Books - सर्वोपयोगी सुलभ साधनाएं
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Language: HINDI
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आत्म-समर्पण द्वारा प्रभु प्राप्ति
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भगवान कृष्ण द्वारा गीता का महत्वपूर्ण उपदेश, ज्ञान देने पर भी महारथी अर्जुन का विषाद दूर नहीं हुआ। वैसे अर्जुन स्वयं भी एक नैष्ठिक साधक, दृढ़व्रती थे। जीवन में कठोर साधनाओं और तपश्चर्या के द्वारा उन्होंने अनेकों उत्कृष्ट सफलतायें अर्जित की थीं। किन्तु इन सबके बावजूद भी रणक्षेत्र में हुए विषाद खिन्नता को वे शान्त न कर सके, न अपने कर्तव्य का निर्धारण ही। मोह और विषाद से खिन्न मना अर्जुन अन्त में भगवान के चरणों में गिरकर कहने लगे—
‘‘जानामि धर्म न च मे प्रवृत्तिः जानाम्यधर्म न च मे निवृत्तिः त्वया हृषीकेश हृदि स्थितेन- यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि।।’’
अर्थात् ‘‘मैं धर्म को जानता हूं पर उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं होती। अधर्म को जानता हूं, पर उससे मेरा छुटकारा नहीं होता। इसलिये हे हृषीकेश आप मेरे हृदय में निवास कीजिए, आप जिधर चलाइये, उधर चलूंगा।’’
महान् विचारक, परम सन्त कबीर ने कहा है— ‘‘मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर । तेरा तुझको सौंपते, क्या लागत है मोर ।।’’
जीवन भर की साधना, साधु संगति, उपासना ज्ञानार्जन के बावजूद भी सन्त कबीर अपने आप में सन्तुष्ट नहीं हुए, अन्त में अपने समस्त जीवन को प्रभु समर्पण करने में ही उनको जीवन का सन्तोष लाभ मिला।
सन्त बिनोवा भावे ने कहा है ‘‘चित्त शुद्धि के लिए की जाने वाली विविध साधनाओं को मैं सोडा या साबुन की उपमा दूंगा और ईश्वर के प्रति आत्म-समर्पण के भाव को जल की संज्ञा दूंगा। सोडा साबुन जल के बिना काम नहीं दें सकते किन्तु सोडा साबुन के बिना निर्मल जल से भी सफाई का काम हो जाता है।’’
आत्मा की परिपूर्णता प्राप्त कर परमात्मा में प्रतिष्ठित होने के दो मार्ग हैं एक प्रयत्नपूर्वक प्राप्त करना और दूसरा अपने आपको सौंप देना। एक में विभिन्न साधनायें करनी पड़ती हैं, चिन्तन मनन ज्ञान के द्वारा विभिन्न उपक्रमों में सचेष्ट रहना पड़ता है। दूसरी ओर सम्पूर्ण भाव से परमात्मा के प्रति अपने आपका समर्पण करना पड़ता है। तरह-तरह की साधनायें, विधि विधानों का अवलम्बन लेकर प्रयत्न द्वारा ईश्वर प्राप्ति की आकांक्षा रखने वाले बहुत मिल सकते हैं किन्तु सम्पूर्ण भाव से अपने परमदेव के समर्पण हो जाने वाले, जीवन में सर्वत्र ही परमात्मा को प्रतिष्ठित करने वाले, अपनी समस्त बागडोर प्रभु के हाथों सौंप कर उसकी इच्छानुसार संसार के महाभारत में लड़ने वाले अर्जुन बिरले ही होते हैं।
विभिन्न साधनाओं, व्रत, तपश्चर्याओं में अपनी शक्ति का परिचय देकर अपनी साधना का हिसाब लगाने वाले साधकों में एक प्रकार का विशेष सात्विक अहंकार पैदा हो जाता है और यही एक दीवार बनकर आत्मा और परमात्मा के बीच अवरोध खड़ा कर देता है। इसे ही शास्त्रकारों ने ज्ञानजन्य अन्धकार कहा है। यही कारण है कि ज्ञानी, ध्यानी, तपस्वी सिद्ध होगी बनना दूसरी बात है किन्तु सम्पूर्ण भाव से परमात्मा की उपलब्धि करना उसमें प्रतिष्ठित होना सर्वथा भिन्न है।
विभिन्न साधनाओं के रहते भी अपने समस्त कर्तृत्व, अहंकार निजत्व की भावनाओं को मिटा कर समस्त जीवन को प्रभु चरणों में समर्पण किए बिना परमात्मा में प्रतिष्ठित होना सम्भव नहीं है।
वस्तुतः ‘‘परमात्मा को प्राप्त करना है’’ यह कहना ही अयुक्त है। वे तो सर्वत्र विराजमान हैं, व्याप्त हैं, जन-जन के हृदय में प्रतिष्ठित हैं। ‘‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्ज्जुन तिष्ठति ।’’ ‘‘एको विश्वस्य भुवनस्य राजा’’ (ऋग्वेद)। वे सब लोकों के एक मात्र स्वामी हैं। ‘‘तस्मिन हतस्थूर्भुवनानि विश्वा’’ (ऋ.) उनमें ही सम्पूर्ण लोक स्थित हैं। किन्तु फिर भी हम उन्हें नहीं देख पाते, परमपिता के पावन अंक में नहीं खेल पाते, उनमें एकाकार नहीं हो पाते, इसका कारण हमारी अपनी ही कमी है। हम अपने आपको (अहं) के क्षुद्र संकीर्ण घेरे में आबद्ध किए बैठे हैं। हमारी उपासना, हमारी साधना सम्पूर्ण भाव से स्वयं को उन्हें सौंप देने की नहीं होती वरन् गणना और मूल्यांकन द्वारा अपने कर्तृत्व के अभिमान की सुखद मादकता से युक्त होने की, अपने आपको विशेष समझने, सिद्ध करने के लिए होती है। तभी तो हम उनसे विलग हैं।
हमारे समस्त दुःख वेदनायें इसलिये हैं कि हम अहं की गठरी में जीवन के सकल हानि-लाभ, हार-जीत, सुख-दुःख, उतार-चढ़ाव के भारी बोझ को बांधकर सदैव अपने ऊपर लादे फिरते हैं और क्षण-क्षण अनेक आघात संघात सहते रहते हैं। जिस क्षण अपने अहं को मिटा कर सर्वभावेन प्रभु के समक्ष अपने आपको समर्पित कर देंगे तो यह समस्त बोझा हमसे तत्क्षण ही छूट जायेगा। अहंकार की मृत्यु के साथ ही जीवन के समस्त विरोधी भाव, प्रवृत्तियां, नकारात्मक विचार शान्त हो जायेंगे। हमारा जीवन प्रभु की ओर उसी तरह बहने लगेगा जैसे अनुकूल हवा की लहरों का संयोग पाकर मंजिल की ओर बढ़ने वाली नाव।
लम्बे बीहड़ दुर्गम पथ पर एक अबोध अक्षम बालक का चल सकना कितना कठिन होता है? उसके दुर्बल कमजोर हाथ पैर और अल्प जीवनी शक्ति के भरोसे मंजिल प्राप्त करने की आशा नहीं की जा सकती। किन्तु वही बालक पिता के अंक में बैठ कर सहज ही उस लम्बे पथ को पार कर लेता है। किन्तु यह तभी सम्भव है जब सम्पूर्ण भाव से अपने आपको पिता के अंक में सौंप दिया जाय। तब पिता का अंक ही उसके लिए मंजिल बन जाती है। परमात्मा में प्रतिष्ठित होने के लिये भी यह पथ सहज और सुलभ है। इसी का अवलम्बन लेकर ही तो अर्जुन ने जीवन भर पूर्ण समाधान पाने के लिये भगवान् से कहा था, ‘‘भगवन्! मैं धर्म जानता हूं पर उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं, मैं अधर्म जानता हूं पर उससे छूट नहीं पाता। अतएव जो निर्णय कर पाया हूं वह यही है आप मेरे हृदय में विराजमान होकर मुझे जो भी आदेश देंगे, मुझे जिस ओर चलाना चाहेंगे, जो कुछ कराना चाहेंगे मैं वही करूंगा, उधर ही चलूंगा।
परमात्मा से साक्षात्कार, उनमें प्रतिष्ठित होने का सरल और सहज मार्ग है अपने शक्ति सामर्थ्य, कर्तव्य के अभिमान का त्याग करना और सम्पूर्ण भाव से परमात्मा को अपने आपका निवेदन समर्पण करना। तब सर्वत्र ही सबके साथ समानता, नम्रता, उदारता आत्मीयता का सम्बन्ध बढ़ता जाता है। तब हममें सबसे ऊपर और सबके आगे रहने की प्रवृत्ति नहीं होगी वरन् सबके पीछे और नीचे प्रभु के चरण कमलों में हमारा स्थान होगा। अपने लिये नहीं वरन् सबके लिये हमारा जीवन होगा। सबके हित में अपना हित, सबके सुख में अपना सुख यदि इन उदार भावनाओं और चरित्र का गठन नहीं होता है तो हमारा आत्म-समर्पण अधूरा है, अथवा हम आत्म-समर्पण का स्वांग रच रहे हैं। ईश्वर के प्रति आत्म-समर्पण करने का यह अर्थ नहीं है कि हम जो कुछ करें वह सब ईश्वर कर रहे हैं। यदि यह धारणा बना ली जायगी तो एक बहुत बड़ी भूल होगी और हमारे आध्यात्मिक जीवन में एक गम्भीर दुर्घटना समझी जायगी। आत्म-समर्पण के पर अपनी बुराइयों, दुष्कृत्यों को पोषण देना, अपनी अकर्मण्यता और नाम भाग्यवाद को प्रश्रय देना, अपने कृत्यों द्वारा प्राप्त असफलता को ईश्वर के मत्थे मढ़ना, आत्म समर्पण की भावना के अनुकूल नहीं है। यह तो एक तरह की विडम्बना और आत्म-प्रवंचना है। समर्पण का अर्थ है—पूर्णरूपेण प्रभु को हृदय में स्वीकार करना, उनकी इच्छा प्रेरणाओं के प्रति सदैव जागरूक रहना, जीवन के प्रत्येक क्षण में उसे परिणित करते रहना।
प्रभु आपकी क्या इच्छा है? आपका क्या आदेश है देव! यह प्रश्न निरन्तर अन्तर में उठता रहे तो इसमें कोई सन्देह नहीं कि परमात्मा अपनी इच्छा, प्रेरणानुसार हमें सहज ही लक्ष्य तक पहुंचा देंगे। दिव्य प्रेरणाओं से मानव जीवन दिव्य कर्मों में प्रयुक्त होने लगता है और मनुष्य सहज ही श्रेय की प्राप्ति कर लेता है। आत्मा की परिपूर्णता प्राप्त होकर परमात्मा में गति मिलती है।
इसलिये मनीषियों ने ज्ञान-विज्ञान उपासना साधना के क्षेत्र में पर्याप्त खोज करने के उपरान्त भी कहा है ‘‘पिता नोऽसि।’’ आप हमारे पिता हैं। हे प्रभु! आप हमारे पिता हैं, आप ही हमारी मां हैं। आप ही बन्धु सखा सर्व कुछ आप ही हैं। आप ही सर्वोपरि विद्या धन सम्पदायें हैं। आप ही हमारे जीवन के देवाधिदेव सर्वेश्वर प्रभु हैं।’’
परमात्मा में प्रतिष्ठित होने के लिए, उन्हें प्राप्त करने के लिये अपने समस्त जीवन की बागडोर उन्हीं के हाथों सौंपनी पड़ेगी। उन्हें ही हृदय मन्दिर में प्रतिष्ठित करना होगा। उन्हीं की इच्छा प्रेरणा को जीवन का मन्त्र बनाना पड़ेगा। सम्पूर्ण भाव से उनकी ही शरण में जाना पड़ेगा। अन्यथा हमारा अभिमान, आकांक्षायें कर्तृत्व की भावना, इच्छायें, कामनायें, ऐषणायें न जाने हमें कहां दुर्गति के गर्त में ले जा पटकेंगी।
‘‘जानामि धर्म न च मे प्रवृत्तिः जानाम्यधर्म न च मे निवृत्तिः त्वया हृषीकेश हृदि स्थितेन- यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि।।’’
अर्थात् ‘‘मैं धर्म को जानता हूं पर उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं होती। अधर्म को जानता हूं, पर उससे मेरा छुटकारा नहीं होता। इसलिये हे हृषीकेश आप मेरे हृदय में निवास कीजिए, आप जिधर चलाइये, उधर चलूंगा।’’
महान् विचारक, परम सन्त कबीर ने कहा है— ‘‘मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर । तेरा तुझको सौंपते, क्या लागत है मोर ।।’’
जीवन भर की साधना, साधु संगति, उपासना ज्ञानार्जन के बावजूद भी सन्त कबीर अपने आप में सन्तुष्ट नहीं हुए, अन्त में अपने समस्त जीवन को प्रभु समर्पण करने में ही उनको जीवन का सन्तोष लाभ मिला।
सन्त बिनोवा भावे ने कहा है ‘‘चित्त शुद्धि के लिए की जाने वाली विविध साधनाओं को मैं सोडा या साबुन की उपमा दूंगा और ईश्वर के प्रति आत्म-समर्पण के भाव को जल की संज्ञा दूंगा। सोडा साबुन जल के बिना काम नहीं दें सकते किन्तु सोडा साबुन के बिना निर्मल जल से भी सफाई का काम हो जाता है।’’
आत्मा की परिपूर्णता प्राप्त कर परमात्मा में प्रतिष्ठित होने के दो मार्ग हैं एक प्रयत्नपूर्वक प्राप्त करना और दूसरा अपने आपको सौंप देना। एक में विभिन्न साधनायें करनी पड़ती हैं, चिन्तन मनन ज्ञान के द्वारा विभिन्न उपक्रमों में सचेष्ट रहना पड़ता है। दूसरी ओर सम्पूर्ण भाव से परमात्मा के प्रति अपने आपका समर्पण करना पड़ता है। तरह-तरह की साधनायें, विधि विधानों का अवलम्बन लेकर प्रयत्न द्वारा ईश्वर प्राप्ति की आकांक्षा रखने वाले बहुत मिल सकते हैं किन्तु सम्पूर्ण भाव से अपने परमदेव के समर्पण हो जाने वाले, जीवन में सर्वत्र ही परमात्मा को प्रतिष्ठित करने वाले, अपनी समस्त बागडोर प्रभु के हाथों सौंप कर उसकी इच्छानुसार संसार के महाभारत में लड़ने वाले अर्जुन बिरले ही होते हैं।
विभिन्न साधनाओं, व्रत, तपश्चर्याओं में अपनी शक्ति का परिचय देकर अपनी साधना का हिसाब लगाने वाले साधकों में एक प्रकार का विशेष सात्विक अहंकार पैदा हो जाता है और यही एक दीवार बनकर आत्मा और परमात्मा के बीच अवरोध खड़ा कर देता है। इसे ही शास्त्रकारों ने ज्ञानजन्य अन्धकार कहा है। यही कारण है कि ज्ञानी, ध्यानी, तपस्वी सिद्ध होगी बनना दूसरी बात है किन्तु सम्पूर्ण भाव से परमात्मा की उपलब्धि करना उसमें प्रतिष्ठित होना सर्वथा भिन्न है।
विभिन्न साधनाओं के रहते भी अपने समस्त कर्तृत्व, अहंकार निजत्व की भावनाओं को मिटा कर समस्त जीवन को प्रभु चरणों में समर्पण किए बिना परमात्मा में प्रतिष्ठित होना सम्भव नहीं है।
वस्तुतः ‘‘परमात्मा को प्राप्त करना है’’ यह कहना ही अयुक्त है। वे तो सर्वत्र विराजमान हैं, व्याप्त हैं, जन-जन के हृदय में प्रतिष्ठित हैं। ‘‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्ज्जुन तिष्ठति ।’’ ‘‘एको विश्वस्य भुवनस्य राजा’’ (ऋग्वेद)। वे सब लोकों के एक मात्र स्वामी हैं। ‘‘तस्मिन हतस्थूर्भुवनानि विश्वा’’ (ऋ.) उनमें ही सम्पूर्ण लोक स्थित हैं। किन्तु फिर भी हम उन्हें नहीं देख पाते, परमपिता के पावन अंक में नहीं खेल पाते, उनमें एकाकार नहीं हो पाते, इसका कारण हमारी अपनी ही कमी है। हम अपने आपको (अहं) के क्षुद्र संकीर्ण घेरे में आबद्ध किए बैठे हैं। हमारी उपासना, हमारी साधना सम्पूर्ण भाव से स्वयं को उन्हें सौंप देने की नहीं होती वरन् गणना और मूल्यांकन द्वारा अपने कर्तृत्व के अभिमान की सुखद मादकता से युक्त होने की, अपने आपको विशेष समझने, सिद्ध करने के लिए होती है। तभी तो हम उनसे विलग हैं।
हमारे समस्त दुःख वेदनायें इसलिये हैं कि हम अहं की गठरी में जीवन के सकल हानि-लाभ, हार-जीत, सुख-दुःख, उतार-चढ़ाव के भारी बोझ को बांधकर सदैव अपने ऊपर लादे फिरते हैं और क्षण-क्षण अनेक आघात संघात सहते रहते हैं। जिस क्षण अपने अहं को मिटा कर सर्वभावेन प्रभु के समक्ष अपने आपको समर्पित कर देंगे तो यह समस्त बोझा हमसे तत्क्षण ही छूट जायेगा। अहंकार की मृत्यु के साथ ही जीवन के समस्त विरोधी भाव, प्रवृत्तियां, नकारात्मक विचार शान्त हो जायेंगे। हमारा जीवन प्रभु की ओर उसी तरह बहने लगेगा जैसे अनुकूल हवा की लहरों का संयोग पाकर मंजिल की ओर बढ़ने वाली नाव।
लम्बे बीहड़ दुर्गम पथ पर एक अबोध अक्षम बालक का चल सकना कितना कठिन होता है? उसके दुर्बल कमजोर हाथ पैर और अल्प जीवनी शक्ति के भरोसे मंजिल प्राप्त करने की आशा नहीं की जा सकती। किन्तु वही बालक पिता के अंक में बैठ कर सहज ही उस लम्बे पथ को पार कर लेता है। किन्तु यह तभी सम्भव है जब सम्पूर्ण भाव से अपने आपको पिता के अंक में सौंप दिया जाय। तब पिता का अंक ही उसके लिए मंजिल बन जाती है। परमात्मा में प्रतिष्ठित होने के लिये भी यह पथ सहज और सुलभ है। इसी का अवलम्बन लेकर ही तो अर्जुन ने जीवन भर पूर्ण समाधान पाने के लिये भगवान् से कहा था, ‘‘भगवन्! मैं धर्म जानता हूं पर उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं, मैं अधर्म जानता हूं पर उससे छूट नहीं पाता। अतएव जो निर्णय कर पाया हूं वह यही है आप मेरे हृदय में विराजमान होकर मुझे जो भी आदेश देंगे, मुझे जिस ओर चलाना चाहेंगे, जो कुछ कराना चाहेंगे मैं वही करूंगा, उधर ही चलूंगा।
परमात्मा से साक्षात्कार, उनमें प्रतिष्ठित होने का सरल और सहज मार्ग है अपने शक्ति सामर्थ्य, कर्तव्य के अभिमान का त्याग करना और सम्पूर्ण भाव से परमात्मा को अपने आपका निवेदन समर्पण करना। तब सर्वत्र ही सबके साथ समानता, नम्रता, उदारता आत्मीयता का सम्बन्ध बढ़ता जाता है। तब हममें सबसे ऊपर और सबके आगे रहने की प्रवृत्ति नहीं होगी वरन् सबके पीछे और नीचे प्रभु के चरण कमलों में हमारा स्थान होगा। अपने लिये नहीं वरन् सबके लिये हमारा जीवन होगा। सबके हित में अपना हित, सबके सुख में अपना सुख यदि इन उदार भावनाओं और चरित्र का गठन नहीं होता है तो हमारा आत्म-समर्पण अधूरा है, अथवा हम आत्म-समर्पण का स्वांग रच रहे हैं। ईश्वर के प्रति आत्म-समर्पण करने का यह अर्थ नहीं है कि हम जो कुछ करें वह सब ईश्वर कर रहे हैं। यदि यह धारणा बना ली जायगी तो एक बहुत बड़ी भूल होगी और हमारे आध्यात्मिक जीवन में एक गम्भीर दुर्घटना समझी जायगी। आत्म-समर्पण के पर अपनी बुराइयों, दुष्कृत्यों को पोषण देना, अपनी अकर्मण्यता और नाम भाग्यवाद को प्रश्रय देना, अपने कृत्यों द्वारा प्राप्त असफलता को ईश्वर के मत्थे मढ़ना, आत्म समर्पण की भावना के अनुकूल नहीं है। यह तो एक तरह की विडम्बना और आत्म-प्रवंचना है। समर्पण का अर्थ है—पूर्णरूपेण प्रभु को हृदय में स्वीकार करना, उनकी इच्छा प्रेरणाओं के प्रति सदैव जागरूक रहना, जीवन के प्रत्येक क्षण में उसे परिणित करते रहना।
प्रभु आपकी क्या इच्छा है? आपका क्या आदेश है देव! यह प्रश्न निरन्तर अन्तर में उठता रहे तो इसमें कोई सन्देह नहीं कि परमात्मा अपनी इच्छा, प्रेरणानुसार हमें सहज ही लक्ष्य तक पहुंचा देंगे। दिव्य प्रेरणाओं से मानव जीवन दिव्य कर्मों में प्रयुक्त होने लगता है और मनुष्य सहज ही श्रेय की प्राप्ति कर लेता है। आत्मा की परिपूर्णता प्राप्त होकर परमात्मा में गति मिलती है।
इसलिये मनीषियों ने ज्ञान-विज्ञान उपासना साधना के क्षेत्र में पर्याप्त खोज करने के उपरान्त भी कहा है ‘‘पिता नोऽसि।’’ आप हमारे पिता हैं। हे प्रभु! आप हमारे पिता हैं, आप ही हमारी मां हैं। आप ही बन्धु सखा सर्व कुछ आप ही हैं। आप ही सर्वोपरि विद्या धन सम्पदायें हैं। आप ही हमारे जीवन के देवाधिदेव सर्वेश्वर प्रभु हैं।’’
परमात्मा में प्रतिष्ठित होने के लिए, उन्हें प्राप्त करने के लिये अपने समस्त जीवन की बागडोर उन्हीं के हाथों सौंपनी पड़ेगी। उन्हें ही हृदय मन्दिर में प्रतिष्ठित करना होगा। उन्हीं की इच्छा प्रेरणा को जीवन का मन्त्र बनाना पड़ेगा। सम्पूर्ण भाव से उनकी ही शरण में जाना पड़ेगा। अन्यथा हमारा अभिमान, आकांक्षायें कर्तृत्व की भावना, इच्छायें, कामनायें, ऐषणायें न जाने हमें कहां दुर्गति के गर्त में ले जा पटकेंगी।