Books - सर्वोपयोगी सुलभ साधनाएं
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Language: HINDI
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आत्म-कल्याण जप के साथ पय-पान का ध्यान
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आत्म-कल्याण के लिये गायत्री महामंत्र की पहली एक माला जप करते समय अपने को एक वर्ष आयु के छोटे बालक के रूप में अनुभव करना चाहिये और सर्व शक्तिमान गायत्री माता की गोद में खेलने, क्रीड़ा-कल्लोल करने की भावना करने चाहिये। उनका पयपान करते हुए अनुभूति जगानी चाहिये कि इस अमृत दूध के साथ मुझे आदर्शवादिता, उत्कृष्टता, ऋतम्भरा-प्रज्ञा, सज्जनता एवं सदाशयता जैसी दिव्य आध्यात्मिक विभूतियां उपलब्ध हो रही हैं और उनके माध्यम से अपना अन्तःकरण एवं व्यक्तित्व महान् बनता चला जा रहा है।
ध्यान का स्वरूप नीचे दिया जाता है।
(1) प्रलय के समय बची हुई अनन्त जलराशि में कमल के पत्ते पर तैरते हुए बाल भगवान का चित्र बाजार में बिकता है। वह चित्र खरीद लेना चाहिये और उसी के अनुरूप अपनी स्थिति अनुभव करनी चाहिए। इस संसार से ऊपर नील आकाश और नीचे नील जल के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। जो कुछ भी दृश्य पदार्थ इस संसार में थे वे इस प्रलय काल में ब्रह्म के भीतर तिरोहित हो गये। अब केवल अनन्त शून्य बचा है जिसमें नीचे जल और ऊपर आकाश के अतिरिक्त और कोई वस्तु शेष नहीं। यह उपासना भूमिका के वातावरण का स्वरूप है। पहले इसी पर ध्यान एकाग्र किया जाये।
(2) मैं कमल पत्र पड़े हुए एक वर्षीय बालक की स्थिति में निश्चिन्त भाव से पड़ा क्रीड़ा-कल्लोल कर रहा हूं। न किसी बात की चिन्ता है, न आकांक्षा और न आवश्यकता। पूर्णतया निश्चिन्त, निर्भय, निर्द्वन्द्व, निष्काम जिस प्रकार छोटे बालक की मनोभूमि हुआ करती है, ठीक वैसी ही अपनी है। चारों और उल्लास एवं आनन्द का वातावरण संव्याप्त है। मैं उसी की अनुभूति करता हुआ परिपूर्ण तृप्ति एवं सन्तुष्टि का आनन्द ले रहा हूं।
(3) प्रातःकाल जिस प्रकार संसार में अरुणिमा युक्त स्वर्णिम आभा के साथ भगवान सविता अपने समस्त वरेण्य, दिव्य भर्ग ऐश्वर्य के साथ उदय होते है उसी प्रकार उस अनन्त आकाश की पूर्व दिशा में ब्रह्म की महान शक्ति गायत्री का उदय होता है। उसके बीच अनुपम सौंदर्य से युक्त अलौकिक सौन्दर्य की प्रतिमा जगद्धात्री गायत्री माता प्रकट होती है। वे हंसती-मुस्कराती अपनी ओर बढ़ती आ रही हैं। हम बालसुलभ किलकारियां लेते हुए उनकी ओर बढ़ते चले जाते हैं। दोनों माता-पुत्र आलिंगन आनन्द से आबद्ध होते हैं और अपनी ओर से असीम वात्सल्य की गंगा-यमुना प्रवाहित हो उठती है दोनों का संगम परम-पावन तीर्थराज बन जाता है।
माता और पुत्र के बीच क्रीड़ा-कल्लोल भरा स्नेह-वात्सल्य का आदान-प्रदान होता है। उसका पूरी तरह ध्यान ही नहीं भावना भूमिका में भी उतारना चाहिये। बच्चा मां के बाल, नाक आदि पकड़ने की चेष्टा करता है, मुंह नाक में अंगुली देता है, गोदी में ऊपर चढ़ने की चेष्टा करता है। हंसता, मुस्कराता और अपने आनन्द की अनुभूति उछल-उछल कर प्रकट करता है वैसी ही स्थिति अपनी अनुभव करनी चाहिये। माता अपने बालक को पुकारती है, उसके सिर पीठ पर हाथ फिराती है, गोदी में उठाती—छाती से लगाती, दुलारती है, उछालती है, वैसी ही चेष्टायें माता की ओर से प्रेम उल्लास के साथ हंसी-मुस्कान के साथ की जा रही है ऐसा ध्यान करना चाहिये।
स्मरण रहे केवल उपयुक्त दृश्यों की कल्पना करने से ही काम न चलेगा वरन् प्रयत्न करना होगा कि वे भावनायें भी मन में उठें, जो ऐसे अवसर पर स्वाभाविक माता पुत्र के बीच उठती रहती हैं। दृश्य की कल्पना सरल है पर भाव की अनुभूति कठिन है। अपने स्तर को वयस्क व्यक्ति के रूप में अनुभव किया गया तो कठिनाई पड़ेगी किन्तु यदि सचमुच अपने को एक वर्ष के बालक की स्थिति में अनुभव किया गया, जिसकी माता के स्नेह के अतिरिक्त और कोई भी प्रिय वस्तु होती ही नहीं, तो फिर विभिन्न दिशाओं में बिखरी हुई अपनी भावनायें एकत्रित होकर उस असीम उल्लास भरी अनुभूति के रूप में उदय होंगी जो स्वभावतः हर माता और हर बालक के बीच में निश्चित रूप से उदय होती हैं। प्रौढ़ता को भुलाकर शैशव का शरीर और भावना स्तर स्मरण कर सकना यदि सम्भव हो सका तो समझना चाहिए कि साधक ने एक बहुत बड़ी मंजिल पार कर ली। मन प्रेम का गुलाम है। मन भागता है पर उसके भागने की दिशा अप्रिय से प्रिय भी होती है। जहां प्रिय वस्तु मिल जाती है वहां वह ठहर जाता है। प्रेम ही सर्वोपरि प्रिय है। जिससे भी अपना प्रेम हो जाय वह भले ही कुरूप या निरूप भी हो पर लगता परम प्रिय है। मन का स्वभाव प्रिय वस्तु के आस-पास मंडराते रहने का है। उपर्युक्त ध्यान साधना में गायत्री माता के प्रति प्रेम भावना का विकास करना पड़ता है फिर उसका सर्वांग सुन्दर स्वरूप भी प्रस्तुत है। सर्वांग सुन्दर-प्रेम की अधिष्ठात्री गायत्री माता का चिन्तन करने से मन उसी परिधि में घूमता रहता है। उसी क्षेत्र में क्रीड़ा कल्लोल करता रहता है। अतएव मन को रोकने, वश में करने की एक बहुत बड़ी आध्यात्मिक आवश्यकता भी इस साधना के माध्यम से पूरी हो जाती है।
इस ध्यान धारणा में गायत्री माता को केवल एक नारी-मात्र नहीं माना जाता है। वरन् सत् चित् आनन्द स्वरूप—समस्त सद्गुणों, सद्भावनाओं, सत् वृत्तियों का प्रतीक, ज्ञान-विज्ञान का प्रतिनिधि और शक्ति सामर्थ्य का स्रोत मानते हैं। प्रतिमा नारी की भले ही हो पर वस्तुतः वह ब्रह्म-चेतना क्रम दिव्य ज्योति बन कर ही—अनुभूति में उतरे।
जब माता के स्तन-पान का ध्यान किया जाय तो यह भावना उठनी चाहिये कि दूध एक दिव्य प्राण है जो माता के वक्ष-स्थल से निकल कर मेरे द्वारा उदर में जा रहा है और वहां एक धवल विद्युत धारा बन कर शरीर के अंग प्रत्यंग—रोम-रोम में ही नहीं—वरन् मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, हृदय, अन्तःकरण, चेतना एवं आत्मा में समाविष्ट हो रहा है। स्थूल, सूक्ष्म, कारण शरीरों में—अन्नमय कोष, मनोमय कोश, प्राणमय कोश, विज्ञानमय कोश, आनन्दमय कोशों में समाए हुये अनेक रोग शोकों—कषाय कल्मषों का निराकरण कर रहा है। इस पय-पान का प्रभाव एक कायाकल्प कर सकने वाली संजीवनी रसायन जैसा हो रहा है। मैं नर से नारायण, पुरुष से पुरुषोत्तम, अणु से विभु, क्षुद्र से महान् और आत्मा से परमात्मा के रूप में विकसित हो रहा हूं। ईश्वर के समस्त सद्गुण धीरे-धीरे व्यक्तित्व का अंग बन रहे हैं। मैं द्रुतगति से उत्कृष्टता की ओर अग्रसर हो रहा हूं। मेरा आत्म-बल असाधारण रूप में प्रखर हो रहा है।
नित्य के दो पाठ
श्री गायत्री चालीसा ह्रीं श्रीं क्लीं मेधा प्रभा जीवन ज्योति प्रचण्ड ॥
शान्ति कान्ति जागृत प्रगति रचना शक्ति अखण्ड ॥
जगत जननी मङ्गल करनि गायत्री सुखधाम ।
प्रणवों सावित्री स्वधा स्वाहा पूरन काम ॥
भूर्भुवः स्वः ॐ युत जननी । गायत्री नित कलिमल दहनी ॥
अक्षर चौबीस परम पुनीता । इनमें बसें शास्त्र श्रुति गीता ॥
शाश्वत सतोगुणी सत रूपा । सत्य सनातन सुधा अनूपा ॥
हंसारूढ सितंबर धारी । स्वर्ण कान्ति शुचि गगन- बिहारी ॥
पुस्तक पुष्प कमण्डलु माला । शुभ्र वर्ण तनु नयन विशाला ॥
ध्यान धरत पुलकित हित होई । सुख उपजत दुःख दुर्मति खोई ॥
कामधेनु तुम सुर तरु छाया । निराकार की अद्भुत माया ॥
तुम्हरी शरण गहै जो कोई । तरै सकल संकट सों सोई ॥
सरस्वती लक्ष्मी तुम काली । दिपै तुम्हारी ज्योति निराली ॥
तुम्हरी महिमा पार न पावैं । जो शारद शत मुख गुन गावैं ॥
चार वेद की मात पुनीता । तुम ब्रह्माणी गौरी सीता ॥
महामन्त्र जितने जग माहीं । कोउ गायत्री सम नाहीं ॥
सुमिरत हिय में ज्ञान प्रकासै । आलस पाप अविद्या नासै ॥
सृष्टि बीज जग जननि भवानी । कालरात्रि वरदा कल्याणी ॥
ब्रह्मा विष्णु रुद्र सुर जेते । तुम सों पावें सुरता तेते ॥
तुम भक्तन की भक्त तुम्हारे । जननिहिं पुत्र प्राण ते प्यारे ॥
महिमा अपरम्पार तुम्हारी । जय जय जय त्रिपदा भयहारी ॥
पूरित सकल ज्ञान विज्ञाना । तुम सम अधिक न जगमे आना ॥
तुमहिं जानि कछु रहै न शेषा । तुमहिं पाय कछु रहै न क्लेसा ॥
जानत तुमहिं तुमहिं व्है जाई । पारस परसि कुधातु सुहाई ॥
तुम्हरी शक्ति दिपै सब ठाई । माता तुम सब ठौर समाई ॥
ग्रह नक्षत्र ब्रह्माण्ड घनेरे । सब गतिवान तुम्हारे प्रेरे ॥
सकल सृष्टि की प्राण विधाता । पालक पोषक नाशक त्राता ॥
मातेश्वरी दया व्रत धारी । तुम सन तरे पातकी भारी ॥
जापर कृपा तुम्हारी होई । तापर कृपा करें सब कोई ॥
मंद बुद्धि ते बुधि बल पावें । रोगी रोग रहित हो जावें ॥
दरिद्र मिटै कटै सब पीरा । नाशै दुःख हरै भव भीरा ॥
गृह क्लेश चित चिन्ता भारी । नासै गायत्री भय हारी ॥
सन्तति हीन सुसन्तति पावें । सुख संपति युत मोद मनावें ॥
भूत पिशाच सबै भय खावें । यम के दूत निकट नहिं आवें ॥
जो सधवा सुमिरें चित लाई । अछत सुहाग सदा सुखदाई ॥
घर वर सुख प्रद लहैं कुमारी । विधवा रहें सत्य व्रत धारी ॥
जयति जयति जगदंब भवानी । तुम सम ओर दयालु न दानी ॥
जो सतगुरु सो दीक्षा पावे । सो साधन को सफल बनावे ॥
सुमिरन करे सुरूचि बडभागी । लहै मनोरथ गृही विरागी ॥
अष्ट सिद्धि नवनिधि की दाता । सब समर्थ गायत्री माता ॥
ऋषि मुनि यती तपस्वी योगी । आरत अर्थी चिन्तित भोगी ॥
जो जो शरण तुम्हारी आवें । सो सो मन वांछित फल पावें ॥
बल बुधि विद्या शील स्वभाउ । धन वैभव यश तेज उछाउ ॥
सकल बढे उपजें सुख नाना । जे यह पाठ करै धरि ध्याना ॥
दोहा— यह चालीसा भक्ति युत पाठ करै जो कोय ।
तापर कृपा प्रसन्नता गायत्री की होय ॥
युग-निर्माण-सत्संकल्प
—हम आस्तिकता और कर्तव्यपरायणता को मानव जीवन का धर्म कर्तव्य मानेंगे।
—शरीर को भगवान् का मन्दिर समझ कर आत्म-संयम और नियमितता द्वारा आरोग्य की रक्षा करेंगे।
—मन को जीवन का केन्द्र मानकर उसे सदा स्वच्छ रखेंगे।
—कुविचारों और दुर्भावनाओं से इसे बचाये रखने के लिये स्वाध्याय एवं सत्संग की व्यवस्था रख रहेंगे।
—अपने आपको समाज का एक अभिन्न अंग मानेंगे और सबके हित में अपना हित समझेंगे।
—व्यक्तिगत स्वार्थ एवं सुख को सामूहिक स्वार्थ एवं सामूहिक हित से अधिक महत्व न देंगे।
—नागरिकता, नैतिकता, मानवता, सच्चरित्रता, शिष्टता, उदारता, आत्मीयता, समता, सहिष्णुता, श्रमशीलता जैसे सद्गुणों को सच्ची सम्पत्ति समझ कर इन्हें व्यक्तिगत जीवन में निरन्तर बढ़ाते रहेंगे।
—साधना, स्वाध्याय, संयम एवं सेवा कार्यों में आलस्य और प्रमाद न होने देंगे।
—चारों ओर मधुरता, स्वच्छता, सादगी एवं सज्जनता का वातावरण उत्पन्न करेंगे।
—परम्पराओं की तुलना में विवेक को महत्व देंगे।
—अनीति से प्राप्त सफलता की अपेक्षा नीति पर चलते हुए असफलता को शिरोधार्य करेंगे।
—मनुष्य के मूल्यांकन की कसौटी उसकी सफलताओं, योग्यताओं एवं विभूतियों को नहीं, उसके सद्विचारों और सत्कर्मों को मानेंगे।
—हमारा जीवन स्वार्थ के लिये नहीं परमार्थ के लिये होगा।
संसार में सत्प्रवृत्तियों के पुण्य प्रसार के लिये अपने समय, प्रभाव, ज्ञान, पुरुषार्थ एवं धन का एक अंश नियमित रूप से लगाते रहेंगे।
—दूसरों के साथ वह व्यवहार न करेंगे जो हमें अपने लिए पसन्द नहीं।
—ईमानदारी और परिश्रम की कमाई ही ग्रहण करेंगे।
—पत्नीव्रत धर्म पतिव्रत धर्म का परिपूर्ण निष्ठा के साथ पालन करेंगे।
—मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है इस विश्वास के आधार पर हमारी मान्यता है कि हम उत्कृष्ट बनेंगे और दूसरों को श्रेष्ठ बनायेंगे तो युग अवश्य बदलेगा।
—हमारा युग निर्माण संकल्प पूर्ण होगा।
ध्यान का स्वरूप नीचे दिया जाता है।
(1) प्रलय के समय बची हुई अनन्त जलराशि में कमल के पत्ते पर तैरते हुए बाल भगवान का चित्र बाजार में बिकता है। वह चित्र खरीद लेना चाहिये और उसी के अनुरूप अपनी स्थिति अनुभव करनी चाहिए। इस संसार से ऊपर नील आकाश और नीचे नील जल के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। जो कुछ भी दृश्य पदार्थ इस संसार में थे वे इस प्रलय काल में ब्रह्म के भीतर तिरोहित हो गये। अब केवल अनन्त शून्य बचा है जिसमें नीचे जल और ऊपर आकाश के अतिरिक्त और कोई वस्तु शेष नहीं। यह उपासना भूमिका के वातावरण का स्वरूप है। पहले इसी पर ध्यान एकाग्र किया जाये।
(2) मैं कमल पत्र पड़े हुए एक वर्षीय बालक की स्थिति में निश्चिन्त भाव से पड़ा क्रीड़ा-कल्लोल कर रहा हूं। न किसी बात की चिन्ता है, न आकांक्षा और न आवश्यकता। पूर्णतया निश्चिन्त, निर्भय, निर्द्वन्द्व, निष्काम जिस प्रकार छोटे बालक की मनोभूमि हुआ करती है, ठीक वैसी ही अपनी है। चारों और उल्लास एवं आनन्द का वातावरण संव्याप्त है। मैं उसी की अनुभूति करता हुआ परिपूर्ण तृप्ति एवं सन्तुष्टि का आनन्द ले रहा हूं।
(3) प्रातःकाल जिस प्रकार संसार में अरुणिमा युक्त स्वर्णिम आभा के साथ भगवान सविता अपने समस्त वरेण्य, दिव्य भर्ग ऐश्वर्य के साथ उदय होते है उसी प्रकार उस अनन्त आकाश की पूर्व दिशा में ब्रह्म की महान शक्ति गायत्री का उदय होता है। उसके बीच अनुपम सौंदर्य से युक्त अलौकिक सौन्दर्य की प्रतिमा जगद्धात्री गायत्री माता प्रकट होती है। वे हंसती-मुस्कराती अपनी ओर बढ़ती आ रही हैं। हम बालसुलभ किलकारियां लेते हुए उनकी ओर बढ़ते चले जाते हैं। दोनों माता-पुत्र आलिंगन आनन्द से आबद्ध होते हैं और अपनी ओर से असीम वात्सल्य की गंगा-यमुना प्रवाहित हो उठती है दोनों का संगम परम-पावन तीर्थराज बन जाता है।
माता और पुत्र के बीच क्रीड़ा-कल्लोल भरा स्नेह-वात्सल्य का आदान-प्रदान होता है। उसका पूरी तरह ध्यान ही नहीं भावना भूमिका में भी उतारना चाहिये। बच्चा मां के बाल, नाक आदि पकड़ने की चेष्टा करता है, मुंह नाक में अंगुली देता है, गोदी में ऊपर चढ़ने की चेष्टा करता है। हंसता, मुस्कराता और अपने आनन्द की अनुभूति उछल-उछल कर प्रकट करता है वैसी ही स्थिति अपनी अनुभव करनी चाहिये। माता अपने बालक को पुकारती है, उसके सिर पीठ पर हाथ फिराती है, गोदी में उठाती—छाती से लगाती, दुलारती है, उछालती है, वैसी ही चेष्टायें माता की ओर से प्रेम उल्लास के साथ हंसी-मुस्कान के साथ की जा रही है ऐसा ध्यान करना चाहिये।
स्मरण रहे केवल उपयुक्त दृश्यों की कल्पना करने से ही काम न चलेगा वरन् प्रयत्न करना होगा कि वे भावनायें भी मन में उठें, जो ऐसे अवसर पर स्वाभाविक माता पुत्र के बीच उठती रहती हैं। दृश्य की कल्पना सरल है पर भाव की अनुभूति कठिन है। अपने स्तर को वयस्क व्यक्ति के रूप में अनुभव किया गया तो कठिनाई पड़ेगी किन्तु यदि सचमुच अपने को एक वर्ष के बालक की स्थिति में अनुभव किया गया, जिसकी माता के स्नेह के अतिरिक्त और कोई भी प्रिय वस्तु होती ही नहीं, तो फिर विभिन्न दिशाओं में बिखरी हुई अपनी भावनायें एकत्रित होकर उस असीम उल्लास भरी अनुभूति के रूप में उदय होंगी जो स्वभावतः हर माता और हर बालक के बीच में निश्चित रूप से उदय होती हैं। प्रौढ़ता को भुलाकर शैशव का शरीर और भावना स्तर स्मरण कर सकना यदि सम्भव हो सका तो समझना चाहिए कि साधक ने एक बहुत बड़ी मंजिल पार कर ली। मन प्रेम का गुलाम है। मन भागता है पर उसके भागने की दिशा अप्रिय से प्रिय भी होती है। जहां प्रिय वस्तु मिल जाती है वहां वह ठहर जाता है। प्रेम ही सर्वोपरि प्रिय है। जिससे भी अपना प्रेम हो जाय वह भले ही कुरूप या निरूप भी हो पर लगता परम प्रिय है। मन का स्वभाव प्रिय वस्तु के आस-पास मंडराते रहने का है। उपर्युक्त ध्यान साधना में गायत्री माता के प्रति प्रेम भावना का विकास करना पड़ता है फिर उसका सर्वांग सुन्दर स्वरूप भी प्रस्तुत है। सर्वांग सुन्दर-प्रेम की अधिष्ठात्री गायत्री माता का चिन्तन करने से मन उसी परिधि में घूमता रहता है। उसी क्षेत्र में क्रीड़ा कल्लोल करता रहता है। अतएव मन को रोकने, वश में करने की एक बहुत बड़ी आध्यात्मिक आवश्यकता भी इस साधना के माध्यम से पूरी हो जाती है।
इस ध्यान धारणा में गायत्री माता को केवल एक नारी-मात्र नहीं माना जाता है। वरन् सत् चित् आनन्द स्वरूप—समस्त सद्गुणों, सद्भावनाओं, सत् वृत्तियों का प्रतीक, ज्ञान-विज्ञान का प्रतिनिधि और शक्ति सामर्थ्य का स्रोत मानते हैं। प्रतिमा नारी की भले ही हो पर वस्तुतः वह ब्रह्म-चेतना क्रम दिव्य ज्योति बन कर ही—अनुभूति में उतरे।
जब माता के स्तन-पान का ध्यान किया जाय तो यह भावना उठनी चाहिये कि दूध एक दिव्य प्राण है जो माता के वक्ष-स्थल से निकल कर मेरे द्वारा उदर में जा रहा है और वहां एक धवल विद्युत धारा बन कर शरीर के अंग प्रत्यंग—रोम-रोम में ही नहीं—वरन् मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, हृदय, अन्तःकरण, चेतना एवं आत्मा में समाविष्ट हो रहा है। स्थूल, सूक्ष्म, कारण शरीरों में—अन्नमय कोष, मनोमय कोश, प्राणमय कोश, विज्ञानमय कोश, आनन्दमय कोशों में समाए हुये अनेक रोग शोकों—कषाय कल्मषों का निराकरण कर रहा है। इस पय-पान का प्रभाव एक कायाकल्प कर सकने वाली संजीवनी रसायन जैसा हो रहा है। मैं नर से नारायण, पुरुष से पुरुषोत्तम, अणु से विभु, क्षुद्र से महान् और आत्मा से परमात्मा के रूप में विकसित हो रहा हूं। ईश्वर के समस्त सद्गुण धीरे-धीरे व्यक्तित्व का अंग बन रहे हैं। मैं द्रुतगति से उत्कृष्टता की ओर अग्रसर हो रहा हूं। मेरा आत्म-बल असाधारण रूप में प्रखर हो रहा है।
नित्य के दो पाठ
श्री गायत्री चालीसा ह्रीं श्रीं क्लीं मेधा प्रभा जीवन ज्योति प्रचण्ड ॥
शान्ति कान्ति जागृत प्रगति रचना शक्ति अखण्ड ॥
जगत जननी मङ्गल करनि गायत्री सुखधाम ।
प्रणवों सावित्री स्वधा स्वाहा पूरन काम ॥
भूर्भुवः स्वः ॐ युत जननी । गायत्री नित कलिमल दहनी ॥
अक्षर चौबीस परम पुनीता । इनमें बसें शास्त्र श्रुति गीता ॥
शाश्वत सतोगुणी सत रूपा । सत्य सनातन सुधा अनूपा ॥
हंसारूढ सितंबर धारी । स्वर्ण कान्ति शुचि गगन- बिहारी ॥
पुस्तक पुष्प कमण्डलु माला । शुभ्र वर्ण तनु नयन विशाला ॥
ध्यान धरत पुलकित हित होई । सुख उपजत दुःख दुर्मति खोई ॥
कामधेनु तुम सुर तरु छाया । निराकार की अद्भुत माया ॥
तुम्हरी शरण गहै जो कोई । तरै सकल संकट सों सोई ॥
सरस्वती लक्ष्मी तुम काली । दिपै तुम्हारी ज्योति निराली ॥
तुम्हरी महिमा पार न पावैं । जो शारद शत मुख गुन गावैं ॥
चार वेद की मात पुनीता । तुम ब्रह्माणी गौरी सीता ॥
महामन्त्र जितने जग माहीं । कोउ गायत्री सम नाहीं ॥
सुमिरत हिय में ज्ञान प्रकासै । आलस पाप अविद्या नासै ॥
सृष्टि बीज जग जननि भवानी । कालरात्रि वरदा कल्याणी ॥
ब्रह्मा विष्णु रुद्र सुर जेते । तुम सों पावें सुरता तेते ॥
तुम भक्तन की भक्त तुम्हारे । जननिहिं पुत्र प्राण ते प्यारे ॥
महिमा अपरम्पार तुम्हारी । जय जय जय त्रिपदा भयहारी ॥
पूरित सकल ज्ञान विज्ञाना । तुम सम अधिक न जगमे आना ॥
तुमहिं जानि कछु रहै न शेषा । तुमहिं पाय कछु रहै न क्लेसा ॥
जानत तुमहिं तुमहिं व्है जाई । पारस परसि कुधातु सुहाई ॥
तुम्हरी शक्ति दिपै सब ठाई । माता तुम सब ठौर समाई ॥
ग्रह नक्षत्र ब्रह्माण्ड घनेरे । सब गतिवान तुम्हारे प्रेरे ॥
सकल सृष्टि की प्राण विधाता । पालक पोषक नाशक त्राता ॥
मातेश्वरी दया व्रत धारी । तुम सन तरे पातकी भारी ॥
जापर कृपा तुम्हारी होई । तापर कृपा करें सब कोई ॥
मंद बुद्धि ते बुधि बल पावें । रोगी रोग रहित हो जावें ॥
दरिद्र मिटै कटै सब पीरा । नाशै दुःख हरै भव भीरा ॥
गृह क्लेश चित चिन्ता भारी । नासै गायत्री भय हारी ॥
सन्तति हीन सुसन्तति पावें । सुख संपति युत मोद मनावें ॥
भूत पिशाच सबै भय खावें । यम के दूत निकट नहिं आवें ॥
जो सधवा सुमिरें चित लाई । अछत सुहाग सदा सुखदाई ॥
घर वर सुख प्रद लहैं कुमारी । विधवा रहें सत्य व्रत धारी ॥
जयति जयति जगदंब भवानी । तुम सम ओर दयालु न दानी ॥
जो सतगुरु सो दीक्षा पावे । सो साधन को सफल बनावे ॥
सुमिरन करे सुरूचि बडभागी । लहै मनोरथ गृही विरागी ॥
अष्ट सिद्धि नवनिधि की दाता । सब समर्थ गायत्री माता ॥
ऋषि मुनि यती तपस्वी योगी । आरत अर्थी चिन्तित भोगी ॥
जो जो शरण तुम्हारी आवें । सो सो मन वांछित फल पावें ॥
बल बुधि विद्या शील स्वभाउ । धन वैभव यश तेज उछाउ ॥
सकल बढे उपजें सुख नाना । जे यह पाठ करै धरि ध्याना ॥
दोहा— यह चालीसा भक्ति युत पाठ करै जो कोय ।
तापर कृपा प्रसन्नता गायत्री की होय ॥
युग-निर्माण-सत्संकल्प
—हम आस्तिकता और कर्तव्यपरायणता को मानव जीवन का धर्म कर्तव्य मानेंगे।
—शरीर को भगवान् का मन्दिर समझ कर आत्म-संयम और नियमितता द्वारा आरोग्य की रक्षा करेंगे।
—मन को जीवन का केन्द्र मानकर उसे सदा स्वच्छ रखेंगे।
—कुविचारों और दुर्भावनाओं से इसे बचाये रखने के लिये स्वाध्याय एवं सत्संग की व्यवस्था रख रहेंगे।
—अपने आपको समाज का एक अभिन्न अंग मानेंगे और सबके हित में अपना हित समझेंगे।
—व्यक्तिगत स्वार्थ एवं सुख को सामूहिक स्वार्थ एवं सामूहिक हित से अधिक महत्व न देंगे।
—नागरिकता, नैतिकता, मानवता, सच्चरित्रता, शिष्टता, उदारता, आत्मीयता, समता, सहिष्णुता, श्रमशीलता जैसे सद्गुणों को सच्ची सम्पत्ति समझ कर इन्हें व्यक्तिगत जीवन में निरन्तर बढ़ाते रहेंगे।
—साधना, स्वाध्याय, संयम एवं सेवा कार्यों में आलस्य और प्रमाद न होने देंगे।
—चारों ओर मधुरता, स्वच्छता, सादगी एवं सज्जनता का वातावरण उत्पन्न करेंगे।
—परम्पराओं की तुलना में विवेक को महत्व देंगे।
—अनीति से प्राप्त सफलता की अपेक्षा नीति पर चलते हुए असफलता को शिरोधार्य करेंगे।
—मनुष्य के मूल्यांकन की कसौटी उसकी सफलताओं, योग्यताओं एवं विभूतियों को नहीं, उसके सद्विचारों और सत्कर्मों को मानेंगे।
—हमारा जीवन स्वार्थ के लिये नहीं परमार्थ के लिये होगा।
संसार में सत्प्रवृत्तियों के पुण्य प्रसार के लिये अपने समय, प्रभाव, ज्ञान, पुरुषार्थ एवं धन का एक अंश नियमित रूप से लगाते रहेंगे।
—दूसरों के साथ वह व्यवहार न करेंगे जो हमें अपने लिए पसन्द नहीं।
—ईमानदारी और परिश्रम की कमाई ही ग्रहण करेंगे।
—पत्नीव्रत धर्म पतिव्रत धर्म का परिपूर्ण निष्ठा के साथ पालन करेंगे।
—मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है इस विश्वास के आधार पर हमारी मान्यता है कि हम उत्कृष्ट बनेंगे और दूसरों को श्रेष्ठ बनायेंगे तो युग अवश्य बदलेगा।
—हमारा युग निर्माण संकल्प पूर्ण होगा।