Books - सर्वोपयोगी सुलभ साधनाएं
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ब्रह्मसंध्या और उसके मन्त्र
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आसन पर बैठकर अपने शरीर और मन को पवित्र बनाने के लिये, देहगत पांच तत्वों को शुद्ध करने के लिये भूतशुद्धि की जाती है। इसे ही ब्रह्म-संध्या भी कहते हैं। सन्ध्या में पांच कृत्य करने पड़ते हैं। (1) पवित्रीकरण (2) अनमन (3) शिखा-बन्धन (4) प्राणायाम (5) न्यास, इनका विधान बहुत सरल है—
(1) पवित्रीकरण—बाएं हाथ में जल लेकर दाहिने हाथ से गायत्री मन्त्र पढ़कर उस जल को शिर तथा शरीर पर छिड़कें।
(2) आचमन—जल भरे हुए पात्र में से दाहिने हाथ की हथेली पर जल लेकर तीन बार आचमन करें। आचमन के समय गायत्री पढ़ें। तीन आचमन करें। आचमन के समय गायत्री मंत्र पढ़ें। तीन आचमनों का तात्पर्य गायत्री का ह्रीं—सत्य प्रधान, श्रीं—समृद्धि प्रधान और क्लीं—बल प्रधान शक्तियों का मातृ दुग्ध की तरह पान करना है।
(3) शिखा-बन्धन—आचमन के पश्चात शिखा को जल से गीला करके उसमें ऐसी गांठ लगानी चाहिये जो सिरा खींचने से खुल जाय इसे आधी गांठ कहते हैं। गांठ लगाते समय गायत्री मन्त्र का उच्चारण करते जाना चाहिये। शिक्षा-बन्धन का प्रयोजन ब्रह्मरन्ध्र में स्थित शतदल चक्र का सूक्ष्म शक्तियों का जागरण करना है। जिसके शिक्षा स्थान पर बाल न हों वे जल से उस स्थान को स्पर्श करलें।
(4) प्राणायाम—तीसरा नियम प्राणायाम है। वह इस प्रकार करना चाहिये।
(अ) स्वस्थ चित्त से बैठिये, मुख को बन्द कर लीजिये, नेत्रों को बन्द या अध-खुला रखिये, अब सांस को धीरे-धीरे नासिका द्वारा भीतर खींचना आरम्भ कीजिये ‘‘ॐ भू भूर्वः स्वः’’ इस मन्त्र का मन ही मन उच्चारण करते चलिये। भावना कीजिये कि विश्व व्यापी, दुःखनाशक सुख स्वरूप, ब्रह्म की चैतन्य प्राण-शक्ति को मैं नासिका द्वारा आकर्षित कर रहा हूं, इस भावना और इस मन्त्र के साथ धीरे-धीरे सांस और जितनी वायु भीतर भर सकें, भरिये।
(ब) अब वायु को भीतर रोकिये और ‘‘तत्सवितुर्वरेण्यं’’ इस मन्त्र भाग का जप कीजिये। साथ ही भावना कीजिये कि ‘‘नासिका द्वारा खींचा हुआ प्राण श्रेष्ठ है। सूर्य के समान तेजस्वी है। उसका तेज मेरे अंग-प्रत्यंग में भरा जा रहा है।’’ इस भावना के साथ पहले की अपेक्षा आधे समय तक वायु की रोक रखें।
(स) अब नासिका द्वारा वायु को धीरे-धीरे निकालना आरम्भ कीजिये और ‘‘भर्गोदेवस्य धीमहि’’ इस मन्त्र भाग को जपिये तथा यह दिव्य प्राण मेरे पापों का नाश करता हुआ विदा हो रहा है ऐसा मनन कीजिये। वायु को निकालने में प्रायः उतना ही समय लगना चाहिये जितना खींचने में लगा था।
(द) जब भीतर की वायु बाहर निकल जावे तो जितनी देर वायु को भीतर रोक रखा था उतनी ही देर बाहर रोक रखें अर्थात् बिना सांस लिए रहें और ‘‘धियो यो नः प्रचोदयात्’’ इस मन्त्र भाग को जपते रहें। साथ ही भावना करें कि ‘‘भगवती देव-माता गायत्री हमारी सद्बुद्धि को जाग्रत कर रही है।’’
यह क्रिया तीन बार करनी चाहिए जिससे काया के, वाणी के, मन के विविध पापों के संहार हो सके।
(5) न्यास—न्यास कहते हैं धारण करने को। अंग-प्रत्यंगों में गायत्री की सतोगुणी शक्ति धारण करने, भरने, स्थापित करने, ओत-प्रोत करने के लिए न्यास किया जाता है। गायत्री ब्रह्म-सन्ध्या में अंगूठा और अनामिका उंगली का प्रयोग प्रयोजनीय ठहराया गया है। अंगूठा और अनामिका अंगुली को मिलाकर विभिन्न अंगों को स्पर्श इस भावना से करना चाहिये कि मेरे यह अंग गायत्री शक्ति से पवित्र तथा बलवान् हो रहे हैं। अंग-स्पर्श के साथ निम्न प्रकार मन्त्रोच्चारण करना चाहिये— (1) ॐ भूर्भुवः स्वः—मूर्धायै नमः । (2) तत्सवितुः—नेत्राभ्यां नमः । (3) वरेण्य—कर्णाभ्यां नमः । (4) भर्गो—मुखाय नमः । (5) देवस्य—कण्ठाय नमः । (6) धीमहि—हृदयाय नमः (7) धियो योनः— नाभ्यै नमः । (8) प्रचोदयात्—हस्तपादाभ्यां नमः ।
जो साकार उपासना में विश्वास रखते हैं, वे गायत्री की मूर्ति या शीशे में मढ़ा हुआ चित्र सामने रखकर उसका धूप, दीप, गन्ध, अक्षत, पुष्प, ताम्बूल, पुंगीफल आदि वस्तुयें—जो उपलब्ध हों उनसे पूजन करलें। जो निराकार उपासना पर विश्वास रखते हों वे चित्र या मूर्ति के स्थान पर अग्नि की स्थापना कर सकते हैं। धूप, अगरबत्ती, घृत का दीपक आदि की आग को गायत्री का प्रतीक मानकर उसे प्रणाम करना चाहिये। गायत्री महाशक्ति के उस पूजा स्थान पर आगमन की भावना करते हुए आवाहन मन्त्र पढ़ना चाहिये—
आयातु वरदा देवो अक्षंर ब्रह्मवादनी । गायत्री छ दसां माता ब्रह्मयोने नमोस्तुते ।।
पूजा के उपरान्त जप प्रारम्भ कर देना चाहिये। जप कम से कम एक माला (108) मन्त्र अवश्य हों। अधिक मालायें जपने की सुविधा हो तो 3, 5, 7, 11 इस प्रकार विषम संख्या में मालायें जपनी चाहिये। जप के समय आकाश में सूर्य के समान तेजस्वी मंडल का ध्यान करना चाहिये। उसके मध्य में साकार उपासक गायत्री माता की मूर्ति का और निराकार उपासक ‘ॐ’ अक्षर का ध्यान करते रहें।
जप पूरा हो जाने पर प्रार्थना स्वरूप त्रुटिओं के लिये क्षमा-प्रार्थना एवं गायत्री स्तोत्र या गायत्री चालीसा का पाठ किया जाता है। यह सब यदि न हो तो केवल भावना से भी प्रार्थना हो सकती है।
सगुणोपासक निम्न मन्त्रों से आसन, स्नान, गन्धवान आदि भी करें। * आसन *
रम्यसुशोभनं दिव्य सर्वसौक्ष्यकगं शुभम् । आसन च मयादत्तं गृहाण परमेश्वरि ।। * स्नान *
गंगा सरस्वती रेवापयोष्णी नर्मदा जलैः । स्नापितासिं मया देवि तथा शांति कुरुष्व मे ।। * गन्ध *
श्रीखंडं चन्दनं दिव्यं गन्धाढ्यं सुमनोहरम् । विलेपनं सुरश्रेष्ठे चन्दनं प्रतिग्रह्य ताम् ।। * पुष्प *
माल्यादीनि सुगन्धीनि मालत्यादीनि वे प्रभो । मया नीतानि पुष्पाणि गृहाण परमेश्वरि ।। * धूप *
वनस्पति रसोद्भूतो गंधाढ्यो गन्ध उत्तमः । आघ्रेयः सर्वदेवानां धूपोऽयं प्रति गृह्यताम् ।। * दीप *
आज्यं च वर्ति संयुक्तं वह्निना योजितं मया । दीपं गृहाणि देवेशि त्रैलोक्य तिमिरापहे ।। *नैवेद्य *
शर्कराघृत संयुक्तं मधुरं स्वादु चोत्तमम् । उपहार समायुक्तं नैवेद्यं प्रतिगृह्यताम् ।। * आचमन *
सर्वतीर्थ समायुक्तं सुगन्धि निर्मल जलम् । आचम्यतां मया दत्तं गृहित्वा परमेश्वरि ।। * अक्षत *
अक्षताश्च महादेवि कुंकुमास्ताः सुशोभिताः । मया निवेदिता भक्त्या गृहाण परमेश्वरि ।। इसके बाद नियमानुसार जप करना चाहिए। जप के बाद आरती, प्रदक्षिणा विसर्जन करना चाहिए। * आरती *
कदली गर्वसम्भूतं कपूरं च प्रदीपितम् । आरात्रिकमहं कुर्वेपश्य मे वरदाभव ।। * प्रदक्षिणा *
यानि कानि च पापानि जन्मान्तर कृतानि च । तानि सर्वाणि नश्यन्तु प्रदक्षिणा पदे पदे ।। *विसर्जन *
उत्तमे शिखरे देवि भूम्यां पर्वत मूर्धनि । ब्राह्मणोभ्ये ह्यनुज्ञाता गच्छ देवि यथासुखम् ।।
यह दैनिक साधना है। प्रातःकाल का समय इसके लिए सर्वोत्तम है। जिन्हें सुविधा हो प्रातः—सायं दोनों समय कर सकते हैं। जल पात्र को सूर्य के सम्मुख अर्घ्य रूप में चढ़ा देना चाहिये। पूजा में चढ़ाई हुई वस्तुयें चावल नैवेद्य आदि चिड़ियों को डाल देने चाहिये। पूजा की वस्तुयें इधर-उधर पैरों में कुचलती न फिरें—इसका ध्यान रखना चाहिये। यह दैनिक साधना विधि सर्व साधारण के लिये नित्य प्रयोग करने की है। इससे मनुष्य की आत्मा निर्मल होती है दैवी तत्व अपने भीतर बढ़ने से अनेक प्रकार के आध्यात्मिक एवं सांसारिक शुभ परिणाम प्राप्त होते हैं।
गायत्री का अर्थ चिन्तन
गायत्री मंत्र का अर्थ इस प्रकार है—
ॐ (परमात्मा) भूः (प्राणस्वरूप) भुवः (दुःखनाशक) स्वः (सुखस्वरूप) तत् (उस) सवितुः (तेजस्वी) वरेण्य (श्रेष्ठ) भर्गः (पापनाशक) देवस्य (दिव्य) धीमहि (धारण करें) धियो (बुद्धि) यो (जो) नः (हमारी) प्रचोदयात् (प्रेरित करे)।
अर्थात् उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुख स्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अन्तरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित करे।
इस अर्थ का विचार करने से उसके अन्तर्गत तीन तथ्य प्रकट होते हैं। 1-ईश्वर के लिए दिव्य गुणों का चिन्तन, 2-ईश्वर को अपने अन्दर धारण करना, 3-सद्बुद्धि की प्रेरणा के लिये प्रार्थना। यह तीनों ही बातें असाधारण महत्व की हैं।
1—ईश्वर के प्राणवान् दुःख रहित, आनन्द स्वरूप, तेजस्वी, श्रेष्ठ, पापरहित, देवगुण-सम्पन्न स्वरूप का ध्यान करने का तात्पर्य यह है कि इन्हीं गुणों को हम अपने में लावें। अपने विचार और स्वभाव को ऐसा बनावें कि उपयुक्त विशेषताएं हमारे व्यावहारिक जीवन में परिलक्षित होने लगें। इस प्रकार की विचार धारा, कार्य-पद्धति एवम् अनुभूति मनुष्य की आत्मिक और भौतिक स्थिति को, दिन-दिन समुन्नत एवं श्रेष्ठतम बनाती चलती है।
2—गायत्री मन्त्र के दूसरे भाग में परमात्मा को अपने अन्दर धारण करने की प्रतिज्ञा है। उस ब्रह्म, उस दिव्य गुण सम्पन्न परमात्मा को संसार के कण-कण में व्याप्त देखने से मनुष्य को हर घड़ी ईश्वर-दर्शन का आनन्द प्राप्त होता रहता है और वह अपने को ईश्वर के निकट स्वर्गीय स्थिति में ही रहता हुआ अनुभव करता है।
3—मन्त्र के तीसरे भाग में सद्बुद्धि का महत्व सर्वोपरि होने की मान्यता का प्रतिपादन है। भगवान् से यही प्रार्थना की गई है कि आप हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित कर दीजिये, क्योंकि यह एक ऐसी महान् भगवत् कृपा है कि इसके प्राप्त होने पर अन्य सब सुख-सम्पदायें अपने आप प्राप्त हो जाती हैं।
इस मन्त्र के प्रथम भाग में ईश्वरीय दिव्य-गुणों को प्राप्त करने, दूसरे भाग में ईश्वरीय दृष्टिकोण धारण करने और तीसरे में बुद्धि को सन्मार्ग पर लगाने की प्रेरणा है। गायत्री की शिक्षा है कि अपनी बुद्धि को सात्विक बनाओ, आदर्शों को ऊंचा रखो, उच्च दार्शनिक विचारधाराओं में रमण करो और तुच्छ तृष्णाओं एवं वासनाओं के लिये हमें नचाने वाली कुबुद्धि को मानस लोक में से बहिष्कृत कर दो। जैसे-जैसे कुबुद्धि का कल्मष दूर होगा वैसे ही वैसे दिव्य गुण सम्पन्न परमात्मा के अंशों की अपने में वृद्धि होती जायगी और उसी अनुपात से लौकिक और पारलौकिक आनन्दों की अभिवृद्धि होती जायगी।
गायत्री मन्त्र में सन्निहित उपर्युक्त तथ्य में ज्ञान, भक्ति, कर्म उपासना तीनों हैं। सद्गुणों का चिन्तन ज्ञानयोग हैं। ब्रह्म की धारणा भक्तियोग है और बुद्धि की सात्विकता एवं अनासक्ति कर्मयोग है। वेदों में ज्ञान, कर्म और उपासना यह तीन विषय हैं, गायत्री में भी बीज रूप से यह तीनों ही तथ्य सर्वांगीण ढंग से प्रतिपादित है।
नित्य हवन विधि
गायत्री उपासना से हवन का घनिष्ठ सम्बन्ध है। गायत्री उपासक को अपनी सुविधा और स्थिति के अनुसार हवन भी करते रहना चाहिये। बड़े यज्ञों की ‘हवन विधि’ छापी जा चुकी है पर जिन्हें नित्य हवन करना हो, या जिनके पास बहुत ही कम समय हो, उनके लिये और भी संक्षिप्त विधि नीचे दी जा रही हैं। जप के बाद हवन किया जाता है। हवन करना हो तो विसर्जन, अर्घ्य-दान आदि की उपासना समाप्ति की क्रियायें यज्ञ समाप्ति के बाद ही करनी चाहिये। हवन में यदि अन्य व्यक्ति भी भाग लें तो उनसे ब्रह्म संध्या कराके तब हवन में सम्मिलित करना चाहिये।
दैनिक हवन
अग्नि-स्थापना—कुण्ड या वेदी को शुद्ध करके उस पर समिधायें चिन लें फिर अग्नि स्थापना के लिये चम्मच से कपूर या घी में भिगोई हुई रुई की बत्ती को जलाकर उन समिधाओं के बीच में स्थापित करें। मन्त्र—
ॐ भूर्भुवः स्वद्यौरिव भूम्ना पृथिवी ववरिम्णा । तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठेऽग्निमन्नादमन्नाद्यादधे ।। अग्निं दूतं पूरोदधे हव्यवाहमुपब्र वे । देवाऽअः सादयादिह ।। ॐ अग्नये नमः । ॐ अग्निं आवाहयामि स्थापयामि । इहागच्छ इह तिष्ठ । इत्यावाह्य पञ्चोपचारैः पूजयेत् ।।
(2) अग्नि प्रदीपनम्—जब अग्नि समिधाओं में प्रवेश कर जावे तब उसे पंखे से प्रज्वलित करें और यह मन्त्र बोलें— ॐ उद्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृह त्वमिष्ठा पूर्ते स सृजेथामयं च । आस्मिन्त्सधस्थे अध्पुत्तरस्सिन् विश्वदेवाः यजमानश्च सीदत ।।
(3) समिधाधानम्—तत्पश्चात् निम्न चार मंत्रों से छोटी-छोटी चार समिधायें प्रत्येक मन्त्र के उच्चारण के बाद क्रम से घी में डुबोकर अग्नि में डालें— (1) ॐ अयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्घस्व चेद् वर्घय चास्मान् प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसे नान्नाद्येन समेधय स्वाहा ।। इदमग्नये जातवेद से इदं न मम ।।
(2) ॐ समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयता तिथिम् अस्मिन हव्या जुहोतन स्वाहा ।। इदमग्नये इदं न मम । (3) ॐ सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन । अन्नये जातवेद से स्वाहा ।। इदमग्नये जातवेदसे इदं न मम ।।
(4) ॐ तं त्वा समिभ्दिरिंगिरो घृतेन वर्धयामसि । बृहच्छोयविष्ठय स्वाहा । इदमग्नयेऽगिंरसे इदं न मम ।। (5) जन प्रसेचन—तत्पश्चात् अंजलि (या आचममी) में जल लेकर यज्ञ-कुण्ड (वेदी) के चारों ओर छिड़कें। इसके मन्त्र ये हैं—
ॐ आदित्येऽनुमन्यस्व ।। इससे पूर्व को
ॐ अनुमतेऽनुमन्यस्व ।। इससे पश्चिम को
ॐ सरस्वत्यनुमन्यस्व ।। इससे उत्तर को
ॐ देव सविता प्रसुव यज्ञं प्रसुव यज्ञपतिं भगाय
दिव्य गन्धर्वः केतपूः केतं न पुनातु वाचस्पतिर्वाज नः स्वदतु ।
(5) आज्याहुति होमः—नीचे लिखी सात आहुतियां केवल घृत की देवें और स्रुवा (घी होमने का चम्मच) से बचा हुआ घृत इदन्न मम उच्चारण के साथ प्रणीता (जल भरी हुई कटोरी) में हर आहुति के बाद टपकाते जावें। यही टपकाया हुआ घृत अन्त में अवघ्राण के काम आता है।
(1) ॐ प्रजापतये स्वाहा । इदं प्रजापतये इदं न मम ।
(2) ॐ इन्द्राय स्वाहा । इदमिन्द्राय इदं न मम ।
(3) ॐ अग्नये स्वाहा । इदमग्नये इदं न मम ।
(4) ॐ सोमये स्वाहा । इदं सोमाये इदं न मम ।
(5) ॐ भूः स्वाहा । इदं अग्नये इदं न मम ।
(6) ॐ भुवः स्वाहा । इदं वयवे इदं न मम ।
(7) ॐ स्वः स्वाहा । इदं सूर्याय इर्द न मम ।
(8) गायत्री मंत्र की आहुतियां—इसके पश्चात् गायत्री मंत्र से जितनी आहुतियां देनी हों हवन सामग्री तथा घी से देनी चाहिये। यदि दो व्यक्ति हवन करने वाले हों तो एक सामग्री, दूसरा घी होमे। यदि एक ही व्यक्ति हो तो सामग्री मिलाकर आहुति देवे।
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् । इदं गायत्र्यै इदं न मम ।
(7) स्विष्टकृत होम—अभीष्ट संख्या में गायत्री मन्त्र से आहुतियां देने के पश्चात मिष्ठान्न, खीर, हलुआ, आदि पदार्थों की एक आहुति देनी चाहिये—
ॐ यदस्य कर्मणो त्यरीरिच यद्वान्यून मिहाकरं अग्निष्टत् स्विष्टकृद्विद्यात्सर्व स्विष्टं सुहुतं करोतु मे । अग्नये स्विष्टकृते सुहुतहुते सर्वप्रायश्चित्त हुतीनां कामनां समर्धयित्रै सर्वान्नः कामान् समर्घय स्वाहा । इदमग्नये स्विष्टकृते इदन्न मम ।।
(8) पूर्णाहुति-इसके बाद सुचि चम्मच में घृत समेत सुपाड़ी रखकर पूर्णाहुति दें।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ।। ॐ पूर्णदर्विं परापत सुपूर्णा पुनरापत । वस्नेव विकीणा वहाऽहषमूर्ज शतक्रतो स्वाहा ।।
ॐ सर्व वैपूर्ण स्वाहा ।
(9) वसोधारा-चम्मच में ही घृत भरकर धीरे-धीरे फार बांधकर छोड़ें।
ॐ वसोपवित्रमसि शतघारं वसो पवित्रमसि सहस्त्रधारम् । देवस्त्वा सविता पुनातु वसोः पवित्रण शतधारेण सुप्वा कामधुक्षः स्वाहा ।।
(10) आरती-तत्पश्चात् निम्न मन्त्रों को पढ़ते हुए आरती उतारें— यं ब्रह्मावरुणेन्द्ररुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै— र्वेद सांगपंदक्रमोपनिषदर्गायन्ति यं सामगाः । ध्यानावस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो, यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणाः देवाय तस्मैं नमः ।
(11) घृत अवघ्राण—प्रणीता में इदन्नमम के साथ टपकाये हुए घृत को हथेलियों पर लगाकर अग्नि पर सेकें और उसे सूंघें तथा मुख, नेत्र कर्ण आदि पर लगावें।
ॐ तनूपा अग्नेसि तन्व मे पाहि ॐ आयुर्दा अग्नेस्यायुर्मे देहि । ॐ वर्चोदा अग्नेसि वर्चोमे देहि । ॐ अग्ने यन्ने तन्वा ऊनन्तन्म आपृण । ॐ मेधा मे देवी सरस्वती आदधातु । ॐ मेधां मे अश्विनौ देवां वाघतां तुष्कर स्रजौ ।
(12) भस्म धारण—स्रुवा से यज्ञ भस्म लेकर अनामिका उंगली से निम्न मन्त्र द्वारा क्रमशः ललाट, ग्रीवा, दक्षिण बाहुमूल तथा हृदय पर लगावें।
ॐ त्र्यायुषंजमधग्नेरिति ललाटे । ॐ कश्यपस्य त्रायुषमिति ग्रीवायाम् । ॐ यद्देवेषु त्र्यायुशमिति दत्रिण वाहुमूले । ॐ तन्नो अस्तु त्र्यायुषमिति हृदि । (13) शांति पाठ—हाथ जोड़कर सबके कल्याण के लिये शान्ति पाठ करें।
ॐ द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरौषधयः शान्तिःवनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्मशान्तिः सर्व शान्तिः रेवशान्ति सामां शान्तिरेधि ।।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः । सर्वारिष्टाः सुशार्न्भिवतु ।। गायत्री स्तवन
यन्मण्डलं दीप्तिकरं विशालम्, रतनप्रभं तीव्रमनादिरूपम् ।
दारिद्र्य-दुःखक्षयकारणं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ॥1॥
यन्मण्डलं देवगणैः सुपूजितम्, विप्रैः स्तुतं मानवमुक्तिकोविदम् ।
तं देवदेवं प्रणमामि भर्ग, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ॥2॥
यन्मण्डलं ज्ञानघनं त्वगम्यं, त्रैलोक्यपूज्यं त्रिगुणात्मरूपम् ।
समस्त-तेजोमय-दिव्यरूपं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ॥3॥
यन्मण्डलं गूढमतिप्रबोधं, धर्मस्य वृद्धिं कुरुते जनानाम् ।
यत् सर्वपापक्षयकारणं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ॥4॥
यन्मण्डलं व्याधिविनाशदक्षं, यदृग्-यजुः सामसु सम्प्रगीतम् ।
प्रकाशितं येन च र्भूभुवः स्वः, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ॥5॥
यन्मण्डलं वेदविदो वदन्ति, गायन्ति यच्चारण- सिद्धसङ्घाः ।
यद्योगिनो योगजुषां च सङ्घाः, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ॥6॥
यन्मण्डलं सर्वजनेषु पूजितं, ज्योतिश्च कुर्यादिह र्मत्यलोके ।
यत्काल-कालादिमनादिरूपम्, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ॥7॥
यन्मण्डलं विष्णुचर्तुमुखास्यं, यदक्षरं पापहरं जनानाम् ।
यत्कालकल्पक्षयकारणं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ॥8॥
यन्मण्डलं विश्वसृजां प्रसिद्धं, उत्पत्ति-रक्षा प्रलयप्रगल्भम् ।
यस्मिन् जगत्संहरतेऽखिलं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ॥9॥
यन्मण्डलं सर्वगतस्य विष्णोः, आत्मा परंधाम विशुद्धतत्त्वम् ।
सूक्ष्मान्तरैर्योगपथानुगम्यं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ॥10॥
यन्मण्डलं ब्रह्मविदो वदन्ति, गायन्ति यच्चारण-सिद्धसंघाः ।
यन्मण्डलं वेदविदः स्मरन्ति, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ॥11॥
यन्मण्डलं वेद- विदोपगीतं, यद्योगिनां योगपथानुगम्यम् ।
तत्सर्ववेदं प्रणमामि दिव्यं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ॥12॥
आरती गायत्री जी की
जयति जय गायत्री माता, जयति जय गायत्री माता।
आदि शक्ति तुम अलख निरंजन जगपालक कर्त्री।
दु:ख शोक, भय, क्लेश कलश दारिद्र दैन्य हत्री॥
ब्रह्म रूपिणी, प्रणात पालिन जगत धातृ अम्बे।
भव भयहारी, जन-हितकारी, सुखदा जगदम्बे॥
भय हारिणी, भवतारिणी, अनघेअज आनन्द राशि।
अविकारी, अखहरी, अविचलित, अमले, अविनाशी॥
कामधेनु सतचित आनन्द जय गंगा गीता।
सविता की शाश्वती, शक्ति तुम सावित्री सीता॥
ऋग, यजु साम, अथर्व प्रणयनी, प्रणव महामहिमे।
कुण्डलिनी सहस्त्र सुषुमन शोभा गुण गरिमे॥
स्वाहा, स्वधा, शची ब्रह्माणी राधा रुद्राणी।
जय सतरूपा, वाणी, विद्या, कमला कल्याणी॥
जननी हम हैं दीन-हीन, दु:ख-दरिद्र के घेरे।
यदपि कुटिल, कपटी कपूत तउ बालक हैं तेरे॥
स्नेहसनी करुणामय माता चरण शरण दीजै।
विलख रहे हम शिशु सुत तेरे दया दृष्टि कीजै॥
काम, क्रोध, मद, लोभ, दम्भ, दुर्भाव द्वेष हरिये।
शुद्ध बुद्धि निष्पाप हृदय मन को पवित्र करिये॥
तुम समर्थ सब भांति तारिणी तुष्टि-पुष्टि द्दाता।
सत मार्ग पर हमें चलाओ, जो है सुखदाता॥
जयति जय गायत्री माता, जयति जय गायत्री माता॥
(1) पवित्रीकरण—बाएं हाथ में जल लेकर दाहिने हाथ से गायत्री मन्त्र पढ़कर उस जल को शिर तथा शरीर पर छिड़कें।
(2) आचमन—जल भरे हुए पात्र में से दाहिने हाथ की हथेली पर जल लेकर तीन बार आचमन करें। आचमन के समय गायत्री पढ़ें। तीन आचमन करें। आचमन के समय गायत्री मंत्र पढ़ें। तीन आचमनों का तात्पर्य गायत्री का ह्रीं—सत्य प्रधान, श्रीं—समृद्धि प्रधान और क्लीं—बल प्रधान शक्तियों का मातृ दुग्ध की तरह पान करना है।
(3) शिखा-बन्धन—आचमन के पश्चात शिखा को जल से गीला करके उसमें ऐसी गांठ लगानी चाहिये जो सिरा खींचने से खुल जाय इसे आधी गांठ कहते हैं। गांठ लगाते समय गायत्री मन्त्र का उच्चारण करते जाना चाहिये। शिक्षा-बन्धन का प्रयोजन ब्रह्मरन्ध्र में स्थित शतदल चक्र का सूक्ष्म शक्तियों का जागरण करना है। जिसके शिक्षा स्थान पर बाल न हों वे जल से उस स्थान को स्पर्श करलें।
(4) प्राणायाम—तीसरा नियम प्राणायाम है। वह इस प्रकार करना चाहिये।
(अ) स्वस्थ चित्त से बैठिये, मुख को बन्द कर लीजिये, नेत्रों को बन्द या अध-खुला रखिये, अब सांस को धीरे-धीरे नासिका द्वारा भीतर खींचना आरम्भ कीजिये ‘‘ॐ भू भूर्वः स्वः’’ इस मन्त्र का मन ही मन उच्चारण करते चलिये। भावना कीजिये कि विश्व व्यापी, दुःखनाशक सुख स्वरूप, ब्रह्म की चैतन्य प्राण-शक्ति को मैं नासिका द्वारा आकर्षित कर रहा हूं, इस भावना और इस मन्त्र के साथ धीरे-धीरे सांस और जितनी वायु भीतर भर सकें, भरिये।
(ब) अब वायु को भीतर रोकिये और ‘‘तत्सवितुर्वरेण्यं’’ इस मन्त्र भाग का जप कीजिये। साथ ही भावना कीजिये कि ‘‘नासिका द्वारा खींचा हुआ प्राण श्रेष्ठ है। सूर्य के समान तेजस्वी है। उसका तेज मेरे अंग-प्रत्यंग में भरा जा रहा है।’’ इस भावना के साथ पहले की अपेक्षा आधे समय तक वायु की रोक रखें।
(स) अब नासिका द्वारा वायु को धीरे-धीरे निकालना आरम्भ कीजिये और ‘‘भर्गोदेवस्य धीमहि’’ इस मन्त्र भाग को जपिये तथा यह दिव्य प्राण मेरे पापों का नाश करता हुआ विदा हो रहा है ऐसा मनन कीजिये। वायु को निकालने में प्रायः उतना ही समय लगना चाहिये जितना खींचने में लगा था।
(द) जब भीतर की वायु बाहर निकल जावे तो जितनी देर वायु को भीतर रोक रखा था उतनी ही देर बाहर रोक रखें अर्थात् बिना सांस लिए रहें और ‘‘धियो यो नः प्रचोदयात्’’ इस मन्त्र भाग को जपते रहें। साथ ही भावना करें कि ‘‘भगवती देव-माता गायत्री हमारी सद्बुद्धि को जाग्रत कर रही है।’’
यह क्रिया तीन बार करनी चाहिए जिससे काया के, वाणी के, मन के विविध पापों के संहार हो सके।
(5) न्यास—न्यास कहते हैं धारण करने को। अंग-प्रत्यंगों में गायत्री की सतोगुणी शक्ति धारण करने, भरने, स्थापित करने, ओत-प्रोत करने के लिए न्यास किया जाता है। गायत्री ब्रह्म-सन्ध्या में अंगूठा और अनामिका उंगली का प्रयोग प्रयोजनीय ठहराया गया है। अंगूठा और अनामिका अंगुली को मिलाकर विभिन्न अंगों को स्पर्श इस भावना से करना चाहिये कि मेरे यह अंग गायत्री शक्ति से पवित्र तथा बलवान् हो रहे हैं। अंग-स्पर्श के साथ निम्न प्रकार मन्त्रोच्चारण करना चाहिये— (1) ॐ भूर्भुवः स्वः—मूर्धायै नमः । (2) तत्सवितुः—नेत्राभ्यां नमः । (3) वरेण्य—कर्णाभ्यां नमः । (4) भर्गो—मुखाय नमः । (5) देवस्य—कण्ठाय नमः । (6) धीमहि—हृदयाय नमः (7) धियो योनः— नाभ्यै नमः । (8) प्रचोदयात्—हस्तपादाभ्यां नमः ।
जो साकार उपासना में विश्वास रखते हैं, वे गायत्री की मूर्ति या शीशे में मढ़ा हुआ चित्र सामने रखकर उसका धूप, दीप, गन्ध, अक्षत, पुष्प, ताम्बूल, पुंगीफल आदि वस्तुयें—जो उपलब्ध हों उनसे पूजन करलें। जो निराकार उपासना पर विश्वास रखते हों वे चित्र या मूर्ति के स्थान पर अग्नि की स्थापना कर सकते हैं। धूप, अगरबत्ती, घृत का दीपक आदि की आग को गायत्री का प्रतीक मानकर उसे प्रणाम करना चाहिये। गायत्री महाशक्ति के उस पूजा स्थान पर आगमन की भावना करते हुए आवाहन मन्त्र पढ़ना चाहिये—
आयातु वरदा देवो अक्षंर ब्रह्मवादनी । गायत्री छ दसां माता ब्रह्मयोने नमोस्तुते ।।
पूजा के उपरान्त जप प्रारम्भ कर देना चाहिये। जप कम से कम एक माला (108) मन्त्र अवश्य हों। अधिक मालायें जपने की सुविधा हो तो 3, 5, 7, 11 इस प्रकार विषम संख्या में मालायें जपनी चाहिये। जप के समय आकाश में सूर्य के समान तेजस्वी मंडल का ध्यान करना चाहिये। उसके मध्य में साकार उपासक गायत्री माता की मूर्ति का और निराकार उपासक ‘ॐ’ अक्षर का ध्यान करते रहें।
जप पूरा हो जाने पर प्रार्थना स्वरूप त्रुटिओं के लिये क्षमा-प्रार्थना एवं गायत्री स्तोत्र या गायत्री चालीसा का पाठ किया जाता है। यह सब यदि न हो तो केवल भावना से भी प्रार्थना हो सकती है।
सगुणोपासक निम्न मन्त्रों से आसन, स्नान, गन्धवान आदि भी करें। * आसन *
रम्यसुशोभनं दिव्य सर्वसौक्ष्यकगं शुभम् । आसन च मयादत्तं गृहाण परमेश्वरि ।। * स्नान *
गंगा सरस्वती रेवापयोष्णी नर्मदा जलैः । स्नापितासिं मया देवि तथा शांति कुरुष्व मे ।। * गन्ध *
श्रीखंडं चन्दनं दिव्यं गन्धाढ्यं सुमनोहरम् । विलेपनं सुरश्रेष्ठे चन्दनं प्रतिग्रह्य ताम् ।। * पुष्प *
माल्यादीनि सुगन्धीनि मालत्यादीनि वे प्रभो । मया नीतानि पुष्पाणि गृहाण परमेश्वरि ।। * धूप *
वनस्पति रसोद्भूतो गंधाढ्यो गन्ध उत्तमः । आघ्रेयः सर्वदेवानां धूपोऽयं प्रति गृह्यताम् ।। * दीप *
आज्यं च वर्ति संयुक्तं वह्निना योजितं मया । दीपं गृहाणि देवेशि त्रैलोक्य तिमिरापहे ।। *नैवेद्य *
शर्कराघृत संयुक्तं मधुरं स्वादु चोत्तमम् । उपहार समायुक्तं नैवेद्यं प्रतिगृह्यताम् ।। * आचमन *
सर्वतीर्थ समायुक्तं सुगन्धि निर्मल जलम् । आचम्यतां मया दत्तं गृहित्वा परमेश्वरि ।। * अक्षत *
अक्षताश्च महादेवि कुंकुमास्ताः सुशोभिताः । मया निवेदिता भक्त्या गृहाण परमेश्वरि ।। इसके बाद नियमानुसार जप करना चाहिए। जप के बाद आरती, प्रदक्षिणा विसर्जन करना चाहिए। * आरती *
कदली गर्वसम्भूतं कपूरं च प्रदीपितम् । आरात्रिकमहं कुर्वेपश्य मे वरदाभव ।। * प्रदक्षिणा *
यानि कानि च पापानि जन्मान्तर कृतानि च । तानि सर्वाणि नश्यन्तु प्रदक्षिणा पदे पदे ।। *विसर्जन *
उत्तमे शिखरे देवि भूम्यां पर्वत मूर्धनि । ब्राह्मणोभ्ये ह्यनुज्ञाता गच्छ देवि यथासुखम् ।।
यह दैनिक साधना है। प्रातःकाल का समय इसके लिए सर्वोत्तम है। जिन्हें सुविधा हो प्रातः—सायं दोनों समय कर सकते हैं। जल पात्र को सूर्य के सम्मुख अर्घ्य रूप में चढ़ा देना चाहिये। पूजा में चढ़ाई हुई वस्तुयें चावल नैवेद्य आदि चिड़ियों को डाल देने चाहिये। पूजा की वस्तुयें इधर-उधर पैरों में कुचलती न फिरें—इसका ध्यान रखना चाहिये। यह दैनिक साधना विधि सर्व साधारण के लिये नित्य प्रयोग करने की है। इससे मनुष्य की आत्मा निर्मल होती है दैवी तत्व अपने भीतर बढ़ने से अनेक प्रकार के आध्यात्मिक एवं सांसारिक शुभ परिणाम प्राप्त होते हैं।
गायत्री का अर्थ चिन्तन
गायत्री मंत्र का अर्थ इस प्रकार है—
ॐ (परमात्मा) भूः (प्राणस्वरूप) भुवः (दुःखनाशक) स्वः (सुखस्वरूप) तत् (उस) सवितुः (तेजस्वी) वरेण्य (श्रेष्ठ) भर्गः (पापनाशक) देवस्य (दिव्य) धीमहि (धारण करें) धियो (बुद्धि) यो (जो) नः (हमारी) प्रचोदयात् (प्रेरित करे)।
अर्थात् उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुख स्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अन्तरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित करे।
इस अर्थ का विचार करने से उसके अन्तर्गत तीन तथ्य प्रकट होते हैं। 1-ईश्वर के लिए दिव्य गुणों का चिन्तन, 2-ईश्वर को अपने अन्दर धारण करना, 3-सद्बुद्धि की प्रेरणा के लिये प्रार्थना। यह तीनों ही बातें असाधारण महत्व की हैं।
1—ईश्वर के प्राणवान् दुःख रहित, आनन्द स्वरूप, तेजस्वी, श्रेष्ठ, पापरहित, देवगुण-सम्पन्न स्वरूप का ध्यान करने का तात्पर्य यह है कि इन्हीं गुणों को हम अपने में लावें। अपने विचार और स्वभाव को ऐसा बनावें कि उपयुक्त विशेषताएं हमारे व्यावहारिक जीवन में परिलक्षित होने लगें। इस प्रकार की विचार धारा, कार्य-पद्धति एवम् अनुभूति मनुष्य की आत्मिक और भौतिक स्थिति को, दिन-दिन समुन्नत एवं श्रेष्ठतम बनाती चलती है।
2—गायत्री मन्त्र के दूसरे भाग में परमात्मा को अपने अन्दर धारण करने की प्रतिज्ञा है। उस ब्रह्म, उस दिव्य गुण सम्पन्न परमात्मा को संसार के कण-कण में व्याप्त देखने से मनुष्य को हर घड़ी ईश्वर-दर्शन का आनन्द प्राप्त होता रहता है और वह अपने को ईश्वर के निकट स्वर्गीय स्थिति में ही रहता हुआ अनुभव करता है।
3—मन्त्र के तीसरे भाग में सद्बुद्धि का महत्व सर्वोपरि होने की मान्यता का प्रतिपादन है। भगवान् से यही प्रार्थना की गई है कि आप हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित कर दीजिये, क्योंकि यह एक ऐसी महान् भगवत् कृपा है कि इसके प्राप्त होने पर अन्य सब सुख-सम्पदायें अपने आप प्राप्त हो जाती हैं।
इस मन्त्र के प्रथम भाग में ईश्वरीय दिव्य-गुणों को प्राप्त करने, दूसरे भाग में ईश्वरीय दृष्टिकोण धारण करने और तीसरे में बुद्धि को सन्मार्ग पर लगाने की प्रेरणा है। गायत्री की शिक्षा है कि अपनी बुद्धि को सात्विक बनाओ, आदर्शों को ऊंचा रखो, उच्च दार्शनिक विचारधाराओं में रमण करो और तुच्छ तृष्णाओं एवं वासनाओं के लिये हमें नचाने वाली कुबुद्धि को मानस लोक में से बहिष्कृत कर दो। जैसे-जैसे कुबुद्धि का कल्मष दूर होगा वैसे ही वैसे दिव्य गुण सम्पन्न परमात्मा के अंशों की अपने में वृद्धि होती जायगी और उसी अनुपात से लौकिक और पारलौकिक आनन्दों की अभिवृद्धि होती जायगी।
गायत्री मन्त्र में सन्निहित उपर्युक्त तथ्य में ज्ञान, भक्ति, कर्म उपासना तीनों हैं। सद्गुणों का चिन्तन ज्ञानयोग हैं। ब्रह्म की धारणा भक्तियोग है और बुद्धि की सात्विकता एवं अनासक्ति कर्मयोग है। वेदों में ज्ञान, कर्म और उपासना यह तीन विषय हैं, गायत्री में भी बीज रूप से यह तीनों ही तथ्य सर्वांगीण ढंग से प्रतिपादित है।
नित्य हवन विधि
गायत्री उपासना से हवन का घनिष्ठ सम्बन्ध है। गायत्री उपासक को अपनी सुविधा और स्थिति के अनुसार हवन भी करते रहना चाहिये। बड़े यज्ञों की ‘हवन विधि’ छापी जा चुकी है पर जिन्हें नित्य हवन करना हो, या जिनके पास बहुत ही कम समय हो, उनके लिये और भी संक्षिप्त विधि नीचे दी जा रही हैं। जप के बाद हवन किया जाता है। हवन करना हो तो विसर्जन, अर्घ्य-दान आदि की उपासना समाप्ति की क्रियायें यज्ञ समाप्ति के बाद ही करनी चाहिये। हवन में यदि अन्य व्यक्ति भी भाग लें तो उनसे ब्रह्म संध्या कराके तब हवन में सम्मिलित करना चाहिये।
दैनिक हवन
अग्नि-स्थापना—कुण्ड या वेदी को शुद्ध करके उस पर समिधायें चिन लें फिर अग्नि स्थापना के लिये चम्मच से कपूर या घी में भिगोई हुई रुई की बत्ती को जलाकर उन समिधाओं के बीच में स्थापित करें। मन्त्र—
ॐ भूर्भुवः स्वद्यौरिव भूम्ना पृथिवी ववरिम्णा । तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठेऽग्निमन्नादमन्नाद्यादधे ।। अग्निं दूतं पूरोदधे हव्यवाहमुपब्र वे । देवाऽअः सादयादिह ।। ॐ अग्नये नमः । ॐ अग्निं आवाहयामि स्थापयामि । इहागच्छ इह तिष्ठ । इत्यावाह्य पञ्चोपचारैः पूजयेत् ।।
(2) अग्नि प्रदीपनम्—जब अग्नि समिधाओं में प्रवेश कर जावे तब उसे पंखे से प्रज्वलित करें और यह मन्त्र बोलें— ॐ उद्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृह त्वमिष्ठा पूर्ते स सृजेथामयं च । आस्मिन्त्सधस्थे अध्पुत्तरस्सिन् विश्वदेवाः यजमानश्च सीदत ।।
(3) समिधाधानम्—तत्पश्चात् निम्न चार मंत्रों से छोटी-छोटी चार समिधायें प्रत्येक मन्त्र के उच्चारण के बाद क्रम से घी में डुबोकर अग्नि में डालें— (1) ॐ अयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्घस्व चेद् वर्घय चास्मान् प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसे नान्नाद्येन समेधय स्वाहा ।। इदमग्नये जातवेद से इदं न मम ।।
(2) ॐ समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयता तिथिम् अस्मिन हव्या जुहोतन स्वाहा ।। इदमग्नये इदं न मम । (3) ॐ सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन । अन्नये जातवेद से स्वाहा ।। इदमग्नये जातवेदसे इदं न मम ।।
(4) ॐ तं त्वा समिभ्दिरिंगिरो घृतेन वर्धयामसि । बृहच्छोयविष्ठय स्वाहा । इदमग्नयेऽगिंरसे इदं न मम ।। (5) जन प्रसेचन—तत्पश्चात् अंजलि (या आचममी) में जल लेकर यज्ञ-कुण्ड (वेदी) के चारों ओर छिड़कें। इसके मन्त्र ये हैं—
ॐ आदित्येऽनुमन्यस्व ।। इससे पूर्व को
ॐ अनुमतेऽनुमन्यस्व ।। इससे पश्चिम को
ॐ सरस्वत्यनुमन्यस्व ।। इससे उत्तर को
ॐ देव सविता प्रसुव यज्ञं प्रसुव यज्ञपतिं भगाय
दिव्य गन्धर्वः केतपूः केतं न पुनातु वाचस्पतिर्वाज नः स्वदतु ।
(5) आज्याहुति होमः—नीचे लिखी सात आहुतियां केवल घृत की देवें और स्रुवा (घी होमने का चम्मच) से बचा हुआ घृत इदन्न मम उच्चारण के साथ प्रणीता (जल भरी हुई कटोरी) में हर आहुति के बाद टपकाते जावें। यही टपकाया हुआ घृत अन्त में अवघ्राण के काम आता है।
(1) ॐ प्रजापतये स्वाहा । इदं प्रजापतये इदं न मम ।
(2) ॐ इन्द्राय स्वाहा । इदमिन्द्राय इदं न मम ।
(3) ॐ अग्नये स्वाहा । इदमग्नये इदं न मम ।
(4) ॐ सोमये स्वाहा । इदं सोमाये इदं न मम ।
(5) ॐ भूः स्वाहा । इदं अग्नये इदं न मम ।
(6) ॐ भुवः स्वाहा । इदं वयवे इदं न मम ।
(7) ॐ स्वः स्वाहा । इदं सूर्याय इर्द न मम ।
(8) गायत्री मंत्र की आहुतियां—इसके पश्चात् गायत्री मंत्र से जितनी आहुतियां देनी हों हवन सामग्री तथा घी से देनी चाहिये। यदि दो व्यक्ति हवन करने वाले हों तो एक सामग्री, दूसरा घी होमे। यदि एक ही व्यक्ति हो तो सामग्री मिलाकर आहुति देवे।
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् । इदं गायत्र्यै इदं न मम ।
(7) स्विष्टकृत होम—अभीष्ट संख्या में गायत्री मन्त्र से आहुतियां देने के पश्चात मिष्ठान्न, खीर, हलुआ, आदि पदार्थों की एक आहुति देनी चाहिये—
ॐ यदस्य कर्मणो त्यरीरिच यद्वान्यून मिहाकरं अग्निष्टत् स्विष्टकृद्विद्यात्सर्व स्विष्टं सुहुतं करोतु मे । अग्नये स्विष्टकृते सुहुतहुते सर्वप्रायश्चित्त हुतीनां कामनां समर्धयित्रै सर्वान्नः कामान् समर्घय स्वाहा । इदमग्नये स्विष्टकृते इदन्न मम ।।
(8) पूर्णाहुति-इसके बाद सुचि चम्मच में घृत समेत सुपाड़ी रखकर पूर्णाहुति दें।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ।। ॐ पूर्णदर्विं परापत सुपूर्णा पुनरापत । वस्नेव विकीणा वहाऽहषमूर्ज शतक्रतो स्वाहा ।।
ॐ सर्व वैपूर्ण स्वाहा ।
(9) वसोधारा-चम्मच में ही घृत भरकर धीरे-धीरे फार बांधकर छोड़ें।
ॐ वसोपवित्रमसि शतघारं वसो पवित्रमसि सहस्त्रधारम् । देवस्त्वा सविता पुनातु वसोः पवित्रण शतधारेण सुप्वा कामधुक्षः स्वाहा ।।
(10) आरती-तत्पश्चात् निम्न मन्त्रों को पढ़ते हुए आरती उतारें— यं ब्रह्मावरुणेन्द्ररुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै— र्वेद सांगपंदक्रमोपनिषदर्गायन्ति यं सामगाः । ध्यानावस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो, यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणाः देवाय तस्मैं नमः ।
(11) घृत अवघ्राण—प्रणीता में इदन्नमम के साथ टपकाये हुए घृत को हथेलियों पर लगाकर अग्नि पर सेकें और उसे सूंघें तथा मुख, नेत्र कर्ण आदि पर लगावें।
ॐ तनूपा अग्नेसि तन्व मे पाहि ॐ आयुर्दा अग्नेस्यायुर्मे देहि । ॐ वर्चोदा अग्नेसि वर्चोमे देहि । ॐ अग्ने यन्ने तन्वा ऊनन्तन्म आपृण । ॐ मेधा मे देवी सरस्वती आदधातु । ॐ मेधां मे अश्विनौ देवां वाघतां तुष्कर स्रजौ ।
(12) भस्म धारण—स्रुवा से यज्ञ भस्म लेकर अनामिका उंगली से निम्न मन्त्र द्वारा क्रमशः ललाट, ग्रीवा, दक्षिण बाहुमूल तथा हृदय पर लगावें।
ॐ त्र्यायुषंजमधग्नेरिति ललाटे । ॐ कश्यपस्य त्रायुषमिति ग्रीवायाम् । ॐ यद्देवेषु त्र्यायुशमिति दत्रिण वाहुमूले । ॐ तन्नो अस्तु त्र्यायुषमिति हृदि । (13) शांति पाठ—हाथ जोड़कर सबके कल्याण के लिये शान्ति पाठ करें।
ॐ द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरौषधयः शान्तिःवनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्मशान्तिः सर्व शान्तिः रेवशान्ति सामां शान्तिरेधि ।।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः । सर्वारिष्टाः सुशार्न्भिवतु ।। गायत्री स्तवन
यन्मण्डलं दीप्तिकरं विशालम्, रतनप्रभं तीव्रमनादिरूपम् ।
दारिद्र्य-दुःखक्षयकारणं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ॥1॥
यन्मण्डलं देवगणैः सुपूजितम्, विप्रैः स्तुतं मानवमुक्तिकोविदम् ।
तं देवदेवं प्रणमामि भर्ग, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ॥2॥
यन्मण्डलं ज्ञानघनं त्वगम्यं, त्रैलोक्यपूज्यं त्रिगुणात्मरूपम् ।
समस्त-तेजोमय-दिव्यरूपं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ॥3॥
यन्मण्डलं गूढमतिप्रबोधं, धर्मस्य वृद्धिं कुरुते जनानाम् ।
यत् सर्वपापक्षयकारणं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ॥4॥
यन्मण्डलं व्याधिविनाशदक्षं, यदृग्-यजुः सामसु सम्प्रगीतम् ।
प्रकाशितं येन च र्भूभुवः स्वः, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ॥5॥
यन्मण्डलं वेदविदो वदन्ति, गायन्ति यच्चारण- सिद्धसङ्घाः ।
यद्योगिनो योगजुषां च सङ्घाः, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ॥6॥
यन्मण्डलं सर्वजनेषु पूजितं, ज्योतिश्च कुर्यादिह र्मत्यलोके ।
यत्काल-कालादिमनादिरूपम्, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ॥7॥
यन्मण्डलं विष्णुचर्तुमुखास्यं, यदक्षरं पापहरं जनानाम् ।
यत्कालकल्पक्षयकारणं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ॥8॥
यन्मण्डलं विश्वसृजां प्रसिद्धं, उत्पत्ति-रक्षा प्रलयप्रगल्भम् ।
यस्मिन् जगत्संहरतेऽखिलं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ॥9॥
यन्मण्डलं सर्वगतस्य विष्णोः, आत्मा परंधाम विशुद्धतत्त्वम् ।
सूक्ष्मान्तरैर्योगपथानुगम्यं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ॥10॥
यन्मण्डलं ब्रह्मविदो वदन्ति, गायन्ति यच्चारण-सिद्धसंघाः ।
यन्मण्डलं वेदविदः स्मरन्ति, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ॥11॥
यन्मण्डलं वेद- विदोपगीतं, यद्योगिनां योगपथानुगम्यम् ।
तत्सर्ववेदं प्रणमामि दिव्यं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ॥12॥
आरती गायत्री जी की
जयति जय गायत्री माता, जयति जय गायत्री माता।
आदि शक्ति तुम अलख निरंजन जगपालक कर्त्री।
दु:ख शोक, भय, क्लेश कलश दारिद्र दैन्य हत्री॥
ब्रह्म रूपिणी, प्रणात पालिन जगत धातृ अम्बे।
भव भयहारी, जन-हितकारी, सुखदा जगदम्बे॥
भय हारिणी, भवतारिणी, अनघेअज आनन्द राशि।
अविकारी, अखहरी, अविचलित, अमले, अविनाशी॥
कामधेनु सतचित आनन्द जय गंगा गीता।
सविता की शाश्वती, शक्ति तुम सावित्री सीता॥
ऋग, यजु साम, अथर्व प्रणयनी, प्रणव महामहिमे।
कुण्डलिनी सहस्त्र सुषुमन शोभा गुण गरिमे॥
स्वाहा, स्वधा, शची ब्रह्माणी राधा रुद्राणी।
जय सतरूपा, वाणी, विद्या, कमला कल्याणी॥
जननी हम हैं दीन-हीन, दु:ख-दरिद्र के घेरे।
यदपि कुटिल, कपटी कपूत तउ बालक हैं तेरे॥
स्नेहसनी करुणामय माता चरण शरण दीजै।
विलख रहे हम शिशु सुत तेरे दया दृष्टि कीजै॥
काम, क्रोध, मद, लोभ, दम्भ, दुर्भाव द्वेष हरिये।
शुद्ध बुद्धि निष्पाप हृदय मन को पवित्र करिये॥
तुम समर्थ सब भांति तारिणी तुष्टि-पुष्टि द्दाता।
सत मार्ग पर हमें चलाओ, जो है सुखदाता॥
जयति जय गायत्री माता, जयति जय गायत्री माता॥