Books - सर्वोपयोगी सुलभ साधनाएं
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नवरात्रि में अनुष्ठान तपश्चर्या
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दैनिक उपासना के लिये पिछले पृष्ठों पर अभी (1) प्रातः 3 से 5 अथवा रात्रि को 8 से 10 बजे के बीच की जाने वाली ‘ज्योति-अवतरण’ की साधना, (2) नित्य पूजन-आत्म-शुद्धि के पांच विधान—सप्तविधि उपचार अर्चन और एक माला एवं एक चालीसा पाठ आत्म-कल्याण के लिये—एक माला सत्संकल्प पाठ युग-निर्माण के लिये करने का प्रकार बताया गया है। मालाओं की संख्या कम भले ही हो पर जप के साथ ध्यान अवश्य जुड़े होनी चाहिये। आत्म-कल्याण वाली माला के साथ माता की गोद में क्रीड़ा-कल्लोल करने और पय-पान करने का और विश्व-कल्याण वाली माला के साथ दीपक पर पतंगे की तरह विश्व-मानव के लिये आत्म-समर्पण करने का ध्यान बताया गया है।
मालायें भले ही दो रहें पर यदि उनके साथ यह ध्यान जुड़ा रहेगा तो निस्सन्देह उसमें प्रखरता एवं सजीवता उत्पन्न होगी। यह सजीव उपासना हमारे सूक्ष्म-स्थूल और कारण शरीरों को प्रभावित करेगी और जीवन क्रम में ऐसा हेर-फेर उत्पन्न करेगी, जिससे अपने अध्यात्म की अभिवृद्धि का परिचय अपने को दूसरों को भली प्रकार मिल सकेगा। शरीर में रक्त-मांस बढ़ने का प्रमाण, परिचय अपने को दूसरों को आसानी से लग जाता है, फिर कोई कारण नहीं कि अन्तरंग में अध्यात्म की अभिवृद्धि से जीवन-क्रम में उत्पन्न हुई दिव्यता का प्रमाण परिचय न मिले। सच्चे उपासक की जीवन सुगन्धि हर दिशा को सुवासित करती है।
यह दैनिक उपासना क्रम हुआ। वर्ष में दो बार विशेष तपश्चर्यायें करनी चाहिये। आश्विन और चैत्र की नवरात्रियों के 9-9 दिन विशिष्ट साधना के लिये अति उपयुक्त है। जिस प्रकार दिन और रात्रि के मिलन अवसर को संध्याकाल कहते हैं और प्रातः सायं के संध्याकाल में उपासना करना महत्वपूर्ण माना है, उसी प्रकार शीत और ग्रीष्म ऋतुओं के मिलन की यह ऋतु-संध्या 9-9 दिन के लिये—नवरात्रि के रूप में—वर्ष में दो बार आया करती है। शरीर और मन के विकारों का निष्कासन—परिशोधन इस अवसर पर बड़ी आसानी से हो सकता है। जिस प्रकार बीज बोने की एक विशेष अवधि आती है और चतुर किसान उन दिनों सतर्कतापूर्वक अपने खेतों में बीज बो देते हैं, उसी प्रकार इन नवरात्रियों में भी कुछ तपश्चर्या की जा सके तो उसके अधिक फलवती होने की सम्भावना रहती है। स्त्रियों को महीने में जिस प्रकार ऋतुकाल आता है, उसी प्रकार नवरात्रियां प्रकृति की भी ऋतुकाल है। इन दिनों यदि आध्यात्मिक बीजारोपण किये जायें तो उनके फलित होने की सम्भावना निश्चय ही अधिक रहेगी।
आश्विन सुदी प्रतिपदा से लेकर नवमी तक और चैत्र सुदी प्रतिपदा से लेकर नवमी तक 9-9 दिन की दो नवरात्रि होती हैं। एक तीसरी नवरात्रि जेष्ठ सुदी प्रतिपदा से नवमी तक भी होती है। दशमी को गायत्री जयन्ती होने के कारण यह 9 दिन का पर्व भी मानने और मनाने योग्य है। पर यदि उसकी व्यवस्था न बन पड़े तो 6-6 महीने के अन्तर से आने वाली आश्विन और चैत्र की दो नवरात्रियां तो तपश्चर्या के लिये नियत रखनी ही चाहिये। तिथियां अक्सर घटती-बढ़ती रहती हैं। साधना उस झंझट में नहीं पड़ती।
नवरात्रियों का अर्थ नौ रातें हैं। रातें न कभी घटती हैं, न बढ़ती हैं। इसलिये जिस दिन प्रतिपदा हो—नवरात्रि का आरम्भ हो उस दिन से लेकर पूरे नौ दिन इसके लिये नियत रखने चाहिये। 9 वें दिन अपनी जप साधना पूरी होने पर चाहें तो उसी दिन अपनी साधना पूर्ण कर सकते हैं अथवा सुविधानुसार एक दिन आगे बढ़ा कर दशमी को दसवें दिन भी अनुष्ठान की पूर्णाहुति रखी जा सकती है। यदि कोई सामूहिक उत्सव आयोजन उस अवसर पर कुछ बड़े रूप में बन पड़े तब तो नवमी और दशमी के दिन की बात बहुत ही उत्तम है।
आश्विन में दशमी को विजय-दशमी पड़ती है। ज्येष्ठ सुदी दशमी को गंगा जयन्ती अथवा गायत्री जयन्ती होती है। चैत्र सुदी 9 को रामनवमी का पर्व है। तब दशमी को तो कोई विशेष पर्व नहीं होता पर जिस प्रकार आश्विन ज्येष्ठ में नवमी को भी कोई पर्व न होने पर भी उस दिन पूर्णाहुति की जाती है, उसी प्रकार चैत्र में उसकी कोई विशेषता न होने पर भी द्विदिवसीय वर्धक्रम में उसे भी सम्मिलित रखा जा सकता है। जहां पूर्णाहुति एक दिन में करनी हो वहां नवमी को अथवा दो दिन के सामूहिक कार्यक्रम में नवमी, दशमी दो दिन का आयोजन रखना चाहिये, उसमें भी तिथियों की घटा-बढ़ी को महत्व नहीं देना चाहिये।
नवरात्रियों की नौ दिवसीय साधना 24 सहस्र गायत्री अनुष्ठान के साथ सम्पन्न करनी चाहिये। गायत्री परम सतोगुणी—शरीर और आत्मा में दिव्य तत्वों का—आध्यात्मिक विशेषताओं का अभिवर्धन करने वाली महाशक्ति है। यही आत्म-कल्याण का मार्ग है। हमें यही साधन इन दिनों करना चाहिये। यों कई लोग तमोगुणी रक्त-मांस से सराबोर वध संहार करने वाले देवी-देवताओं की भी पूजा उपासना करते हैं। यह तांत्रिक विधान है। तांत्रिक प्रयोग मनुष्य में तमोगुणी तत्वों को बढ़ा सकते हैं, उससे कोई सांसारिक प्रयोजन पूरा हो भी सकता है। पर तमोगुण के वातावरण में आत्मिक प्रगति की आशा नहीं की जा सकती। इसलिये श्रेय पथ के पथिकों को गायत्री अनुष्ठान ही नवरात्रियों में करने चाहिये।
24 हजार जप का लघु गायत्री अनुष्ठान होता है। प्रतिदिन 27 माला जप करने से 9 दिन में 240 मालायें अथवा 2400 मंत्र जप पूरा हो जाता है। माला में यों 108 दाने होते हैं पर 8 अशुद्ध उच्चारण अथवा भूल-चूक का हिसाब छोड़कर गणना 100 की ही की जाती है। इसलिये प्रतिदिन 27 माला का क्रम रखा जाता है। मोटा अनुपात घन्टे में 10-11 माला का रहता है। इस प्रकार प्रायः 2।। घन्टे इस जप में लग जाते हैं। प्रातःकाल इतना समय न मिलता हो तो प्रातः सांय दोनों समय मिला कर इस संख्या को पूरा किया जा सकता है। प्रातःकाल स्नान करके बैठना चाहिये और दैनिक पूजा की तरह ही आत्म-शुद्धि के पांच विधान, पूजा के सात उपचार पूरे करके जप आरम्भ कर देना चाहिये। अन्त में सूर्य को अर्घ दान करना चाहिये।
यदि जप प्रातः पूरा नहीं हो सकता है तो सायंकाल उसे पूरा कर लेना चाहिये। ध्यान इतना ही रखना चाहिये कि एक घन्टा रात्रि जाने से पूर्व ही शेष जप पूरा कर लिया जाय। अधिक रात गये मानसिक जप तो हो सकता है पर उसकी गणना अनुष्ठान में नहीं होती है। सायंकाल स्नान की आवश्यकता नहीं। हाथ-मुंह धोकर शेष उपासना की पूर्ति की जा सकती है। अधिक देर बैठने से घुटने दर्द करते हों, तो खड़े होकर भी कुछ जप किया जा सकता है। बीच में पेशाब के लिये उठना पड़े तो फिर हाथ-पैर धोकर बैठना चाहिये और जप आरम्भ करने से पूर्व तीन आचमन कर लेने चाहिये। स्त्रियों को यदि बीच में अशुद्धि काल आ जाय तो चार दिन बन्द रखें और जितने दिन का जप शेष रहा था उसे पीछे पूरा कर लें।
इस प्रकार का व्यवधान जब पड़े तो 10 माला उस सन्दर्भ में अधिक कर लेनी चाहिये। अनुष्ठान के दिनों में यज्ञोपवीत पहनना तो अधिक आवश्यक है। जो पहनते हैं वे आरम्भ के दिन नया बदल लें। जो नहीं पहनते उन्हें कम से कम 9 दिन के लिये तो पहन ही लेना चाहिये, पीछे न पहनना हो तो उतार भी सकते हैं। जिनकी गोदी में बहुत छोटे बच्चे हैं और साथ सोने के कारण पेशाब टट्टी में अक्सर यज्ञोपवीत गन्दा कर सकते हैं, उन्हें छोड़ शेष स्त्रियां भी अनुष्ठान के दिनों यज्ञोपवीत पहन सकती हैं। किन्तु यदि परम्परा वश जनेऊ न भी पहनें तो भी अनुष्ठान तो बिना किसी हिचक के कर सकती हैं। उपासना क्षेत्र में नर-नारी को एक समान अधिकार है। ईश्वर के लिये पुत्र-पुत्री दोनों समान हैं। यह भेद-भाव तो संकीर्ण बुद्धि का अभागा मनुष्य ही करता रहता है।
अनुष्ठान काल में जप तो पूरा करना ही पड़ता है, कुछ विशेष तपश्चर्यायें भी इन दिनों करनी होती हैं, जो इस प्रकार है— नौ दिन तक पूर्ण ब्रह्मचर्य से रहा जाय। यदि स्वप्न-दोष हो जाय तो दस माला प्रायश्चित की अधिक की जायं।
(2) नौ दिन उपवास रखा जाय। उपवास में कई स्तर हो सकते हैं, (अ) फल-दूध पर, (ब) शाकाहार, (स) खिचड़ी दलिया आदि रांध कर खायें। आलू, टमाटर, लौकी आदि शाक में नकम भर डालना चाहिये। मसाला इन दिनों छोड़ दिया जाय। बिना नमक या शक्कर का साधारण भोजन भी एक प्रकार का उपवास ही है। जिनसे जैसा बन पड़े उन्हें अपनी शारीरिक स्थिति के अनुरूप उपवास का क्रम बना लेना चाहिये। फलाहार-शाकाहार दो बार किया जा सकता है। अन्नाहार लेना हो तो एक बार ही लेना चाहिये। सायंकाल दूध आदि लिया जा सकता है। प्रातःकाल खाली पेट जिनसे न रहा जाय, वे दूध छाछ, नीबू पानी शरबत जैसी कोई पतली चीज ले सकते हैं।
(3) भूमि शयन, चारपाई का त्याग। पृथ्वी या तख्त पर सोना।
(4) अपनी सेवायें स्वयं करना। हजामत, कपड़े धोना, स्नान आदि दैनिक कार्य बिना दूसरों के श्रम का उपयोग किये स्वयं ही करने चाहिये। भोजन बाजार का बना नहीं खाना चाहिए। स्वयं पकाना सम्भव हो तो सर्वोत्तम अन्यथा अपनी पत्नी, माता आदि की। घनिष्ठ परिजनों की सेवा ही उसमें ली जा सकती है।
(5) चमड़े की वस्तुओं का त्याग। चूंकि इन दिनों 99 प्रतिशत चमड़ा पशुओं की हत्या करके ही प्राप्त किया जाता है और वह पाप उन चमड़ा उपयोग करने वालों को भी लगता है। इसलिये चमड़े के जूते, पेटी, पट्टे आदि का उपयोग उन दिनों न करके रबड़, कपड़ा आदि के बने जूते, चप्पलों से काम चलाना चाहिये।
यह पांच नियम अनुष्ठान काल में पालन किये जाने चाहिए। जप का शतांश हवन किया जाना चाहिए। प्रतिदिन हवन करना हो तो 27 आहुतियां और अन्त में करना हो तो 240 आहुतियों का हवन करना चाहिए। अच्छा यही है कि अन्त में किया जाय और उसमें घर परिवार के अन्य व्यक्ति भी सम्मिलित कर लिये जायें। यदि एक नगर में कई साधक अनुष्ठान करने वाले हों तो वे सब मिल कर एक सामूहिक बड़ा हवन कर सकते हैं, जिसमें अनुष्ठान कर्त्ताओं के अतिरिक्त अन्य व्यक्ति भी सम्मिलित हो सकें। हवन में सुगन्धित पदार्थ हों, थोड़ी मात्रा में जौ, तिल, चावल, शक्कर और घी भी मिलाया जाय। गायत्री हवन पद्धति में सारा विधि-विधान लिखा है। ध्यानपूर्वक उसे पढ़ने और किसी जानकार की सहायता से समझने पर हवन की पूरी विधि आसानी से सीखी समझी जा सकती है। उतना न बन पड़े तो भी तांबे के कुण्ड में अथवा मिट्टी की वेदी बना कर उस पर आम, पीपल, बरगद, शमी, ढाक आदि की लकड़ी चिननी चाहिए और कपूर अथवा घी में डूबी रुई की बत्ती से अग्नि प्रज्वलित कर लेनी चाहिए। सात आहुति केवल घी की देकर इसके उपरान्त हवन आरम्भ कर देना चाहिये। आहुतियां देने में भी तर्जनी उंगली काम नहीं आती है। अंगूठा, मध्यमा अनामिका का प्रयोग ही जप की तरह हवन में भी किया जाता है। मन्त्र सब साथ-साथ बोलें, आहुतियां साथ-साथ दें। अन्त में एक स्विष्टकृत आहुति मिठाई की। एक पूर्णाहुति सुपाड़ी, गोला आदि की खड़े होकर। एक आहुति चम्मच से बूंद-बूंद टपका कर वसोधरा की। इसके बाद आरती, भस्म धारण, घृत हाथों से मल कर चेहरे से लगाना, क्षमा प्रार्थना, साष्टांग परिक्रमा आदि कृत्य कर लेने चाहिए। इन विधानों के मन्त्र न आते हों तो केवल गायत्री मन्त्र का भी हर प्रयोजन में प्रयोग किया जा सकता है। अच्छा तो यही है कि पूरी विधि सीखी जाय और पूर्ण विधान से हवन किया जाय। पर वैसी व्यवस्था न हो तो उपरोक्त प्रकार से संक्षिप्त क्रम भी बनाया जा सकता है।
पूर्णाहुति के बाद प्रसाद वितरण, कन्या भोजन आदि का प्रबन्ध अपनी सामर्थ्य अनुसार करना चाहिये। अच्छा तो यह है कि एक दिन या दो दिन का सामूहिक आयोजन किया जाय, जिसमें गायत्री महाशक्ति का स्वरूप और उपयोग सम्बन्धी प्रवचन हों। अधिक लोगों को आमंत्रित, एकत्रित किया जाय और उन्हें भी इस मार्ग पर चलने के लिये प्रेरित किया जाय। अन्त में सत्संकल्प दुहराया जाना हमारे हर धर्मानुष्ठान का आवश्यक अंग होना चाहिये।
जो उपरोक्त अनुष्ठान नहीं कर सकते वे 140 गायत्री चालीसा का पाठ करके अथवा 240 गायत्री मन्त्र लिख कर भी सरल अनुष्ठान कर सकते हैं। इसके साथ पांच प्रतिबंध अनिवार्य नहीं, पर ब्रह्मचर्य आदि नियम जितने कुछ पालन किए जा सकें, उतने ही उत्तम हैं।
अनुष्ठान काल में अक्सर आसुरी शक्तियां विघ्न-बाधायें उपस्थित करती रहती हैं। कई भूलें और त्रुटियां भी रह जाती हैं। इन विघ्नों का संरक्षण और त्रुटियों का दोष परिमार्जन करते रहने के लिये कोई भी अनुष्ठानकर्त्ता हमारी सेवाओं का लाभ उठा सकता है। जवाबी पत्र भेज कर नवरात्रि से पूर्व ही गायत्री तपोभूमि मथुरा के पते पर हमें सूचना दी जा सकती है। उनके अनुष्ठान को निर्विघ्न एवं सफलतापूर्वक सम्पन्न कराने के लिये नौ दिन तक संरक्षण परिमार्जन करते रहेंगे।
जो हवन न कर सकते हों उनके बदले का हवन भी गायत्री तपोभूमि की यज्ञशाला में किया जा सकता है। जो अनुष्ठान स्वयं नहीं कर सकते, उनके लिये जप, हवन, तर्पण मर्दन, मुद्रा अभिषेक, पूर्णाहुति, कन्या भोज, प्रसाद वितरण आदि समस्त अंग-उपांगों समेत सर्वांगपूर्ण अनुष्ठान विद्वान कर्मकांडी ब्राह्मणों द्वारा कराया जा सकता है। जिन्हें ऐसी आवश्यकता हो पत्र द्वारा आवश्यक जानकारी प्राप्त कर लें।
यथा सम्भव नवरात्रियों में अनुष्ठानों की विशेष तपश्चर्या की व्यवस्था बनानी चाहिये। इससे शरीर और मन में भरे विकारों के परिशोधन करने में बड़ी सहायता मिलती है।
यह दैनिक उपासना क्रम हुआ। वर्ष में दो बार विशेष तपश्चर्यायें करनी चाहिये। आश्विन और चैत्र की नवरात्रियों के 9-9 दिन विशिष्ट साधना के लिये अति उपयुक्त है। जिस प्रकार दिन और रात्रि के मिलन अवसर को संध्याकाल कहते हैं और प्रातः सायं के संध्याकाल में उपासना करना महत्वपूर्ण माना है, उसी प्रकार शीत और ग्रीष्म ऋतुओं के मिलन की यह ऋतु-संध्या 9-9 दिन के लिये—नवरात्रि के रूप में—वर्ष में दो बार आया करती है। शरीर और मन के विकारों का निष्कासन—परिशोधन इस अवसर पर बड़ी आसानी से हो सकता है। जिस प्रकार बीज बोने की एक विशेष अवधि आती है और चतुर किसान उन दिनों सतर्कतापूर्वक अपने खेतों में बीज बो देते हैं, उसी प्रकार इन नवरात्रियों में भी कुछ तपश्चर्या की जा सके तो उसके अधिक फलवती होने की सम्भावना रहती है। स्त्रियों को महीने में जिस प्रकार ऋतुकाल आता है, उसी प्रकार नवरात्रियां प्रकृति की भी ऋतुकाल है। इन दिनों यदि आध्यात्मिक बीजारोपण किये जायें तो उनके फलित होने की सम्भावना निश्चय ही अधिक रहेगी।
आश्विन सुदी प्रतिपदा से लेकर नवमी तक और चैत्र सुदी प्रतिपदा से लेकर नवमी तक 9-9 दिन की दो नवरात्रि होती हैं। एक तीसरी नवरात्रि जेष्ठ सुदी प्रतिपदा से नवमी तक भी होती है। दशमी को गायत्री जयन्ती होने के कारण यह 9 दिन का पर्व भी मानने और मनाने योग्य है। पर यदि उसकी व्यवस्था न बन पड़े तो 6-6 महीने के अन्तर से आने वाली आश्विन और चैत्र की दो नवरात्रियां तो तपश्चर्या के लिये नियत रखनी ही चाहिये। तिथियां अक्सर घटती-बढ़ती रहती हैं। साधना उस झंझट में नहीं पड़ती।
नवरात्रियों का अर्थ नौ रातें हैं। रातें न कभी घटती हैं, न बढ़ती हैं। इसलिये जिस दिन प्रतिपदा हो—नवरात्रि का आरम्भ हो उस दिन से लेकर पूरे नौ दिन इसके लिये नियत रखने चाहिये। 9 वें दिन अपनी जप साधना पूरी होने पर चाहें तो उसी दिन अपनी साधना पूर्ण कर सकते हैं अथवा सुविधानुसार एक दिन आगे बढ़ा कर दशमी को दसवें दिन भी अनुष्ठान की पूर्णाहुति रखी जा सकती है। यदि कोई सामूहिक उत्सव आयोजन उस अवसर पर कुछ बड़े रूप में बन पड़े तब तो नवमी और दशमी के दिन की बात बहुत ही उत्तम है।
आश्विन में दशमी को विजय-दशमी पड़ती है। ज्येष्ठ सुदी दशमी को गंगा जयन्ती अथवा गायत्री जयन्ती होती है। चैत्र सुदी 9 को रामनवमी का पर्व है। तब दशमी को तो कोई विशेष पर्व नहीं होता पर जिस प्रकार आश्विन ज्येष्ठ में नवमी को भी कोई पर्व न होने पर भी उस दिन पूर्णाहुति की जाती है, उसी प्रकार चैत्र में उसकी कोई विशेषता न होने पर भी द्विदिवसीय वर्धक्रम में उसे भी सम्मिलित रखा जा सकता है। जहां पूर्णाहुति एक दिन में करनी हो वहां नवमी को अथवा दो दिन के सामूहिक कार्यक्रम में नवमी, दशमी दो दिन का आयोजन रखना चाहिये, उसमें भी तिथियों की घटा-बढ़ी को महत्व नहीं देना चाहिये।
नवरात्रियों की नौ दिवसीय साधना 24 सहस्र गायत्री अनुष्ठान के साथ सम्पन्न करनी चाहिये। गायत्री परम सतोगुणी—शरीर और आत्मा में दिव्य तत्वों का—आध्यात्मिक विशेषताओं का अभिवर्धन करने वाली महाशक्ति है। यही आत्म-कल्याण का मार्ग है। हमें यही साधन इन दिनों करना चाहिये। यों कई लोग तमोगुणी रक्त-मांस से सराबोर वध संहार करने वाले देवी-देवताओं की भी पूजा उपासना करते हैं। यह तांत्रिक विधान है। तांत्रिक प्रयोग मनुष्य में तमोगुणी तत्वों को बढ़ा सकते हैं, उससे कोई सांसारिक प्रयोजन पूरा हो भी सकता है। पर तमोगुण के वातावरण में आत्मिक प्रगति की आशा नहीं की जा सकती। इसलिये श्रेय पथ के पथिकों को गायत्री अनुष्ठान ही नवरात्रियों में करने चाहिये।
24 हजार जप का लघु गायत्री अनुष्ठान होता है। प्रतिदिन 27 माला जप करने से 9 दिन में 240 मालायें अथवा 2400 मंत्र जप पूरा हो जाता है। माला में यों 108 दाने होते हैं पर 8 अशुद्ध उच्चारण अथवा भूल-चूक का हिसाब छोड़कर गणना 100 की ही की जाती है। इसलिये प्रतिदिन 27 माला का क्रम रखा जाता है। मोटा अनुपात घन्टे में 10-11 माला का रहता है। इस प्रकार प्रायः 2।। घन्टे इस जप में लग जाते हैं। प्रातःकाल इतना समय न मिलता हो तो प्रातः सांय दोनों समय मिला कर इस संख्या को पूरा किया जा सकता है। प्रातःकाल स्नान करके बैठना चाहिये और दैनिक पूजा की तरह ही आत्म-शुद्धि के पांच विधान, पूजा के सात उपचार पूरे करके जप आरम्भ कर देना चाहिये। अन्त में सूर्य को अर्घ दान करना चाहिये।
यदि जप प्रातः पूरा नहीं हो सकता है तो सायंकाल उसे पूरा कर लेना चाहिये। ध्यान इतना ही रखना चाहिये कि एक घन्टा रात्रि जाने से पूर्व ही शेष जप पूरा कर लिया जाय। अधिक रात गये मानसिक जप तो हो सकता है पर उसकी गणना अनुष्ठान में नहीं होती है। सायंकाल स्नान की आवश्यकता नहीं। हाथ-मुंह धोकर शेष उपासना की पूर्ति की जा सकती है। अधिक देर बैठने से घुटने दर्द करते हों, तो खड़े होकर भी कुछ जप किया जा सकता है। बीच में पेशाब के लिये उठना पड़े तो फिर हाथ-पैर धोकर बैठना चाहिये और जप आरम्भ करने से पूर्व तीन आचमन कर लेने चाहिये। स्त्रियों को यदि बीच में अशुद्धि काल आ जाय तो चार दिन बन्द रखें और जितने दिन का जप शेष रहा था उसे पीछे पूरा कर लें।
इस प्रकार का व्यवधान जब पड़े तो 10 माला उस सन्दर्भ में अधिक कर लेनी चाहिये। अनुष्ठान के दिनों में यज्ञोपवीत पहनना तो अधिक आवश्यक है। जो पहनते हैं वे आरम्भ के दिन नया बदल लें। जो नहीं पहनते उन्हें कम से कम 9 दिन के लिये तो पहन ही लेना चाहिये, पीछे न पहनना हो तो उतार भी सकते हैं। जिनकी गोदी में बहुत छोटे बच्चे हैं और साथ सोने के कारण पेशाब टट्टी में अक्सर यज्ञोपवीत गन्दा कर सकते हैं, उन्हें छोड़ शेष स्त्रियां भी अनुष्ठान के दिनों यज्ञोपवीत पहन सकती हैं। किन्तु यदि परम्परा वश जनेऊ न भी पहनें तो भी अनुष्ठान तो बिना किसी हिचक के कर सकती हैं। उपासना क्षेत्र में नर-नारी को एक समान अधिकार है। ईश्वर के लिये पुत्र-पुत्री दोनों समान हैं। यह भेद-भाव तो संकीर्ण बुद्धि का अभागा मनुष्य ही करता रहता है।
अनुष्ठान काल में जप तो पूरा करना ही पड़ता है, कुछ विशेष तपश्चर्यायें भी इन दिनों करनी होती हैं, जो इस प्रकार है— नौ दिन तक पूर्ण ब्रह्मचर्य से रहा जाय। यदि स्वप्न-दोष हो जाय तो दस माला प्रायश्चित की अधिक की जायं।
(2) नौ दिन उपवास रखा जाय। उपवास में कई स्तर हो सकते हैं, (अ) फल-दूध पर, (ब) शाकाहार, (स) खिचड़ी दलिया आदि रांध कर खायें। आलू, टमाटर, लौकी आदि शाक में नकम भर डालना चाहिये। मसाला इन दिनों छोड़ दिया जाय। बिना नमक या शक्कर का साधारण भोजन भी एक प्रकार का उपवास ही है। जिनसे जैसा बन पड़े उन्हें अपनी शारीरिक स्थिति के अनुरूप उपवास का क्रम बना लेना चाहिये। फलाहार-शाकाहार दो बार किया जा सकता है। अन्नाहार लेना हो तो एक बार ही लेना चाहिये। सायंकाल दूध आदि लिया जा सकता है। प्रातःकाल खाली पेट जिनसे न रहा जाय, वे दूध छाछ, नीबू पानी शरबत जैसी कोई पतली चीज ले सकते हैं।
(3) भूमि शयन, चारपाई का त्याग। पृथ्वी या तख्त पर सोना।
(4) अपनी सेवायें स्वयं करना। हजामत, कपड़े धोना, स्नान आदि दैनिक कार्य बिना दूसरों के श्रम का उपयोग किये स्वयं ही करने चाहिये। भोजन बाजार का बना नहीं खाना चाहिए। स्वयं पकाना सम्भव हो तो सर्वोत्तम अन्यथा अपनी पत्नी, माता आदि की। घनिष्ठ परिजनों की सेवा ही उसमें ली जा सकती है।
(5) चमड़े की वस्तुओं का त्याग। चूंकि इन दिनों 99 प्रतिशत चमड़ा पशुओं की हत्या करके ही प्राप्त किया जाता है और वह पाप उन चमड़ा उपयोग करने वालों को भी लगता है। इसलिये चमड़े के जूते, पेटी, पट्टे आदि का उपयोग उन दिनों न करके रबड़, कपड़ा आदि के बने जूते, चप्पलों से काम चलाना चाहिये।
यह पांच नियम अनुष्ठान काल में पालन किये जाने चाहिए। जप का शतांश हवन किया जाना चाहिए। प्रतिदिन हवन करना हो तो 27 आहुतियां और अन्त में करना हो तो 240 आहुतियों का हवन करना चाहिए। अच्छा यही है कि अन्त में किया जाय और उसमें घर परिवार के अन्य व्यक्ति भी सम्मिलित कर लिये जायें। यदि एक नगर में कई साधक अनुष्ठान करने वाले हों तो वे सब मिल कर एक सामूहिक बड़ा हवन कर सकते हैं, जिसमें अनुष्ठान कर्त्ताओं के अतिरिक्त अन्य व्यक्ति भी सम्मिलित हो सकें। हवन में सुगन्धित पदार्थ हों, थोड़ी मात्रा में जौ, तिल, चावल, शक्कर और घी भी मिलाया जाय। गायत्री हवन पद्धति में सारा विधि-विधान लिखा है। ध्यानपूर्वक उसे पढ़ने और किसी जानकार की सहायता से समझने पर हवन की पूरी विधि आसानी से सीखी समझी जा सकती है। उतना न बन पड़े तो भी तांबे के कुण्ड में अथवा मिट्टी की वेदी बना कर उस पर आम, पीपल, बरगद, शमी, ढाक आदि की लकड़ी चिननी चाहिए और कपूर अथवा घी में डूबी रुई की बत्ती से अग्नि प्रज्वलित कर लेनी चाहिए। सात आहुति केवल घी की देकर इसके उपरान्त हवन आरम्भ कर देना चाहिये। आहुतियां देने में भी तर्जनी उंगली काम नहीं आती है। अंगूठा, मध्यमा अनामिका का प्रयोग ही जप की तरह हवन में भी किया जाता है। मन्त्र सब साथ-साथ बोलें, आहुतियां साथ-साथ दें। अन्त में एक स्विष्टकृत आहुति मिठाई की। एक पूर्णाहुति सुपाड़ी, गोला आदि की खड़े होकर। एक आहुति चम्मच से बूंद-बूंद टपका कर वसोधरा की। इसके बाद आरती, भस्म धारण, घृत हाथों से मल कर चेहरे से लगाना, क्षमा प्रार्थना, साष्टांग परिक्रमा आदि कृत्य कर लेने चाहिए। इन विधानों के मन्त्र न आते हों तो केवल गायत्री मन्त्र का भी हर प्रयोजन में प्रयोग किया जा सकता है। अच्छा तो यही है कि पूरी विधि सीखी जाय और पूर्ण विधान से हवन किया जाय। पर वैसी व्यवस्था न हो तो उपरोक्त प्रकार से संक्षिप्त क्रम भी बनाया जा सकता है।
पूर्णाहुति के बाद प्रसाद वितरण, कन्या भोजन आदि का प्रबन्ध अपनी सामर्थ्य अनुसार करना चाहिये। अच्छा तो यह है कि एक दिन या दो दिन का सामूहिक आयोजन किया जाय, जिसमें गायत्री महाशक्ति का स्वरूप और उपयोग सम्बन्धी प्रवचन हों। अधिक लोगों को आमंत्रित, एकत्रित किया जाय और उन्हें भी इस मार्ग पर चलने के लिये प्रेरित किया जाय। अन्त में सत्संकल्प दुहराया जाना हमारे हर धर्मानुष्ठान का आवश्यक अंग होना चाहिये।
जो उपरोक्त अनुष्ठान नहीं कर सकते वे 140 गायत्री चालीसा का पाठ करके अथवा 240 गायत्री मन्त्र लिख कर भी सरल अनुष्ठान कर सकते हैं। इसके साथ पांच प्रतिबंध अनिवार्य नहीं, पर ब्रह्मचर्य आदि नियम जितने कुछ पालन किए जा सकें, उतने ही उत्तम हैं।
अनुष्ठान काल में अक्सर आसुरी शक्तियां विघ्न-बाधायें उपस्थित करती रहती हैं। कई भूलें और त्रुटियां भी रह जाती हैं। इन विघ्नों का संरक्षण और त्रुटियों का दोष परिमार्जन करते रहने के लिये कोई भी अनुष्ठानकर्त्ता हमारी सेवाओं का लाभ उठा सकता है। जवाबी पत्र भेज कर नवरात्रि से पूर्व ही गायत्री तपोभूमि मथुरा के पते पर हमें सूचना दी जा सकती है। उनके अनुष्ठान को निर्विघ्न एवं सफलतापूर्वक सम्पन्न कराने के लिये नौ दिन तक संरक्षण परिमार्जन करते रहेंगे।
जो हवन न कर सकते हों उनके बदले का हवन भी गायत्री तपोभूमि की यज्ञशाला में किया जा सकता है। जो अनुष्ठान स्वयं नहीं कर सकते, उनके लिये जप, हवन, तर्पण मर्दन, मुद्रा अभिषेक, पूर्णाहुति, कन्या भोज, प्रसाद वितरण आदि समस्त अंग-उपांगों समेत सर्वांगपूर्ण अनुष्ठान विद्वान कर्मकांडी ब्राह्मणों द्वारा कराया जा सकता है। जिन्हें ऐसी आवश्यकता हो पत्र द्वारा आवश्यक जानकारी प्राप्त कर लें।
यथा सम्भव नवरात्रियों में अनुष्ठानों की विशेष तपश्चर्या की व्यवस्था बनानी चाहिये। इससे शरीर और मन में भरे विकारों के परिशोधन करने में बड़ी सहायता मिलती है।