Books - सर्वोपयोगी सुलभ साधनाएं
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Language: HINDI
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सर्वोपयोगी सुलभ साधनाएं
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सकल किन्तु सर्वांगपूर्ण साधना-पद्धति
पिछले दिनों सर्वसाधारण के लिए उपयोगी, सरल एवं संक्षिप्त उपासना पद्धति की मांग की जाती रही है। यह पुस्तक उसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए लिखी जा रही है। जिनकी श्रद्धा सामान्य है, जिनके पास अवकाश भी कम है, किन्तु उपासना पथ पर अग्रसर होना चाहते उन्हें एक संतुलित उपासना पद्धति चाहिए ही। यह मांग और आवश्यकता ऐसी हैं, जिनकी पूर्ति की जानी चाहिए। अतएव यह पुस्तक उसी समाधान के लिए लिखी जा रही है।
उपासना के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि उसमें केवल पूजापरक कर्मकाण्ड ही काफी नहीं वरन् साथ में भावनात्मक समावेश भी होना चाहिए। ज्यों-त्यों कुछ पूजा-पत्री कर देने, थोड़ा जप कर लेने या कुछ पाठ कर लेने मात्र से काम नहीं चलेगा। आमतौर से लोग इतना ही करते हैं और समझ लेते हैं कि उनकी उपासना पूर्ण हो गई। कर्मकांड पूजा का एक महत्वपूर्ण अंग तो है पर उतने मात्र से उसमें पूर्णता नहीं आ सकती। उपासना के हर कर्मकांड के साथ आवश्यक भावनाओं का समन्वय रहे तभी उनमें प्रखरता आयेगी।
श्रद्धा में विश्वास का समुचित पुट रहना चाहिए। उपेक्षा, अवज्ञा और कौतूहल की तरह विधि-विधान की लकीरें पीट लेने से काम नहीं चल सकता। शारीरिक क्रियाओं के साथ-साथ आत्मिक उद्गगार का समन्वय भी अभीष्ट है। उसी आधार पर उपासना प्राणवान बनती है।
इसलिए हम सदा से इस बात पर जोर देते रहे हैं कि कोई साधक केवल मात्र पूजन, जप कर लेने से सन्तुष्ट न हो जाय, अन्यथा उसे वैसा ही खाली हाथ रहना पड़ेगा, जैसे कि और हजारों, लाखों लोग निराशा के अतिरिक्त और कुछ प्राप्त नहीं कर पाते। हमने अपने जीवन का लगभग सारा ही समय उपासना में लगाया है। और मंथन, चिन्तन, मार्गदर्शन, अध्ययन एवं अनुभव के आधार पर यह पाया है कि उपासना में पूजा के अतिरिक्त भावना और साधना का भी समन्वय होना चाहिए। तभी वह अभीष्ट परिणाम प्रस्तुत करने में समर्थ हो सकती है। जितना ध्यान पूजा पद्धति पर दिया जाता है, उससे भी अधिक भावना तथा साधना पर दिया जाना चाहिए। तीनों का सम्मिश्रण जहां भी होगा वहां सफलता निश्चित रूप से मिलेगी।
हमने अपना जीवन प्रयोग इसी क्रम पर आधारित रखा और संतोषजनक परिणाम प्राप्त किया। जिन लोगों की एकांगी उपासना रही जो मात्र पूजा पद्धति को सब कुछ समझते रहे और उसी में संलग्न रहे, वे हमसे अधिक श्रम करते रहने पर भी आज खाली हाथ है। हमारा व्यक्तिगत अनुभव और शास्त्रों तथा ऋषियों का निर्देश समग्र साधना करने के पक्ष में है। हमारा अटूट विश्वास है कि यदि सर्वांगपूर्ण उपासना थोड़ी भी की जाय तो वह आशाजनक परिणाम उत्पन्न करेगी। उसके विपरीत एकांगी पूजा पद्धति तक सीमित रहा गया तो किसी महत्वपूर्ण परिणाम की आशा नहीं की जा सकती। उपासना में भावना और साधना का जो जितना समन्वय कर लेगा उसका श्रम उतना ही सार्थक होगा। यह एक सुनिश्चित तथ्य है और उसकी उपेक्षा किसी भी विवेकवान अध्यात्मवादी को नहीं करना चाहिए।
उपासना की भांति ही साधना भी आत्मिक प्रगति का अनिवार्य अंग है। जीवन-शोधन और परमार्थ प्रक्रिया का समन्वय करने से साधना का प्रयोजन पूरा होता है। जिस प्रकार उपासना को पूजन, जप और ब्यान—इन तीन भागों में बांटा जा सकता है, उसी प्रकार आत्म-निर्माण, परिवार-निर्माण और समाज-निर्माण साधना के अविच्छिन्न अंग है। भगवान के स्मरण पर जितना ध्यान आवश्यक है, उतनी ही आवश्यकता जीवन शोधन की भी है। आदर्शवादी, उत्कृष्ट जीवन आस्तिकता का सबसे प्रमुख प्रमाण है। ऐसे भक्त जो अपने आचरण की शुद्धता लेकर ईश्वर के सम्मुख उपस्थित होते हैं, अपने प्रभु को प्रसन्न एवं द्रवित करने में निःसन्देह समर्थ होते हैं।
साधना—जीवन शुद्धि—जिसमें आत्म-शोधन और परमार्थ दोनों ही सन्निहित हैं, उपासना की सफलता का पथ प्रशस्त करती है। जमीन अच्छी हो तो बीज उगने में सरलता होती है। भूमि बहुत दाम की खरीदी जाती है। बहुत परिश्रम उसको उर्वर बनाने में लगता है। खाद, पानी, जुताई, मेड़बन्दी आदि की भारी व्यवस्था बना कर उस जमीन को जब उर्वर बना लिया जाता है, तब कोई भी फसल उसमें बोई उगाई जा सकती है। साधना भूमि निर्माण और उपासना बीज बोना है। बीज बोना थोड़े समय में, थोड़े खर्च में पूरा हो जाता है। इसी प्रकार उपासना घण्टे, आधे घण्टे करने से काम चल जाता है पर साधना में चौबीसों घण्टे निरत रहना पड़ता है। हर घड़ी यह ध्यान रखना पड़ता है कि किसी भी समय कोई अनुचित विचार या कार्य अपने से न बन पावे। अधिक पुरुषार्थ इसी में करना होता है। उपासना में भावना का और साधना में विवेक का समावेश करना होता है। भावना, उपासना को और विवेकशीलता साधना की समग्र बनाती है। इसलिए अपने आध्यात्मिक क्रिया-कलापों में इनका जुड़ा रहना आवश्यक है। एक ऐसी सर्वोपयोगी न्यूनतम उपासना का कार्यक्रम उपस्थित किया जा रहा है, जिसमें उपासना और साधना का आवश्यक समावेश है। व्यस्त रहने वाले या शरीर से दुर्बल लोगों के लिए भी यह कठिन नहीं है। सरल होते हुए भी यह अपनी सजीवता एवं सर्वांगपूर्णता के कारण इतनी प्रभावपूर्ण है इसका प्रत्यक्ष लाभ हर कोई अनुभव कर सकता है और प्राप्त अनुभवों के आधार पर यह प्रतिपादन साहसपूर्वक कर सकता है कि कभी किसी की उपासना निष्फल नहीं जाती। वह भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रगति में निःसन्देह आश्चर्यजनक रीति से सफल होती है।
पिछले दिनों सर्वसाधारण के लिए उपयोगी, सरल एवं संक्षिप्त उपासना पद्धति की मांग की जाती रही है। यह पुस्तक उसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए लिखी जा रही है। जिनकी श्रद्धा सामान्य है, जिनके पास अवकाश भी कम है, किन्तु उपासना पथ पर अग्रसर होना चाहते उन्हें एक संतुलित उपासना पद्धति चाहिए ही। यह मांग और आवश्यकता ऐसी हैं, जिनकी पूर्ति की जानी चाहिए। अतएव यह पुस्तक उसी समाधान के लिए लिखी जा रही है।
उपासना के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि उसमें केवल पूजापरक कर्मकाण्ड ही काफी नहीं वरन् साथ में भावनात्मक समावेश भी होना चाहिए। ज्यों-त्यों कुछ पूजा-पत्री कर देने, थोड़ा जप कर लेने या कुछ पाठ कर लेने मात्र से काम नहीं चलेगा। आमतौर से लोग इतना ही करते हैं और समझ लेते हैं कि उनकी उपासना पूर्ण हो गई। कर्मकांड पूजा का एक महत्वपूर्ण अंग तो है पर उतने मात्र से उसमें पूर्णता नहीं आ सकती। उपासना के हर कर्मकांड के साथ आवश्यक भावनाओं का समन्वय रहे तभी उनमें प्रखरता आयेगी।
श्रद्धा में विश्वास का समुचित पुट रहना चाहिए। उपेक्षा, अवज्ञा और कौतूहल की तरह विधि-विधान की लकीरें पीट लेने से काम नहीं चल सकता। शारीरिक क्रियाओं के साथ-साथ आत्मिक उद्गगार का समन्वय भी अभीष्ट है। उसी आधार पर उपासना प्राणवान बनती है।
इसलिए हम सदा से इस बात पर जोर देते रहे हैं कि कोई साधक केवल मात्र पूजन, जप कर लेने से सन्तुष्ट न हो जाय, अन्यथा उसे वैसा ही खाली हाथ रहना पड़ेगा, जैसे कि और हजारों, लाखों लोग निराशा के अतिरिक्त और कुछ प्राप्त नहीं कर पाते। हमने अपने जीवन का लगभग सारा ही समय उपासना में लगाया है। और मंथन, चिन्तन, मार्गदर्शन, अध्ययन एवं अनुभव के आधार पर यह पाया है कि उपासना में पूजा के अतिरिक्त भावना और साधना का भी समन्वय होना चाहिए। तभी वह अभीष्ट परिणाम प्रस्तुत करने में समर्थ हो सकती है। जितना ध्यान पूजा पद्धति पर दिया जाता है, उससे भी अधिक भावना तथा साधना पर दिया जाना चाहिए। तीनों का सम्मिश्रण जहां भी होगा वहां सफलता निश्चित रूप से मिलेगी।
हमने अपना जीवन प्रयोग इसी क्रम पर आधारित रखा और संतोषजनक परिणाम प्राप्त किया। जिन लोगों की एकांगी उपासना रही जो मात्र पूजा पद्धति को सब कुछ समझते रहे और उसी में संलग्न रहे, वे हमसे अधिक श्रम करते रहने पर भी आज खाली हाथ है। हमारा व्यक्तिगत अनुभव और शास्त्रों तथा ऋषियों का निर्देश समग्र साधना करने के पक्ष में है। हमारा अटूट विश्वास है कि यदि सर्वांगपूर्ण उपासना थोड़ी भी की जाय तो वह आशाजनक परिणाम उत्पन्न करेगी। उसके विपरीत एकांगी पूजा पद्धति तक सीमित रहा गया तो किसी महत्वपूर्ण परिणाम की आशा नहीं की जा सकती। उपासना में भावना और साधना का जो जितना समन्वय कर लेगा उसका श्रम उतना ही सार्थक होगा। यह एक सुनिश्चित तथ्य है और उसकी उपेक्षा किसी भी विवेकवान अध्यात्मवादी को नहीं करना चाहिए।
उपासना की भांति ही साधना भी आत्मिक प्रगति का अनिवार्य अंग है। जीवन-शोधन और परमार्थ प्रक्रिया का समन्वय करने से साधना का प्रयोजन पूरा होता है। जिस प्रकार उपासना को पूजन, जप और ब्यान—इन तीन भागों में बांटा जा सकता है, उसी प्रकार आत्म-निर्माण, परिवार-निर्माण और समाज-निर्माण साधना के अविच्छिन्न अंग है। भगवान के स्मरण पर जितना ध्यान आवश्यक है, उतनी ही आवश्यकता जीवन शोधन की भी है। आदर्शवादी, उत्कृष्ट जीवन आस्तिकता का सबसे प्रमुख प्रमाण है। ऐसे भक्त जो अपने आचरण की शुद्धता लेकर ईश्वर के सम्मुख उपस्थित होते हैं, अपने प्रभु को प्रसन्न एवं द्रवित करने में निःसन्देह समर्थ होते हैं।
साधना—जीवन शुद्धि—जिसमें आत्म-शोधन और परमार्थ दोनों ही सन्निहित हैं, उपासना की सफलता का पथ प्रशस्त करती है। जमीन अच्छी हो तो बीज उगने में सरलता होती है। भूमि बहुत दाम की खरीदी जाती है। बहुत परिश्रम उसको उर्वर बनाने में लगता है। खाद, पानी, जुताई, मेड़बन्दी आदि की भारी व्यवस्था बना कर उस जमीन को जब उर्वर बना लिया जाता है, तब कोई भी फसल उसमें बोई उगाई जा सकती है। साधना भूमि निर्माण और उपासना बीज बोना है। बीज बोना थोड़े समय में, थोड़े खर्च में पूरा हो जाता है। इसी प्रकार उपासना घण्टे, आधे घण्टे करने से काम चल जाता है पर साधना में चौबीसों घण्टे निरत रहना पड़ता है। हर घड़ी यह ध्यान रखना पड़ता है कि किसी भी समय कोई अनुचित विचार या कार्य अपने से न बन पावे। अधिक पुरुषार्थ इसी में करना होता है। उपासना में भावना का और साधना में विवेक का समावेश करना होता है। भावना, उपासना को और विवेकशीलता साधना की समग्र बनाती है। इसलिए अपने आध्यात्मिक क्रिया-कलापों में इनका जुड़ा रहना आवश्यक है। एक ऐसी सर्वोपयोगी न्यूनतम उपासना का कार्यक्रम उपस्थित किया जा रहा है, जिसमें उपासना और साधना का आवश्यक समावेश है। व्यस्त रहने वाले या शरीर से दुर्बल लोगों के लिए भी यह कठिन नहीं है। सरल होते हुए भी यह अपनी सजीवता एवं सर्वांगपूर्णता के कारण इतनी प्रभावपूर्ण है इसका प्रत्यक्ष लाभ हर कोई अनुभव कर सकता है और प्राप्त अनुभवों के आधार पर यह प्रतिपादन साहसपूर्वक कर सकता है कि कभी किसी की उपासना निष्फल नहीं जाती। वह भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रगति में निःसन्देह आश्चर्यजनक रीति से सफल होती है।