Books - सर्वोपयोगी सुलभ साधनाएं
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Language: HINDI
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हम मनस्वी और आत्म-बल सम्पन्न बनें
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कारण शरीर आत्मा का गहनतम स्तर है। उसमें भावनाओं का संचार रहता है। यहां निकृष्टता जड़ जमालें तो मनुष्य नर-पशु ही नहीं रहता वरन् नर-पिशाच बनने के लिए अग्रसर होता जाता है। यदि यहां उत्कृष्टता के बीज जम जायें तो देवत्व की और प्रगति होनी स्वाभाविक है। जिसकी अन्तरात्मा में आदर्शवादिता के प्रति प्रगाढ़ निष्ठा उत्पन्न हो जाय उसके लिये सांसारिक सुखों का कोई मूल्य नहीं, उसे अपनी आन्तरिक उत्कृष्टता के सम्पर्क में इतना अधिक सन्तोष एवं आनन्द मिलता है कि कितने ही बड़े कष्ट, आपदा, सहकर भी अपना मार्ग छोड़ने को तैयार नहीं होता। ऋषि और महापुरुष इसी स्तर के निष्ठावान् व्यक्ति होते हैं। साधन उनके भी सामान्य मनुष्यों जैसे ही होते हैं पर उनकी आन्तरिक महत्ता जीवन क्रम को उत्कृष्टता की दिशा में इतनी तेजी से अग्रसर करती चली जाती है कि देखते-देखते दूसरों की तुलना में वह अन्तर आकाश पाताल जैसा बन जाता है। हेय मनोभूमि के व्यक्ति किसी प्रकार मौत के दिन भी कराहते कुड़कुड़ाते व्यतीत कर पाते हैं जब कि वे आदर्श निष्ठा की चट्टान पर खड़े व्यक्ति स्वयं प्रकाशवान् होते और असंख्यों को प्रकाशवान् करते हैं।
कारण शरीर में देवत्व के जागरण का प्रथम सोपान है—साहस। अपने भीतर की समस्त सद्भावना को समेट कर साधक को एक दुस्साहस पूर्ण छलांग लगानी पड़ती तब कहीं स्वार्थपरता और संकीर्णता का घेरा टूटता है। बहुत से लोग आदर्शवाद की विचारधारा को पसन्द करते हैं। उसकी सराहना भी तथा समर्थन भी करते हैं। पर जब कभी उन आदर्शों को कार्यान्वित करने का अवसर आता है तभी पीछे हट जाते हैं। संकोच, झिझक, भय, कृपणता, कायरता का मिला जुला जाल उन्हें कुछ भी साहस पूर्ण कदम नहीं उठाने देता। सोचते बहुत हैं—चाहते बहुत हैं—पर कर कुछ नहीं पाते। यह दुर्बलता ही अध्यात्म में सबसे बड़ी बाधा है। गीता का अर्जुन आत्म निरीक्षण के उपरान्त अपनी इस दुर्बलता को अनुभव करता है और कहता है—
कार्पण्यं दोषोपहृत स्वभाव प्रच्छामि त्वां धर्म समूढ़ चेताः ।
‘‘कायरता ने मेरे विवेक का अपहरण कर लिया है। इसलिये विमूढ़ बना मैं अर्जुन आप कृष्ण से पूछता हूं।’’
कर्तव्य-अकर्तव्य की गुत्थी कोई बहुत पेचीदा नहीं है। मानव जीवन का सदुपयोग-दुरुपयोग किसमें है, उस महत्व को बूझना कोई कठिन नहीं है। जो अब तक सुना, समझा और विचारा है उसकी सहायता से ऐसा प्रखर कार्यक्रम आसानी से बन सकता है कि हम आज की कीचड़ में से निकल कर कल ही स्वर्ण सिंहासन पर बैठे दिखाई पड़ें। हमें इसे जानते न हों ऐसी बात नहीं। बात केवल साहस के अभाव की है। कंजूसी, संकीर्णता, भीरुता हमें त्याग और बलिदान का कोई दुस्साहसपूर्ण कदम नहीं उठाने देती। यदि इस परिधि को तोड़ सकना किसी के लिए सम्भव हो सके तो वह अपने उस साहस के बल पर ही नर से नारायण बन सकता है।
समर्थ गुरु रामदास का विवाह हो रहा था। पुरोहित ने ‘सावधान’ की आवाज लगाई। उनने देखा जीवन के सदुपयोग का अवसर हाथ से निकला जा रहा है, ठीक यही समय सावधान होने का है। वे विवाह मंडप से भाग खड़े हुये। उनके साहस ने उन्हें महामानव बना दिया। कितनेक लड़की-लड़के विवाह न करके कुछ बड़ा काम करने की बात सोचते रहते हैं पर जब समय आता है तब भीगी बिल्ली बन जाते हैं। पीछे जब समय गुजर जाता है तब फिर कुड़कुड़ाते, बड़बड़ाते देखे जाते हैं। समर्थ गुरु की तरह जिनमें साहस हो वे ही आदर्शवादिता की दिशा में कोई बड़ा कदम उठा सकते हैं।
हर महापुरुष को अपने चारों ओर घिरे हुये पुराने ढर्रे के वातावरण को तोड़-फोड़ कर नया पथ प्रशस्त करने का दुस्साहस करना पड़ा है। बुद्ध, गांधी, ईसा, प्रताप, शिवाजी, मीरा, सूर, विवेकानन्द, नानक, अरविन्द, भामाशाह, भगतसिंह, कर्वे, ठक्कर वापा, विनोबा, नेहरू आदि किसी भी श्रेष्ठ व्यक्ति का जीवन-क्रम परखें उनमें से हर एक ने पुरानी परिपाटी के ढर्रे को जीने से इनकार अपने लिये अलग रास्ता चुना है और उस पर साहसपूर्वक अड़ जाने का साहस दिखाया है। उनके परिवार वाले तथा तथाकथित मित्र अन्त तक इस प्रकार के साहस को निरुत्साहित ही करते रहे। पर उनने केवल अपने विवेक को स्वीकार किया और प्रत्येक ‘शुभ चिन्तन’ से दृढ़ता पूर्वक असहमति प्रकट कर दी। शूरवीरों का यही रास्ता है। आत्म-कल्याण और विश्व-मंगल की सच्ची आकांक्षा रखने वाले को, दुस्साहस को अनिवार्य रीति के शिरोधार्य करना ही पड़ता है। इससे कम क्षमता का व्यक्ति इस मार्ग पर देर तक नहीं चल सकता।
परमार्थ के लिये स्वार्थ को छोड़ना आवश्यक है। आत्म-कल्याण के लिये भौतिक श्री-समृद्धि की कामनाओं से मुंह मोड़ना पड़ता है। दोनों हाथ लड्डू मिलने वाली उक्ति इस क्षेत्र में चरितार्थ नहीं हो सकती। उन बाल बुद्धि लोगों से हमें कुछ नहीं कहना जो थोड़ा-सा पूजा पाठ करके विपुल सुख साधन और स्वर्ग मुक्ति दोनों ही पाने की कल्पनायें करते रहते हैं। दो में से एक ही मिल सकता है। जिसकी कामनायें प्रबल हैं वह उन्हीं की उधेड़बुन में इतना जकड़ा रहेगा कि श्रेय साधना एक बहुत दूर की मधुर कल्पना बन कर रह जायगी। और जिसे श्रेय साधना है उसे पेट भरने तन ढकने में ही संतोष करना होगा तभी उनका समय एवं मनोयोग परमार्थ के लिये बच सकेगा। सृष्टि के आदि से लेकर अब तक के प्रत्येक श्रेयार्थी का इतिहास यही है। उसे भोगों से विमुख हो त्याग का मार्ग अपनाना पड़ा है। आत्मोत्कर्ष की इस कीमत को चुकाये बिना किसी का काम नहीं चला।
आम लोगों की मनोभूमि तथा परिस्थिति कामना, वासना, लालसा, संकीर्णता और कायरता के ढर्रे में घूमती रहती है। इस चक्र में घूमते रहने वाला किसी तरह जिन्दगी के दिन ही पूरे कर सकता है। तीर्थ-यात्रा, व्रत उद्यापन, कथा कीर्तन, प्रणाम, प्राणायाम जैसे माध्यम मन बहलाने के लिये ठीक हैं पर उनमें किसी को आत्मा की प्राप्ति या ईश्वर दर्शन जैसे महान् लाभ पाने की आशा नहीं करनी चाहिये। उपासना से नहीं साधना से कल्याण की प्राप्ति होती है और जीवन साधना के लिये व्यक्तिगत जीवन में इतना आदर्शवाद तो प्रतिष्ठापित करना ही होता है जिसमें लोग-मंगल के लिये महत्वपूर्ण स्थान एवं अनुदान सम्भव हो सके।
इस प्रकार के कदम उठा सकना केवल उसी के लिये सम्भव है जो त्याग तप की दृष्टि से आवश्यक साहस प्रदर्शित कर सके। लोगों की निंदा-स्तुति, प्रसन्नता-अप्रसन्नता का विचार किये बिना विवेक बुद्धि के निर्णय को शिरोधार्य कर सके। यदि वस्तुतः जीवन के सदुपयोग जैसी कुछ वस्तु पानी हो तो हमें साहस करने का अभ्यास प्रशस्त करते हुये दुस्साहसी सिद्ध होने की सीमा तक आगे बढ़ चलना होगा।
इन्द्रिय निग्रह में तितिक्षाओं के अभ्यास में, तप साधनाओं से इसी दुस्साहस की साधना की जाती है। अस्वाद व्रत, ब्रह्मचर्य, व्रत उपवास, सर्दी गर्मी सहना, पैदल यात्रा, दान पुण्य, मौन आदि क्रिया कलाप इसीलिये हैं कि शरीर यात्रा के प्रचलित ढर्रे को तोड़ कर आन्तरिक इच्छा के अनुसार कार्य करने के लिये शरीर तथा मन को विवश किया जाए। मनोबल बढ़ाने के लिये ही ये तपश्चर्यायें विनिर्मित की गई हैं। मनोबल और साहस एक ही गुण के दो नाम हैं। मन को वश में करना एकाग्रता के अर्थ में नहीं माना जाना चाहिये। एकाग्रता बहुत छोटी चीज है। मन को वश में करने का अर्थ है—आकांक्षाओं को भौतिक प्रवृत्तियों से मोड़ कर आत्मिक उद्देश्यों में नियोजित करना इसी प्रकार आत्म-बल सम्पन्न होने का अर्थ है आदर्शवाद के लिये बड़े से बड़ा त्याग कर सकने का शौर्य।
हमें मनस्वी और आत्म-बल सम्पन्न होना चाहिये। आदर्शवाद के लिये तप और त्याग कर सकने का साहस अपने भीतर अधिकाधिक मात्रा में जुटाना चाहिये। तभी हमारा कारण शरीर परिपुष्ट होगा और उससे देवत्व के जागरण की सम्भावना बढ़ेगी।
कारण शरीर में देवत्व के जागरण का प्रथम सोपान है—साहस। अपने भीतर की समस्त सद्भावना को समेट कर साधक को एक दुस्साहस पूर्ण छलांग लगानी पड़ती तब कहीं स्वार्थपरता और संकीर्णता का घेरा टूटता है। बहुत से लोग आदर्शवाद की विचारधारा को पसन्द करते हैं। उसकी सराहना भी तथा समर्थन भी करते हैं। पर जब कभी उन आदर्शों को कार्यान्वित करने का अवसर आता है तभी पीछे हट जाते हैं। संकोच, झिझक, भय, कृपणता, कायरता का मिला जुला जाल उन्हें कुछ भी साहस पूर्ण कदम नहीं उठाने देता। सोचते बहुत हैं—चाहते बहुत हैं—पर कर कुछ नहीं पाते। यह दुर्बलता ही अध्यात्म में सबसे बड़ी बाधा है। गीता का अर्जुन आत्म निरीक्षण के उपरान्त अपनी इस दुर्बलता को अनुभव करता है और कहता है—
कार्पण्यं दोषोपहृत स्वभाव प्रच्छामि त्वां धर्म समूढ़ चेताः ।
‘‘कायरता ने मेरे विवेक का अपहरण कर लिया है। इसलिये विमूढ़ बना मैं अर्जुन आप कृष्ण से पूछता हूं।’’
कर्तव्य-अकर्तव्य की गुत्थी कोई बहुत पेचीदा नहीं है। मानव जीवन का सदुपयोग-दुरुपयोग किसमें है, उस महत्व को बूझना कोई कठिन नहीं है। जो अब तक सुना, समझा और विचारा है उसकी सहायता से ऐसा प्रखर कार्यक्रम आसानी से बन सकता है कि हम आज की कीचड़ में से निकल कर कल ही स्वर्ण सिंहासन पर बैठे दिखाई पड़ें। हमें इसे जानते न हों ऐसी बात नहीं। बात केवल साहस के अभाव की है। कंजूसी, संकीर्णता, भीरुता हमें त्याग और बलिदान का कोई दुस्साहसपूर्ण कदम नहीं उठाने देती। यदि इस परिधि को तोड़ सकना किसी के लिए सम्भव हो सके तो वह अपने उस साहस के बल पर ही नर से नारायण बन सकता है।
समर्थ गुरु रामदास का विवाह हो रहा था। पुरोहित ने ‘सावधान’ की आवाज लगाई। उनने देखा जीवन के सदुपयोग का अवसर हाथ से निकला जा रहा है, ठीक यही समय सावधान होने का है। वे विवाह मंडप से भाग खड़े हुये। उनके साहस ने उन्हें महामानव बना दिया। कितनेक लड़की-लड़के विवाह न करके कुछ बड़ा काम करने की बात सोचते रहते हैं पर जब समय आता है तब भीगी बिल्ली बन जाते हैं। पीछे जब समय गुजर जाता है तब फिर कुड़कुड़ाते, बड़बड़ाते देखे जाते हैं। समर्थ गुरु की तरह जिनमें साहस हो वे ही आदर्शवादिता की दिशा में कोई बड़ा कदम उठा सकते हैं।
हर महापुरुष को अपने चारों ओर घिरे हुये पुराने ढर्रे के वातावरण को तोड़-फोड़ कर नया पथ प्रशस्त करने का दुस्साहस करना पड़ा है। बुद्ध, गांधी, ईसा, प्रताप, शिवाजी, मीरा, सूर, विवेकानन्द, नानक, अरविन्द, भामाशाह, भगतसिंह, कर्वे, ठक्कर वापा, विनोबा, नेहरू आदि किसी भी श्रेष्ठ व्यक्ति का जीवन-क्रम परखें उनमें से हर एक ने पुरानी परिपाटी के ढर्रे को जीने से इनकार अपने लिये अलग रास्ता चुना है और उस पर साहसपूर्वक अड़ जाने का साहस दिखाया है। उनके परिवार वाले तथा तथाकथित मित्र अन्त तक इस प्रकार के साहस को निरुत्साहित ही करते रहे। पर उनने केवल अपने विवेक को स्वीकार किया और प्रत्येक ‘शुभ चिन्तन’ से दृढ़ता पूर्वक असहमति प्रकट कर दी। शूरवीरों का यही रास्ता है। आत्म-कल्याण और विश्व-मंगल की सच्ची आकांक्षा रखने वाले को, दुस्साहस को अनिवार्य रीति के शिरोधार्य करना ही पड़ता है। इससे कम क्षमता का व्यक्ति इस मार्ग पर देर तक नहीं चल सकता।
परमार्थ के लिये स्वार्थ को छोड़ना आवश्यक है। आत्म-कल्याण के लिये भौतिक श्री-समृद्धि की कामनाओं से मुंह मोड़ना पड़ता है। दोनों हाथ लड्डू मिलने वाली उक्ति इस क्षेत्र में चरितार्थ नहीं हो सकती। उन बाल बुद्धि लोगों से हमें कुछ नहीं कहना जो थोड़ा-सा पूजा पाठ करके विपुल सुख साधन और स्वर्ग मुक्ति दोनों ही पाने की कल्पनायें करते रहते हैं। दो में से एक ही मिल सकता है। जिसकी कामनायें प्रबल हैं वह उन्हीं की उधेड़बुन में इतना जकड़ा रहेगा कि श्रेय साधना एक बहुत दूर की मधुर कल्पना बन कर रह जायगी। और जिसे श्रेय साधना है उसे पेट भरने तन ढकने में ही संतोष करना होगा तभी उनका समय एवं मनोयोग परमार्थ के लिये बच सकेगा। सृष्टि के आदि से लेकर अब तक के प्रत्येक श्रेयार्थी का इतिहास यही है। उसे भोगों से विमुख हो त्याग का मार्ग अपनाना पड़ा है। आत्मोत्कर्ष की इस कीमत को चुकाये बिना किसी का काम नहीं चला।
आम लोगों की मनोभूमि तथा परिस्थिति कामना, वासना, लालसा, संकीर्णता और कायरता के ढर्रे में घूमती रहती है। इस चक्र में घूमते रहने वाला किसी तरह जिन्दगी के दिन ही पूरे कर सकता है। तीर्थ-यात्रा, व्रत उद्यापन, कथा कीर्तन, प्रणाम, प्राणायाम जैसे माध्यम मन बहलाने के लिये ठीक हैं पर उनमें किसी को आत्मा की प्राप्ति या ईश्वर दर्शन जैसे महान् लाभ पाने की आशा नहीं करनी चाहिये। उपासना से नहीं साधना से कल्याण की प्राप्ति होती है और जीवन साधना के लिये व्यक्तिगत जीवन में इतना आदर्शवाद तो प्रतिष्ठापित करना ही होता है जिसमें लोग-मंगल के लिये महत्वपूर्ण स्थान एवं अनुदान सम्भव हो सके।
इस प्रकार के कदम उठा सकना केवल उसी के लिये सम्भव है जो त्याग तप की दृष्टि से आवश्यक साहस प्रदर्शित कर सके। लोगों की निंदा-स्तुति, प्रसन्नता-अप्रसन्नता का विचार किये बिना विवेक बुद्धि के निर्णय को शिरोधार्य कर सके। यदि वस्तुतः जीवन के सदुपयोग जैसी कुछ वस्तु पानी हो तो हमें साहस करने का अभ्यास प्रशस्त करते हुये दुस्साहसी सिद्ध होने की सीमा तक आगे बढ़ चलना होगा।
इन्द्रिय निग्रह में तितिक्षाओं के अभ्यास में, तप साधनाओं से इसी दुस्साहस की साधना की जाती है। अस्वाद व्रत, ब्रह्मचर्य, व्रत उपवास, सर्दी गर्मी सहना, पैदल यात्रा, दान पुण्य, मौन आदि क्रिया कलाप इसीलिये हैं कि शरीर यात्रा के प्रचलित ढर्रे को तोड़ कर आन्तरिक इच्छा के अनुसार कार्य करने के लिये शरीर तथा मन को विवश किया जाए। मनोबल बढ़ाने के लिये ही ये तपश्चर्यायें विनिर्मित की गई हैं। मनोबल और साहस एक ही गुण के दो नाम हैं। मन को वश में करना एकाग्रता के अर्थ में नहीं माना जाना चाहिये। एकाग्रता बहुत छोटी चीज है। मन को वश में करने का अर्थ है—आकांक्षाओं को भौतिक प्रवृत्तियों से मोड़ कर आत्मिक उद्देश्यों में नियोजित करना इसी प्रकार आत्म-बल सम्पन्न होने का अर्थ है आदर्शवाद के लिये बड़े से बड़ा त्याग कर सकने का शौर्य।
हमें मनस्वी और आत्म-बल सम्पन्न होना चाहिये। आदर्शवाद के लिये तप और त्याग कर सकने का साहस अपने भीतर अधिकाधिक मात्रा में जुटाना चाहिये। तभी हमारा कारण शरीर परिपुष्ट होगा और उससे देवत्व के जागरण की सम्भावना बढ़ेगी।