Books - परिवार निर्माण
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Language: HINDI
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परिवार परम्परा का विराट् उद्देश्य : व्यक्तित्व निर्माण
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परिवार परम्परा को प्रोत्साहन करने में ऋषियों का मन्तव्य केवल
इतना ही नहीं रहा कि व्यक्ति एक से बहुत होकर रहे। दुःख तकलीफ
पड़ने पर उसका हाथ बँटाने वाला उसके साथ हो, व्यक्ति व्यवस्थित
रूप में स्थाई होकर रहे और परिजनों के साथ अधिक उल्लासपूर्ण
जीवनयापन करे। इस साधारण मन्तव्य के साथ उनका एक इससे कहीं ऊँचा
मन्तव्य भी रहा है, वह यह- कि परिवार के माध्यम से मनुष्य आत्म-
कल्याण की ओर भी अग्रसर हो। उसमें सामाजिकता, नागरिकता और सबसे
बड़ी बात- विश्व मानवता का कल्याणकारी भाव जागे। वह अपने जैसे अन्य
मनुष्यों के लिये त्याग, सहानुभूति सौहार्द्र
एवं आत्मीयता का अभ्यस्त हो सके। मनुष्य की संकीर्णता दूर होकर
उसकी आत्मा का व्यापक विकास हो, यही आत्म- कल्याण का राजमार्ग
है, मनुष्य दूसरे का दुःख- दर्द समझकर उसके साथ सहानुभूति रख सके,
उसकी सेवा- सुश्रूषा तथा सहायता करने को तत्पर रहे, यही आत्म-
उन्नति के लक्षण हैं। पारिवारिक जीवन में इन आध्यात्मिक गुणों के
विकास का पूरा- पूरा अवसर रहता है।
एक पिता जब वह बालक रहा होगा तब निश्चित ही आज की तुलना में अधिक संकीर्ण, अधिक स्वार्थी तथा अपने तक अधिक केन्द्रित रहा होगा। वह यही चाहता रहा होगा कि उसे सबसे अधिक और अच्छा खाने- पहनने को मिले, सबसे अधिक खर्च करने को मिले और सबसे अधिक सुख- सुविधा के साथ स्नेह- दुलार भी उसे ही मिले। अपनी इस स्वार्थ- भावना के वशीभूत वह दूसरों के हितों का ध्यान रखे बिना ही अपना हठ पूरा कराने का प्रयत्न करता रहा होगा। दूसरों के प्रति वह पूर्ण उदासीन रहा होगा। दूसरों के प्रति अनुदारता एवं कृपणता उसके स्वभाव के अंग रहे होंगे, किन्तु अनन्तर जब उसने विवाह किया होगा और उसकी एकान्तिक स्वार्थपरता एवं संकीर्णता में दरार पड़ गई होगी तो वह केवल अपने स्वार्थ के प्रति आग्रही न रहकर पत्नी की सुख- सुविधा, उसकी इच्छाओं एवं हँसी- खुशी के विषय में सोचने लगा होगा। एक चीज यदि अपने लिये लाता होगा तो एक पत्नी के लिये भी और इस प्रकार उसकी आत्मीयता की परिधि बढ़ गई होगी। उसका प्रेम, स्नेह एवं सहानुभूति अपने से बढ़कर दूसरे तक जा पहुँची होगी और वह अपने अतिरिक्त अपनी पत्नी का भी आत्मीय बन गया होगा। वा. ४८/१.३
आज जब वह अनेक बच्चों का पिता बन गया है तो उसका सारा जीवन ही, उसके परिवार का हो गया है। उसका अपना कुछ नहीं रहा है। कहने के लिये उसका जो कुछ है उसके बच्चों का है। न वह पूर्ववत् स्वार्थी है, न संकीर्ण और न अनुदार। उसमें त्याग, संतोष, सहानुभूति, संवेदना तथा आत्मीयता के गुण अपनेआप विकसित हो गये हैं। उसकी संकुचित आत्मा अनेक तक निःस्वार्थ भाव से विस्तृत हो गई है। यह आत्मिक विकास कैसे हुआ- पारिवारिक जीवन अपनाने से। यदि उसने पारिवारिक जीवन न अपनाया होता और उत्तरदायित्व न समझा होता, तो न तो उसकी आत्मा का विस्तार पत्नी तक होता और न बच्चों तक फैलता। वह यथावत् स्वार्थी एवं संकीर्ण बना हुआ पशुओं की तरह जड़ एवं अविकासशील जीवन बिता रहा होता। त्याग, सहानुभूति, संवेदना, स्नेह तथा अन्यों से आत्मीयता का क्या सुख होता है इस अनुभव से सदा- सर्वथा अनभिज्ञ रहता। यह पवित्र पारिवारिक जीवन का ही प्रभाव है कि उसकी आत्मा के संकीर्ण बन्धन शिथिल हुए और विस्तार हो सका। इसी प्रकार पत्नी से परिवार, परिवार से परिजनों, परिजनों से पार्श्वजनों और पार्श्वजनों से गुरुजनों में फैलती हुई उसकी आत्मीयता विश्व तक जा पहुँचे तो सहज ही एक- एक कड़ी करके उसकी आत्मा के बन्धन निःशेष हो जायें और वह मानव- जीवन का अन्तिम लक्ष्य मुक्ति अथवा मोक्ष की उपलब्धि कर ले। पारिवारिक जीवन एवं गृहस्थ आश्रम की व्यवस्था देने में ऋषियों का मुख्य उद्देश्य यही था- सांसारिक सुख- सुविधा तो स्वाभाविक एवं गौण थी। वा. ४८/१.४
हम परिवार तो बड़े शौक से बसा लेते हैं, किन्तु उसका उचित निर्माण नहीं करते। वह अपने आप स्वतंत्र रूप से कुशकंटकों की भाँति जिधर चाहता बढ़ता और विकसित होता चला जाता है। यदि किसी चतुर माली की तरह हम अपने परिवार को एक सुन्दर वाटिका मान कर उचित पालन और निर्माण करें तो निःसन्देह उसका एक- एक सदस्य खुशनुमा फूल की तरह गुणों की सुगन्ध से भर कर खिल उठे, जिससे न केवल परिवार को ही बल्कि अन्य लोगों को भी सुख की प्राप्ति हो। परिवार का निर्माण बच्चों के निर्माण से प्रारम्भ होता है। बच्चों का समुचित निर्माण तभी सम्भव है, जब हमारे उतने ही बच्चे हों जितनों का ठीक से पालन और देख- रेख की जा सके, जिनको शिक्षित और सुयोग्य बनाने के लिये हमारे पास साधन हों। परिस्थिति से परे अनावश्यक बच्चे पैदा करते जाने वाला गृहस्थ लाख प्रयत्न करने पर भी अपने परिवार का वांछित निर्माण नहीं कर सकता। जिस बोझ को उठाया ही नहीं जा सकता उसको लक्ष्य तक नहीं ले जाया जा सकता। इसलिए परिवार- निर्माण का मुख्य आधार छोटा तथा नियोजित परिवार ही मानकर चलना चाहिए। बच्चों को केवल भोजन- वस्त्र दे देना और उनकी शिक्षा के लिये प्रबन्ध कर देने मात्र से उनका निर्माण नहीं हो सकता। स्कूलों में बच्चों को केवल पुस्तकीय शिक्षा ही मिल पाती है। आचरण की शिक्षा, गुण, कर्म तथा स्वभाव की शिक्षा जो उनके निर्माण के लिए अत्यावश्यक है, वह आज के शिक्षालयों में नहीं मिलती है। वा. ४८/१.९
वातावरण का मनुष्य पर प्रभाव
यह सही है कि मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है और मनःस्थिति के आधार पर परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं, पर इसी तथ्य के साथ जुड़ी हुई सच्चाई यह भी है कि वातावरण का मनुष्य का व्यक्तित्व ढालने में बहुत बड़ा योगदान रहता है। जैसे वातावरण और सम्पर्क में रहने का अवसर मिलता है, सामान्य व्यक्ति उसी ढाँचे में ढलने लगता है। आदर्शों के प्रति आस्था सघन हो और अवांछनीयता को अस्वीकार करने का मनोबल हो तो बाहरी आकर्षणों और दबावों को निरस्त भी किया जा सकता है, किन्तु ऐसे मनस्वी कम ही होते हैं। अपने भाग्य का निर्माण स्वयं करने की बात में जितनी सच्चाई है, उतनी इस बात में भी है कि सशक्त वातावरण अपने दबाव में अनेक को अपने साथ घसीटता ले चलता है। आँधी के साथ पत्ते, तिनके और धूलिकण जैसे हलके पदार्थ सहज ही उड़ने लगते हैं। आँधी जिस दिशा में भी चलती है इन हलके पदार्थों के साथ उड़ने की दिशा एवं गति भी प्रायः वैसी ही बन जाती है। वातावरण के सम्बन्ध में यही बात भली प्रकार कही जा सकती है। व्यक्तिगत प्रशिक्षण की जितनी आवश्यकता है, उतनी ही इस बात की है कि पारिवारिक एवं सामाजिक वातावरण ऐसा बनाया जाय, जिसके प्रभाव से श्रेष्ठतासम्पन्न प्रतिभाएँ ढलने, उभरने लगें। बुरा वातावरण यदि मनुष्य को दुर्गति के गर्त में धकेल सकता है तो कोई कारण नहीं कि उसी अवलम्बन उत्कर्ष का पथ प्रशस्त न हो सके। वा. ४८/१.७७
भारतीय समाज में परिवार- प्रणाली आदि- काल से अपना अस्तित्व बनाये चली आ रही है। हाँ, यह बात अवश्य है कि समय के परिवर्तन के साथ- साथ परिवार प्रणाली में भी अनेक परिवर्तन होते आये हैं। परिवार मानव जीवन के विकास की प्रथम पाठशाला, संस्था, प्रणाली, प्रयोगशाला आदि कहा जाता है। बालक जब अपनी माँ के गर्भ में होता है, तभी से उसका परिवार में विकास- क्रम प्रारम्भ हो जाता है।
परिवार का निर्माण तभी हो सकता है, जब हम पहले व्यक्ति निर्माण करें। जब बालक का जन्म होता है, तभी से हमें उसके विकास की ओर ध्यान देना चाहिए। इसके पूर्व हमारे लिए भी यह आवश्यक है कि हम कोई ऐसा आचरण नहीं करें, जिससे बालक पर उसका गलत प्रभाव पड़े। जब बालक जन्म लेता है तो सबसे पहले उसके स्वास्थ्य संरक्षण और बलवर्द्धन की लाभप्रद प्रक्रियाएँ अपनाएँ। माँ का कर्त्तव्य होता है कि वह बच्चे को उचित समय पर दूध पिलाये, टट्टी करने पर उसकी सफाई आदि करे। आवश्यकतानुसार स्नान करवाये एवं उसे अधिक से अधिक आराम देने का प्रयत्न करे। जब बालक लगभग एक- डेढ़ वर्ष का हो जाता है तो उसमें अनुकरण करने की प्रवृत्ति का उदय होता है। यह समय उसके उचित विकास का होता है। इस समय परिवार के प्रत्येक सदस्य को ध्यान रखना चाहिए कि कोई ऐसा व्यवहार अथवा आचरण न करें, जिसका बालक अनुकरण करे और आगे चलकर इसका उस पर गलत प्रभाव पड़े। धीरे- धीरे बालक अनुकरण की प्रवृत्ति से जब थोड़ा- थोड़ा बोलना, चलना सीख लेता है तो वह परिवार के लोगों को अपना समझने लगता है। माँ, बाप, भाई, बहिन आदि सम्बोधन करने लगता है। परिवार के सदस्यों के आचरणों की नकल करने लगता है। तरह- तरह के प्रश्न करने लगता है। यह समय विशेष सावधानी का है। ऐसे समय में बालक को उचित उत्तर व संस्कारों की शिक्षा देना चाहिए। इस समय उसकी उम्र लगभग ४- ५ साल की हो सकती है। अतः परिवार में सुबह से रात तक ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए, जिससे कि बालक में सद्गुणों का विकास हो। हम घर को साफ- सुथरा रखने का प्रयास करें। घर के काम- काज अपने हाथों से करें। ऐसा करते देख बालक भी घर के कार्य करने में रुचि लेगा। परिवार के सदस्य प्रार्थना, पूजा, शिष्टाचार करें तो बालक में भी अनुकरण की प्रवृत्ति से इन गुणों का विकास हो सकता है।
अभिभावकों का कर्त्तव्य है कि अपने बच्चों के लालन- पालन का, खिलाने- पिलाने का, लाड़- प्यार का, सुख- सुविधा एवं पढ़ाई- लिखाई आदि का वह अवश्य ही ध्यान रखें। इतना ही नहीं वह अपने बच्चों को सभ्य और सद्गुणी बनाये। यदि बालक में अच्छी आदतों का, सत्प्रवृत्तियों का एवं सद्भावनाओं का समुचित विकास नहीं किया गया तो वह सदा दुःखी ही रहेगा। जो अभिभावक अपने बच्चों को सचमुच सुखी बनाना चाहते हों, उनके भविष्य को उज्ज्वल बनाना चाहते हों तो वे अपने बच्चों को सद्गुणी बनावें। परिवार में बालक जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त अपना जीवन- निर्वाह करता है। अतः परिवार व अपने को सुखी बनाने के लिए सद्गुणों को अपनाना होगा। सद्गुणों की पूँजी पहले हमें अपने स्वभाव में संचित करनी होगी, पहले हमें सद्गुणी बनना होगा, तब हम बच्चों को सद्गुणी बना सकते हैं। यदि हम ऐसा नहीं करते तो बच्चों को अच्छा बनाने की बात सोचना व्यर्थ है। वा. ४८/२.११२
परिवार के साथ आत्मनिर्माण का दुहरा लाभ
बाल्यावस्था में मनुष्य की संकीर्णता एवं स्वार्थपरता का अनगढ़ रूप स्पष्ट रहता है। वह यही चाहता है कि सबसे अच्छा और सबसे अधिक खाने, पहनने को उसी को मिले, खर्च करने को मनचाहे पैसे, अधिकाधिक सुख- सुविधाएँ और सबका स्नेह- दुलार उसे ही मिले। अपने इन निहित संकीर्ण स्वार्थों की पूर्ति के लिये हठ करने में उसे न तो संकोच होता है, न ही लज्जा आती है। दूसरों के प्रति उसमें उतनी ही दिलचस्पी होती है, जितने अंश तक वे उनके इन छोटे- छोटे स्वार्थों की पूर्ति में सहायक होते हैं। अन्य मामलों में उदासीनता का ही भाव उसमें होता है। वा. ४८/२.७४
धीरे- धीरे उसका यह आत्मभाव विकसित होता है। त्याग, सहानुभूति, संवेदना और आत्मीयता से उत्पन्न सुख की भी उसे जानकारी होती है। भाई- बहिन, माता- पिता, पत्नी और बच्चों के प्रति उसका आत्मभाव फैलता जाता है। परिवार- जनों से बढ़ते- बढ़ते यह आत्मीयता पुरजनों, देशजनों तक बढ़ती हुई मानव- मात्र एवं प्राणिमात्र के प्रति विस्तृत होती जाती है। विस्तार का यह स्वरूप भौतिक आवश्यकताओं के क्षेत्र में नहीं देखा जाता। भौतिक आवश्यकताओं के स्वरूप में इतना अधिक अन्तर नहीं आता। इससे भी यही स्पष्ट होता है कि मनुष्य की संरचना में भौतिक आवश्यकताओं से कई गुना अधिक स्थान बौद्धिक, भावनात्मक एवं आध्यात्मिक आवश्यकताओं का है। उनकी पूर्ति के लिये वांछित गुणों एवं सामर्थ्य का प्रशिक्षण भी परिवार में ही होता है। परिवार- व्यवस्था आत्मोन्नति का एक प्राकृतिक, स्वाभाविक एवं सर्वसुलभ माध्यम है। बशर्ते उसके पीछे क्रियाशील दर्शन को समझा जाय। उसे स्वार्थों की खींचतान का कुरुक्षेत्र न बनने दिया जाय, अपितु उन सत्प्रवृत्तियों के विकास का साधना- स्थल बनाया जाये, जो जीवन को सार्थक बनाती हैं। वा. ४८/२.७५
एक पिता जब वह बालक रहा होगा तब निश्चित ही आज की तुलना में अधिक संकीर्ण, अधिक स्वार्थी तथा अपने तक अधिक केन्द्रित रहा होगा। वह यही चाहता रहा होगा कि उसे सबसे अधिक और अच्छा खाने- पहनने को मिले, सबसे अधिक खर्च करने को मिले और सबसे अधिक सुख- सुविधा के साथ स्नेह- दुलार भी उसे ही मिले। अपनी इस स्वार्थ- भावना के वशीभूत वह दूसरों के हितों का ध्यान रखे बिना ही अपना हठ पूरा कराने का प्रयत्न करता रहा होगा। दूसरों के प्रति वह पूर्ण उदासीन रहा होगा। दूसरों के प्रति अनुदारता एवं कृपणता उसके स्वभाव के अंग रहे होंगे, किन्तु अनन्तर जब उसने विवाह किया होगा और उसकी एकान्तिक स्वार्थपरता एवं संकीर्णता में दरार पड़ गई होगी तो वह केवल अपने स्वार्थ के प्रति आग्रही न रहकर पत्नी की सुख- सुविधा, उसकी इच्छाओं एवं हँसी- खुशी के विषय में सोचने लगा होगा। एक चीज यदि अपने लिये लाता होगा तो एक पत्नी के लिये भी और इस प्रकार उसकी आत्मीयता की परिधि बढ़ गई होगी। उसका प्रेम, स्नेह एवं सहानुभूति अपने से बढ़कर दूसरे तक जा पहुँची होगी और वह अपने अतिरिक्त अपनी पत्नी का भी आत्मीय बन गया होगा। वा. ४८/१.३
आज जब वह अनेक बच्चों का पिता बन गया है तो उसका सारा जीवन ही, उसके परिवार का हो गया है। उसका अपना कुछ नहीं रहा है। कहने के लिये उसका जो कुछ है उसके बच्चों का है। न वह पूर्ववत् स्वार्थी है, न संकीर्ण और न अनुदार। उसमें त्याग, संतोष, सहानुभूति, संवेदना तथा आत्मीयता के गुण अपनेआप विकसित हो गये हैं। उसकी संकुचित आत्मा अनेक तक निःस्वार्थ भाव से विस्तृत हो गई है। यह आत्मिक विकास कैसे हुआ- पारिवारिक जीवन अपनाने से। यदि उसने पारिवारिक जीवन न अपनाया होता और उत्तरदायित्व न समझा होता, तो न तो उसकी आत्मा का विस्तार पत्नी तक होता और न बच्चों तक फैलता। वह यथावत् स्वार्थी एवं संकीर्ण बना हुआ पशुओं की तरह जड़ एवं अविकासशील जीवन बिता रहा होता। त्याग, सहानुभूति, संवेदना, स्नेह तथा अन्यों से आत्मीयता का क्या सुख होता है इस अनुभव से सदा- सर्वथा अनभिज्ञ रहता। यह पवित्र पारिवारिक जीवन का ही प्रभाव है कि उसकी आत्मा के संकीर्ण बन्धन शिथिल हुए और विस्तार हो सका। इसी प्रकार पत्नी से परिवार, परिवार से परिजनों, परिजनों से पार्श्वजनों और पार्श्वजनों से गुरुजनों में फैलती हुई उसकी आत्मीयता विश्व तक जा पहुँचे तो सहज ही एक- एक कड़ी करके उसकी आत्मा के बन्धन निःशेष हो जायें और वह मानव- जीवन का अन्तिम लक्ष्य मुक्ति अथवा मोक्ष की उपलब्धि कर ले। पारिवारिक जीवन एवं गृहस्थ आश्रम की व्यवस्था देने में ऋषियों का मुख्य उद्देश्य यही था- सांसारिक सुख- सुविधा तो स्वाभाविक एवं गौण थी। वा. ४८/१.४
हम परिवार तो बड़े शौक से बसा लेते हैं, किन्तु उसका उचित निर्माण नहीं करते। वह अपने आप स्वतंत्र रूप से कुशकंटकों की भाँति जिधर चाहता बढ़ता और विकसित होता चला जाता है। यदि किसी चतुर माली की तरह हम अपने परिवार को एक सुन्दर वाटिका मान कर उचित पालन और निर्माण करें तो निःसन्देह उसका एक- एक सदस्य खुशनुमा फूल की तरह गुणों की सुगन्ध से भर कर खिल उठे, जिससे न केवल परिवार को ही बल्कि अन्य लोगों को भी सुख की प्राप्ति हो। परिवार का निर्माण बच्चों के निर्माण से प्रारम्भ होता है। बच्चों का समुचित निर्माण तभी सम्भव है, जब हमारे उतने ही बच्चे हों जितनों का ठीक से पालन और देख- रेख की जा सके, जिनको शिक्षित और सुयोग्य बनाने के लिये हमारे पास साधन हों। परिस्थिति से परे अनावश्यक बच्चे पैदा करते जाने वाला गृहस्थ लाख प्रयत्न करने पर भी अपने परिवार का वांछित निर्माण नहीं कर सकता। जिस बोझ को उठाया ही नहीं जा सकता उसको लक्ष्य तक नहीं ले जाया जा सकता। इसलिए परिवार- निर्माण का मुख्य आधार छोटा तथा नियोजित परिवार ही मानकर चलना चाहिए। बच्चों को केवल भोजन- वस्त्र दे देना और उनकी शिक्षा के लिये प्रबन्ध कर देने मात्र से उनका निर्माण नहीं हो सकता। स्कूलों में बच्चों को केवल पुस्तकीय शिक्षा ही मिल पाती है। आचरण की शिक्षा, गुण, कर्म तथा स्वभाव की शिक्षा जो उनके निर्माण के लिए अत्यावश्यक है, वह आज के शिक्षालयों में नहीं मिलती है। वा. ४८/१.९
वातावरण का मनुष्य पर प्रभाव
यह सही है कि मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है और मनःस्थिति के आधार पर परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं, पर इसी तथ्य के साथ जुड़ी हुई सच्चाई यह भी है कि वातावरण का मनुष्य का व्यक्तित्व ढालने में बहुत बड़ा योगदान रहता है। जैसे वातावरण और सम्पर्क में रहने का अवसर मिलता है, सामान्य व्यक्ति उसी ढाँचे में ढलने लगता है। आदर्शों के प्रति आस्था सघन हो और अवांछनीयता को अस्वीकार करने का मनोबल हो तो बाहरी आकर्षणों और दबावों को निरस्त भी किया जा सकता है, किन्तु ऐसे मनस्वी कम ही होते हैं। अपने भाग्य का निर्माण स्वयं करने की बात में जितनी सच्चाई है, उतनी इस बात में भी है कि सशक्त वातावरण अपने दबाव में अनेक को अपने साथ घसीटता ले चलता है। आँधी के साथ पत्ते, तिनके और धूलिकण जैसे हलके पदार्थ सहज ही उड़ने लगते हैं। आँधी जिस दिशा में भी चलती है इन हलके पदार्थों के साथ उड़ने की दिशा एवं गति भी प्रायः वैसी ही बन जाती है। वातावरण के सम्बन्ध में यही बात भली प्रकार कही जा सकती है। व्यक्तिगत प्रशिक्षण की जितनी आवश्यकता है, उतनी ही इस बात की है कि पारिवारिक एवं सामाजिक वातावरण ऐसा बनाया जाय, जिसके प्रभाव से श्रेष्ठतासम्पन्न प्रतिभाएँ ढलने, उभरने लगें। बुरा वातावरण यदि मनुष्य को दुर्गति के गर्त में धकेल सकता है तो कोई कारण नहीं कि उसी अवलम्बन उत्कर्ष का पथ प्रशस्त न हो सके। वा. ४८/१.७७
भारतीय समाज में परिवार- प्रणाली आदि- काल से अपना अस्तित्व बनाये चली आ रही है। हाँ, यह बात अवश्य है कि समय के परिवर्तन के साथ- साथ परिवार प्रणाली में भी अनेक परिवर्तन होते आये हैं। परिवार मानव जीवन के विकास की प्रथम पाठशाला, संस्था, प्रणाली, प्रयोगशाला आदि कहा जाता है। बालक जब अपनी माँ के गर्भ में होता है, तभी से उसका परिवार में विकास- क्रम प्रारम्भ हो जाता है।
परिवार का निर्माण तभी हो सकता है, जब हम पहले व्यक्ति निर्माण करें। जब बालक का जन्म होता है, तभी से हमें उसके विकास की ओर ध्यान देना चाहिए। इसके पूर्व हमारे लिए भी यह आवश्यक है कि हम कोई ऐसा आचरण नहीं करें, जिससे बालक पर उसका गलत प्रभाव पड़े। जब बालक जन्म लेता है तो सबसे पहले उसके स्वास्थ्य संरक्षण और बलवर्द्धन की लाभप्रद प्रक्रियाएँ अपनाएँ। माँ का कर्त्तव्य होता है कि वह बच्चे को उचित समय पर दूध पिलाये, टट्टी करने पर उसकी सफाई आदि करे। आवश्यकतानुसार स्नान करवाये एवं उसे अधिक से अधिक आराम देने का प्रयत्न करे। जब बालक लगभग एक- डेढ़ वर्ष का हो जाता है तो उसमें अनुकरण करने की प्रवृत्ति का उदय होता है। यह समय उसके उचित विकास का होता है। इस समय परिवार के प्रत्येक सदस्य को ध्यान रखना चाहिए कि कोई ऐसा व्यवहार अथवा आचरण न करें, जिसका बालक अनुकरण करे और आगे चलकर इसका उस पर गलत प्रभाव पड़े। धीरे- धीरे बालक अनुकरण की प्रवृत्ति से जब थोड़ा- थोड़ा बोलना, चलना सीख लेता है तो वह परिवार के लोगों को अपना समझने लगता है। माँ, बाप, भाई, बहिन आदि सम्बोधन करने लगता है। परिवार के सदस्यों के आचरणों की नकल करने लगता है। तरह- तरह के प्रश्न करने लगता है। यह समय विशेष सावधानी का है। ऐसे समय में बालक को उचित उत्तर व संस्कारों की शिक्षा देना चाहिए। इस समय उसकी उम्र लगभग ४- ५ साल की हो सकती है। अतः परिवार में सुबह से रात तक ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए, जिससे कि बालक में सद्गुणों का विकास हो। हम घर को साफ- सुथरा रखने का प्रयास करें। घर के काम- काज अपने हाथों से करें। ऐसा करते देख बालक भी घर के कार्य करने में रुचि लेगा। परिवार के सदस्य प्रार्थना, पूजा, शिष्टाचार करें तो बालक में भी अनुकरण की प्रवृत्ति से इन गुणों का विकास हो सकता है।
अभिभावकों का कर्त्तव्य है कि अपने बच्चों के लालन- पालन का, खिलाने- पिलाने का, लाड़- प्यार का, सुख- सुविधा एवं पढ़ाई- लिखाई आदि का वह अवश्य ही ध्यान रखें। इतना ही नहीं वह अपने बच्चों को सभ्य और सद्गुणी बनाये। यदि बालक में अच्छी आदतों का, सत्प्रवृत्तियों का एवं सद्भावनाओं का समुचित विकास नहीं किया गया तो वह सदा दुःखी ही रहेगा। जो अभिभावक अपने बच्चों को सचमुच सुखी बनाना चाहते हों, उनके भविष्य को उज्ज्वल बनाना चाहते हों तो वे अपने बच्चों को सद्गुणी बनावें। परिवार में बालक जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त अपना जीवन- निर्वाह करता है। अतः परिवार व अपने को सुखी बनाने के लिए सद्गुणों को अपनाना होगा। सद्गुणों की पूँजी पहले हमें अपने स्वभाव में संचित करनी होगी, पहले हमें सद्गुणी बनना होगा, तब हम बच्चों को सद्गुणी बना सकते हैं। यदि हम ऐसा नहीं करते तो बच्चों को अच्छा बनाने की बात सोचना व्यर्थ है। वा. ४८/२.११२
परिवार के साथ आत्मनिर्माण का दुहरा लाभ
बाल्यावस्था में मनुष्य की संकीर्णता एवं स्वार्थपरता का अनगढ़ रूप स्पष्ट रहता है। वह यही चाहता है कि सबसे अच्छा और सबसे अधिक खाने, पहनने को उसी को मिले, खर्च करने को मनचाहे पैसे, अधिकाधिक सुख- सुविधाएँ और सबका स्नेह- दुलार उसे ही मिले। अपने इन निहित संकीर्ण स्वार्थों की पूर्ति के लिये हठ करने में उसे न तो संकोच होता है, न ही लज्जा आती है। दूसरों के प्रति उसमें उतनी ही दिलचस्पी होती है, जितने अंश तक वे उनके इन छोटे- छोटे स्वार्थों की पूर्ति में सहायक होते हैं। अन्य मामलों में उदासीनता का ही भाव उसमें होता है। वा. ४८/२.७४
धीरे- धीरे उसका यह आत्मभाव विकसित होता है। त्याग, सहानुभूति, संवेदना और आत्मीयता से उत्पन्न सुख की भी उसे जानकारी होती है। भाई- बहिन, माता- पिता, पत्नी और बच्चों के प्रति उसका आत्मभाव फैलता जाता है। परिवार- जनों से बढ़ते- बढ़ते यह आत्मीयता पुरजनों, देशजनों तक बढ़ती हुई मानव- मात्र एवं प्राणिमात्र के प्रति विस्तृत होती जाती है। विस्तार का यह स्वरूप भौतिक आवश्यकताओं के क्षेत्र में नहीं देखा जाता। भौतिक आवश्यकताओं के स्वरूप में इतना अधिक अन्तर नहीं आता। इससे भी यही स्पष्ट होता है कि मनुष्य की संरचना में भौतिक आवश्यकताओं से कई गुना अधिक स्थान बौद्धिक, भावनात्मक एवं आध्यात्मिक आवश्यकताओं का है। उनकी पूर्ति के लिये वांछित गुणों एवं सामर्थ्य का प्रशिक्षण भी परिवार में ही होता है। परिवार- व्यवस्था आत्मोन्नति का एक प्राकृतिक, स्वाभाविक एवं सर्वसुलभ माध्यम है। बशर्ते उसके पीछे क्रियाशील दर्शन को समझा जाय। उसे स्वार्थों की खींचतान का कुरुक्षेत्र न बनने दिया जाय, अपितु उन सत्प्रवृत्तियों के विकास का साधना- स्थल बनाया जाये, जो जीवन को सार्थक बनाती हैं। वा. ४८/२.७५