षित रख लिया जाय और सुविधानुसार किसी गमले, क्यारी अथवा पवित्र जलाशय में विसर्जित कर दिया जाय। यही है बलिवैश्व, अग्निहोत्र की सरल प्रक्रिया जिसे महिलाएँ बड़ी आसानी से बिना किसी अड़चन के अपने घरों में नियमित रूप से करती रह सकती हैं। इस पुनीत प्रक्रिया में भावभरा आदर्श यह सन्निहित है कि यज्ञीय परम्परा का परिपोषण करने में इस परिवार की सुनिश्चित आस्था है। वा. ४८/१.८४
थाली में जूठन न छोड़ने की आदत घर के हर सदस्य में डाली जानी चाहिए। वर्तमान परिस्थितियों में अन्न का एक दाना भी बर्बाद नहीं किया जाना चाहिए। खाते समय देख लिया जाय कि कहीं थाली में किसी वस्तु की अनावश्यक मात्रा तो नहीं आ गई है। दुबारा माँगने में हर्ज नहीं, अधिक प्रतीत होता हो उसे पहले से ही निकाल दिया जाना चाहिये। इसमें परोसने वाले को भी अनावश्यक शिष्टाचार बरतने की अपेक्षा समझदारी से काम लेना चाहिये। सप्ताह में एक दिन या एक समय उपवास करने की, शाकाहार पर रहने की परम्परा चल पड़े तो इससे पेट को विश्राम मिलने से स्वास्थ्य भी सुधरेगा और अन्न की देशव्यापी कमी को सहज ही पूरा कर लेने का एक बहुत उपयोगी मार्ग बन जायेगा।
वा. ४८/२.५७
(३) सामूहिक प्रार्थना, आरती, सहगान- हमारे घरों में पूजा- उपासना का वातावरण रहना चाहिए। अच्छा तो यह है कि परिवार के सभी लोग प्रातःकाल नित्यकर्म से निपट कर कुछ समय ईश्वर की गोद में बैठने की भावना के साथ उपासना के लिए शांतचित्त से एकान्त में बैठें। गायत्री मन्त्र का जप और उगते हुए सूर्य की दिव्य किरणें अपने शरीर, मन और अन्तःकरण में प्रविष्ट होने का ध्यान करें समय का अभाव हो तो पन्द्रह मिनट भी इसके लिए लगाते रहने से काम चलता रहता है। उपासना भी नित्य के दैनिक कार्यों में सम्मिलित रहनी चाहिए। यदि अधिक व्यस्तता या अरुचि का वातावरण हो तो भी इतना तो होना ही चाहिए कि पूजा- स्थल पर गायत्री माता का- भगवान का चित्र स्थापित हो और काम- काज में लगने से पहले वहाँ जाकर, घर का प्रत्येक सदस्य दो मिनट मौन खड़ा होकर गायत्री मन्त्र का पाँच बार जप मन ही मन कर लिया करे और प्रणाम करके इस छोटे से उपासना क्रम को पूरा कर लिया करे। इसमें बाधा केवल अरुचि और उपेक्षा के कारण ही हो सकती है, परन्तु आस्तिकता के अनेक प्रकार के लाभों को समझा देने पर श्रद्धा के बीजांकुर उगाये जा सकते हैं।
वा. ४८/२.३१
(४) स्वाध्याय- अंशदान- परिवार में यदि युग साहित्य नियमित रूप से पढ़ा जाने लगे तो राम परिवार को वशिष्ठ के सान्निध्य का जो लाभ मिलता रहा था, प्रायः वही लाभ परिवार निर्माण अभियान के हर सदस्य को मिलता रह सकता है। ज्ञानघट की स्थापना युग साहित्य की व्यवस्था और अनिवार्य स्वाध्याय की प्रथा- परम्परा जिन घरों में चल पड़े समझना चाहिए वहाँ त्रिवेणी संगम जैसा सुयोग बना। यह प्रयास किसी धूमधाम के साथ अपनी गरिमा का डंका भले ही न पीटे, किन्तु इतना निश्चित है कि जिन परिवारों में इस प्रचलन को उपयुक्त स्थान मिलेगा उनमें सत्प्रवृत्तियों का सम्वर्द्धन होगा व उनका सत्परिणाम पूरे परिवार को मिलेगा।
(५) सत्संग, कथा श्रवण- बच्चों को कहानियाँ सुनने का शौक होता है, इसमें मनोरंजन और उच्चस्तरीय प्रशिक्षण के दोनों तत्व हैं। प्राचीनकाल में वृद्धाएँ घर के बालकों को कथा, कहानियाँ नियमित रूप से सुनाती थीं। उसके माध्यम से कोमल मनों पर सुसंस्कारिता की स्थायी छाप डालती थीं। देखने में ‘नानी की कहानी’ बाल और वृद्धों का मनोरंजन भर प्रतीत होता है, पर वास्तविकता यह है कि यदि इस कथा, श्रवण को उद्देश्यपूर्ण बनाया और सुनियोजित किया जा सके तो उसका सत्परिणाम हर दृष्टि से श्रेयस्कर हो सकता है। वा. ४८/१.८५
घर की कोई सुयोग्य महिला इस उच्चस्तरीय कार्य को उठाये। समय नियत रहे। एक- दो कथा- कहानियाँ नियमित रूप से कहने की शैली में मनोरंजन और विषय में प्रभावोत्पादक तत्व होंगे तो न केवल बालक वरन् बड़ी आयु के भी सब लोग उसे चावपूर्वक सुनेंगे। नमन- वन्दन, बलिवैश्व, आरती, कीर्तन, स्वाध्याय प्रचलन, कथा श्रवण के उपरोक्त पाँच कार्य ऐसे हैं जो हर घर में सरलतापूर्वक आरम्भ किये जा सकते हैं कार्यों के छोटे स्वरूप को देखते हुए बड़े परिणाम की आशा सामान्य बुद्धि से नहीं की जा सकती, किन्तु यदि इन्हें कार्यान्वित किया जा सके तो प्रतीत होगा कि इन प्रयत्नों के सम्मिलित परिणाम कितने सुखद प्रतिफल प्रस्तुत करते हैं। वा. ४८/१.८६
(ग) गुण जो परिवार के हर सदस्य में अनिवार्यतः विकसित करें
(१) सुदृढ़ दिनचर्याः- परिवार के छोटे- बड़े सभी सदस्यों को अपनी जीवन- चर्या बड़ी सुसंतुलित रखनी चाहिए। हाथी- नदी या तालाब में उतरता है तो हर कदम आहिस्ता से टटोल- टटोल कर आगे बढ़ाता है। पारिवारिक जीवन में बुराइयों का समावेश न हो, इसके लिए प्रत्येक सदस्य की विशेषतया गृहपति एवं गृहिणी की दिनचर्या ऐसी होनी चाहिए, जिसमें गन्दगी और फूहड़पन न दिखाई दे।
प्रधान रूप से ध्यान देने वाली बात यह है कि किसी भी सदस्य के मस्तिष्क में दूषित प्रभाव डालने वाला कार्य हम न करें, हमारी दिनचर्या कुछ इस तरह व्यवस्थित की हुई होनी चाहिए। प्रातःकाल सोकर उठने से लेकर सायंकाल सोने तक हम प्रत्येक कार्य हाथी की तरह टटोल- टटोल कर करें और इस बात की सावधानी रखें- कहीं कोई ऐसा गड्ढा न आ जाय, ऐसी बुराई न बन जाय, जिससे बाद में पश्चाताप करना पड़े। इस प्रकार की सावधानी, आहार- विहार, वार्तालाप, चलने, उठने, बैठने के प्रत्येक तौर- तरीके में होनी चाहिए। सुदृढ़ दिनचर्या परिवार निर्माण का प्रथम सूत्र है।
(२) कर्तव्य पालनः- परिवार छोटा रहे तो कुछ हर्ज नहीं, पर उसे व्यवस्थित रखना चाहिए। घर का कौन सा बच्चा कहाँ है? क्या कर रहा है? अमुक व्यक्ति किस काम में लगा है? उसके लिये भोजन पहुँचा या नहीं? किसी को मानसिक या शारीरिक कष्ट तो नहीं? इन सब बातों की आवश्यक जानकारी और उनकी पूर्ति समय पर यथारीति होती रहे। अव्यवस्था ही परिवारों में अशांति उत्पन्न करने में डाकिन का काम करती है। उससे दूर रहना आवश्यक है। घर के बड़े बुजुर्गों, माताओं का एक- दूसरें के प्रति यह कर्तव्य है कि वे घर की हर व्यवस्था का पाबन्दी के साथ पालन करते- कराते रहें।
(३) सुसंस्कृत वेश- भूषाः स्वभाव की छोटी- छोटी बातें भी सामूहिक तौर पर बड़ी प्रभावशाली होती हैं। आज जो सर्वत्र चारित्रिक पतन के दृश्य दिखाई देते हैं, उनका एक कारण विकृत वेश- विन्यास माना जाता है। बाल- बुद्धि के लोग शारीरिक सौन्दर्य और रूप का आकर्षण बढ़ाने के लिए तरह- तरह के वेश- विन्यास और रूपसज्जा किया करते हैं। इससे आत्म- संतोष तो क्याहोता है, भड़कीला वेश- विन्यास और बाहरी चमक बढ़ाने में मनुष्य के चरित्र का ही पतन होता है। अभारतीय वस्त्रों और सजावट से बचकर रहने में ही अपना कल्याण है, अपने धर्म अपनी संस्कृति के अनुरूप केश, वस्त्र और वेश- भूषा में चरित्र और आत्मिक- बल बढ़ाने वाली सादगी एवं शालीनता पाई जाती है, उसका परित्याग करना अशोभनीय ही कहा जा सकता है। वा. ४८/४.५९
वस्त्र पहनने की जो परम्परा पूर्व पुरुषों की थी, वह बड़ी सरल और उपयोगी रही है। पुरुष धोती, कुर्ता, जाकेट, टोपी तथा स्त्रियाँ साड़ी और सलूके पहनती रही हैं। यह चयन सादगी और सरलता की दृष्टि से तो श्रेष्ठ है ही, इसका सम्बन्ध स्वास्थ्य एवं मनोवैज्ञानिक रीति से बुराइयों से बचाने वाला भी रहा है। हमें अपनी वेश- भूषा पर गर्व करना चाहिए और भड़कीले, बचकाने वेश- विन्यास से सदैव बचना चाहिए। घर में ऐसी फैशन- परस्ती को प्रवेश न करने देना चाहिए, जिसे उच्छृंखलता या रंगीली- शौकीनी कहा जा सके।
(४) सात्विक आहारः- मनुष्य के स्वास्थ्य और मानसिक स्थिति का निर्माण आहार पर निर्भर है। भारतीय मनीषियों ने स्वास्थ्य, सद्गुण और सदाचार की दृष्टि से सदैव सात्विक भोजन पर ही जोर दिया है। माँस, मदिरा, मछली, अण्डे, तीखे,कसैले, चटपटे भोजन का यहाँ सदैव बहिष्कार किया गया है, क्योंकि ये पदार्थ आत्मिक दुर्बलता पैदा करने वाले होते हैं, हमें गीता के इस आदेश का पालन करना चाहिए-
आयुः सत्व बलारोग्य सुख प्रीति विवर्धनाः।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्विक प्रियाः॥
सात्विक आहार ही आयु, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति की वृद्धि करने वाला होता है, इसके विपरीत राजसिक आहार, चाहे वह अधिक स्वादिष्ट तथा चटपटे क्यों न हों, प्रारम्भ में अच्छे- भले ही लगें, पर वे अन्त में रोग, दुःख और चिन्ता उत्पन्न करने वाले ही सिद्ध होते हैं। सात्विक भोजन से आध्यात्मिक भावों की वृद्धि होती है। यह विशेष रूप से महिला सदस्यों का कर्तव्य है कि वे सरल, सुपाच्य और सादा भोजन तैयार करें। साथ ही यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि कोई चोरी से छिपकर बाजार की गन्दी चीजें न खायें। इससे स्वास्थ्य की हानि तो है ही, नैतिक दृष्टि से भी यह चोरी अथवा ओछापन माना जाता है। अच्छा, पौष्टिक भोजन लोगों को घर पर ही मिले, ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए।
(५) सुमधुर वाणीः- मधुर, शान्त एवं पवित्र शब्दों का उच्चारण करने वाले व्यक्ति अपने शब्दों द्वारा न केवल अपने विचारों, भावनाओं एवं संस्कारों को परिमार्जित करते हैं, अपितु अन्य परिजनों को प्रभावित करके उनके जीवन में भी नई स्फूर्ति, नई प्रेरणा व नया मोड़ उत्पन्न करते हैं। पारिवारिक जीवन में इसका बड़ा महत्त्व है, इससे परिवार में स्नेह और प्रेम बना रहता है। हमें अमृतमय वाणी बोलने के साथ ही कम बोलने का भी अभ्यास बनाना चाहिए।
शब्दों के सदुपयोग से सम्बन्ध जुड़ते हैं, कटु वचनों से कलह और उत्पात बढ़ता है। अपने परिवारों की सुस्थिरता के लिए इस सूत्र को सदैव ध्यान में रखना चाहिए और भूलकर भी कोई अप्रिय बात मुख से नहीं निकालनी चाहिए। अधिकारवश कठोर वचन निकालना भी बुरा होता है, चाहे बच्चे से ही कुछ कहा जाय, पर शांत- संयम एवं यथाशक्ति नम्र वाणी का ही प्रयोग किया जाना अच्छा होता है।
(६) शालीनताः- छठवें शील- शालीनता को शीलों का सार भी कह सकते हैं। शिष्टता, सज्जनता, विनम्रता, साधुता जैसे सद्गुणों का समुच्चय शालीनता है। इसके चिह्न हैं- ईमानदारी, प्रामाणिकता, नागरिकता, मर्यादा का निर्वाह। शालीनता को मात्र शिष्टाचार समझने की भूल नहीं करनी चाहिए। शिष्टाचार यदि अतिरिक्त शालीनता से रहित हो तो वह रूखा कर्मकाण्ड या ‘मैनरिज्म’ बनकर रह जाता। शालीनता न केवल शब्दों से, अपितु हावभाव समेत सम्पूर्ण आचरण से अभिव्यक्त होती है और सीधे हृदय पर अपनी अमिट छाप छोड़ती है।
(७) संस्कार- स्रोत- ईश्वर की उपासना से बुद्धि की सूक्ष्म ग्रहणशीलता और संस्कारों की संवेदनशीलता जाग्रत होती है। फलस्वरूप लोगों के भौतिक मन आध्यात्मिक जीवन की ओर मुड़ जाते हैं। शांति, सुख, स्थिरता और समृद्धि इन चारों के लिये इस प्रकार का जीवन आवश्यक है, जो केवल आस्तिकता से ही संभव है। परिवार तभी नष्ट होते हैं, जब उनमें स्वार्थ और भौतिकता घुस जाती है। उससे बचने के लिए परिवारों में धार्मिक वातावरण बनाये रखना आवश्यक है। भारतीय संस्कृति में पग- पग पर पर्व, संस्कारों के प्रचलन का उद्देश्य भी यही रहा है कि लोग आत्म- परायण बने रहें। मनुष्य जीवन का ध्रुव सत्य भी यही है।
पारिवारिक जीवन मे सरलता और सत्य- निष्ठा बनाये रखने के लिये हम लोगों को सच्चे अर्थों में आस्तिक रहना चाहिए। इसमें व्यक्तिगत आत्म- कल्याण की सम्भावनायें तो सन्निहित हैं ही साथ ही पारिवारिक समुन्नति और द्वेष- दुर्गुणों से बचे रहने का आधार भी यही है।
(८) स्वच्छता और सफाईः- गन्दगी एक दुर्गुण है, उससे मनुष्य का जीवन दीन- हीन और मलिन बनता है। रोग की परिस्थितियाँ सामने आती हैं। इससे बचने का आसान तरीका यही है कि प्रत्येक दैनिक कार्य में, घर, बाहर, आँगन, द्वार, दीवार, छत इन सबकी सफाई और स्वच्छता का ध्यान रहे। अपने बच्चों के, धर्म- पत्नी के, भाई- भाभी सबके कपड़ों की स्वच्छता पर एक दृष्टि अवश्य रखनी चाहिए। अपने आप में सभी सदस्यों की स्वच्छता और सफाई का महत्व मालूम होना चाहिए। इसकी उपेक्षा करने से स्वास्थ्य पर अहितकर प्रभाव पड़ सकता है, अतः शरीर, वस्त्र, निवास आदि से सम्बन्धित प्रत्येक वस्तु, हर क्रिया में स्वच्छता का ध्यान रहना चाहिए। सप्ताह या महीने में एक दिन सामूहिक सफाई की व्यवस्था भी रहनी चाहिए। इससे सबके स्वास्थ्य और आरोग्य लाभ की आशा बनी रहती है। वा. ४८/४.६०
(९) शारीरिक श्रमः- आजकल लोगों की ऐसी धारणा हो गई है, जो जितनी अधिक आराम की जिन्दगी बिताता है, वह उतना ही बड़ा है, अब इसे बदलना चाहिए। वस्तुतः मनुष्य की महत्ता का आधार यह है कि वह कितना श्रम करता है? अपने घर के लोग श्रम से जी चुराते हों तो यह दुर्भाग्य की बात ही होगी। यदि कोई इसी में अपना सौभाग्य समझता है तो उसका बड़प्पन एक दिन धूल में मिलता दिखाई देगा। बापू के शब्दों में- ‘‘किसी तरह का परिश्रम न करने वाला व्यक्ति संसार की किसी वस्तु का उपभोग करता है तो यह चोरी है।’’ यह तो व्यक्तिगत आत्म- कल्याण की दृष्टि से हुआ, सामूहिक रूप से गृहस्थ की समुन्नति बाहरी झगड़ों से, रोग- शोक से बचने के लिए भी श्रमशीलता आवश्यक है। काम से जी चुराना एक बहुत बड़ा दुर्गुण है। परिवार के ऐसे सदस्य ही घरों में कठिनाइयाँ उत्पन्न करते हैं। अतः पहले से ही घरों का वातावरण श्रमप्रेरक होना चाहिए। आलस्य और प्रमाद पारिवारिक संगठन के दो रावण और मेघनाद सरीखे शत्रु हैं, इनसे बचकर ही पारिवारिक सुख- समुन्नति की रक्षा सम्भव है। लोकमान्य तिलक कहा करते थे- ‘‘संसार में एक ही वस्तु को मैं परम पवित्र मानता हूँ, वह है मनुष्य का अपनी विकास यात्रा के लिये अनवरत श्रम।’’ परिवार के प्रत्येक सदस्य में एक- दूसरे के प्रति सद्भावनायें रखकर ईर्ष्या- द्वेष आदि दुर्भावनाओं से दूर रहकर निष्काम भाव से श्रमरत रहना जीवन की सर्वोच्च साधना है। इससे कभी विमुख नहीं होना चाहिए।’’
(१०) समय का सदुपयोगः- समय का विभाजन, निर्धारण और उसका मुस्तैदी के साथ पालन, यह ऐसा सद्गुण है जो महत्वपूर्ण उत्तरदायित्वों के निर्वाह में असाधारण रूप से सहायक सिद्ध होता है। घर के हर सदस्य को इस दिशा में उपेक्षा न बरतने के लिए कहा, समझाया जाना चाहिए। हर किसी की दिनचर्या निर्धारित होनी चाहिए और जब तक कि और असाधारण अड़चन न आ जाय तब तक उसका पूरी मुस्तैदी के साथ पालन करने की आदत डालनी चाहिए।
रात को जल्दी सोने और प्रातः जल्दी उठने की आदत इतनी अच्छी है कि उसकी जितनी प्रशंसा की जाय उतनी ही कम है। अक्सर लोग रात को दस बारह बजे तक गपशप करते रहते हैं और सबेरे बहुत देर से धूप चढ़े उठते हैं। ऐसे लोग उस बहुमूल्य अवसर को गँवा देते हैं जो प्रातः जल्दी उठकर काम करने पर दूनी, चौगुनी सफलता के रूप में मिलता है। घर के प्रमुख सदस्य यदि अपने नियम इस प्रकार के बना लें तो ऐसा वातावरण बनने लगे जिसके प्रभाव से सारे सदस्य उसी क्रम में सहज ही ढल जावें। वा. ४८/२.६७
आलस्य में इधर- उधर समय गँवाना पाप ही कहा जायेगा। उन्नति के लिये और पारिवारिक जीवन में प्राण और प्रसन्नता जागृत रखने के लिये धन की आवश्यकता होती है, वह समय के सदुपयोग से ही सम्भव है। समय ही धन है, उसे व्यर्थ में कभी भी नहीं गँवाना चाहिए।
(११) शिक्षाः- पारिवारिक जीवन को सुविकसित करने के लिये जिस मानसिक विकास की आवश्यकता होती है, वह है- ‘शिक्षा’