Books - परिवार निर्माण
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Language: HINDI
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व्यक्ति, परिवार और समाज निर्माण के लिए त्रिविध आयोजन
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महिला शाखाओं का एकमात्र कार्य यह है कि परिवार निर्माण योजना
द्वारा निर्धारित कार्यक्रमों को गतिशील करना और उसका नेतृत्व कर
सकने योग्य समर्थ महिलाओं की संख्या बढ़ाना। आधी जनसंख्या महिलाओं
की है और परिवार संस्था से शत- प्रतिशत मनुष्यों का सम्बन्ध है।
पूरी अथवा आधी मनुष्य जाति के वर्तमान और भविष्य का जिससे सीधा
सम्बन्ध हो, वह अभियान संसार का भाग्य विधायक ही समझा जा सकता
है। इतने बड़े काम को हाथ में लेने वाले, इतना बड़ा उत्तरदायित्व
संभालने वाले अभियान को हर दृष्टि से महान ही कहा जा सकता है।
युग परिर्वतन
की सम्भावना सच्चे अर्थों में इसी पर निर्भर है। जो इसे
अग्रगामी बनाने के लिए कार्यक्षेत्र में उतरते हैं उनकी
दूरदर्शिता और उदारता को जितना सराहा जाय उतना ही कम है। वा. ४८/२.१०७
इस आन्दोलन के लिए बड़े सभा- सम्मेलनों की या बहुत बड़े प्रचार तन्त्र की आवश्यकता नहीं है। कुटीर उद्योग के स्तर पर ही इसे घर- घर पहुँचाने और आँगन- आँगन में उगाने की आवश्यकता है। इसके लिये प्रधान उपाय उपचार हैं- परिवार गोष्ठियों की व्यवस्था, हर्षोत्सवों के रूप में नियोजित भावभरे आयोजन इस प्रयोजन के लिए सबसे अधिक उपयुक्त हो सकते हैं। घर- परिवार, पड़ौस, रिश्ते की मित्र मण्डली इकट्ठी होकर किसी परम्परा को अपनाने एवं गतिशील करने में अधिक सफल हो सकती है। अपने समझे जाने वाले लोग कभी भी भावभरी मनःस्थिति में होंगे और किसी उपयोगी निष्कर्ष पर पहुँचेंगे तो उनके फलित होने की सम्भावना स्वभावतः अधिक रहेगी। परिवार गोष्ठियों को प्रस्तुत उद्देश्य की पूर्ति के लिए अत्यधिक उपयोगी माना जा सकता है।
भारतीय संस्कृति में इस प्रयोजन के लिए संस्कारों और पर्वों के रूप में गृह उत्सवों की प्रथा प्रचलित थी और उस माध्यम से सभी को उपयोगी प्रेरणाएँ मिलती थीं। सम्मिलित होने वाले उन धर्मकृत्यों को अभीष्ट प्रगति के लिए गुरुजनों द्वारा अपनी परिस्थितियों के अनुरूप मार्ग- दर्शन प्राप्त करते थे। यों लकीर पीटने की तरह उन प्रथाओं की चिन्ह पूजा तो अभी भी होती है, पर उनमें अनुप्राणित करने की जो प्रखरता थी, वह समाप्त हो गई। उसे पुनर्जीवित करने का ठीक यही समय है। देवालय तो पहले से ही बना है उसका जीर्णोद्वार हम सब मिल- जुलकर कर लें तो भी यह कम गर्व गौरव की बात नहीं है।
भारतीय धर्मानुयायी को सोलह बार या दस बार सुसंस्कारित किया जाता है और इसके लिए जन्म से लेकर मरणपर्यन्त बार- बार ऐसे आयोजन किये जाते हैं जिनमें देवावाहन, धर्मानुष्ठान एवं उपयोगी मार्गदर्शन का समुचित समावेश है।
(१) गर्भावस्था में पुंसवन,
(२) जन्म के उपरान्त नामकरण,
(३) छह महीने का होने पर अन्न प्राशन,
(४) एक वर्ष की आयु में मुण्डन,
(५) तीन वर्ष का होने पर विद्यारंभ,
(६) बारह वर्ष में यज्ञोपवीत,
(७) बीस- पच्चीस के बीच विवाह,
(८) चालीस के उपरान्त वानप्रस्थ,
(९) पैंसठ के बाद संन्यास
जीवित स्थिति में यह नौ संस्कार ही प्रधान हैं। दसवाँ, अन्त्येष्टि जीवन समाप्त होने के उपरान्त किया जाता है। यों संस्कारों की संख्या सोलह बताई गई है और उन सबके विधि- विधान भी हैं, पर वर्तमान व्यस्तता और महँगाई की परिस्थिति में यह नौ बन पड़ें तो भी कम संतोष की बात नहीं है। उपरोक्त नौ में पाँच ऐसे हैं जो छोटी धर्म गोष्ठियों के रूप में कुशल महिलाओं के नेतृत्व में परस्पर मिल- जुलकर ही सम्पन्न होते रह सकते हैं।
(१) पुंसवन, (२) नामकरण, (३) अन्नप्राशन, (४) मुण्डन, (५) विद्यारंभ के धर्मानुष्ठानों में बच्चों के प्रति शुभकामना प्रकट करने तथा उनके अस्तित्व अवतरण पर आनन्द मनाने का अवसर मिलता है। इसके साथ- साथ यह भी पूरी- पूरी गुंजाइश है कि उन अवसरों से तालमेल बिठाते हुए हर परिवार की स्थिति के अनुरूप समस्याओं के समाधान एवं प्रगति- प्रोत्साहन के लिए उपयोगी मार्गदर्शन प्रस्तुत किया जा सके। जिनके नेतृत्व में यह आयोजन होते वे अपनी कुशलता एवं दूरदर्शिता के आधार पर इन आयोजनों के माध्यम से उपयोगी सुधार परिर्वतन की दृष्टि से बहुत कुछ कर सकती हैं। रचनात्मक उत्साह पैदा कर सकती हैं। प्रेरणा वातावरण बना सकती हैं। इनमें से हर अवसर को उसमें क्रियान्वित किये जाने वाले कर्मकाण्डों की, श्लोक मन्त्रों की, प्रचलित कारणों की ऐसी विवेचना कर सकती हैं जिसमें उस परिवार की विशेष परिस्थिति के अनुरूप आलोक एवं परामर्श समन्वित हो। एक- दूसरे के हर्ष शोक में सम्मिलित होने का प्रचलन मानवी सामाजिकता का उपयोगी चिह्न है। जिन परिवारों में महिला शाखाओं की संस्था है, उनमें इस प्रकार के संस्कार- आयोजन समय- समय पर सरलतापूर्वक सम्पन्न होते रह सकते हैं। निर्धारित तिथि पर मुहल्ले- पड़ौस में आमन्त्रण दिया जाय। तीसरे प्रहर का समय रखा जाय।
(१) २४ बार सामूहिक गायत्री पाठ, (२) गायत्री हवन,
(३) पूर्णाहुति से पूर्व संस्कार का विशेष कृत्य, (४) भजन- कीर्तन,
(५) प्रवचन।
इन पाँच प्रकरणों में सभी संस्कार प्रायः एक जैसी क्रिया- पद्धति से सम्पन्न होते रह सकते हैं। थोड़े से विशेष कृत्य ही हर संस्कार में भिन्न होते हैं। पूर्णाहुति से पूर्व उन्हें करा देने की छोटी- छोटी विधियाँ भी वे महिलाएँ आसानी से करा सकती हैं जो हवन कराने में प्रवीण हैं।
संस्कार परम्परा को घर- घर में प्रचलित, पुनर्जीवित करना है। इसलिए उनका स्वरूप इतना सादा और सस्ता होना चाहिए कि निर्धन स्तर के लोगों को भी मन मसोस कर न बैठना पड़े। गरीबी और अमीरी का प्रदर्शन करने वाली कोई भिन्नता इन आयोजनों में न रहने पाये इसलिए उन्हें न तो आडम्बरपूर्ण बनाना चाहिए और न खर्चीला। शाखा की ओर से ही सारी व्यवस्था की जाय। हवन सामग्री, समिधा, अन्यान्य उपचार उपकरण शाखा की ओर से भेजे जायें। स्वागत के लिए भुनी सौंफ का प्रबन्ध भी शाखा ही करे। एक छटाँक शुद्ध घी का प्रबन्ध भार ही उन पर डाला जाय। जिनके यहाँ यह आयोजन हो आतिथ्य में पानी के अतिरिक्त और किसी के यहाँ कुछ भी स्वीकार न किया जाय। इस प्रकार आयोजन कराने वाले पर घी के अतिरिक्त कुछ भार न पड़ेगा। अन्य खर्च एवं प्रबन्ध शाखा की ओर से किया जाएगा। उसके बदले में शाखा को कोई दान प्राप्त होता हो तो उसमें न आपत्ति की जायगी और न माँग रखी जायगी। इस प्रकार यह आयोजन सदस्यों के घरों पर वर्ष में एकाध बार तो हो ही जाया करें। बड़े परिवारों में तो कई- कई बार भी उनकी बारी इकट्ठे एक्ही तिथि में भी किये जा सकते हैं। वा. ४८/२.१०८
भारतीय समाज में अनेकानेक पर्व त्यौहार हैं। कहते हैं कि उनसे वर्ष का कोई दिन खाली नहीं रखा गया। इन सबको मनाया जाना तो कठिन है पर इनमें से कुछ बहु प्रचलितों को तो प्रेरणाप्रद वातावरण उत्पन्न करने की दृष्टि से परिष्कृत ढंग से मनाया ही जा सकता है।
(१) दीपावली, (२) गीता जयन्ती, (३) बसन्त पंचमी,
(४) होली, (५) रामनवमी, (६) गायत्री जयन्ती, (७) गुरु पूर्णिमा,
(८) श्रावणी (रक्षाबंधन), (९) कृष्ण जन्माष्टमी, (१०) विजया दशमी
ये पर्व आमतौर से सर्वत्र प्रचलित हैं। प्रान्त विशेष में शिवरात्रि, गणेश चतुर्थी, मकर संक्रान्ति, वैशाखी आदि को भी विशेष महत्व मिला हुआ है। स्थानीय मान्यताओं के अनुरूप इनमें से जहाँ जो विशेष उत्साह से मनाये जाते हों उनमें काट- छाँट करके ऐसा प्रबन्ध करना चाहिए कि औसतन हर महीने एक पर्व मन जाया करे। साप्ताहिक सत्संग में मात्र महिलाओं की उपस्थिति होती है। पर्व आयोजनों में स्त्री- पुरुष सभी मिल- जुलकर सम्मिलित हुआ करें। मनाने का ढंग प्रायः वही है जो साप्ताहिक सत्संगों में रखा गया है।
(१) सामूहिक सस्वर, संगीत सहित गायत्री मंत्र पाठ २४ बार,
(२) गायत्री हवन, (३) भजन- कीर्तन, (४) प्रवचन।
संस्कारों में पूर्णाहुति से कुछ पूर्व विशेष कृत्य किये जाते हैं। पर्वों में देव पूजन के समय ही पर्व की अधिष्ठात्री देव सत्ता की सामूहिक पूजा- अर्चा होती है। इसी प्रकार सामाजिक समस्याओं के समाधान एवं सामूहिक प्रगति के उपायों का सुविस्तृत और सामयिक विवेचन पर्वों के इतिहासों एवं प्रयोजनों के साथ तालमेल बिठाते हुए भली प्रकार किया जा सकता है। कर्मकाण्ड भास्कर पुस्तक में यह सभी कर्मकाण्ड पहले से ही प्रकाशित हो चुके हैं। इस संदर्भ में छपी हुई छोटी- छोटी पुस्तकों में विस्तार पूर्वक प्रकाश डाला जा चुका है। पर्व और संस्कारों के पीछे छिपे उद्देश्यों के सम्बन्ध में उन पद्धतियों में ऐसे श्लोक भी दिये गये हैं जो उनके साथ जुड़े हुए उद्देश्य एवं कर्त्तव्यों पर प्रकाश डालते हैं। इन आयोजनों के माध्यम से युग निर्माण योजना के दो उद्देश्यों को जनमानस में उतारने से उत्साहवर्द्धक सफलता मिल सकती है। धर्मश्रद्धा एवं प्रथा परम्पराओं का समन्वय रहने से इन आयोजनों में ऐसी भाव- सम्वेदना जुड़ जाती है जो प्रस्तुत प्रसंग को हृदयंगम कराने में असाधारण रूप से समर्थ- सिद्ध होती है। परिवार निर्माण और समाज निर्माण के सम्बन्ध में इन आयोजनों के माध्यम से लोकमानस को प्रशिक्षित करने में अन्य उपायों की तुलना में अधिक सरलता रहती है।
तीसरा प्रयोजन है व्यक्ति निर्माण। इसके लिए हर मनुष्य को आत्म निरीक्षण, आत्म सुधार, आत्म निर्माण एवं आत्म विकास के लिए कुछ महत्वपूर्ण सोचने और करने के लिए स्वयं साहस जुटाना चाहिए। अपनी मनःस्थिति और परिस्थितियों पर गम्भीर दृष्टिपात करके अवगति के कारणों को ढूँढ़ निकालना और उन्हें निरस्त करने के लिए आत्म सुधार के लिए उपाय सोचना एवं तत्पर होना मनन कहलाता है। मनन में आत्मशोधन होता है और वे छिद्र बन्द होते हैं, जो पिछड़ेपन के लिए, दुर्गति के लिए प्रधान रूप से उत्तरदायी हैं। मनन का दूसरा साथी है चिन्तन। चिन्तन का अर्थ है भावी प्रगति के सम्बन्ध में विचार करना, योजना बनाना और उसके सम्बन्ध में जिन विशेषताओं का सम्पादन आवश्यक है उनका उपार्जन करने के लिए सुनियोजित रीति से कटिबद्ध होना। मनन में भूल पर दृष्टि रखते हुए और चिन्तन में भविष्य पर विचार करते हुए वर्तमान का निर्धारण करने का उद्देश्य है। एक में निराकरण है, दूसरे में सम्वर्द्धन। दोनों को मिलाकर ही एक पूरी बात बनती है।
प्रगति की आवश्यकता अनुभव करने वाले हर व्यक्ति को आत्मपरिष्कार के लिए, व्यक्तित्व को प्रखर बनाने के लिए उपरोक्त छहों उपायों का अवलम्बन करना चाहिए। आत्म- निरीक्षण, आत्म सुधार, आत्म निर्माण और आत्म विकास के लिए मनन, चिन्तन की प्रक्रिया जारी रहनी चाहिए और इस आत्म चिन्तन के लिए गुरुवार को प्रातःकाल का समय विशेष रूप से निर्धारित करना चाहिए। उस दिन सभी नैष्ठिक साधकों को दो घण्टे का मौन, अस्वाद व्रत एवं ब्रह्मचर्य का त्रिविध व्रत पालन करना पड़ता है। सर्वसाधारण को इस आत्म चिन्तन के लिए गुरुवार का अथवा कोई अन्य सुविधा का दिन निर्धारित करके दो घण्टे सर्वथा एकान्त में बैठकर अपने आप से बात करनी चाहिए, अपने ही द्वारा अपने को सुधारा और बढ़ाया जा सकता है। आत्मनिर्माण की यह प्रक्रिया हर दिन प्रातः उठते और रात को सोते समय आत्मबोध, तत्वबोध साधना के अन्तर्गत जारी रखी जा सकती है। इतना न बन पड़े तो कम से कम सप्ताह में एक दिन तो आत्मसाधना का यह उपाय- उपचार अपनाया ही जाना चाहिए।
शाखाओं का एक महत्वपूर्ण कार्य यह है कि वह संगठन खड़े करें, सदस्यों की संख्या बढ़ायें, साप्ताहिक आयोजनों को प्रेरणाप्रद बनायें तथा संस्कार- पर्व और जन्म दिवसोत्सवों का सुनियोजित कार्यक्रम बनायें और उन्हें अधिकाधिक प्रभावी सफल बनाने के लिए तत्परता पूर्वक प्रयत्न करें। यह प्रयत्नशीलता जहाँ जितने उत्साह से चलेगी वहाँ नवनिर्माण की आधारशिला उतनी ही सुदृढ़ होती चलेगी। वा. ४८/२.१०९
सृजन की सत्प्रवृत्तियों का अगला चरण
परिवार निर्माण का शुभारम्भ, श्रीगणेश घरों में धार्मिक वातावरण बनाने और उसके लिए सामूहिक उत्साह उत्पन्न करने के लिए स्थान- स्थान पर संगठन खड़े किये गये हैं। इतने व्यापक, भारी और महत्वपूर्ण कार्य को संगठित प्रयत्नों से ही सम्पन्न किया जा सकता है। इसलिए हर संगठन को सफल बनाने, महिला सत्संग चलाने और उनमें अधिक उपस्थिति का प्रयत्न करने के लिए कहा गया है। परिवार निर्माण में सहयोग तो पुरुषों का भी चाहिए, पर उसका नेतृत्व उसी क्षेत्र की अधिष्ठात्री गृहलक्ष्मी जाग्रत महिला ही कर सकती है। इसलिए यह महाक्रान्ति की लाल मशाल उसी के हाथ में थमाई गई है और नवयुग का तुमुल शंखनाद करने की जिम्मेदारी भी उसी पर लादी गई है। आरम्भ में क्या करना होगा, इसका संक्षिप्त कार्यक्रम सर्वसाधारण के सम्मुख प्रस्तुत किया जा चुका है।
बलिवैश्व की पाँच आहुतियों को प्रतीक मानकर पारिवारिक पंचशीलों को चिन्तन एवं व्यवहार में उतारने के लिए कहा गया है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए भावनात्मक, चारित्रिक, पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक क्षेत्रों में पालन करने योग्य पाँच पंचशील अनुबन्ध अनुशासन हैं। उनका पालन करना मानवी कर्तव्य और उत्तरदायित्वों का अंग है। इन्हें न केवल विचारणा में प्रमुख रखा जाय वरन् व्यावहारिक जीवन में उतारने के लिए भी सामर्थ्य भर प्रयत्न किया जाय। इस धर्मधारणा को निरन्तर स्मरण रखने और उसके प्रति प्रगाढ़ आस्था व्यक्त करने के लिए बलिवैश्व की पाँच आहुतियाँ देने की परम्परा है। इसे वैयक्तिक जीवन में सामाजिक उत्तरदायित्वों की साझेदारी का प्रतीक भी समझा जा सकता है। घर में धार्मिक वातावरण बनाये रखने के लिए नित्य नमन, वन्दन, आरती, कथा- कीर्तन की परम्परायें बनाने चलाने के लिए कहा गया है। समय- समय पर भावनात्मक वातावरण में परिवार गोष्ठियों के उपक्रम प्राचीनकाल में जन्मदिनों और संस्कारों के नाम पर चलते थें। वह पद्धति बहुत ही प्रेरक और प्रभावोत्पादक है। सत्प्रवृत्तियाँ उभारने के लिए उनका पुनर्जागरण किया जाना चाहिए। इसी प्रकार गाँव- मुहल्ले की धर्म गोष्ठियाँ पर्व- त्यौहारों के उल्लास भरे अवसरों पर करते रहने से सद्भाव सम्वर्द्धन के लिए सामूहिक उत्साह उभारने की दृष्टि से बहुत महत्व रखती हैं।
समय- समय पर बड़े आयोजन गायत्री यज्ञों और युग निर्माण सम्मेलनों के आधार पर किये जाते रहें। तीर्थ- यात्रा के लिए धर्म प्रचारकों की मण्डलियाँ निकलती रहें, परिव्राजकों की टोलियाँ नव जागरण की चेतना उत्पन्न करने के लिए घर- घर पहुँचें और जन- जन से सम्पर्क साधें। यह सभी कार्यक्रम ऐसे हैं जो व्यक्ति और समाज को उत्कृष्टता की ओर अग्रसर करने, परिवारों में शालीनता उत्पन्न करने की दृष्टि से अतीव उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। वा. ४८/२.११५
आत्मविकास का मोटा- सा अर्थ है ‘अपनत्व की भावना का विस्तार कर, संकीर्णता- स्वार्थपरता का भाव दूर करना, जिससे कि यह भावना व्यापक बन सके।’ परिवार इसमें सहायक होता है। परिवार वह उद्यान है, जहाँ छोटे- बड़े, कँटीले- कोमल, सुरभित- गन्धविहीन, सभी प्रकार के पुष्प- पौधे लगे होते हैं और उन सबकी समग्र सत्ता ही उद्यान को एक इकाई बनाती है। उस उद्यान की शोभा- सुषमा इसी में होती है कि उसके सभी पौधे सुरक्षित रहें, उन्हें कोई काटे- उखाड़े नहीं।
सहयोग- संवेदना, आत्मीयता- स्नेह की यह प्रक्रिया, जो संयुक्त परिवार की आधारभूत प्रेरणा है, आज उसकी भी आवश्यकता है। यदि उसे समझा और अपनाया जाय, तो हमारे विकास की नयी सम्भावनाएँ सामने आती चली जायेंगी।
वा. ४८/३.१९
इस आन्दोलन के लिए बड़े सभा- सम्मेलनों की या बहुत बड़े प्रचार तन्त्र की आवश्यकता नहीं है। कुटीर उद्योग के स्तर पर ही इसे घर- घर पहुँचाने और आँगन- आँगन में उगाने की आवश्यकता है। इसके लिये प्रधान उपाय उपचार हैं- परिवार गोष्ठियों की व्यवस्था, हर्षोत्सवों के रूप में नियोजित भावभरे आयोजन इस प्रयोजन के लिए सबसे अधिक उपयुक्त हो सकते हैं। घर- परिवार, पड़ौस, रिश्ते की मित्र मण्डली इकट्ठी होकर किसी परम्परा को अपनाने एवं गतिशील करने में अधिक सफल हो सकती है। अपने समझे जाने वाले लोग कभी भी भावभरी मनःस्थिति में होंगे और किसी उपयोगी निष्कर्ष पर पहुँचेंगे तो उनके फलित होने की सम्भावना स्वभावतः अधिक रहेगी। परिवार गोष्ठियों को प्रस्तुत उद्देश्य की पूर्ति के लिए अत्यधिक उपयोगी माना जा सकता है।
भारतीय संस्कृति में इस प्रयोजन के लिए संस्कारों और पर्वों के रूप में गृह उत्सवों की प्रथा प्रचलित थी और उस माध्यम से सभी को उपयोगी प्रेरणाएँ मिलती थीं। सम्मिलित होने वाले उन धर्मकृत्यों को अभीष्ट प्रगति के लिए गुरुजनों द्वारा अपनी परिस्थितियों के अनुरूप मार्ग- दर्शन प्राप्त करते थे। यों लकीर पीटने की तरह उन प्रथाओं की चिन्ह पूजा तो अभी भी होती है, पर उनमें अनुप्राणित करने की जो प्रखरता थी, वह समाप्त हो गई। उसे पुनर्जीवित करने का ठीक यही समय है। देवालय तो पहले से ही बना है उसका जीर्णोद्वार हम सब मिल- जुलकर कर लें तो भी यह कम गर्व गौरव की बात नहीं है।
भारतीय धर्मानुयायी को सोलह बार या दस बार सुसंस्कारित किया जाता है और इसके लिए जन्म से लेकर मरणपर्यन्त बार- बार ऐसे आयोजन किये जाते हैं जिनमें देवावाहन, धर्मानुष्ठान एवं उपयोगी मार्गदर्शन का समुचित समावेश है।
(१) गर्भावस्था में पुंसवन,
(२) जन्म के उपरान्त नामकरण,
(३) छह महीने का होने पर अन्न प्राशन,
(४) एक वर्ष की आयु में मुण्डन,
(५) तीन वर्ष का होने पर विद्यारंभ,
(६) बारह वर्ष में यज्ञोपवीत,
(७) बीस- पच्चीस के बीच विवाह,
(८) चालीस के उपरान्त वानप्रस्थ,
(९) पैंसठ के बाद संन्यास
जीवित स्थिति में यह नौ संस्कार ही प्रधान हैं। दसवाँ, अन्त्येष्टि जीवन समाप्त होने के उपरान्त किया जाता है। यों संस्कारों की संख्या सोलह बताई गई है और उन सबके विधि- विधान भी हैं, पर वर्तमान व्यस्तता और महँगाई की परिस्थिति में यह नौ बन पड़ें तो भी कम संतोष की बात नहीं है। उपरोक्त नौ में पाँच ऐसे हैं जो छोटी धर्म गोष्ठियों के रूप में कुशल महिलाओं के नेतृत्व में परस्पर मिल- जुलकर ही सम्पन्न होते रह सकते हैं।
(१) पुंसवन, (२) नामकरण, (३) अन्नप्राशन, (४) मुण्डन, (५) विद्यारंभ के धर्मानुष्ठानों में बच्चों के प्रति शुभकामना प्रकट करने तथा उनके अस्तित्व अवतरण पर आनन्द मनाने का अवसर मिलता है। इसके साथ- साथ यह भी पूरी- पूरी गुंजाइश है कि उन अवसरों से तालमेल बिठाते हुए हर परिवार की स्थिति के अनुरूप समस्याओं के समाधान एवं प्रगति- प्रोत्साहन के लिए उपयोगी मार्गदर्शन प्रस्तुत किया जा सके। जिनके नेतृत्व में यह आयोजन होते वे अपनी कुशलता एवं दूरदर्शिता के आधार पर इन आयोजनों के माध्यम से उपयोगी सुधार परिर्वतन की दृष्टि से बहुत कुछ कर सकती हैं। रचनात्मक उत्साह पैदा कर सकती हैं। प्रेरणा वातावरण बना सकती हैं। इनमें से हर अवसर को उसमें क्रियान्वित किये जाने वाले कर्मकाण्डों की, श्लोक मन्त्रों की, प्रचलित कारणों की ऐसी विवेचना कर सकती हैं जिसमें उस परिवार की विशेष परिस्थिति के अनुरूप आलोक एवं परामर्श समन्वित हो। एक- दूसरे के हर्ष शोक में सम्मिलित होने का प्रचलन मानवी सामाजिकता का उपयोगी चिह्न है। जिन परिवारों में महिला शाखाओं की संस्था है, उनमें इस प्रकार के संस्कार- आयोजन समय- समय पर सरलतापूर्वक सम्पन्न होते रह सकते हैं। निर्धारित तिथि पर मुहल्ले- पड़ौस में आमन्त्रण दिया जाय। तीसरे प्रहर का समय रखा जाय।
(१) २४ बार सामूहिक गायत्री पाठ, (२) गायत्री हवन,
(३) पूर्णाहुति से पूर्व संस्कार का विशेष कृत्य, (४) भजन- कीर्तन,
(५) प्रवचन।
इन पाँच प्रकरणों में सभी संस्कार प्रायः एक जैसी क्रिया- पद्धति से सम्पन्न होते रह सकते हैं। थोड़े से विशेष कृत्य ही हर संस्कार में भिन्न होते हैं। पूर्णाहुति से पूर्व उन्हें करा देने की छोटी- छोटी विधियाँ भी वे महिलाएँ आसानी से करा सकती हैं जो हवन कराने में प्रवीण हैं।
संस्कार परम्परा को घर- घर में प्रचलित, पुनर्जीवित करना है। इसलिए उनका स्वरूप इतना सादा और सस्ता होना चाहिए कि निर्धन स्तर के लोगों को भी मन मसोस कर न बैठना पड़े। गरीबी और अमीरी का प्रदर्शन करने वाली कोई भिन्नता इन आयोजनों में न रहने पाये इसलिए उन्हें न तो आडम्बरपूर्ण बनाना चाहिए और न खर्चीला। शाखा की ओर से ही सारी व्यवस्था की जाय। हवन सामग्री, समिधा, अन्यान्य उपचार उपकरण शाखा की ओर से भेजे जायें। स्वागत के लिए भुनी सौंफ का प्रबन्ध भी शाखा ही करे। एक छटाँक शुद्ध घी का प्रबन्ध भार ही उन पर डाला जाय। जिनके यहाँ यह आयोजन हो आतिथ्य में पानी के अतिरिक्त और किसी के यहाँ कुछ भी स्वीकार न किया जाय। इस प्रकार आयोजन कराने वाले पर घी के अतिरिक्त कुछ भार न पड़ेगा। अन्य खर्च एवं प्रबन्ध शाखा की ओर से किया जाएगा। उसके बदले में शाखा को कोई दान प्राप्त होता हो तो उसमें न आपत्ति की जायगी और न माँग रखी जायगी। इस प्रकार यह आयोजन सदस्यों के घरों पर वर्ष में एकाध बार तो हो ही जाया करें। बड़े परिवारों में तो कई- कई बार भी उनकी बारी इकट्ठे एक्ही तिथि में भी किये जा सकते हैं। वा. ४८/२.१०८
भारतीय समाज में अनेकानेक पर्व त्यौहार हैं। कहते हैं कि उनसे वर्ष का कोई दिन खाली नहीं रखा गया। इन सबको मनाया जाना तो कठिन है पर इनमें से कुछ बहु प्रचलितों को तो प्रेरणाप्रद वातावरण उत्पन्न करने की दृष्टि से परिष्कृत ढंग से मनाया ही जा सकता है।
(१) दीपावली, (२) गीता जयन्ती, (३) बसन्त पंचमी,
(४) होली, (५) रामनवमी, (६) गायत्री जयन्ती, (७) गुरु पूर्णिमा,
(८) श्रावणी (रक्षाबंधन), (९) कृष्ण जन्माष्टमी, (१०) विजया दशमी
ये पर्व आमतौर से सर्वत्र प्रचलित हैं। प्रान्त विशेष में शिवरात्रि, गणेश चतुर्थी, मकर संक्रान्ति, वैशाखी आदि को भी विशेष महत्व मिला हुआ है। स्थानीय मान्यताओं के अनुरूप इनमें से जहाँ जो विशेष उत्साह से मनाये जाते हों उनमें काट- छाँट करके ऐसा प्रबन्ध करना चाहिए कि औसतन हर महीने एक पर्व मन जाया करे। साप्ताहिक सत्संग में मात्र महिलाओं की उपस्थिति होती है। पर्व आयोजनों में स्त्री- पुरुष सभी मिल- जुलकर सम्मिलित हुआ करें। मनाने का ढंग प्रायः वही है जो साप्ताहिक सत्संगों में रखा गया है।
(१) सामूहिक सस्वर, संगीत सहित गायत्री मंत्र पाठ २४ बार,
(२) गायत्री हवन, (३) भजन- कीर्तन, (४) प्रवचन।
संस्कारों में पूर्णाहुति से कुछ पूर्व विशेष कृत्य किये जाते हैं। पर्वों में देव पूजन के समय ही पर्व की अधिष्ठात्री देव सत्ता की सामूहिक पूजा- अर्चा होती है। इसी प्रकार सामाजिक समस्याओं के समाधान एवं सामूहिक प्रगति के उपायों का सुविस्तृत और सामयिक विवेचन पर्वों के इतिहासों एवं प्रयोजनों के साथ तालमेल बिठाते हुए भली प्रकार किया जा सकता है। कर्मकाण्ड भास्कर पुस्तक में यह सभी कर्मकाण्ड पहले से ही प्रकाशित हो चुके हैं। इस संदर्भ में छपी हुई छोटी- छोटी पुस्तकों में विस्तार पूर्वक प्रकाश डाला जा चुका है। पर्व और संस्कारों के पीछे छिपे उद्देश्यों के सम्बन्ध में उन पद्धतियों में ऐसे श्लोक भी दिये गये हैं जो उनके साथ जुड़े हुए उद्देश्य एवं कर्त्तव्यों पर प्रकाश डालते हैं। इन आयोजनों के माध्यम से युग निर्माण योजना के दो उद्देश्यों को जनमानस में उतारने से उत्साहवर्द्धक सफलता मिल सकती है। धर्मश्रद्धा एवं प्रथा परम्पराओं का समन्वय रहने से इन आयोजनों में ऐसी भाव- सम्वेदना जुड़ जाती है जो प्रस्तुत प्रसंग को हृदयंगम कराने में असाधारण रूप से समर्थ- सिद्ध होती है। परिवार निर्माण और समाज निर्माण के सम्बन्ध में इन आयोजनों के माध्यम से लोकमानस को प्रशिक्षित करने में अन्य उपायों की तुलना में अधिक सरलता रहती है।
तीसरा प्रयोजन है व्यक्ति निर्माण। इसके लिए हर मनुष्य को आत्म निरीक्षण, आत्म सुधार, आत्म निर्माण एवं आत्म विकास के लिए कुछ महत्वपूर्ण सोचने और करने के लिए स्वयं साहस जुटाना चाहिए। अपनी मनःस्थिति और परिस्थितियों पर गम्भीर दृष्टिपात करके अवगति के कारणों को ढूँढ़ निकालना और उन्हें निरस्त करने के लिए आत्म सुधार के लिए उपाय सोचना एवं तत्पर होना मनन कहलाता है। मनन में आत्मशोधन होता है और वे छिद्र बन्द होते हैं, जो पिछड़ेपन के लिए, दुर्गति के लिए प्रधान रूप से उत्तरदायी हैं। मनन का दूसरा साथी है चिन्तन। चिन्तन का अर्थ है भावी प्रगति के सम्बन्ध में विचार करना, योजना बनाना और उसके सम्बन्ध में जिन विशेषताओं का सम्पादन आवश्यक है उनका उपार्जन करने के लिए सुनियोजित रीति से कटिबद्ध होना। मनन में भूल पर दृष्टि रखते हुए और चिन्तन में भविष्य पर विचार करते हुए वर्तमान का निर्धारण करने का उद्देश्य है। एक में निराकरण है, दूसरे में सम्वर्द्धन। दोनों को मिलाकर ही एक पूरी बात बनती है।
प्रगति की आवश्यकता अनुभव करने वाले हर व्यक्ति को आत्मपरिष्कार के लिए, व्यक्तित्व को प्रखर बनाने के लिए उपरोक्त छहों उपायों का अवलम्बन करना चाहिए। आत्म- निरीक्षण, आत्म सुधार, आत्म निर्माण और आत्म विकास के लिए मनन, चिन्तन की प्रक्रिया जारी रहनी चाहिए और इस आत्म चिन्तन के लिए गुरुवार को प्रातःकाल का समय विशेष रूप से निर्धारित करना चाहिए। उस दिन सभी नैष्ठिक साधकों को दो घण्टे का मौन, अस्वाद व्रत एवं ब्रह्मचर्य का त्रिविध व्रत पालन करना पड़ता है। सर्वसाधारण को इस आत्म चिन्तन के लिए गुरुवार का अथवा कोई अन्य सुविधा का दिन निर्धारित करके दो घण्टे सर्वथा एकान्त में बैठकर अपने आप से बात करनी चाहिए, अपने ही द्वारा अपने को सुधारा और बढ़ाया जा सकता है। आत्मनिर्माण की यह प्रक्रिया हर दिन प्रातः उठते और रात को सोते समय आत्मबोध, तत्वबोध साधना के अन्तर्गत जारी रखी जा सकती है। इतना न बन पड़े तो कम से कम सप्ताह में एक दिन तो आत्मसाधना का यह उपाय- उपचार अपनाया ही जाना चाहिए।
शाखाओं का एक महत्वपूर्ण कार्य यह है कि वह संगठन खड़े करें, सदस्यों की संख्या बढ़ायें, साप्ताहिक आयोजनों को प्रेरणाप्रद बनायें तथा संस्कार- पर्व और जन्म दिवसोत्सवों का सुनियोजित कार्यक्रम बनायें और उन्हें अधिकाधिक प्रभावी सफल बनाने के लिए तत्परता पूर्वक प्रयत्न करें। यह प्रयत्नशीलता जहाँ जितने उत्साह से चलेगी वहाँ नवनिर्माण की आधारशिला उतनी ही सुदृढ़ होती चलेगी। वा. ४८/२.१०९
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परिवार निर्माण का शुभारम्भ, श्रीगणेश घरों में धार्मिक वातावरण बनाने और उसके लिए सामूहिक उत्साह उत्पन्न करने के लिए स्थान- स्थान पर संगठन खड़े किये गये हैं। इतने व्यापक, भारी और महत्वपूर्ण कार्य को संगठित प्रयत्नों से ही सम्पन्न किया जा सकता है। इसलिए हर संगठन को सफल बनाने, महिला सत्संग चलाने और उनमें अधिक उपस्थिति का प्रयत्न करने के लिए कहा गया है। परिवार निर्माण में सहयोग तो पुरुषों का भी चाहिए, पर उसका नेतृत्व उसी क्षेत्र की अधिष्ठात्री गृहलक्ष्मी जाग्रत महिला ही कर सकती है। इसलिए यह महाक्रान्ति की लाल मशाल उसी के हाथ में थमाई गई है और नवयुग का तुमुल शंखनाद करने की जिम्मेदारी भी उसी पर लादी गई है। आरम्भ में क्या करना होगा, इसका संक्षिप्त कार्यक्रम सर्वसाधारण के सम्मुख प्रस्तुत किया जा चुका है।
बलिवैश्व की पाँच आहुतियों को प्रतीक मानकर पारिवारिक पंचशीलों को चिन्तन एवं व्यवहार में उतारने के लिए कहा गया है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए भावनात्मक, चारित्रिक, पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक क्षेत्रों में पालन करने योग्य पाँच पंचशील अनुबन्ध अनुशासन हैं। उनका पालन करना मानवी कर्तव्य और उत्तरदायित्वों का अंग है। इन्हें न केवल विचारणा में प्रमुख रखा जाय वरन् व्यावहारिक जीवन में उतारने के लिए भी सामर्थ्य भर प्रयत्न किया जाय। इस धर्मधारणा को निरन्तर स्मरण रखने और उसके प्रति प्रगाढ़ आस्था व्यक्त करने के लिए बलिवैश्व की पाँच आहुतियाँ देने की परम्परा है। इसे वैयक्तिक जीवन में सामाजिक उत्तरदायित्वों की साझेदारी का प्रतीक भी समझा जा सकता है। घर में धार्मिक वातावरण बनाये रखने के लिए नित्य नमन, वन्दन, आरती, कथा- कीर्तन की परम्परायें बनाने चलाने के लिए कहा गया है। समय- समय पर भावनात्मक वातावरण में परिवार गोष्ठियों के उपक्रम प्राचीनकाल में जन्मदिनों और संस्कारों के नाम पर चलते थें। वह पद्धति बहुत ही प्रेरक और प्रभावोत्पादक है। सत्प्रवृत्तियाँ उभारने के लिए उनका पुनर्जागरण किया जाना चाहिए। इसी प्रकार गाँव- मुहल्ले की धर्म गोष्ठियाँ पर्व- त्यौहारों के उल्लास भरे अवसरों पर करते रहने से सद्भाव सम्वर्द्धन के लिए सामूहिक उत्साह उभारने की दृष्टि से बहुत महत्व रखती हैं।
समय- समय पर बड़े आयोजन गायत्री यज्ञों और युग निर्माण सम्मेलनों के आधार पर किये जाते रहें। तीर्थ- यात्रा के लिए धर्म प्रचारकों की मण्डलियाँ निकलती रहें, परिव्राजकों की टोलियाँ नव जागरण की चेतना उत्पन्न करने के लिए घर- घर पहुँचें और जन- जन से सम्पर्क साधें। यह सभी कार्यक्रम ऐसे हैं जो व्यक्ति और समाज को उत्कृष्टता की ओर अग्रसर करने, परिवारों में शालीनता उत्पन्न करने की दृष्टि से अतीव उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। वा. ४८/२.११५
आत्मविकास का मोटा- सा अर्थ है ‘अपनत्व की भावना का विस्तार कर, संकीर्णता- स्वार्थपरता का भाव दूर करना, जिससे कि यह भावना व्यापक बन सके।’ परिवार इसमें सहायक होता है। परिवार वह उद्यान है, जहाँ छोटे- बड़े, कँटीले- कोमल, सुरभित- गन्धविहीन, सभी प्रकार के पुष्प- पौधे लगे होते हैं और उन सबकी समग्र सत्ता ही उद्यान को एक इकाई बनाती है। उस उद्यान की शोभा- सुषमा इसी में होती है कि उसके सभी पौधे सुरक्षित रहें, उन्हें कोई काटे- उखाड़े नहीं।
सहयोग- संवेदना, आत्मीयता- स्नेह की यह प्रक्रिया, जो संयुक्त परिवार की आधारभूत प्रेरणा है, आज उसकी भी आवश्यकता है। यदि उसे समझा और अपनाया जाय, तो हमारे विकास की नयी सम्भावनाएँ सामने आती चली जायेंगी।
वा. ४८/३.१९