Books - सर्वोपयोगी सुलभ साधनाएं
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Language: HINDI
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सूक्ष्म शरीर का उत्कर्ष—ज्ञान योग से
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सूक्ष्म शरीर विचार प्रधान है। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार का अन्तःकरण चतुष्टय इस आवरण का आधार है। विविध कामनाएं, वासनाएं, आकांक्षाएं, लालसाएं इसी में उठती हैं। अभिरुचि और प्रकृति का केन्द्र यही है। शरीर विज्ञान के अनुसार मस्तिष्क में यह संवेदनाएं समाविष्ट है, अतएव मस्तिष्क को सूक्ष्म शरीर का निवास स्थल माना गया है। यों यह चेतना समस्त शरीर में भी व्याप्त है। मस्तिष्क के दो भाग हैं एक सचेतन, दूसरा अचेतन। माथे वाले अग्रभाग में सोचने, विचारने, समझने, बूझने, निर्णय और प्रयत्न करने वाला सचेतन मन रहता है और मेरुदण्ड से मिले हुये पिछले भाग में अचेतन मस्तिष्क का स्थान है। यह अनेकों आदतें, संस्कार, मान्यताएं, अभिमान, प्रवृत्तियां, मजबूती से अपने अन्दर धारण किये रहता है। शरीर के अविज्ञात क्रिया कलापों का संचालन यहीं से होता है।
गुण विभाजन के अनुसार स्थूल शरीर तमोगुण (पंच तत्वों से), सूक्ष्म शरीर रजोगुण (विचारणा) से और कारण शरीर सतोगुण (भावना) से विनिर्मित है। स्थूल शरीर को प्रवृत्ति प्रधान, सूक्ष्म शरीर को जीव प्रधान और कारण शरीर को आत्मा (परमात्मा) प्रधान माना गया है। अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, आनन्दमय, विज्ञानमय कोष भी इन तीन शरीरों के अन्तर्गत ही है, जिनका वर्णन गायत्री महाविज्ञान (तृतीय खन्ड) में किया जा चुका है।
इन शरीरों के विस्तृत वर्णन का अवसर यहां नहीं। अभी तो इतना जानना ही पर्याप्त है कि सूक्ष्म शरीर में देवत्व का अभिवर्धन करने के लिए ज्ञानयोग की आवश्यकता होती है। ज्ञानयोग का अर्थ उस जानकारी को हृदयंगम करना है जो हमारे आदर्श, सिद्धान्त, मनोभाव और क्रिया कलापों का निर्माण एवं संचालन करती हैं।
स्थूल ज्ञान वह है जो सांसारिक जानकारियां बढ़ा कर हमारे मस्तिष्क को अधिक उर्वर, सक्षम एवं समर्थ बनाता है। यश, धन, व्यक्तित्व, शिल्प कौशल आदि इसी आधार पर उपार्जित किये जाते हैं। इसी को शिक्षा कहते हैं। विविध विषयों की अगणित शिक्षा संस्थाएं इसी प्रशिक्षण के लिये खुली हुई हैं जिनमें पढ़ कर छात्र अपनी रुचि एवं आवश्यकतानुसार जानकारी अर्जित करते हैं। पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं, रेडियो, टेलीविजन, फिल्म, परस्पर संभाषण, भ्रमण आदि साधनों से भी मस्तिष्क को समुन्नत करने वाली जानकारी मिलती है। यह सब शिक्षा के ही भेद हैं।
शिक्षा सांसारिक जानकारी देती है, उसकी पहुंच मस्तिष्क तक है। विद्या अन्तःकरण तक पहुंचती है और उसके द्वारा व्यक्तित्व का निर्माण निर्धारण होता है, विद्या ही ज्ञान है और ज्ञान का आधार अध्यात्म है। केवल शब्दों के श्रवण मनन से शिक्षा पूरी हो सकती है पर विद्या का उद्देश्य तभी पूरा होगा जब उसकी पहुंच अन्तरात्मा तक हो, उसका आधार अध्यात्म, तत्व-ज्ञान रहे और उसका प्रशिक्षण ऐसे व्यक्ति द्वारा किया गया हो जो अपना आदर्श उपस्थित कर उन भावनाओं को हृदयंगम करा सकने में समर्थ हो। आधार प्राप्त नहीं तो विद्या एक तरह की भौतिक शिक्षा मात्र ही बन कर रह जाती है और उससे अभीष्ट प्रयोजन पूर्ण नहीं होता। आज कल अध्यात्म के नाम पर—ज्ञानयोग के नाम पर वाचालता बहुत बढ़ गई है। कथा-प्रवचनों के अम्बार खड़े होते चले जाते हैं पर सुनने वालों का कौतूहल समाधान होने के अतिरिक्त लाभ कुछ नहीं होता। उनके अन्दर प्रभाव, प्रकाश एवं परिवर्तन तनिक भी दिखाई नहीं देता। इसका कारण यही है कि विद्या को भी शब्द-शक्ति तक ही सीमित किया जा रहा है जबकि उसका प्रवेश और प्रकाश सीधा आत्मा तक पहुंचना चाहिये।
ज्ञान-योग का उद्देश्य आत्मा तक सद्ज्ञान का—तत्व ज्ञान का प्रकाश है। इसका शुभारम्भ आत्म-ज्ञान से होता है। लोग सांसारिक जानकारियों के बारे में बहुत चतुर, निपुण और निष्णात होते हैं, अपनी प्रतिभा के बल पर धन, यश, सुख और पद प्राप्त करते हैं। किन्तु खेद है कि अपने अस्तित्व, स्वरूप, उद्देश्य और कर्तव्य के बारे में तात्विक दृष्टि से अनजान ही बने रहते हैं। यों इन विषयों पर भी वे एक लम्बी स्पीच झाड़ सकते हैं, पर यह केवल उनका मस्तिष्कीय चमत्कार भर होता है, यदि आत्म ज्ञान का थोड़ा भी तात्विक प्रकाश मनुष्य के अन्तःकरण में पहुंच जाय तो उसकी जीवन दिशा में उत्कृष्टता का समावेश हुये बिना नहीं रह सकता। उसकी विचारणा, निष्ठा तथा गतिविधि सामान्य लोगों जैसी नहीं—असामान्य पाई जायगी। सच्चा आत्म-ज्ञान केवल जानकारी भर बन कर नहीं रह सकता। उसकी पहुंच अन्तःकरण के गहन स्तर तक होती है और उस स्थान तक पहुंचा हुआ प्रकाश-जीवन क्रम में प्रकाशित हुए बिना नहीं रह सकता।
अध्यात्मवाद का प्रथम प्रशिक्षण आत्म-ज्ञान की उपलब्धि के साथ ही दिया जाता है। उपनिषद्कार ने पुकार-पुकार कर कहा है—
‘‘आत्मा व अरे दृष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो ।’’
‘‘अपने को सुनो, अपने बारे में जानो, अपने को देखो और अपने बारे में बार-बार मनन चिन्तन करो।’’ वस्तुतः हम अपने को शरीर मान कर जीवन की उन गतिविधियों को निर्धारण करते हैं जिनसे केवल शरीर का ही यत्किंचित् स्वार्थ सिद्ध होता है। आत्मा के हित और कल्पना के लिए हमारे जीवन क्रम में प्रायः नहीं के बराबर स्थान रहता है। यदि हम अपने को आत्मा और शरीर को उसका एक वाहन औजार मात्र समझें तो सारा दृष्टिकोण ही बदल जाय। समस्त गतिविधियां ही उलट जायें तब हम आत्मा के हित, लाभ और कल्याण को ध्यान में रख कर अपनी रीति-नीति निर्धारित करें। ऐसी दशा में हमारा स्वरूप न नर-पशु जैसा रह सकता है और न नरपिशाच जैसा। तब हम विशुद्ध नर नारायण के रूप में परिलक्षित होंगे, देवत्व हमारे रोम-रोम से फूटा पड़ रहा होगा।
जन्म-दिन मनाने की प्रक्रिया के साथ युग-निर्माण योजना के अन्तर्गत आत्म-ज्ञान का व्यापक उद्बोधन-व्यापक अभियान—चलाया जा रहा है। अखण्ड-ज्योति के प्रत्येक परिजन को बहुत जोर देकर कहा जा रहा है कि वह अपना जनम दिन समारोह पूर्वक मनाया करे। उस दिन अपने में भावनात्मक उल्लास उत्पन्न किया करे। जीवन के स्वरूप, उद्देश्य एवं उपयोग के महान् तत्वज्ञान पर एकान्त में विचार किया करे और अपने आपसे यह प्रश्न पूछा करे कि अपने अस्तित्व का मूल स्वरूप क्या है? इस सुर दुर्लभ मानव जीवन का उद्देश्य क्या? और इन बहुमूल्य क्षणों का सर्वोत्तम सदुपयोग किस प्रकार किया जा सकता है? इन प्रश्नों का यदि सही उत्तर भीतर से मिले और इतना साहस उत्पन्न हो जाय कि जो श्रेयस्कर है उसी को अपना लिया जाय तो हमारे जीवन में एक आध्यात्मिक क्रान्ति उपस्थित हो सकती है। हम सामान्य से असामान्य—नर से नारायण—पुरुष से पुरुषोत्तम, तुच्छ महान्—और आत्मा से बढ़ कर परमात्मा—बन सकते हैं।
जन्म दिन के अवसर पर वर्षों के हिसाब से घृत-दीप जलाना, पंच तत्व पूजन, महा मृत्युंजय मंत्र का सामूहिक पाठ, गायत्री यज्ञ, पुष्पहारों, अभिवन्दन आशीर्वाद जैसे धर्मकृत्य एक भावनात्मक उल्लासपूर्ण वातावरण उत्पन्न करते हैं। मित्रों, परिजनों का सम्मिलित, सस्ता पेय जल पान, उस हंसी, खुशी को ओर बढ़ा देता है। उपस्थित लोगों में भी उस तरह का आयोजन करने और जन्म-दिन मनाने की इच्छा उत्पन्न होती है और इस पुण्य-परम्रा के प्रसारण की सम्भावना है। मनुष्य का निज का जन्म-दिन उसके लिए निजी दृष्टि से सबसे बड़ा त्योहार होता है। कृष्ण जी की जन्माष्टमी, राम जी की राम नवमी अपने स्थान पर महत्वपूर्ण है, पर एक सामान्य व्यक्ति के जीवन में उसका जन्म-दिन भी कम महत्व का नहीं। अपनापन हर किसी को पसन्द है। अपनी शकल शीशे या फोटो में देख कर, अपना नाम कहीं छपा देख कर, अपनी चर्चा कहीं सुन कर हर किसी को गर्व गौरव—सन्तोष आनन्द का—अनुभव होता है। आन्तरिक उल्लास का अभिवर्धन एक आध्यात्मिक साधन है। इस प्रकार हर दृष्टि से जन्म दिन आयोजनों का मनाया जाना, श्रेयस्कर ही है। इस प्रथा परम्परा को जितने अधिक उत्साह के साथ प्रचलित किया जायेगा उतना ही राष्ट्र के आध्यात्मिक उत्कर्ष का उद्देश्य पूरा होगा। यों संसार के सभ्य समाज में सर्वत्र जन्म दिन का उत्सव मनाने का रिवाज है। इसे अच्छा भी माना जाता है। पर अपना उद्देश्य तो इससे भी ऊंचा है। सामाजिक, पारिवारिक एवं मनोवैज्ञानिक उत्सव मात्र ही इसे नहीं रहने देना है। वरन् इस महान् परम्परा को आध्यात्मिक जागरण का आधार भी बनाना है, जिससे युग निर्माण का—देवत्व के परिपोषण का—महान् प्रयोजन पूर्ण हो सके।
जन्म-दिन के अवसर पर अपने आपसे तीन प्रश्न पूछने चाहिए—
(1) भगवान् को सभी प्राणी समान रूप से प्रिय पात्र है। फिर मनुष्य को ही बोलने, सोचने, लिखने एवं असंख्य सुख सुविधाएं प्राप्त करने का विशेष अनुदान क्यों मिला? मनुष्य को हर दृष्टि से उत्कृष्ट स्तर का प्राणी बनाने में इतना श्रम क्यों किया?
उत्तर एक ही हो सकता है—‘‘अपने उद्यान, इस संसार को अधिक सुन्दर और सुव्यवस्थित बनाने के लिए परमेश्वर को साथी सहचरों की जरूरत पड़ी और अपनी क्षमताओं से सुसज्जित एक सर्वांगपूर्ण प्राणी—मनुष्य इस प्रयोजन की पूर्ति के लिये बनाया। विशेष साधन सुविधाएं इसलिये दीं कि उनके द्वारा वह ईश्वरीय प्रयोजनों की पूर्ति ठीक तरह कर सके।’’
(4) दूसरा प्रश्न अपने आपसे पूछना चाहिये कि—जो सुविधायें, विभूतियां सम्पदायें हमें उपलब्ध हैं—‘‘उनका लाभ यदि हम अकेले ही उठाते हैं तो इसमें क्या कोई हर्ज है?’’ उत्तर एक ही मिलेगा—‘‘अन्य प्राणियों के अतिरिक्त जितनी भी बौद्धिक, आर्थिक, प्रतिभा कारक एवं अन्य किसी प्रकार की विशेषतायें हैं, वे विश्व मानव की ही पवित्र अमानत हैं और इनका उपयोग लोक-मंगल के लिए ही किया जाना चाहिए। शरीर रक्षा भर के आवश्यक उपकरण के अतिरिक्त इन साधनों का विश्व-कल्याण के लिये ही उपयोग किया जाय।’’
(3) तीसरा प्रश्न अपने आपसे करना चाहिये कि—‘‘क्या इस सुरदुर्लभ मानव शरीर का सही सदुपयोग हो रहा है?’’
उत्तर यही मिलेगा—‘‘हम सदाचारी, संयमी, परिश्रमी, उदार, सज्जन, हंसमुख, सेवा भावी बने बिना मानव जीवन को सार्थक नहीं बना सकते। इसलिये इन सद्गुणों का अभ्यास बढ़ाने के लिए जीवन यापन की रीति-नीति में उत्कृष्टता और आदर्शवादिता का, सभ्यता और सज्जनता का—पुरुषार्थ और साहस का समुचित समावेश करना चाहिये।’’
इन्हीं प्रश्नोत्तरों में अध्यात्म तत्वज्ञान का सार सन्निहित है। यदि यह प्रश्न जीवन की महान् समस्या के रूप में सामने आयें और उन्हें सुलझाने के लिये हम अपने पूरे विवेक का उपयोग करें तो भावी जीवनयापन के लिये एक व्यवस्थित दर्शन और कार्यक्रम सामने खड़ा होगा। यदि साहसी शूरवीरों की तरह इस ईश्वरीय सन्देश को चुनौती के रूप में स्वीकार किया जा सका तो दूसरे ही दिन आकांक्षाओं और कामनाओं का स्वरूप बदला हुआ होगा। रीति-नीति और कार्य पद्धति में वैसा परिवर्तन परिलक्षित होगा जैसे आत्म-ज्ञान सम्पन्न मनुष्य में प्रत्यक्षतः दृष्टिगोचर होना चाहिए।
जन्म दिन मनाने और उससे प्रेरणा ग्रहण करने की साधना विधि अपनाने के लिए परिजनों से इसलिये अनुरोध किया जाता है कि वे अपने सूक्ष्म शरीर में—मानसिक चेतना में—ज्ञानयोग का समावेश कर देवत्व का जागरण करने की दिशा में आशाजनक प्रगति कर सकें।
गुण विभाजन के अनुसार स्थूल शरीर तमोगुण (पंच तत्वों से), सूक्ष्म शरीर रजोगुण (विचारणा) से और कारण शरीर सतोगुण (भावना) से विनिर्मित है। स्थूल शरीर को प्रवृत्ति प्रधान, सूक्ष्म शरीर को जीव प्रधान और कारण शरीर को आत्मा (परमात्मा) प्रधान माना गया है। अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, आनन्दमय, विज्ञानमय कोष भी इन तीन शरीरों के अन्तर्गत ही है, जिनका वर्णन गायत्री महाविज्ञान (तृतीय खन्ड) में किया जा चुका है।
इन शरीरों के विस्तृत वर्णन का अवसर यहां नहीं। अभी तो इतना जानना ही पर्याप्त है कि सूक्ष्म शरीर में देवत्व का अभिवर्धन करने के लिए ज्ञानयोग की आवश्यकता होती है। ज्ञानयोग का अर्थ उस जानकारी को हृदयंगम करना है जो हमारे आदर्श, सिद्धान्त, मनोभाव और क्रिया कलापों का निर्माण एवं संचालन करती हैं।
स्थूल ज्ञान वह है जो सांसारिक जानकारियां बढ़ा कर हमारे मस्तिष्क को अधिक उर्वर, सक्षम एवं समर्थ बनाता है। यश, धन, व्यक्तित्व, शिल्प कौशल आदि इसी आधार पर उपार्जित किये जाते हैं। इसी को शिक्षा कहते हैं। विविध विषयों की अगणित शिक्षा संस्थाएं इसी प्रशिक्षण के लिये खुली हुई हैं जिनमें पढ़ कर छात्र अपनी रुचि एवं आवश्यकतानुसार जानकारी अर्जित करते हैं। पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं, रेडियो, टेलीविजन, फिल्म, परस्पर संभाषण, भ्रमण आदि साधनों से भी मस्तिष्क को समुन्नत करने वाली जानकारी मिलती है। यह सब शिक्षा के ही भेद हैं।
शिक्षा सांसारिक जानकारी देती है, उसकी पहुंच मस्तिष्क तक है। विद्या अन्तःकरण तक पहुंचती है और उसके द्वारा व्यक्तित्व का निर्माण निर्धारण होता है, विद्या ही ज्ञान है और ज्ञान का आधार अध्यात्म है। केवल शब्दों के श्रवण मनन से शिक्षा पूरी हो सकती है पर विद्या का उद्देश्य तभी पूरा होगा जब उसकी पहुंच अन्तरात्मा तक हो, उसका आधार अध्यात्म, तत्व-ज्ञान रहे और उसका प्रशिक्षण ऐसे व्यक्ति द्वारा किया गया हो जो अपना आदर्श उपस्थित कर उन भावनाओं को हृदयंगम करा सकने में समर्थ हो। आधार प्राप्त नहीं तो विद्या एक तरह की भौतिक शिक्षा मात्र ही बन कर रह जाती है और उससे अभीष्ट प्रयोजन पूर्ण नहीं होता। आज कल अध्यात्म के नाम पर—ज्ञानयोग के नाम पर वाचालता बहुत बढ़ गई है। कथा-प्रवचनों के अम्बार खड़े होते चले जाते हैं पर सुनने वालों का कौतूहल समाधान होने के अतिरिक्त लाभ कुछ नहीं होता। उनके अन्दर प्रभाव, प्रकाश एवं परिवर्तन तनिक भी दिखाई नहीं देता। इसका कारण यही है कि विद्या को भी शब्द-शक्ति तक ही सीमित किया जा रहा है जबकि उसका प्रवेश और प्रकाश सीधा आत्मा तक पहुंचना चाहिये।
ज्ञान-योग का उद्देश्य आत्मा तक सद्ज्ञान का—तत्व ज्ञान का प्रकाश है। इसका शुभारम्भ आत्म-ज्ञान से होता है। लोग सांसारिक जानकारियों के बारे में बहुत चतुर, निपुण और निष्णात होते हैं, अपनी प्रतिभा के बल पर धन, यश, सुख और पद प्राप्त करते हैं। किन्तु खेद है कि अपने अस्तित्व, स्वरूप, उद्देश्य और कर्तव्य के बारे में तात्विक दृष्टि से अनजान ही बने रहते हैं। यों इन विषयों पर भी वे एक लम्बी स्पीच झाड़ सकते हैं, पर यह केवल उनका मस्तिष्कीय चमत्कार भर होता है, यदि आत्म ज्ञान का थोड़ा भी तात्विक प्रकाश मनुष्य के अन्तःकरण में पहुंच जाय तो उसकी जीवन दिशा में उत्कृष्टता का समावेश हुये बिना नहीं रह सकता। उसकी विचारणा, निष्ठा तथा गतिविधि सामान्य लोगों जैसी नहीं—असामान्य पाई जायगी। सच्चा आत्म-ज्ञान केवल जानकारी भर बन कर नहीं रह सकता। उसकी पहुंच अन्तःकरण के गहन स्तर तक होती है और उस स्थान तक पहुंचा हुआ प्रकाश-जीवन क्रम में प्रकाशित हुए बिना नहीं रह सकता।
अध्यात्मवाद का प्रथम प्रशिक्षण आत्म-ज्ञान की उपलब्धि के साथ ही दिया जाता है। उपनिषद्कार ने पुकार-पुकार कर कहा है—
‘‘आत्मा व अरे दृष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो ।’’
‘‘अपने को सुनो, अपने बारे में जानो, अपने को देखो और अपने बारे में बार-बार मनन चिन्तन करो।’’ वस्तुतः हम अपने को शरीर मान कर जीवन की उन गतिविधियों को निर्धारण करते हैं जिनसे केवल शरीर का ही यत्किंचित् स्वार्थ सिद्ध होता है। आत्मा के हित और कल्पना के लिए हमारे जीवन क्रम में प्रायः नहीं के बराबर स्थान रहता है। यदि हम अपने को आत्मा और शरीर को उसका एक वाहन औजार मात्र समझें तो सारा दृष्टिकोण ही बदल जाय। समस्त गतिविधियां ही उलट जायें तब हम आत्मा के हित, लाभ और कल्याण को ध्यान में रख कर अपनी रीति-नीति निर्धारित करें। ऐसी दशा में हमारा स्वरूप न नर-पशु जैसा रह सकता है और न नरपिशाच जैसा। तब हम विशुद्ध नर नारायण के रूप में परिलक्षित होंगे, देवत्व हमारे रोम-रोम से फूटा पड़ रहा होगा।
जन्म-दिन मनाने की प्रक्रिया के साथ युग-निर्माण योजना के अन्तर्गत आत्म-ज्ञान का व्यापक उद्बोधन-व्यापक अभियान—चलाया जा रहा है। अखण्ड-ज्योति के प्रत्येक परिजन को बहुत जोर देकर कहा जा रहा है कि वह अपना जनम दिन समारोह पूर्वक मनाया करे। उस दिन अपने में भावनात्मक उल्लास उत्पन्न किया करे। जीवन के स्वरूप, उद्देश्य एवं उपयोग के महान् तत्वज्ञान पर एकान्त में विचार किया करे और अपने आपसे यह प्रश्न पूछा करे कि अपने अस्तित्व का मूल स्वरूप क्या है? इस सुर दुर्लभ मानव जीवन का उद्देश्य क्या? और इन बहुमूल्य क्षणों का सर्वोत्तम सदुपयोग किस प्रकार किया जा सकता है? इन प्रश्नों का यदि सही उत्तर भीतर से मिले और इतना साहस उत्पन्न हो जाय कि जो श्रेयस्कर है उसी को अपना लिया जाय तो हमारे जीवन में एक आध्यात्मिक क्रान्ति उपस्थित हो सकती है। हम सामान्य से असामान्य—नर से नारायण—पुरुष से पुरुषोत्तम, तुच्छ महान्—और आत्मा से बढ़ कर परमात्मा—बन सकते हैं।
जन्म दिन के अवसर पर वर्षों के हिसाब से घृत-दीप जलाना, पंच तत्व पूजन, महा मृत्युंजय मंत्र का सामूहिक पाठ, गायत्री यज्ञ, पुष्पहारों, अभिवन्दन आशीर्वाद जैसे धर्मकृत्य एक भावनात्मक उल्लासपूर्ण वातावरण उत्पन्न करते हैं। मित्रों, परिजनों का सम्मिलित, सस्ता पेय जल पान, उस हंसी, खुशी को ओर बढ़ा देता है। उपस्थित लोगों में भी उस तरह का आयोजन करने और जन्म-दिन मनाने की इच्छा उत्पन्न होती है और इस पुण्य-परम्रा के प्रसारण की सम्भावना है। मनुष्य का निज का जन्म-दिन उसके लिए निजी दृष्टि से सबसे बड़ा त्योहार होता है। कृष्ण जी की जन्माष्टमी, राम जी की राम नवमी अपने स्थान पर महत्वपूर्ण है, पर एक सामान्य व्यक्ति के जीवन में उसका जन्म-दिन भी कम महत्व का नहीं। अपनापन हर किसी को पसन्द है। अपनी शकल शीशे या फोटो में देख कर, अपना नाम कहीं छपा देख कर, अपनी चर्चा कहीं सुन कर हर किसी को गर्व गौरव—सन्तोष आनन्द का—अनुभव होता है। आन्तरिक उल्लास का अभिवर्धन एक आध्यात्मिक साधन है। इस प्रकार हर दृष्टि से जन्म दिन आयोजनों का मनाया जाना, श्रेयस्कर ही है। इस प्रथा परम्परा को जितने अधिक उत्साह के साथ प्रचलित किया जायेगा उतना ही राष्ट्र के आध्यात्मिक उत्कर्ष का उद्देश्य पूरा होगा। यों संसार के सभ्य समाज में सर्वत्र जन्म दिन का उत्सव मनाने का रिवाज है। इसे अच्छा भी माना जाता है। पर अपना उद्देश्य तो इससे भी ऊंचा है। सामाजिक, पारिवारिक एवं मनोवैज्ञानिक उत्सव मात्र ही इसे नहीं रहने देना है। वरन् इस महान् परम्परा को आध्यात्मिक जागरण का आधार भी बनाना है, जिससे युग निर्माण का—देवत्व के परिपोषण का—महान् प्रयोजन पूर्ण हो सके।
जन्म-दिन के अवसर पर अपने आपसे तीन प्रश्न पूछने चाहिए—
(1) भगवान् को सभी प्राणी समान रूप से प्रिय पात्र है। फिर मनुष्य को ही बोलने, सोचने, लिखने एवं असंख्य सुख सुविधाएं प्राप्त करने का विशेष अनुदान क्यों मिला? मनुष्य को हर दृष्टि से उत्कृष्ट स्तर का प्राणी बनाने में इतना श्रम क्यों किया?
उत्तर एक ही हो सकता है—‘‘अपने उद्यान, इस संसार को अधिक सुन्दर और सुव्यवस्थित बनाने के लिए परमेश्वर को साथी सहचरों की जरूरत पड़ी और अपनी क्षमताओं से सुसज्जित एक सर्वांगपूर्ण प्राणी—मनुष्य इस प्रयोजन की पूर्ति के लिये बनाया। विशेष साधन सुविधाएं इसलिये दीं कि उनके द्वारा वह ईश्वरीय प्रयोजनों की पूर्ति ठीक तरह कर सके।’’
(4) दूसरा प्रश्न अपने आपसे पूछना चाहिये कि—जो सुविधायें, विभूतियां सम्पदायें हमें उपलब्ध हैं—‘‘उनका लाभ यदि हम अकेले ही उठाते हैं तो इसमें क्या कोई हर्ज है?’’ उत्तर एक ही मिलेगा—‘‘अन्य प्राणियों के अतिरिक्त जितनी भी बौद्धिक, आर्थिक, प्रतिभा कारक एवं अन्य किसी प्रकार की विशेषतायें हैं, वे विश्व मानव की ही पवित्र अमानत हैं और इनका उपयोग लोक-मंगल के लिए ही किया जाना चाहिए। शरीर रक्षा भर के आवश्यक उपकरण के अतिरिक्त इन साधनों का विश्व-कल्याण के लिये ही उपयोग किया जाय।’’
(3) तीसरा प्रश्न अपने आपसे करना चाहिये कि—‘‘क्या इस सुरदुर्लभ मानव शरीर का सही सदुपयोग हो रहा है?’’
उत्तर यही मिलेगा—‘‘हम सदाचारी, संयमी, परिश्रमी, उदार, सज्जन, हंसमुख, सेवा भावी बने बिना मानव जीवन को सार्थक नहीं बना सकते। इसलिये इन सद्गुणों का अभ्यास बढ़ाने के लिए जीवन यापन की रीति-नीति में उत्कृष्टता और आदर्शवादिता का, सभ्यता और सज्जनता का—पुरुषार्थ और साहस का समुचित समावेश करना चाहिये।’’
इन्हीं प्रश्नोत्तरों में अध्यात्म तत्वज्ञान का सार सन्निहित है। यदि यह प्रश्न जीवन की महान् समस्या के रूप में सामने आयें और उन्हें सुलझाने के लिये हम अपने पूरे विवेक का उपयोग करें तो भावी जीवनयापन के लिये एक व्यवस्थित दर्शन और कार्यक्रम सामने खड़ा होगा। यदि साहसी शूरवीरों की तरह इस ईश्वरीय सन्देश को चुनौती के रूप में स्वीकार किया जा सका तो दूसरे ही दिन आकांक्षाओं और कामनाओं का स्वरूप बदला हुआ होगा। रीति-नीति और कार्य पद्धति में वैसा परिवर्तन परिलक्षित होगा जैसे आत्म-ज्ञान सम्पन्न मनुष्य में प्रत्यक्षतः दृष्टिगोचर होना चाहिए।
जन्म दिन मनाने और उससे प्रेरणा ग्रहण करने की साधना विधि अपनाने के लिए परिजनों से इसलिये अनुरोध किया जाता है कि वे अपने सूक्ष्म शरीर में—मानसिक चेतना में—ज्ञानयोग का समावेश कर देवत्व का जागरण करने की दिशा में आशाजनक प्रगति कर सकें।