Books - परिवार निर्माण
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Language: HINDI
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परिवार को सुसंस्कृत बनाएँ
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जिस प्रकार वृक्ष की सफलता उसकी जड़ पर निर्भर होती है, उसी
प्रकार मनुष्य की सफलता एवं सुख- शांति परिवार पर निर्भर है। यदि
वृक्ष की जड़ कमजोर, अव्यवस्थित, शुष्क अथवा अनुपयुक्त होगी तो
वृक्ष किसी भी हालत में विकसित होकर वृद्धि नहीं कर सकता। इसी
प्रकार परिवार के अव्यवस्थित, कुसंस्कृत
तथा अनुपयुक्त होने पर मनुष्य जीवन भी सुसंस्कृत एवं उन्नतिशील
नहीं बन सकता। मनुष्य के जीवन विकास में परिवार का एक
महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। अतः हमें अपने परिवार के निर्माण
में बहुत ही सावधानी बरतनी चाहिए।
परिवार निर्माण की सुखद सम्भावनाएँ
व्यक्तिगत और सामजिक जीवन में व्याप्त कष्ट- कठिनाइयों और समस्याओं के समाधान का एक ही उपाय है कि समाज में सुसंस्कारिता का वातावरण उत्पन्न किया जाय ताकि लोगों को सत्प्रवृत्तियाँ अपनाने के लिए प्रेरणा और प्रोत्साहन मिले। इसे यों भी कहा जा सकता है सुसंस्कृत व्यक्तियों का निर्माण, सुसंस्कारिता का अभिवर्द्धन अपने युग की महती आवश्यकता है। यह कार्य एक सीमा तक तो प्रचार माध्यमों से भी पूरा हो सकता है, पर स्थायित्व लाने की अपेक्षा हो तो इतने मात्र से यह आवश्कयता पूरी नहीं हो पाती। इसके लिए अन्तःचेतना में मर्मस्थल तक सुसंस्कारिता को पहुँचाना होगा। प्रश्न उठता है कि संस्कारों की यह सम्पदा कहाँ से प्राप्त की जाय? इसका एक ही उत्तर है कि वातावरण में सदाशयता उत्पन्न हो। ऐसा वातावरण जहाँ संव्याप्त हो, वहीं उस स्तर के संस्कार उत्पन्न होंगे। सुसंस्कारिता का वातावरण जहाँ संव्याप्त हो, इस स्तर के लोग जहाँ आत्मीयता की भाव सम्वेदना और सहकारिता की रीति- नीति अपनाकर चल रहे हों, वहाँ रहने वाला व्यक्ति सुसंस्कारी बन सकता है। इस सन्दर्भ में स्वाध्याय, सत्संग एवं मनन- चिन्तन से भी उपयोगी प्रकाश मिल सकता है। निजी प्रयत्नों से भी आत्मनिर्माण में बहुत कुछ प्रगति हो सकती है, किन्तु जहाँ तक बाह्य अनुदानों का सवाल है, वहाँ उपयुक्त वातावरण वाला समर्थ शिक्षा संस्थान एक ही हो सकता है और वह है परिवार। परिवार में, व्यक्तित्व की ढलाई अनायास ही होती रहती है। न प्रशिक्षण करना पड़ता है और न प्रयत्न। योजना बनाने की भी आवश्यकता नहीं पड़ती और न प्रेरणा देने अथवा दबाव डालने की। सब कुछ स्वचालित क्रम से होता रहता है और उस परिवार में रहने वाले उसी प्रकार ढलते चले जाते हैं, जिस प्रकार कि छोटे बच्चे बड़ों का अनुकरण करके बोलना, चलना या अन्य व्यवहार करना सीख लेते हैं। यह तथ्य जितनी जल्दी समझ लिया जाय उतना ही उत्तम है। सुसंस्कारिता उपलब्ध करने के लिए उस विशिष्टता के वातावरण से सुसम्पन्न परिवार की नितान्त आवश्कयता है।
वा. ४८/२.३९
परिवार को कुसंस्कारी न बनने दिया जाय
गृह- कलह का सारभूत कारण न तो निर्धनता है और न ही धनता। इसका आधारभूत कारण है परिवारों का असंस्कृत होना। जिस परिवार के सदस्य सुशील, सुसंस्कृत, सभ्य एवं उदात्त स्वभाव के होंगे उस परिवार में गृह- कलह कदाचित् ही हो फिर चाहे वे निर्धन हों अथवा धनवान। परिवारों से गृह- कलह को आमूल नष्ट करने और उनमें संगठन, सुदृढ़ता, सुख और शांति बनाये रखने के लिये उनको सुसंस्कृत बनाना होगा।
वा. ४८/१.६५
संस्कार के अभाव में सुशिक्षित होने पर परिवारों के सयाने लड़के दुर्व्यसनी एवं दुर्गुणी बन जाते हैं। वे चारित्रिक महत्व और उसकी परिभाषा न जानने से उच्छ्रंखल, निरंकुश तथा अनुशासनहीन हो जाते हैं। घरों के बड़े- बूढ़े अधिकार एवं कर्तव्य में संतुलन न रख सकने के कारण क्लेश के कारण बन जाते हैं। स्त्रियाँ घर की सुख- समृद्धि में शान्ति, सन्तोष, स्नेह- सौहार्द्र एवं हँसी- खुशी के योगदान की महत्ता न जानने से गाल फुलाये, मुँह लटकाये, रूठी, ऐंठी और चख- चख करती हुई वातावरण को असहनीय बनाये रहती हैं। संस्कारों के अभाव में उनका स्वभाव असहनीय एवं व्यंग्वादी बन जाता है। घर की बड़ी- बूढ़ियाँ अधिकार लिप्सा से पीड़ित परिजनों का उठना- बैठना तक दूभर कर देती हैं। इन सब विकारों, विकृतियों एवं त्रुटियों का कारण एक ही है- परिवारों का असंस्कृत होना। वा. ४८/१.६६
देखा गया है कि पैतृक सम्पत्ति के रूप में प्रचुर सम्पत्ति मिलने पर भी सन्तान उसका लाभ न उठा सकी। आलस्य, प्रमाद, व्यसन, दीर्घसूत्रता, अहंकार, लापरवाही जैसे छोटे- छोटे दुर्गुणों के कारण वह सारी सम्पदा कुछ ही दिनों में स्वाहा हो गई। जहाँ घाव होता है, वहीं कीड़े पड़ते हैं। जहाँ- जहाँ असावधानी, आलस्य सरीखे दुर्गुण रहते हैं वहाँ उन्हें ठगने- लूटने वाले अनेक पैदा हो जाते हैं। इसी प्रकार अभिभावक अच्छा खिला- पिलाकर बच्चों को हृष्ट- पुष्ट बना दें तो भी इस बात का क्या भरोसा कि वे अन्त तक स्वस्थ एवं नीरोग बने रहेंगे। नशेबाजी, व्यभिचार, चटोरेपन आदि थोड़े से दोष ही उस हृष्ट- पुष्ट शरीर को कुछ ही दिनों में रोगग्रस्त, अल्पायु एवं जीर्ण- जर्जर बना सकते हैं। विवाह के लिये अच्छा जोड़ा ढूँढ़ दिया जाय, तो भी कोई भरोसा नहीं कि उनका दाम्पत्य जीवन सुखी ही बना रहेगा। असहिष्णुता, अविश्वास, अहंकार, असहयोग जैसे थोड़े से दुर्गुण उस दृष्टि से एक- दूसरे के लिए उपयुक्त जोड़े को परस्पर द्वेष व दुर्गति से ग्रस्त कर सकते हैं और उनका गृहस्थ जीवन नरक जीवन बन सकता है। वे एक- दूसरे से अलग हो सकते हैं। आग की छोटी- सी चिंगारी बड़े से बड़े वन या नगर को भस्मसात कर सकती है। छोटे- छोटे दुर्गुण जो देखने में मामूली और महत्त्वहीन मालूम पड़ते हैं, मनुष्य को दुःख- दरिद्र के गर्त में धकेल सकते हैं और उनके सम्पर्क में रहने वालों का सुख- सन्तोष नष्ट हो जाता है।
ऐसे अगणित उदाहरणों से इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं जिनमें अत्यन्त छोटी, गई- गुजरी एवं अभावग्रस्त परिस्थितियों में उत्पन्न होने वाले व्यक्तियों ने इतना उत्कर्ष किया, जिसे देखकर दाँतों तले अँगुली दबानी पड़ती है। उन्होंने इतनी सहायता- सुविधा कहाँ से प्राप्त कर ली जिससे वे अन्धकार को चीरते हुए प्रकाश की ओर बढ़ सके? इसका एक ही उत्तर है ‘उनके भावनात्मक एवं चारित्रिक स्तर का परिष्कृत होना।’ सद्गुणों के आधार पर मनुष्य क्या नहीं कर सकता? जिसमें आन्तरिक महानता होगी, वह बाहरी क्षेत्र में हर साधन- सुविधा किसी न किसी प्रकार कहीं न कहीं से प्राप्त कर ही लेगा।
इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए प्रत्येक अभिभावक को- परिवार के समर्थ संचालक- को यह भी प्रयत्न करना चाहिए कि उसके कुटुम्ब का हर व्यक्ति बाहरी दृष्टि से ही नहीं, आन्तरिक दृष्टि से भी समुन्नत बने। सद्गुणों की पूँजी ही वह पूँजी है, जिसके बल पर कोई व्यक्ति अपनी एवं अपने साथियों की सुख- सुविधा बढ़ा सकता है, आनन्द एवं संतोष की जिन्दगी जी सकता है। यह सम्पत्ति जिसने अपने परिजनों को दी; समझना चाहिए कि वह परिवार के ऋण से उऋण हो गया और जिसने उपेक्षा बरती, समझना चाहिए कि उसने अपने एक अत्यन्त आवश्यक कर्त्तव्य का पालन करने में चूक कर दी।
वा. ४८/२.४५
सुसंस्कृत परिवार का इतना महत्व तो बताया जाता है, उसका गुणगान भी खूब किया जाता है, परन्तु उसका अर्थ क्या है? परिवार के सुसंस्कृत होने का एक ही अर्थ है उसके सदस्यों में गुण, कर्म, स्वभाव का सुन्दर विकास होना। दूसरों को उनकी दुःखदायी क्रियाओं, कुमार्ग पर ले जाने वाले उनके दुर्गुणों और क्रोध, द्वेष, दुर्भाव, ईर्ष्या, स्वार्थ, अनुदारता, असहिष्णुता आदि दोषों का परिमार्जन कर उनके स्थान पर सदाचार, सुशीलता, प्रेम, पारस्परिक एकता, उदारता, मधुरता और प्रसन्नता के बीजारोपण करना ही उनको सुसंस्कृत बनाना है।
वा. ४८/२.५९
परिवार के सदस्यों को सद्गुणी, सदाचारी सुशील और सुसंस्कृत बनाने के लिए सर्वप्रथम स्वयं को सद्गुणी, सदाचारी और सुशील बनना चाहिए अन्यथा इस प्रयोजन के लिए किये गये मौखिक उपदेश व्यर्थ तो जायेंगे ही अपनी प्रतिक्रिया उत्पन्न किये बिना भी न रहेंगे। स्वयं अपना आचरण और रहन- सहन ऐसा रखना चाहिए जिससे परिजनों को स्वयमेव ही उसका अनुकरण करने की प्रेरणा मिले। उदाहरण के लिए, यदि परिवार के सदस्यों को सभी प्रकार के दुर्व्यसनों से दूर रखना है तो सर्वप्रथम यह देखना चाहिए कि अपने में तो कहीं कोई ऐसा व्यसन नहीं है।
वा. ४८/२.६०
पारिवारिक वातावरण उत्कृष्ट और प्रगतिशील बने
परस्पर संभाषण में कोई किसी का अधूरा या असम्मान सूचक नाम न लें। या तो रिश्ता बताते हुए- पिताजी, माताजी, बुआजी, दीदीजी आदि सम्बन्ध सूचक नामों से संबोधन करना चाहिए। छोटों को पुकारना हो तो भी उनका नाम लेने के अतिरिक्त ‘जी’ शब्द और जोड़ा जाय। इसका यह प्रभाव होता है कि बच्चे भी वैसा ही अनुकरण करने लगते हैं। ऐसे संबोधन से घर वालों को या बाहर वालों को सुनने में बहुत प्रिय लगता है। चाहे छोटे ही बच्चे क्यों न हों पर उन्हें तुम या आप कहकर बुलाना चाहिए। नाम भी पूरा लेना चाहिए। आधे- अधूरे अपमान सूचक संबोधन के साथ बुलाने से उनके स्वाभिमान को चोट पहुँचती है और हीनता के भाव जागते हैं।
अक्सर छोटी आयु में लाड़- प्यार से अपना बड़प्पन या अधिकार जताने के लिए इस प्रकार के संबोधन किए जाते हैं, पर पीछे उन्हें पड़ोसी और स्कूली साथी भी अपना लेते हैं और वह परस्पर बड़ी आयु तक चलता रहता है। होना यह चाहिए कि गुणपरक नाम रखे जायें ताकि बच्चा उसका अर्थ समझते हुए अपने को उसी प्रकृति का बनाने का प्रयास करे।
वा. ४८/२.२६
छोटे- छोटे कामों का दायित्व बच्चों को आरम्भ से ही सिखाना चाहिए। नियत स्थान पर, नियत समय पर मल- मूत्र का त्याग करना, अपने कपड़े, जूते, पुस्तकें आदि नियत स्थान पर रखना। प्रातःकाल उठकर सबको नमस्कार करना आदि। इस प्रकार के अभ्यास से नियमितता की, अनुशासन की आदत पड़ती है।
बाजार से हानिकारक वस्तुएँ खरीदकर खाने के लिए पैसे देने की अपेक्षा यह कहीं अच्छा है कि बीच में भूख लगने पर घर की वस्तुएँ ही खाया करें। उन्हें थोड़ी मात्रा में स्कूल जाते समय साथ रखी जा सकती हैं। बच्चों को खेलने- कूदने का, प्रकृति के सान्निध्य का, घूमने का भी अवसर देना चाहिए। अनुशासन में इतना अधिक नहीं कस देना चाहिए कि वे भविष्य में मिलने- जुलने की प्रकृति ही गँवा दें और संकोची बन बैठें।
परिवार के सभी लोगों के बीच इतना खुलापन होना चाहिए कि अपनी या दूसरे साथी के मन की बात स्पष्ट कही जा सके। मन की बात मन में दबाये रहने से घुटन अनुभव होती है। कहते- सुनते रहने से पक्ष या विपक्ष स्तर का कोई न कोई समाधान निकलता है और संकोच- संकोच में जो गलत धारणाएँ बनती हैं, वे पनपने नहीं पातीं। संकुचित मन वाले परिवार एक दूसरे से अपनी इच्छा या दूसरों की गलती के सम्बन्ध में जो धारणायें बना लेते हैं उससे मनों में खाई बनती है और अवसर आने पर बुरी तरह फूटती है।
यह बात मात्र बच्चों के सम्बन्ध में ही नहीं, बड़ों के बारे में भी है, ऐसी परम्परा पड़नी ही नहीं देनी चाहिए। बाजार से कोई वस्तु खरीदनी हो तो घर के अन्य समझदार लोगों को भी साथ ले जाना चाहिए, ताकि सस्ते मोल में घटिया या कम नाप- तोल की चालाकी से वे परिचित हो सकें, व वस्तुएँ ठीक कीमत पर, ठीक स्तर की, तोल- नाप में पूरी लेने का अनुभव उन्हें होता रहे। अविश्वासभरे वातावरण में अदल- बदल कर विभिन्न स्थानों से वस्तुयें खरीदनी चाहिए, ताकि बाजार में व्यापारियों के उतार- चढ़ावों का अनुभव होता रहे और जेब न कटे। वा. ४८/२.२७
कुशल प्रशिक्षक में मृदुलता और कठोरता का सन्तुलित समावेश होना चाहिए। माता को प्यार से बच्चों को भरपूर दुलार देने के साथ- साथ अनुशासन सिखाने के लिए ऐसा भी, आये दिन करना पड़ता है, जो बच्चों के मनोनुकूल न हो, कहते हैं लाड़ में बच्चे बिगड़ते हैं। यह सही है, अनावश्यक दुलार मिलने से भी, गरिष्ठ भोजन अति मात्रा में देने से पेट बिगड़ने की ही तरह दिमाग बिगड़ता है। दुलार उतना ही देना चाहिए, जितना हजम हो सके, अपच उत्पन्न करने, जितनी मात्रा खिलाते जाना दुलार लगता भले ही है, पर तत्वतः वह वैसा है नहीं।
मोह को सत्यानासी इसीलिए कहा गया है कि अमुक परिजनों के साथ अत्यधिक उदारता बरतने से उनकी आदतें बिगड़ती हैं। बिगड़ी आदतों को लेकर वे स्वयं दुःख पाते हैं और उन कृपालुओं को शाप देते हैं जिन्होंने अविवेकपूर्वक, अनावश्यक और अनुचित होने की बात का ध्यान न रखते हुए बेहिसाब लाड़- प्यार उलीचा।
ठीक इसी प्रकार कठोरता का पक्ष भी है। रूखा, कर्कश, कठोर, उपेक्षापूर्ण व्यवहार करने से परिजनों को भी असन्तोष रहता है। वे किसी ऐसे प्रभाव का अनुभव करते हैं जिसमें उनके अन्तःक्षेत्र में अतृप्ति बनी रहती है। कठोरता कारणवश अपनाई जा सकती है। रुखाई यदा- कदा अपनाई जा सकती है, किन्तु वह नीति के रूप में प्रयुक्त की जानी चाहिए और उथली दिखावटी होनी चाहिए। आत्मीयता एवं ममता की वास्तविकता इसमें है कि प्रियजनों की अनुपयुक्त इच्छा, चेष्टा एवं आदत को सुधारने, बदलने का भी प्रयास किया जाय। इस प्रयास में उत्पन्न हुई असहमति, मनोमालिन्य उत्पन्न करने तक आगे बढ़ सकती है। इस स्थिति से निपटने का उपाय तो ढूँढना चाहिए पर हारने और हथियार डालने के लिए तैयार नहीं होना चाहिए। वा. ४८/२.५८
परिवार निर्माण की सुखद सम्भावनाएँ
व्यक्तिगत और सामजिक जीवन में व्याप्त कष्ट- कठिनाइयों और समस्याओं के समाधान का एक ही उपाय है कि समाज में सुसंस्कारिता का वातावरण उत्पन्न किया जाय ताकि लोगों को सत्प्रवृत्तियाँ अपनाने के लिए प्रेरणा और प्रोत्साहन मिले। इसे यों भी कहा जा सकता है सुसंस्कृत व्यक्तियों का निर्माण, सुसंस्कारिता का अभिवर्द्धन अपने युग की महती आवश्यकता है। यह कार्य एक सीमा तक तो प्रचार माध्यमों से भी पूरा हो सकता है, पर स्थायित्व लाने की अपेक्षा हो तो इतने मात्र से यह आवश्कयता पूरी नहीं हो पाती। इसके लिए अन्तःचेतना में मर्मस्थल तक सुसंस्कारिता को पहुँचाना होगा। प्रश्न उठता है कि संस्कारों की यह सम्पदा कहाँ से प्राप्त की जाय? इसका एक ही उत्तर है कि वातावरण में सदाशयता उत्पन्न हो। ऐसा वातावरण जहाँ संव्याप्त हो, वहीं उस स्तर के संस्कार उत्पन्न होंगे। सुसंस्कारिता का वातावरण जहाँ संव्याप्त हो, इस स्तर के लोग जहाँ आत्मीयता की भाव सम्वेदना और सहकारिता की रीति- नीति अपनाकर चल रहे हों, वहाँ रहने वाला व्यक्ति सुसंस्कारी बन सकता है। इस सन्दर्भ में स्वाध्याय, सत्संग एवं मनन- चिन्तन से भी उपयोगी प्रकाश मिल सकता है। निजी प्रयत्नों से भी आत्मनिर्माण में बहुत कुछ प्रगति हो सकती है, किन्तु जहाँ तक बाह्य अनुदानों का सवाल है, वहाँ उपयुक्त वातावरण वाला समर्थ शिक्षा संस्थान एक ही हो सकता है और वह है परिवार। परिवार में, व्यक्तित्व की ढलाई अनायास ही होती रहती है। न प्रशिक्षण करना पड़ता है और न प्रयत्न। योजना बनाने की भी आवश्यकता नहीं पड़ती और न प्रेरणा देने अथवा दबाव डालने की। सब कुछ स्वचालित क्रम से होता रहता है और उस परिवार में रहने वाले उसी प्रकार ढलते चले जाते हैं, जिस प्रकार कि छोटे बच्चे बड़ों का अनुकरण करके बोलना, चलना या अन्य व्यवहार करना सीख लेते हैं। यह तथ्य जितनी जल्दी समझ लिया जाय उतना ही उत्तम है। सुसंस्कारिता उपलब्ध करने के लिए उस विशिष्टता के वातावरण से सुसम्पन्न परिवार की नितान्त आवश्कयता है।
वा. ४८/२.३९
परिवार को कुसंस्कारी न बनने दिया जाय
गृह- कलह का सारभूत कारण न तो निर्धनता है और न ही धनता। इसका आधारभूत कारण है परिवारों का असंस्कृत होना। जिस परिवार के सदस्य सुशील, सुसंस्कृत, सभ्य एवं उदात्त स्वभाव के होंगे उस परिवार में गृह- कलह कदाचित् ही हो फिर चाहे वे निर्धन हों अथवा धनवान। परिवारों से गृह- कलह को आमूल नष्ट करने और उनमें संगठन, सुदृढ़ता, सुख और शांति बनाये रखने के लिये उनको सुसंस्कृत बनाना होगा।
वा. ४८/१.६५
संस्कार के अभाव में सुशिक्षित होने पर परिवारों के सयाने लड़के दुर्व्यसनी एवं दुर्गुणी बन जाते हैं। वे चारित्रिक महत्व और उसकी परिभाषा न जानने से उच्छ्रंखल, निरंकुश तथा अनुशासनहीन हो जाते हैं। घरों के बड़े- बूढ़े अधिकार एवं कर्तव्य में संतुलन न रख सकने के कारण क्लेश के कारण बन जाते हैं। स्त्रियाँ घर की सुख- समृद्धि में शान्ति, सन्तोष, स्नेह- सौहार्द्र एवं हँसी- खुशी के योगदान की महत्ता न जानने से गाल फुलाये, मुँह लटकाये, रूठी, ऐंठी और चख- चख करती हुई वातावरण को असहनीय बनाये रहती हैं। संस्कारों के अभाव में उनका स्वभाव असहनीय एवं व्यंग्वादी बन जाता है। घर की बड़ी- बूढ़ियाँ अधिकार लिप्सा से पीड़ित परिजनों का उठना- बैठना तक दूभर कर देती हैं। इन सब विकारों, विकृतियों एवं त्रुटियों का कारण एक ही है- परिवारों का असंस्कृत होना। वा. ४८/१.६६
देखा गया है कि पैतृक सम्पत्ति के रूप में प्रचुर सम्पत्ति मिलने पर भी सन्तान उसका लाभ न उठा सकी। आलस्य, प्रमाद, व्यसन, दीर्घसूत्रता, अहंकार, लापरवाही जैसे छोटे- छोटे दुर्गुणों के कारण वह सारी सम्पदा कुछ ही दिनों में स्वाहा हो गई। जहाँ घाव होता है, वहीं कीड़े पड़ते हैं। जहाँ- जहाँ असावधानी, आलस्य सरीखे दुर्गुण रहते हैं वहाँ उन्हें ठगने- लूटने वाले अनेक पैदा हो जाते हैं। इसी प्रकार अभिभावक अच्छा खिला- पिलाकर बच्चों को हृष्ट- पुष्ट बना दें तो भी इस बात का क्या भरोसा कि वे अन्त तक स्वस्थ एवं नीरोग बने रहेंगे। नशेबाजी, व्यभिचार, चटोरेपन आदि थोड़े से दोष ही उस हृष्ट- पुष्ट शरीर को कुछ ही दिनों में रोगग्रस्त, अल्पायु एवं जीर्ण- जर्जर बना सकते हैं। विवाह के लिये अच्छा जोड़ा ढूँढ़ दिया जाय, तो भी कोई भरोसा नहीं कि उनका दाम्पत्य जीवन सुखी ही बना रहेगा। असहिष्णुता, अविश्वास, अहंकार, असहयोग जैसे थोड़े से दुर्गुण उस दृष्टि से एक- दूसरे के लिए उपयुक्त जोड़े को परस्पर द्वेष व दुर्गति से ग्रस्त कर सकते हैं और उनका गृहस्थ जीवन नरक जीवन बन सकता है। वे एक- दूसरे से अलग हो सकते हैं। आग की छोटी- सी चिंगारी बड़े से बड़े वन या नगर को भस्मसात कर सकती है। छोटे- छोटे दुर्गुण जो देखने में मामूली और महत्त्वहीन मालूम पड़ते हैं, मनुष्य को दुःख- दरिद्र के गर्त में धकेल सकते हैं और उनके सम्पर्क में रहने वालों का सुख- सन्तोष नष्ट हो जाता है।
ऐसे अगणित उदाहरणों से इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं जिनमें अत्यन्त छोटी, गई- गुजरी एवं अभावग्रस्त परिस्थितियों में उत्पन्न होने वाले व्यक्तियों ने इतना उत्कर्ष किया, जिसे देखकर दाँतों तले अँगुली दबानी पड़ती है। उन्होंने इतनी सहायता- सुविधा कहाँ से प्राप्त कर ली जिससे वे अन्धकार को चीरते हुए प्रकाश की ओर बढ़ सके? इसका एक ही उत्तर है ‘उनके भावनात्मक एवं चारित्रिक स्तर का परिष्कृत होना।’ सद्गुणों के आधार पर मनुष्य क्या नहीं कर सकता? जिसमें आन्तरिक महानता होगी, वह बाहरी क्षेत्र में हर साधन- सुविधा किसी न किसी प्रकार कहीं न कहीं से प्राप्त कर ही लेगा।
इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए प्रत्येक अभिभावक को- परिवार के समर्थ संचालक- को यह भी प्रयत्न करना चाहिए कि उसके कुटुम्ब का हर व्यक्ति बाहरी दृष्टि से ही नहीं, आन्तरिक दृष्टि से भी समुन्नत बने। सद्गुणों की पूँजी ही वह पूँजी है, जिसके बल पर कोई व्यक्ति अपनी एवं अपने साथियों की सुख- सुविधा बढ़ा सकता है, आनन्द एवं संतोष की जिन्दगी जी सकता है। यह सम्पत्ति जिसने अपने परिजनों को दी; समझना चाहिए कि वह परिवार के ऋण से उऋण हो गया और जिसने उपेक्षा बरती, समझना चाहिए कि उसने अपने एक अत्यन्त आवश्यक कर्त्तव्य का पालन करने में चूक कर दी।
वा. ४८/२.४५
सुसंस्कृत परिवार का इतना महत्व तो बताया जाता है, उसका गुणगान भी खूब किया जाता है, परन्तु उसका अर्थ क्या है? परिवार के सुसंस्कृत होने का एक ही अर्थ है उसके सदस्यों में गुण, कर्म, स्वभाव का सुन्दर विकास होना। दूसरों को उनकी दुःखदायी क्रियाओं, कुमार्ग पर ले जाने वाले उनके दुर्गुणों और क्रोध, द्वेष, दुर्भाव, ईर्ष्या, स्वार्थ, अनुदारता, असहिष्णुता आदि दोषों का परिमार्जन कर उनके स्थान पर सदाचार, सुशीलता, प्रेम, पारस्परिक एकता, उदारता, मधुरता और प्रसन्नता के बीजारोपण करना ही उनको सुसंस्कृत बनाना है।
वा. ४८/२.५९
परिवार के सदस्यों को सद्गुणी, सदाचारी सुशील और सुसंस्कृत बनाने के लिए सर्वप्रथम स्वयं को सद्गुणी, सदाचारी और सुशील बनना चाहिए अन्यथा इस प्रयोजन के लिए किये गये मौखिक उपदेश व्यर्थ तो जायेंगे ही अपनी प्रतिक्रिया उत्पन्न किये बिना भी न रहेंगे। स्वयं अपना आचरण और रहन- सहन ऐसा रखना चाहिए जिससे परिजनों को स्वयमेव ही उसका अनुकरण करने की प्रेरणा मिले। उदाहरण के लिए, यदि परिवार के सदस्यों को सभी प्रकार के दुर्व्यसनों से दूर रखना है तो सर्वप्रथम यह देखना चाहिए कि अपने में तो कहीं कोई ऐसा व्यसन नहीं है।
वा. ४८/२.६०
पारिवारिक वातावरण उत्कृष्ट और प्रगतिशील बने
परस्पर संभाषण में कोई किसी का अधूरा या असम्मान सूचक नाम न लें। या तो रिश्ता बताते हुए- पिताजी, माताजी, बुआजी, दीदीजी आदि सम्बन्ध सूचक नामों से संबोधन करना चाहिए। छोटों को पुकारना हो तो भी उनका नाम लेने के अतिरिक्त ‘जी’ शब्द और जोड़ा जाय। इसका यह प्रभाव होता है कि बच्चे भी वैसा ही अनुकरण करने लगते हैं। ऐसे संबोधन से घर वालों को या बाहर वालों को सुनने में बहुत प्रिय लगता है। चाहे छोटे ही बच्चे क्यों न हों पर उन्हें तुम या आप कहकर बुलाना चाहिए। नाम भी पूरा लेना चाहिए। आधे- अधूरे अपमान सूचक संबोधन के साथ बुलाने से उनके स्वाभिमान को चोट पहुँचती है और हीनता के भाव जागते हैं।
अक्सर छोटी आयु में लाड़- प्यार से अपना बड़प्पन या अधिकार जताने के लिए इस प्रकार के संबोधन किए जाते हैं, पर पीछे उन्हें पड़ोसी और स्कूली साथी भी अपना लेते हैं और वह परस्पर बड़ी आयु तक चलता रहता है। होना यह चाहिए कि गुणपरक नाम रखे जायें ताकि बच्चा उसका अर्थ समझते हुए अपने को उसी प्रकृति का बनाने का प्रयास करे।
वा. ४८/२.२६
छोटे- छोटे कामों का दायित्व बच्चों को आरम्भ से ही सिखाना चाहिए। नियत स्थान पर, नियत समय पर मल- मूत्र का त्याग करना, अपने कपड़े, जूते, पुस्तकें आदि नियत स्थान पर रखना। प्रातःकाल उठकर सबको नमस्कार करना आदि। इस प्रकार के अभ्यास से नियमितता की, अनुशासन की आदत पड़ती है।
बाजार से हानिकारक वस्तुएँ खरीदकर खाने के लिए पैसे देने की अपेक्षा यह कहीं अच्छा है कि बीच में भूख लगने पर घर की वस्तुएँ ही खाया करें। उन्हें थोड़ी मात्रा में स्कूल जाते समय साथ रखी जा सकती हैं। बच्चों को खेलने- कूदने का, प्रकृति के सान्निध्य का, घूमने का भी अवसर देना चाहिए। अनुशासन में इतना अधिक नहीं कस देना चाहिए कि वे भविष्य में मिलने- जुलने की प्रकृति ही गँवा दें और संकोची बन बैठें।
परिवार के सभी लोगों के बीच इतना खुलापन होना चाहिए कि अपनी या दूसरे साथी के मन की बात स्पष्ट कही जा सके। मन की बात मन में दबाये रहने से घुटन अनुभव होती है। कहते- सुनते रहने से पक्ष या विपक्ष स्तर का कोई न कोई समाधान निकलता है और संकोच- संकोच में जो गलत धारणाएँ बनती हैं, वे पनपने नहीं पातीं। संकुचित मन वाले परिवार एक दूसरे से अपनी इच्छा या दूसरों की गलती के सम्बन्ध में जो धारणायें बना लेते हैं उससे मनों में खाई बनती है और अवसर आने पर बुरी तरह फूटती है।
यह बात मात्र बच्चों के सम्बन्ध में ही नहीं, बड़ों के बारे में भी है, ऐसी परम्परा पड़नी ही नहीं देनी चाहिए। बाजार से कोई वस्तु खरीदनी हो तो घर के अन्य समझदार लोगों को भी साथ ले जाना चाहिए, ताकि सस्ते मोल में घटिया या कम नाप- तोल की चालाकी से वे परिचित हो सकें, व वस्तुएँ ठीक कीमत पर, ठीक स्तर की, तोल- नाप में पूरी लेने का अनुभव उन्हें होता रहे। अविश्वासभरे वातावरण में अदल- बदल कर विभिन्न स्थानों से वस्तुयें खरीदनी चाहिए, ताकि बाजार में व्यापारियों के उतार- चढ़ावों का अनुभव होता रहे और जेब न कटे। वा. ४८/२.२७
कुशल प्रशिक्षक में मृदुलता और कठोरता का सन्तुलित समावेश होना चाहिए। माता को प्यार से बच्चों को भरपूर दुलार देने के साथ- साथ अनुशासन सिखाने के लिए ऐसा भी, आये दिन करना पड़ता है, जो बच्चों के मनोनुकूल न हो, कहते हैं लाड़ में बच्चे बिगड़ते हैं। यह सही है, अनावश्यक दुलार मिलने से भी, गरिष्ठ भोजन अति मात्रा में देने से पेट बिगड़ने की ही तरह दिमाग बिगड़ता है। दुलार उतना ही देना चाहिए, जितना हजम हो सके, अपच उत्पन्न करने, जितनी मात्रा खिलाते जाना दुलार लगता भले ही है, पर तत्वतः वह वैसा है नहीं।
मोह को सत्यानासी इसीलिए कहा गया है कि अमुक परिजनों के साथ अत्यधिक उदारता बरतने से उनकी आदतें बिगड़ती हैं। बिगड़ी आदतों को लेकर वे स्वयं दुःख पाते हैं और उन कृपालुओं को शाप देते हैं जिन्होंने अविवेकपूर्वक, अनावश्यक और अनुचित होने की बात का ध्यान न रखते हुए बेहिसाब लाड़- प्यार उलीचा।
ठीक इसी प्रकार कठोरता का पक्ष भी है। रूखा, कर्कश, कठोर, उपेक्षापूर्ण व्यवहार करने से परिजनों को भी असन्तोष रहता है। वे किसी ऐसे प्रभाव का अनुभव करते हैं जिसमें उनके अन्तःक्षेत्र में अतृप्ति बनी रहती है। कठोरता कारणवश अपनाई जा सकती है। रुखाई यदा- कदा अपनाई जा सकती है, किन्तु वह नीति के रूप में प्रयुक्त की जानी चाहिए और उथली दिखावटी होनी चाहिए। आत्मीयता एवं ममता की वास्तविकता इसमें है कि प्रियजनों की अनुपयुक्त इच्छा, चेष्टा एवं आदत को सुधारने, बदलने का भी प्रयास किया जाय। इस प्रयास में उत्पन्न हुई असहमति, मनोमालिन्य उत्पन्न करने तक आगे बढ़ सकती है। इस स्थिति से निपटने का उपाय तो ढूँढना चाहिए पर हारने और हथियार डालने के लिए तैयार नहीं होना चाहिए। वा. ४८/२.५८