Books - परिवार निर्माण
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Language: HINDI
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परिवार निर्माण के लिए मानसिक पोषण भी आवश्यक है
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शरीर को जब आहार की आवश्यकता होती है तो हमें भूख लग जाती है,
तब हम खाने के लिये आतुर हो उठते हैं, उसी प्रकार मन, मस्तिष्क
को भी भूख लगती है। उन्हें भी उस भूख को मिटाने के लिये आहार
चाहिए। यह भूख हर मनुष्य को लगती है। यह बात दूसरी है कि वह
उस भूख का अनुभव कर पाता हो या नहीं कर पाता हो। शारीरिक भूख
को मिटाने के लिये दूध, फल, रोटी, शाक, भात आदि आहार लिया जाता
है। उसी प्रकार मन- मस्तिष्क का आहार स्वाध्याय तथा सत्संग से
पूरा होता है। स्वाध्याय से तात्पर्य किसी पुस्तक को स्वयं पढ़ना
या दूसरे से पढ़वा
कर स्वयं सुनना। सत्संग से तात्पर्य है किसी विद्वान तथा
चरित्रवान व्यक्ति के अर्जित गुणों तथा अनुभवों का लाभ उनकी वाणी
तथा आचार- व्यवहार से प्राप्त करना।
जिन लोगों को इस बात का ज्ञान होता है कि हमारे शरीर को पोषण देने के लिये किस प्रकार का भोजन करना चाहिए। शरीर के लिये सभी आवश्यक तत्वों की पूर्ति करने वाला स्वच्छ तथा पवित्र और ईमानदारी से उपार्जित आहार ही हमारे शरीर को समुचित पोषण प्रदान करता है। यह जानने वाले व्यक्ति भोजन में इन सब बातों का ध्यान रखते हैं, किन्तु इनसे अनभिज्ञ व्यक्ति उनका ध्यान नहीं रखते, उन्हें तो पेट भरने से मतलब रहता है, शरीर तो अपनी माँग को पूरी कराके ही छोड़ता है।
अकाल की स्थिति में लोग अन्न के अभाव में जीवित रहने के लिये व भूख शांत करने के लिये वृक्षों के पत्ते, छाल तथा अन्य कई पदार्थ भी खा जाते हैं। इसी प्रकार यदि हम अपने मन- मस्तिष्क की भूख को अच्छे मानसिक खाद्य- उत्तम पुस्तकों व सत्संग के द्वारा पूरी नहीं करते तो वह इधर- उधर मुँह मारकर जो कुछ हाथ लगता है, उसे ही उदरस्थ कर लेता है और उसी के अनुरूप हमारे विचार व आदतें, व्यवहार आदि बन जाते हैं। वा. ४८/२.४०
आहार कैसा हो? इस सम्बन्ध में तो हम कुछ जानते भी हैं, सावधानी भी रखते हैं किन्तु मन और मस्तिष्क को कैसा आहार दिया जाय उसके सम्बन्ध में अभी तक अधिकांश लोग अनजान ही हैं। उन्हें तो यह भी पता नहीं है कि इन्हें भी भूख लगती है। जबकि ये तो शरीर से भी अधिक समर्थ व क्रियाशील रहने वाले हैं। इसलिये ये जो भी सामने आता है उसे खा लेने में पीछे नहीं रहते और उसका परिणाम यह होता है कि खराब व जहरीला भोजन करने से हमारा शरीर रोगी हो जाता है ठीक उसी प्रकार हमारा मन, मस्तिष्क भी विकारग्रस्त हो जाता है।
परिवार के मुखिया तथा समझदार सदस्यों पर यह दायित्व आ जाता है कि वे अपने तथा अपने परिवार के सदस्यों की मानसिक भूख को शांत करने का भी समुचित प्रबन्ध करें। भक्ष्याभक्ष्य का जो विवेक भोजन के सम्बन्ध में बरता जाता है वैसा ही स्वाध्याय तथा सत्संग के सम्बन्ध में बरता जाय। इसके लिये एक घण्टा या दो घण्टे का समय निश्चित कर देना चाहिए। इस समय भोजन की तरह अनिवार्य रूप से सभी को स्वाध्याय व सत्संग में आना ही चाहिए, ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिए। इस प्रकार की व्यवस्था नहीं बनती है तो परिवार के वे सदस्य जिन्हें यह पता नहीं लगता है कि मन, मस्तिष्क को भी भूख लगती है और उसे भी शुद्ध, पवित्र व पोषक आहार की आवश्यकता होती है तो वे अपनी अनजानी भूख को इधर- उधर तृप्त कर आते हैं।
हम अपने रोजमर्रा के जीवन में देखते हैं कि महिलाएँ अत्यधिक बातूनी होती हैं। इनकी बातों के विषय प्रायः एक दूसरे की निन्दा व टीका- टिप्पणी होती है। इसका मूल कारण यही मानसिक भूख तथा उसे गलत खाद्य मिलता रहना है। पहले महिलाओं की पढ़ाई पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता था, वे प्रायः अशिक्षित होती थीं। उन्हें पुरुष से नीचा माना जाता था, अतः पुरुषों की अपेक्षा उनके मानसिक पोषण पर कम ध्यान दिया जाता था। फिर भी भूख तो भूख ही है वह इधर- उधर की बातों में ही तृप्त होती रही। यह भूख कितनी प्रबल होती है उसका उदाहरण गाँवों के पुराने पनघटों पर देखने को मिल जाता है। ग्रामीण महिलाएँ सिर पर सेरों पानी का बोझ उठाये देर तक बातें करती रहती हैं। उन्हें उसका पता ही नहीं चलता। भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के समय कई स्वाध्यायशील नेताओं को जेल में पढ़ने के लिये पुस्तकें नहीं दी जाती थीं। इसके पीछे उनकी मानसिक भूख को अतृप्त रखने का ही उद्देश्य था। डॉ. राममनोहर लोहिया जब लाहौर की जेल में थे तो उन्हें महीनों तक पुस्तकों के दर्शन ही नहीं होते थे। यह उन जैसे अध्ययनशील व्यक्ति के लिए भोजन न देने से भी बड़ी सजा थी। परिवार के वे मुखिया जो परिवार वालों के भोजन, वस्त्र, मकान आदि शारीरिक आवश्यकताओं को पूरी करके ही अपने दायित्व की इतिश्री समझ लेते हैं वे अपने परिवार वालों को अनजाने में वैसी ही सजा देते हैं जैसी डॉ. लोहिया को साम्राज्यवादी विदेशी सरकार ने दी थी।
बच्चों के बढ़ते हुए शरीर को जिस प्रकार अधिक पोषक आहार वयस्कों से अधिक बार चाहिए जिससे कि उनके वृद्धिशील शरीर की आवश्यकताएँ पूरी होती रहें वे कुपोषण के शिकार न हों। इसी भूख के कारण वे दिन भर ‘भूख- भूख’ करते रहते हैं। इसी प्रकार उनके मन- मस्तिष्क को भूख लगती है। उसी के कारण वे अपने से बड़े सदस्यों से हरदम कोई न कोई प्रश्न पूछते रहते हैं। यह जिज्ञासा और कुछ नहीं उनके मन, मस्तिष्क की भूख ही होती है। जिस प्रकार कड़ी भूख लगने पर पौष्टिक आहार लेकर शरीर का बल व आकार- प्रकार, सौष्ठव किया जा सकता है उसी प्रकार बालकों को शारीरिक व मानसिक खाद्य मिलता रहे तो उनके भावी जीवन के प्रासाद की नींव सुदृढ़ हो जाती है। बालकों के मन में जो संस्कार इस काल में भरे जा सकते हैं वे बड़े हो जाने पर सम्भव नहीं हो सकते। वे अपनी जिज्ञासा की तृप्ति के लिये अपने माता- पिता से जो प्रश्न पूछते हैं उनका उत्तर यदि सावधानी व बुद्धिमत्ता पूर्वक दिया जा सके तो उनकी बहुत कुछ मानसिक क्षुधा तृप्त की जा सकती है। यही नहीं उनका बहुत कुछ शिक्षण भी इसके साथ किया जा सकता है।
इतने महत्वपूर्ण मानसिक पोषण की ओर आज तक अधिकांश परिवार के कर्त्ता ध्यान नहीं दे पाये, किन्तु इस ओर अब उन्हें ध्यान देना ही चाहिए। कुछ घण्टे पूरी तरह इसी प्रयोजन के लिये रखे जायें। यों तो जब भी समय मिले बातचीत के दौरान इस बात का ध्यान रखा जाय कि परिवार के सदस्यों के मन, मस्तिष्क को खुराक मिलती रहे।
परिवार में सभी सदस्यों के मानसिक विकास के लक्ष्य को पूरा करने वाली सुरुचिपूर्ण पत्र- पत्रिकाओं व साहित्य को बजट में स्थान मिलना चाहिए। शरीर की पुष्टि के लिये आहार के मद में जितनी राशि रखी जाती है उसका दशमांश तो इस मद में रखना ही चाहिए। शाम के समय जब भोजनादि से सब लोग निवृत्त हो जाते हैं तब मनोरंजन व स्वाध्याय दोनों उद्देश्यों को पूरा करने की गरज से शिक्षाप्रद कहानी कहने या कोई अच्छी शिक्षाप्रद पुस्तक पढ़ने का क्रम चलाना चाहिए। इसमें परिवार के सब सदस्यों का सहयोग रहे तो ज्ञान वृद्धि व जीवन निर्माण की दिशा में बहुत उपयोगी कदम हो सकता है।
बच्चों को तो कहानी सुनने में बड़ा ही रस आता है। उन्हें भूत- प्रेत व परियों की कहानियाँ न सुनाकर शिक्षाप्रद कहानियाँ तथा महापुरुषों के जीवन वृतान्त सुनाये जायें तो उनसे वे बहुत कुछ सीख सकते हैं। भय, रहस्य व कपोल- कल्पना पर आधारित कहानियाँ बच्चों के विकास में बाधक बनती हैं। महापुरुषों के जीवनवृत्त इसके लिये बहुत ही उपयुक्त हैं। वा. ४८/२.४१
जिन परिवारों में सब लोग पढ़े- लिखें हैं और उनकी वय तथा रुचियाँ भिन्न हैं तो वे अपनी पढ़ी हुई पुस्तक या पत्रिका की महत्वपूर्ण बातें इस समय सुना सकते हैं। इससे सभी का सभी विषयों में सामान्य ज्ञान बढ़ेगा। देश- विदेश के समाचारों तथा समाज में पनप रही विकृतियाँ व चल रही गतिविधियों पर चर्चा भी यहाँ हो सकती है। जिन परिवारों में पढ़े- लिखे व्यक्ति कम हैं तो वे पढ़े- लिखे व्यक्ति चाहे किसी वय के हों अपने परिवार के अन्य सदस्यों से वे सब बातें बताएँ जो दूसरों के लिए उपयोगी हैं और उसकी ज्ञान- वृद्धि के लिये आवश्यक हैं। माता- पिता को यदि पढ़ने- लिखने का अवसर नहीं मिला और वे अपने पुत्र, पुत्रियों को पढ़ाने में रुचि रखते हैं तो उनके अक्षर ज्ञान व पढ़ाई से लाभ उठाएँ, उनसे काम की पुस्तकें पढ़वाएँ या स्वयं पढ़ना सीख लें। जिनके पास जीवन का अनुभव है भले ही वे पढ़े- लिखे न हों तो उस अनुभव को पढ़े- लिखे लोग भी उनकी बातों के द्वारा पा सकते हैं। इस प्रकार यह पारस्परिक सहयोग का क्रम परिवार के समग्र विकास में बहुत सहायक होगा।
बिना रसोईघर के घर की कल्पना जिस प्रकार नहीं की जा सकती, उसी प्रकार बिना स्वाध्याय का क्रम चलाये परिवार की कल्पना भी आधी- अधूरी ही रहेगी। इस सत्य को जितना शीघ्र स्वीकार कर लिया जाय व वैसी व्यवस्था बनायी जाय, परिवार निर्माण की दिशा में यह महत्वपूर्ण कदम होगा।
वा. ४८/२.४२
अब गुरुकुल रहे नहीं- धर्मोपदेश के नाम पर निरर्थक बिडम्बनाएँ चलती और भ्रम फैलाती रहती हैं। जीवनोपयोगी शिक्षा के लिए घर के लोगों को किसी विद्यालय में पढ़ने भेजा जाय यह तो सम्भव नहीं। ऐसे सुयोग्य शिक्षक अपने घर में आकर रहने लगें, यह भी असम्भव है। फिर ऐसे सूक्ष्मदर्शी, प्रभावशाली लोग हैं भी कहाँ जो व्यक्ति की, समाज की वर्तमान समस्याओं का सही और सामयिक समाधान प्रस्तुत कर सकें। इन सब कठिनाइयों का समाधान घरेलू पुस्तकालय की स्थापना से ही सम्भव हो सकता है। जीवित या स्वर्गीय महामानवों की अति महत्वपूर्ण शिक्षा किसी भी समय कितनी ही देर तक प्राप्त करते रहने, उनके साथ सत्संग करते रहने का उपाय एक ही है कि इनके ग्रन्थों को ध्यानपूर्वक, श्रद्धापूर्वक पढ़ा जाय और यह मनन किया जाय कि उस कसौटी पर अपनी स्थिति कितनी खरी उतरती है? साथ ही यह भी मनन किया जाय कि उत्कृष्टता अपनाने के लिए क्या कुछ किया जा सकता है। वा. ४८/२.४३
परिवार निर्माण में कथा पुराणों का योगदान
परिवार के प्रत्येक सदस्य में यदि दूसरों के प्रति तप, त्याग और बलिदान की पवित्र भावना विद्यमान रहती है तो कोई कारण नहीं कि उस परिवार में स्वर्गीय जीवन की अनुभूति न होती हो। पुराणों ने इस कार्य को बड़ी तत्परता से किया है। पग- पग पर परिवार के हर सदस्य के दूसरों के प्रति आवश्यक कर्त्तव्यों का सुन्दरता से प्रतिपादन किया है। ऐसे आदर्श उदाहरण कथाओं के माध्यम से दिये गये हैं जो इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखने योग्य हैं और भारतवर्ष के अतिरिक्त अन्य किसी देश के इतिहास में ऐसे आदर्श उदाहरण देखने- सुनने को नहीं मिलते, तभी तो उन उच्च सिद्धन्तों के आदर्शों का प्रतिपादन करने वाले इन ग्रन्थों को विश्वव्यापी ख्याति प्राप्त है।
विदेशियों ने इन पर खोजें की हैं, विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ है। टिप्पणियाँ लिखी गई हैं, विस्तृत लेख लिखे गये हैं। कारण स्पष्ट है, पारिवारिक जीवन की जटिल समस्याओं को सुलभ रूप से सुलझा देना ही इनकी विशेषता है। पुराणों की कथाओं को अपना आदर्श मानने वाले परिवार में कभी कलह- क्लेश होना सम्भव नहीं है। आज्ञाकारी पुत्र के रूप में राम, श्रवणकुमार, भीष्म, नचिकेता आदि के उज्ज्वल उदाहरण हमारे सामने हैं। राम ने पिता की आज्ञा को मानकर राज्य का त्याग किया और १४ वर्षों तक वनों की भीषण कठिनाइयों को सहन किया, श्रवणकुमार ने अपने अन्धे माता- पिता को काँवर में बिठाकर तीर्थयात्रा कराई, भीष्म ने पिता की प्रसन्नता और अपने राज्याधिकार को तिलांजलि दी, पिता के दान करने पर नचिकेता प्रसन्नता से यमपुर गये। आज ऐसे पुत्र ढूँढ़े नहीं मिलते और माता- पिता के प्रति घोर उपेक्षा हो रही है।
भाई- भाई के आदर्श सम्बन्धों के लिए राम, लक्ष्मण और भरत के नाम सर्वप्रथम हमारे सामने आते हैं। एक दूसरे के प्रति त्याग की भावना से भ्रातृ- प्रेम जग पाया है। कौरव सदैव से पाण्डवों के विरोधी रहे थे, परन्तु जब यक्षों ने कौरवों को बन्दी बनाया तो युधिष्ठिर ने उन्हें छुड़वाया था। पुष्कर के दुर्व्यवहार को भुलाकर राजा नल ने अपने भाई को क्षमा कर दिया था। आज घर- घर में, भाई- भाई में कटुता दिखाई देती है, बँटवारे होते हैं। संघर्ष होते हैं, आपसी सम्बन्धों का विच्छेद होता है, साथ- साथ रहने की भावना धूमिल होती जा रही है।
पुराणों में वर्णित दाम्पत्य जीवन की कथाओं की पुनरावृत्ति सारे विश्व में सम्भव नहीं है। राजमहलों में भोग- विलास का जीवन व्यतीत करने वाली सीता अपने पति की कठिनाइयों को सरल करने के लिए घोर दुःखों को स्वयं निमन्त्रण देती है और उसी में अपना सौभाग्य मानती है। गान्धारी को जब पता चला कि उसके भावी पति प्रज्ञाचक्षु हैं तो उसने भी अपने नेत्रों पर पट्टी बाँध ली। उसने सोचा जब मेरे पतिदेव खुले नेत्रों से इस जड़ जगत को निहार नहीं सकते तो मुझे इसे देखने का कोई अधिकार नहीं है। सावित्री जानती थी कि वह एक वर्ष के बाद विधवा हो जायेगी। परन्तु एक बार उसने अपना पति वरण कर लिया तो वह जन्म- जन्मान्तरों के लिए उसका आराध्य हो गया। यमराज भी उसकी धारणा को बदलने में असफल रहे।
महासती अनुसूया, शैव्या, दमयन्ती, सुकन्या आदि के जीवन आज भी हमारे लिए आदर्श बने हुए हैं। वैज्ञानिक युग की पत्नी समानधिकार माँगती है और स्वतन्त्र जीवन व्यतीत करना चाहती है, वह किसी भी प्रकार के अंकुश के विरोध में है तभी ऐसी घिनौनी घटनाएँ सामने आ रही हैं, जिन पर मानवता रोती है और असुरता खिल- खिलाकर उपहास करती है।
पुराणों में मदालसा जैसी आदर्श माताओं के जीवन चरित्र विस्तार से दिये हैं, जिन्होंने अपने बच्चों को लोरियाँ सुनाते हुए आत्मज्ञान का उपदेश दिया है। ऐसी जागरूक माताएँ ही अपनी सन्तान का सच्चा पथ प्रदर्शन कर सकती हैं। आज की माताएँ अपने बच्चों को सुखी, भौतिक जीवन की तो शिक्षा दे सकती हैं। धर्म, सदाचार, संयम, आत्मज्ञान की शिक्षायें तो उनके लिए अनावश्यक मानी जाती हैं। सीता एक आदर्श बहू थी जिसने सास को अपनी माता समझकर उनकी हर आज्ञा का पालन किया। कौशल्या ने सीता को अपनी पुत्री समझकर उसे मातृत्व स्नेह प्रदान किया। व्यास ने अपने पुत्र शुकदेव को आत्मज्ञानी बनाया। बड़े होने पर जब स्वयं शिक्षा देना उचित नहीं समझा तो ब्रह्मज्ञानी राजा जनक के पास भेज दिया। वा. ४८/२.३७
पुराणकारों ने परिवार निर्माण की ओर विशेष ध्यान दिया है। परिवार निर्माण के अमूल्य सूत्रों को उन्होंने माला की तरह पिरो दिया है और तत्सम्बन्धी चरित्रों का चित्रण इस ढंग से किया है कि पाठक व श्रोता के मन में भाव तरंगे उछलने लगती हैं कि काश! मैं भी ऐसा ही उदाहरण प्रस्तुत कर सकता। पारिवारिक जीवन के आदर्शों को प्रेरित और प्रोत्साहित करने में पुराणकार बहुत अंशों में सफल हुए हैं। वा. ४८/२.३८
इस तथ्य को समझते हुए परिवार के छोटे- बड़े सभी सदस्यों के गुण- कर्म में शालीनता के समावेश का निरन्तर प्रयास होना चाहिए। इस कार्य में परिवार के वरिष्ठ एवं समझदार लोगों का विशेष उत्तरदायित्व है। श्रमशीलता, शिष्टता, मितव्ययिता, सुव्यवस्था एवं सहकारिता के पंचशीलों को पाँच देवों की तरह आराध्य मानने की बात हर एक के गले उतारनी चाहिए। उनकी महिमा एवं महत्ता विस्तार पूर्वक समझानी चाहिए। सीधे ऐसे परामर्श काम न करते हों, तो फिर दूसरा तरीका एक ही बच जाता है कि प्रगतिशील लोगों के जीवन चरित्रों, संस्मरणों के प्रेरक प्रसंग समय- समय पर सुनाते रहा जाय। अच्छा तो यह है कि रात्रि को अवकाश के समय घरेलू मनोरंजन की तरह कथा- कहानियाँ कहते रहने का क्रम चलाया जाय, यह तद्विषयक पुस्तकों के सहारे हो सकता है। घर में ऐसा साहित्य रहना ही चाहिए, जिसे पढ़ने- सुनने से उत्कर्ष की दिशाधारा का परिचय मिले। कहानियाँ स्वयं में एक अच्छा मनोरंजन हैं, उसमें लोकरुचि भी होती है। पुस्तक विक्रेताओं की दुकानों पर तीन- चौथाई, कथा- साहित्य मिलता है, क्योंकि माँग और बिक्री भी उसी की रहती है। वेद केवल चार बनकर ही समाप्त हो गये, पर पुराण अट्ठारह बने। इनमें से प्रत्येक का कलेवर इतना बड़ा है, जिसे वेदों- उपनिषदों की तुलना में कहीं अधिक विस्तार वाला देखा जा सकता है। यह कथा सुनने की लोकरुचि का प्रमाण है। वह छोटों से लेकर बूढ़ों तक को समान रूप से प्रिय होता है।
‘पंचतन्त्र’ ग्रन्थ के निर्माण की कथा प्रसिद्ध है। एक राजा के लड़के बड़े उजड्ड थे। पढ़ाने वाले किसी अध्यापक को टिकने न देते थे। पढ़ने- लिखने में तनिक भी रुचि नहीं लेते थे। राजा को चिन्ता हुई कि इनका भविष्य कैसे होगा? उसने घोषणा की, कि जो अध्यापक हमारे लड़कों को पढ़ाने और सुधारने में सफल होगा, उसे मुँह माँगा पुरस्कार दिया जायगा। कई विद्वान आये और हार मानकर वापस लौट गये। अन्त में एक विष्णु शर्मा नामक विद्वान आये, उन्होंने नया बीड़ा उठाया और नया तरीका अपनाया। वे मात्र कहानियाँ सुनाते थे। राजकुमारों को धीरे- धीरे इसमें दिलचस्पी बढ़ी और वे देर तक अध्यापक के पास बैठकर कहानियाँ सुनते रहते। वे कथायें बड़ी सारगर्भित होती थीं, उनमें जीवन विकास के तथ्यों का भरपूर समावेश रहता था। सुनने वाले लड़कों के मन में वे तथ्य भी उतरते गये। उन्हें अपने भविष्य और विकास के सम्बन्ध में सोचने का अवसर मिला। फलतः उनकी विचारधारा बदलती चली गयी। वे सही मार्ग समझने के साथ- साथ उस पर चलने भी लग गये। इस प्रकार कुछ ही दिन में उनकी समस्त गतिविधियाँ सन्तोषजनक एवं उत्साहवर्द्धक बन गयीं, पढ़ने- लिखने लगे। धीरे- धीरे ऐसे बन गये, जैसा कि राजा चाहता था। पंडित को मुँह माँगा पुरस्कार मिला और वह कथा ग्रन्थ ‘पंचतन्त्र’ के नाम से लोकप्रिय हुआ। वा. ४८/२.२०
शिल्प, संगीत, साहित्य, कला- कौशल अर्जित करने के लिए जिस प्रकार दीर्घकालीन और अनवरत अभ्यास करना पड़ता है। उसी प्रकार सद्गुणों को स्वभाव का अंग बनाने के लिए, उन्हें दैनिक जीवन में भरपूर स्थान देने के लिए प्रयत्नरत रहना पड़ता है। आदतें देर में पकती हैं, वे हथेली पर सरसों जमाने की तरह न तो तुर्त- फुर्त उपलब्ध होती हैं और न जमी हुई आदतों से पीछा छुड़ाना जल्दी से सम्भव हो पाता है, उन्हें योजनाबद्ध रूप से अपनाना और क्रमबद्ध रूप से व्यवहार में उतारना पड़ता है। परिवार के वरिष्ठों का ध्यान इसी केन्द्र पर केन्द्रित रहना चाहिए और उन्हें अपने परिजनों को सुसंस्कारी बनाने के लिए परिपूर्ण सतर्कता के साथ अनवरत प्रयत्न करना चाहिए। इस कार्य में अपना समय और परिश्रम लगाने में कृपणता नहीं बरतनी चाहिए। वा. ४८/२.२३
जिन लोगों को इस बात का ज्ञान होता है कि हमारे शरीर को पोषण देने के लिये किस प्रकार का भोजन करना चाहिए। शरीर के लिये सभी आवश्यक तत्वों की पूर्ति करने वाला स्वच्छ तथा पवित्र और ईमानदारी से उपार्जित आहार ही हमारे शरीर को समुचित पोषण प्रदान करता है। यह जानने वाले व्यक्ति भोजन में इन सब बातों का ध्यान रखते हैं, किन्तु इनसे अनभिज्ञ व्यक्ति उनका ध्यान नहीं रखते, उन्हें तो पेट भरने से मतलब रहता है, शरीर तो अपनी माँग को पूरी कराके ही छोड़ता है।
अकाल की स्थिति में लोग अन्न के अभाव में जीवित रहने के लिये व भूख शांत करने के लिये वृक्षों के पत्ते, छाल तथा अन्य कई पदार्थ भी खा जाते हैं। इसी प्रकार यदि हम अपने मन- मस्तिष्क की भूख को अच्छे मानसिक खाद्य- उत्तम पुस्तकों व सत्संग के द्वारा पूरी नहीं करते तो वह इधर- उधर मुँह मारकर जो कुछ हाथ लगता है, उसे ही उदरस्थ कर लेता है और उसी के अनुरूप हमारे विचार व आदतें, व्यवहार आदि बन जाते हैं। वा. ४८/२.४०
आहार कैसा हो? इस सम्बन्ध में तो हम कुछ जानते भी हैं, सावधानी भी रखते हैं किन्तु मन और मस्तिष्क को कैसा आहार दिया जाय उसके सम्बन्ध में अभी तक अधिकांश लोग अनजान ही हैं। उन्हें तो यह भी पता नहीं है कि इन्हें भी भूख लगती है। जबकि ये तो शरीर से भी अधिक समर्थ व क्रियाशील रहने वाले हैं। इसलिये ये जो भी सामने आता है उसे खा लेने में पीछे नहीं रहते और उसका परिणाम यह होता है कि खराब व जहरीला भोजन करने से हमारा शरीर रोगी हो जाता है ठीक उसी प्रकार हमारा मन, मस्तिष्क भी विकारग्रस्त हो जाता है।
परिवार के मुखिया तथा समझदार सदस्यों पर यह दायित्व आ जाता है कि वे अपने तथा अपने परिवार के सदस्यों की मानसिक भूख को शांत करने का भी समुचित प्रबन्ध करें। भक्ष्याभक्ष्य का जो विवेक भोजन के सम्बन्ध में बरता जाता है वैसा ही स्वाध्याय तथा सत्संग के सम्बन्ध में बरता जाय। इसके लिये एक घण्टा या दो घण्टे का समय निश्चित कर देना चाहिए। इस समय भोजन की तरह अनिवार्य रूप से सभी को स्वाध्याय व सत्संग में आना ही चाहिए, ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिए। इस प्रकार की व्यवस्था नहीं बनती है तो परिवार के वे सदस्य जिन्हें यह पता नहीं लगता है कि मन, मस्तिष्क को भी भूख लगती है और उसे भी शुद्ध, पवित्र व पोषक आहार की आवश्यकता होती है तो वे अपनी अनजानी भूख को इधर- उधर तृप्त कर आते हैं।
हम अपने रोजमर्रा के जीवन में देखते हैं कि महिलाएँ अत्यधिक बातूनी होती हैं। इनकी बातों के विषय प्रायः एक दूसरे की निन्दा व टीका- टिप्पणी होती है। इसका मूल कारण यही मानसिक भूख तथा उसे गलत खाद्य मिलता रहना है। पहले महिलाओं की पढ़ाई पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता था, वे प्रायः अशिक्षित होती थीं। उन्हें पुरुष से नीचा माना जाता था, अतः पुरुषों की अपेक्षा उनके मानसिक पोषण पर कम ध्यान दिया जाता था। फिर भी भूख तो भूख ही है वह इधर- उधर की बातों में ही तृप्त होती रही। यह भूख कितनी प्रबल होती है उसका उदाहरण गाँवों के पुराने पनघटों पर देखने को मिल जाता है। ग्रामीण महिलाएँ सिर पर सेरों पानी का बोझ उठाये देर तक बातें करती रहती हैं। उन्हें उसका पता ही नहीं चलता। भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के समय कई स्वाध्यायशील नेताओं को जेल में पढ़ने के लिये पुस्तकें नहीं दी जाती थीं। इसके पीछे उनकी मानसिक भूख को अतृप्त रखने का ही उद्देश्य था। डॉ. राममनोहर लोहिया जब लाहौर की जेल में थे तो उन्हें महीनों तक पुस्तकों के दर्शन ही नहीं होते थे। यह उन जैसे अध्ययनशील व्यक्ति के लिए भोजन न देने से भी बड़ी सजा थी। परिवार के वे मुखिया जो परिवार वालों के भोजन, वस्त्र, मकान आदि शारीरिक आवश्यकताओं को पूरी करके ही अपने दायित्व की इतिश्री समझ लेते हैं वे अपने परिवार वालों को अनजाने में वैसी ही सजा देते हैं जैसी डॉ. लोहिया को साम्राज्यवादी विदेशी सरकार ने दी थी।
बच्चों के बढ़ते हुए शरीर को जिस प्रकार अधिक पोषक आहार वयस्कों से अधिक बार चाहिए जिससे कि उनके वृद्धिशील शरीर की आवश्यकताएँ पूरी होती रहें वे कुपोषण के शिकार न हों। इसी भूख के कारण वे दिन भर ‘भूख- भूख’ करते रहते हैं। इसी प्रकार उनके मन- मस्तिष्क को भूख लगती है। उसी के कारण वे अपने से बड़े सदस्यों से हरदम कोई न कोई प्रश्न पूछते रहते हैं। यह जिज्ञासा और कुछ नहीं उनके मन, मस्तिष्क की भूख ही होती है। जिस प्रकार कड़ी भूख लगने पर पौष्टिक आहार लेकर शरीर का बल व आकार- प्रकार, सौष्ठव किया जा सकता है उसी प्रकार बालकों को शारीरिक व मानसिक खाद्य मिलता रहे तो उनके भावी जीवन के प्रासाद की नींव सुदृढ़ हो जाती है। बालकों के मन में जो संस्कार इस काल में भरे जा सकते हैं वे बड़े हो जाने पर सम्भव नहीं हो सकते। वे अपनी जिज्ञासा की तृप्ति के लिये अपने माता- पिता से जो प्रश्न पूछते हैं उनका उत्तर यदि सावधानी व बुद्धिमत्ता पूर्वक दिया जा सके तो उनकी बहुत कुछ मानसिक क्षुधा तृप्त की जा सकती है। यही नहीं उनका बहुत कुछ शिक्षण भी इसके साथ किया जा सकता है।
इतने महत्वपूर्ण मानसिक पोषण की ओर आज तक अधिकांश परिवार के कर्त्ता ध्यान नहीं दे पाये, किन्तु इस ओर अब उन्हें ध्यान देना ही चाहिए। कुछ घण्टे पूरी तरह इसी प्रयोजन के लिये रखे जायें। यों तो जब भी समय मिले बातचीत के दौरान इस बात का ध्यान रखा जाय कि परिवार के सदस्यों के मन, मस्तिष्क को खुराक मिलती रहे।
परिवार में सभी सदस्यों के मानसिक विकास के लक्ष्य को पूरा करने वाली सुरुचिपूर्ण पत्र- पत्रिकाओं व साहित्य को बजट में स्थान मिलना चाहिए। शरीर की पुष्टि के लिये आहार के मद में जितनी राशि रखी जाती है उसका दशमांश तो इस मद में रखना ही चाहिए। शाम के समय जब भोजनादि से सब लोग निवृत्त हो जाते हैं तब मनोरंजन व स्वाध्याय दोनों उद्देश्यों को पूरा करने की गरज से शिक्षाप्रद कहानी कहने या कोई अच्छी शिक्षाप्रद पुस्तक पढ़ने का क्रम चलाना चाहिए। इसमें परिवार के सब सदस्यों का सहयोग रहे तो ज्ञान वृद्धि व जीवन निर्माण की दिशा में बहुत उपयोगी कदम हो सकता है।
बच्चों को तो कहानी सुनने में बड़ा ही रस आता है। उन्हें भूत- प्रेत व परियों की कहानियाँ न सुनाकर शिक्षाप्रद कहानियाँ तथा महापुरुषों के जीवन वृतान्त सुनाये जायें तो उनसे वे बहुत कुछ सीख सकते हैं। भय, रहस्य व कपोल- कल्पना पर आधारित कहानियाँ बच्चों के विकास में बाधक बनती हैं। महापुरुषों के जीवनवृत्त इसके लिये बहुत ही उपयुक्त हैं। वा. ४८/२.४१
जिन परिवारों में सब लोग पढ़े- लिखें हैं और उनकी वय तथा रुचियाँ भिन्न हैं तो वे अपनी पढ़ी हुई पुस्तक या पत्रिका की महत्वपूर्ण बातें इस समय सुना सकते हैं। इससे सभी का सभी विषयों में सामान्य ज्ञान बढ़ेगा। देश- विदेश के समाचारों तथा समाज में पनप रही विकृतियाँ व चल रही गतिविधियों पर चर्चा भी यहाँ हो सकती है। जिन परिवारों में पढ़े- लिखे व्यक्ति कम हैं तो वे पढ़े- लिखे व्यक्ति चाहे किसी वय के हों अपने परिवार के अन्य सदस्यों से वे सब बातें बताएँ जो दूसरों के लिए उपयोगी हैं और उसकी ज्ञान- वृद्धि के लिये आवश्यक हैं। माता- पिता को यदि पढ़ने- लिखने का अवसर नहीं मिला और वे अपने पुत्र, पुत्रियों को पढ़ाने में रुचि रखते हैं तो उनके अक्षर ज्ञान व पढ़ाई से लाभ उठाएँ, उनसे काम की पुस्तकें पढ़वाएँ या स्वयं पढ़ना सीख लें। जिनके पास जीवन का अनुभव है भले ही वे पढ़े- लिखे न हों तो उस अनुभव को पढ़े- लिखे लोग भी उनकी बातों के द्वारा पा सकते हैं। इस प्रकार यह पारस्परिक सहयोग का क्रम परिवार के समग्र विकास में बहुत सहायक होगा।
बिना रसोईघर के घर की कल्पना जिस प्रकार नहीं की जा सकती, उसी प्रकार बिना स्वाध्याय का क्रम चलाये परिवार की कल्पना भी आधी- अधूरी ही रहेगी। इस सत्य को जितना शीघ्र स्वीकार कर लिया जाय व वैसी व्यवस्था बनायी जाय, परिवार निर्माण की दिशा में यह महत्वपूर्ण कदम होगा।
वा. ४८/२.४२
अब गुरुकुल रहे नहीं- धर्मोपदेश के नाम पर निरर्थक बिडम्बनाएँ चलती और भ्रम फैलाती रहती हैं। जीवनोपयोगी शिक्षा के लिए घर के लोगों को किसी विद्यालय में पढ़ने भेजा जाय यह तो सम्भव नहीं। ऐसे सुयोग्य शिक्षक अपने घर में आकर रहने लगें, यह भी असम्भव है। फिर ऐसे सूक्ष्मदर्शी, प्रभावशाली लोग हैं भी कहाँ जो व्यक्ति की, समाज की वर्तमान समस्याओं का सही और सामयिक समाधान प्रस्तुत कर सकें। इन सब कठिनाइयों का समाधान घरेलू पुस्तकालय की स्थापना से ही सम्भव हो सकता है। जीवित या स्वर्गीय महामानवों की अति महत्वपूर्ण शिक्षा किसी भी समय कितनी ही देर तक प्राप्त करते रहने, उनके साथ सत्संग करते रहने का उपाय एक ही है कि इनके ग्रन्थों को ध्यानपूर्वक, श्रद्धापूर्वक पढ़ा जाय और यह मनन किया जाय कि उस कसौटी पर अपनी स्थिति कितनी खरी उतरती है? साथ ही यह भी मनन किया जाय कि उत्कृष्टता अपनाने के लिए क्या कुछ किया जा सकता है। वा. ४८/२.४३
परिवार निर्माण में कथा पुराणों का योगदान
परिवार के प्रत्येक सदस्य में यदि दूसरों के प्रति तप, त्याग और बलिदान की पवित्र भावना विद्यमान रहती है तो कोई कारण नहीं कि उस परिवार में स्वर्गीय जीवन की अनुभूति न होती हो। पुराणों ने इस कार्य को बड़ी तत्परता से किया है। पग- पग पर परिवार के हर सदस्य के दूसरों के प्रति आवश्यक कर्त्तव्यों का सुन्दरता से प्रतिपादन किया है। ऐसे आदर्श उदाहरण कथाओं के माध्यम से दिये गये हैं जो इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखने योग्य हैं और भारतवर्ष के अतिरिक्त अन्य किसी देश के इतिहास में ऐसे आदर्श उदाहरण देखने- सुनने को नहीं मिलते, तभी तो उन उच्च सिद्धन्तों के आदर्शों का प्रतिपादन करने वाले इन ग्रन्थों को विश्वव्यापी ख्याति प्राप्त है।
विदेशियों ने इन पर खोजें की हैं, विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ है। टिप्पणियाँ लिखी गई हैं, विस्तृत लेख लिखे गये हैं। कारण स्पष्ट है, पारिवारिक जीवन की जटिल समस्याओं को सुलभ रूप से सुलझा देना ही इनकी विशेषता है। पुराणों की कथाओं को अपना आदर्श मानने वाले परिवार में कभी कलह- क्लेश होना सम्भव नहीं है। आज्ञाकारी पुत्र के रूप में राम, श्रवणकुमार, भीष्म, नचिकेता आदि के उज्ज्वल उदाहरण हमारे सामने हैं। राम ने पिता की आज्ञा को मानकर राज्य का त्याग किया और १४ वर्षों तक वनों की भीषण कठिनाइयों को सहन किया, श्रवणकुमार ने अपने अन्धे माता- पिता को काँवर में बिठाकर तीर्थयात्रा कराई, भीष्म ने पिता की प्रसन्नता और अपने राज्याधिकार को तिलांजलि दी, पिता के दान करने पर नचिकेता प्रसन्नता से यमपुर गये। आज ऐसे पुत्र ढूँढ़े नहीं मिलते और माता- पिता के प्रति घोर उपेक्षा हो रही है।
भाई- भाई के आदर्श सम्बन्धों के लिए राम, लक्ष्मण और भरत के नाम सर्वप्रथम हमारे सामने आते हैं। एक दूसरे के प्रति त्याग की भावना से भ्रातृ- प्रेम जग पाया है। कौरव सदैव से पाण्डवों के विरोधी रहे थे, परन्तु जब यक्षों ने कौरवों को बन्दी बनाया तो युधिष्ठिर ने उन्हें छुड़वाया था। पुष्कर के दुर्व्यवहार को भुलाकर राजा नल ने अपने भाई को क्षमा कर दिया था। आज घर- घर में, भाई- भाई में कटुता दिखाई देती है, बँटवारे होते हैं। संघर्ष होते हैं, आपसी सम्बन्धों का विच्छेद होता है, साथ- साथ रहने की भावना धूमिल होती जा रही है।
पुराणों में वर्णित दाम्पत्य जीवन की कथाओं की पुनरावृत्ति सारे विश्व में सम्भव नहीं है। राजमहलों में भोग- विलास का जीवन व्यतीत करने वाली सीता अपने पति की कठिनाइयों को सरल करने के लिए घोर दुःखों को स्वयं निमन्त्रण देती है और उसी में अपना सौभाग्य मानती है। गान्धारी को जब पता चला कि उसके भावी पति प्रज्ञाचक्षु हैं तो उसने भी अपने नेत्रों पर पट्टी बाँध ली। उसने सोचा जब मेरे पतिदेव खुले नेत्रों से इस जड़ जगत को निहार नहीं सकते तो मुझे इसे देखने का कोई अधिकार नहीं है। सावित्री जानती थी कि वह एक वर्ष के बाद विधवा हो जायेगी। परन्तु एक बार उसने अपना पति वरण कर लिया तो वह जन्म- जन्मान्तरों के लिए उसका आराध्य हो गया। यमराज भी उसकी धारणा को बदलने में असफल रहे।
महासती अनुसूया, शैव्या, दमयन्ती, सुकन्या आदि के जीवन आज भी हमारे लिए आदर्श बने हुए हैं। वैज्ञानिक युग की पत्नी समानधिकार माँगती है और स्वतन्त्र जीवन व्यतीत करना चाहती है, वह किसी भी प्रकार के अंकुश के विरोध में है तभी ऐसी घिनौनी घटनाएँ सामने आ रही हैं, जिन पर मानवता रोती है और असुरता खिल- खिलाकर उपहास करती है।
पुराणों में मदालसा जैसी आदर्श माताओं के जीवन चरित्र विस्तार से दिये हैं, जिन्होंने अपने बच्चों को लोरियाँ सुनाते हुए आत्मज्ञान का उपदेश दिया है। ऐसी जागरूक माताएँ ही अपनी सन्तान का सच्चा पथ प्रदर्शन कर सकती हैं। आज की माताएँ अपने बच्चों को सुखी, भौतिक जीवन की तो शिक्षा दे सकती हैं। धर्म, सदाचार, संयम, आत्मज्ञान की शिक्षायें तो उनके लिए अनावश्यक मानी जाती हैं। सीता एक आदर्श बहू थी जिसने सास को अपनी माता समझकर उनकी हर आज्ञा का पालन किया। कौशल्या ने सीता को अपनी पुत्री समझकर उसे मातृत्व स्नेह प्रदान किया। व्यास ने अपने पुत्र शुकदेव को आत्मज्ञानी बनाया। बड़े होने पर जब स्वयं शिक्षा देना उचित नहीं समझा तो ब्रह्मज्ञानी राजा जनक के पास भेज दिया। वा. ४८/२.३७
पुराणकारों ने परिवार निर्माण की ओर विशेष ध्यान दिया है। परिवार निर्माण के अमूल्य सूत्रों को उन्होंने माला की तरह पिरो दिया है और तत्सम्बन्धी चरित्रों का चित्रण इस ढंग से किया है कि पाठक व श्रोता के मन में भाव तरंगे उछलने लगती हैं कि काश! मैं भी ऐसा ही उदाहरण प्रस्तुत कर सकता। पारिवारिक जीवन के आदर्शों को प्रेरित और प्रोत्साहित करने में पुराणकार बहुत अंशों में सफल हुए हैं। वा. ४८/२.३८
इस तथ्य को समझते हुए परिवार के छोटे- बड़े सभी सदस्यों के गुण- कर्म में शालीनता के समावेश का निरन्तर प्रयास होना चाहिए। इस कार्य में परिवार के वरिष्ठ एवं समझदार लोगों का विशेष उत्तरदायित्व है। श्रमशीलता, शिष्टता, मितव्ययिता, सुव्यवस्था एवं सहकारिता के पंचशीलों को पाँच देवों की तरह आराध्य मानने की बात हर एक के गले उतारनी चाहिए। उनकी महिमा एवं महत्ता विस्तार पूर्वक समझानी चाहिए। सीधे ऐसे परामर्श काम न करते हों, तो फिर दूसरा तरीका एक ही बच जाता है कि प्रगतिशील लोगों के जीवन चरित्रों, संस्मरणों के प्रेरक प्रसंग समय- समय पर सुनाते रहा जाय। अच्छा तो यह है कि रात्रि को अवकाश के समय घरेलू मनोरंजन की तरह कथा- कहानियाँ कहते रहने का क्रम चलाया जाय, यह तद्विषयक पुस्तकों के सहारे हो सकता है। घर में ऐसा साहित्य रहना ही चाहिए, जिसे पढ़ने- सुनने से उत्कर्ष की दिशाधारा का परिचय मिले। कहानियाँ स्वयं में एक अच्छा मनोरंजन हैं, उसमें लोकरुचि भी होती है। पुस्तक विक्रेताओं की दुकानों पर तीन- चौथाई, कथा- साहित्य मिलता है, क्योंकि माँग और बिक्री भी उसी की रहती है। वेद केवल चार बनकर ही समाप्त हो गये, पर पुराण अट्ठारह बने। इनमें से प्रत्येक का कलेवर इतना बड़ा है, जिसे वेदों- उपनिषदों की तुलना में कहीं अधिक विस्तार वाला देखा जा सकता है। यह कथा सुनने की लोकरुचि का प्रमाण है। वह छोटों से लेकर बूढ़ों तक को समान रूप से प्रिय होता है।
‘पंचतन्त्र’ ग्रन्थ के निर्माण की कथा प्रसिद्ध है। एक राजा के लड़के बड़े उजड्ड थे। पढ़ाने वाले किसी अध्यापक को टिकने न देते थे। पढ़ने- लिखने में तनिक भी रुचि नहीं लेते थे। राजा को चिन्ता हुई कि इनका भविष्य कैसे होगा? उसने घोषणा की, कि जो अध्यापक हमारे लड़कों को पढ़ाने और सुधारने में सफल होगा, उसे मुँह माँगा पुरस्कार दिया जायगा। कई विद्वान आये और हार मानकर वापस लौट गये। अन्त में एक विष्णु शर्मा नामक विद्वान आये, उन्होंने नया बीड़ा उठाया और नया तरीका अपनाया। वे मात्र कहानियाँ सुनाते थे। राजकुमारों को धीरे- धीरे इसमें दिलचस्पी बढ़ी और वे देर तक अध्यापक के पास बैठकर कहानियाँ सुनते रहते। वे कथायें बड़ी सारगर्भित होती थीं, उनमें जीवन विकास के तथ्यों का भरपूर समावेश रहता था। सुनने वाले लड़कों के मन में वे तथ्य भी उतरते गये। उन्हें अपने भविष्य और विकास के सम्बन्ध में सोचने का अवसर मिला। फलतः उनकी विचारधारा बदलती चली गयी। वे सही मार्ग समझने के साथ- साथ उस पर चलने भी लग गये। इस प्रकार कुछ ही दिन में उनकी समस्त गतिविधियाँ सन्तोषजनक एवं उत्साहवर्द्धक बन गयीं, पढ़ने- लिखने लगे। धीरे- धीरे ऐसे बन गये, जैसा कि राजा चाहता था। पंडित को मुँह माँगा पुरस्कार मिला और वह कथा ग्रन्थ ‘पंचतन्त्र’ के नाम से लोकप्रिय हुआ। वा. ४८/२.२०
शिल्प, संगीत, साहित्य, कला- कौशल अर्जित करने के लिए जिस प्रकार दीर्घकालीन और अनवरत अभ्यास करना पड़ता है। उसी प्रकार सद्गुणों को स्वभाव का अंग बनाने के लिए, उन्हें दैनिक जीवन में भरपूर स्थान देने के लिए प्रयत्नरत रहना पड़ता है। आदतें देर में पकती हैं, वे हथेली पर सरसों जमाने की तरह न तो तुर्त- फुर्त उपलब्ध होती हैं और न जमी हुई आदतों से पीछा छुड़ाना जल्दी से सम्भव हो पाता है, उन्हें योजनाबद्ध रूप से अपनाना और क्रमबद्ध रूप से व्यवहार में उतारना पड़ता है। परिवार के वरिष्ठों का ध्यान इसी केन्द्र पर केन्द्रित रहना चाहिए और उन्हें अपने परिजनों को सुसंस्कारी बनाने के लिए परिपूर्ण सतर्कता के साथ अनवरत प्रयत्न करना चाहिए। इस कार्य में अपना समय और परिश्रम लगाने में कृपणता नहीं बरतनी चाहिए। वा. ४८/२.२३