Books - सर्वोपयोगी सुलभ साधनाएं
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Language: HINDI
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इस महान अवलम्बन का परित्याग न करें
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उपासना—आत्मिक प्रगति के लिए एक अति आवश्यक एवं अनिवार्य माध्यम है। जीवन शोधन की साधना के साथ चलता हुआ उपासना क्रम आशाजनक परिणाम प्रस्तुत करता है, उससे जीवनोद्देश्य की प्राप्ति में भारी सफलता मिलती है। इसलिए तत्वदर्शी आत्मवेत्ताओं ने उपासना को जीवन का एक अनिवार्य नित्य धर्म माना है। जो इस संदर्भ में उपेक्षा बरतते हैं, आलस्य प्रमाद करते हैं, उनकी कटु भर्त्सना शास्त्रकारों ने की है।
जिस प्रकार शरीर शुद्धि के लिए मलमूत्र विसर्जन, हाथ-मुंह धोना, स्नान करना आवश्यक है—दसों इन्द्रियों को मल रहित करना आवश्यक है—उसी प्रकार मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के अन्तःकरण चतुष्टय की शुद्धि आत्म-चिन्तन, आत्म-शोधन, आत्म-निर्माण एवं आत्म-विकास की प्रक्रिया अपनाकर अन्तः शरीर की परिशोधन आवश्यक है। नित्य कर्म केवल शरीर शुद्धि तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए वरन् नित्य धर्म के रूप में आन्तरिक मलीनताओं का निष्कासन भी नित्य किया जाना चाहिए।
शारीरिक स्वास्थ्य की तरह, बाह्य शुद्धि की तरह—मानसिक स्वास्थ्य और आन्तरिक शुद्धि का ध्यान रखा जाना चाहिए। हम शरीर ही नहीं आत्मा भी है, इसलिए दोनों की संतुलित सुरक्षा के लिए नित्य-कर्म ही नहीं नित्य धर्म भी आवश्यक माना जाना चाहिए। बाह्य शुद्धि क्रिया को नित्य-कर्म कहते हैं और आन्तरिक शुद्धि को नित्य-धर्म। इन दोनों के लिए हमें तत्परतापूर्वक जागरूक रहना चाहिए। अन्यथा समग्र स्वास्थ्य को स्थिर न रखा जा सकेगा और जीवनोद्देश्य की प्राप्ति सम्भव न हो सकेगी।
अग्नि की समीपता से ही गर्मी प्राप्त की जा सकती है, उससे दूर रहने पर उष्णता के माध्यम से मिल सकने वाले लाभ प्राप्त न हो सकेंगे। ठण्ड लग रही हो तो जलती हुई आग की समीपता से वह कष्ट दूर हो जाता है, भोजन पचाना हो, पानी गरम करना हो तो इन वस्तुओं को आग के समीप रखना पड़ता है। चूल्हा कहीं और पदार्थ कहीं रखा जाय तो भोजन पकाने का उद्देश्य पूरा न हो सकेगा। इसी प्रकार समस्त शक्तियों के अधिपति परमात्मा से यदि दूर रहा जाय, उसके पास न बैठा जाय तो वे तत्व, वे गुण हमें प्राप्त न हो सकेंगे, जिनके आधार पर सामान्य नर-पशु—महान् नर-नारायण के रूप में विकसित होता है।
समीपता का लाभ और आनन्द सर्व विदित है। सगे-सम्बन्धी दूर रहते हैं, तो मन उदास रहता है, पर जब वे साथ-साथ रहने का अवसर पाते हैं, तब आनन्दित और प्रसुदित रहते हैं। पति-पत्नी, माता-पुत्र, भाई-भाई, मित्र-मित्र जब साथ-साथ रहने का अवसर पाते हैं, तब उन्हें बड़ा संतोष होता है और बल मिलता है। विछोह में स्थिति बदल जाती है। उदासीनता घेर लेती है और एकाकीपन, शैथिल्य एवं दौर्बल्य का अनुभव होता है। प्रियजनों के शरीर और मन एक दूसरे को बल, उत्साह एवं आनन्द प्रदान करते हैं, यह एक सुनिश्चित तथ्य है। इसलिये हर कोई प्रियजनों की समीपता प्राप्त करने के लिए लालायित एवं प्रयत्नशील रहता है।
उपासना का अर्थ है—समीपता—पास बैठना। जीव का ईश्वर के समीप बैठना—इसी का नाम उपासना है। यों सत्ता की दृष्टि से ईश्वर इस विश्व के कण-कण में समाया हुआ है। हमारे शरीर और समीपवर्ती वातावरण में भी ओत-प्रात है। तथ्य की दृष्टि से वह समीप है। पर तत्व की दृष्टि से फिर भी वह दूर ही बना रहता है। भावनात्मक दृष्टि से यदि समीपता न हो तो फिर अभीष्ट आनन्द नहीं मिल सकता। दो प्रियजन एक ही किले में कैद रहें, दोनों की कोठरियों में एक दीवार मात्र का अन्तर है, तो उतना व्यवधान ही दोनों को हजारों मील की दूरी जैसा कष्ट देता है।
भावनात्मक दृष्टि से समीपता के अभाव में आनन्द कहां? टकसाल में सिक्के ढालने वाले कारीगर रोज लाखों रुपये उठाते धरते हैं, उन्हें उस सम्पत्ति पर कोई प्रसन्नता नहीं होती। बैंकों के खजांची अपने हाथों कितने धन की उलट-पुलट करते हैं पर उन्हें उससे क्या सुख मिलता है? जिस घर में हम रहते हैं, उसके नीचे की पृथ्वी को आर-बार खोद डाला जाय तो उसमें लाखों टन सोना, चांदी, तांबा आदि मूल्यवान धातुयें मिलेंगी। हम उस जमीन पर बैठे हैं, उसके स्वामी हैं फिर भी उससे लाभान्वित या आनन्दित नहीं होते। कारण एक ही है—भावनात्मक समीपता का न होना।
जिस धन से हमारी भावनात्मक समीपता जुड़ जाती है, जिसे हम अपना समझने लगते हैं, उसी में रह और आनन्द मिलने लगता है। कोई पति-पत्नी बाल्यकाल से परस्पर परिचित रहे हों तो भी उन्हें तब वह आनन्द, उल्लास नहीं मिला होगा, जो कि प्रणय सूत्र में बंध जाने के बाद मिलता है। पहले वे परिचित मात्र थे। अब वे एक दूसरे से सम्बद्ध हो गये। परिचय और सम्बद्ध होने में भारी भावनात्मक अन्तर है, इसी अन्तर के आधार पर सुखानुभूति की नींव रखी होती है।
ईश्वर को हम जानते तो हैं—उसे अपने चारों ओर बिखरा भी अनुभव करते हैं, यह परिचय मात्र है। इतने मात्र से काम नहीं चलता। आनन्द तब आता है—लाभ तब मिलता है जब दोनों के बीच भावनात्मक एकता का सम्बन्ध सूत्र बंध जाता है। उपासना जीव और ईश्वर को एकनिष्ठ आत्मीयता के सम्बन्ध सूत्र में बांध देने की एक सर्वमान्य एवं सुनिश्चित पद्धति है।
ईश्वर समस्त सद्गुणों, सत्प्रवृत्तियों, सद्भावनाओं एवं सद्-सम्भावनाओं का मूल केन्द्र है। उसकी समीपता हमारे लिये वैसी ही उपयोगी है, जैसे शीत के कष्ट से कांपते हुये व्यक्ति के लिए अग्नि की समीपता। जीवनोद्देश्य की रसायन का परिपाक उस अग्नि की समीपता से ही सम्भव है। जल से दूर रहने वाली मछली की जो दुर्गति होती है, वैसी ही ईश्वर विमुख जीव को भी भुगतनी पड़ती है। जीवन एक बल्ब मात्र है, उसमें जो रोशनी चमकती है वह विद्युत धारा का चमत्कार है। चमकता तो निःसन्देह बल्ब ही है पर उसके भीतर काम करने वाली शक्ति पावर हाउस से आने वाली बिजली की ही है।
अनेक विद्युत उपकरण अपने अनोखे करतब दिखाते हैं। बल्ब, पंखे, रेडियो, रेफ्रिजरेटर, हीटर, कूलर, टेलीफोन आदि के आश्चर्यजनक और उपयोगी कार्य होने का मूल श्रेय उस विद्युत धारा को ही है। जिसके कारण यह सभी यन्त्र गतिशील रहते हैं। यदि बिजली से उनका सम्बन्ध कट जाय तो वे निकम्मे से खिलौने मात्र बन कर रह जायेंगे। उनकी उपयोगिता तभी है, जब बिजली के प्रवाह से जुड़े रहें। ठीक इसी प्रकार जीव जब भावनात्मक एकता के द्वारा ईश्वर के साथ जुड़ा रहता है, तब वह स्वयं प्रकाशवान् रहता है और दूसरों को प्रकाशित करता है। यह संयोग यदि कटा रहे तो भीतर और बाहर अन्धकार ही अन्धकार छाया दृष्टिगोचर होता है। ईश्वर से वियुक्त होकर जीव तेलहीन दीपक की तरह, प्राण रहित शरीर की तरह निरुपयोगी बन कर रह जाता है। उसमें वह तेजस्विता रह नहीं जाती, जो सृष्टि के मुकुटमणि परमेश्वर के परम प्रिय राजकुमार—मनुष्य में स्वभावतः होनी चाहिये।
उपासना उसी अभाव की पूर्ति करती है। ईश्वर और जीव के बीच घनिष्ठ आत्मीयता के सम्बन्धों को सजग एवं गतिशील बनाती है। कहावत है कि ‘‘दोस्ती और दुश्मनी पास रहने से बढ़ती है और दूर रहने से घट जाती है।’’ ईश्वर और जीव की दोस्ती के बारे में भी यह उक्ति पूरी तरह लागू होती है। बार-बार पास बैठने से—हर दिन सम्पर्क बनाये रहने से—ईश्वर और जीव के बीच दोस्ती का रिश्ता मजबूत होता चला जाता है। यदि उपासना से विमुख रहें तो दोस्ती सम्भव नहीं—तब साधारण जान-पहचान मात्र रह जायगी और वह उतनी लाभदायक सिद्ध न हो सकेगी।
उच्च राज्य-कर्मचारियों एवं शासन सत्ताधीशों से जिनकी मित्रता होती है, वे दूसरों के लिए प्रभावशाली रहते हैं, स्वयं गर्व एवं गौरव अनुभव करते हैं, निर्भय और निश्चिन्त रहते हैं और समय-समय पर उस दोस्ती से ऐसे लाभ भी उठा लेते हैं, जो सर्वसाधारण लोगों के लिये सम्भव नहीं। लोग इस तथ्य को समझते हैं, इसलिये राज्याधिकारियों से दोस्ती बढ़ाने में बहुत सा समय और धन खर्च करते हैं। इतनी समझ जिन्हें है वे शासनाध्यक्षों के शासनाध्यक्ष—परमेश्वर के साथ दोस्ती जोड़ने में न जाने थोड़ा समय और मनोयोग लगाने में क्यों उपेक्षा बरतते हैं? जब यह दोस्ती संसार के किसी भी प्राणी की अपेक्षा असंख्य गुनी अधिक उपयोगी और लाभदायक सिद्ध हो सकती है। सम्पर्क में गुणों के आदान-प्रदान की सम्भावना जुड़ी हुई है। बुरे लोगों के साथ बैठने का कुसंग व अच्छे लोगों के साथ बैठने का सत्संग अपना भला-बुरा परिणाम थोड़े ही समय में दिखा देता है। दुष्टों के साथ रहने से उन्हीं जैसे दोष-दुर्गुण साथी से पैदा हो जाते हैं। सज्जनों की संगति में बढ़ने वाले सद्गुणों का लाभ भी सहज ही अनुभव किया जा सकता है। चन्दन वृक्ष के समीप उगे हुये जंगली पेड़-पौधे भी सुगन्धित हो जाते हैं। नदी नालों में गिरा हुआ गंगा जल भी अपवित्र बन जाता है। संगति की महत्ता कौन नहीं जानता?
सामान्य बुद्धि का प्रयत्न यही रहता है कि सुसंगति का अवसर मिले। इसके लिये लोग क्लबों में सदस्य बनते हैं, संस्थाओं में प्रवेश करते हैं ताकि वहां ऊंचे लोगों के साथ सम्पर्क साधने का अवसर मिले। न जाने क्यों हम ईश्वर की सत्ता और महत्ता से अपरिचित हैं? और न जाने क्यों उससे सम्बन्ध साधने के लिये अति सरल और अति सस्ते उपाय—उपासना को उपेक्षापूर्वक त्यागे रहते हैं?
जिन सत्प्रवृत्तियों की दिव्य शक्तियों की हमें जीवन विकास के लिये—जीवनोद्देश्य की प्राप्ति के लिये आवश्यकता है। वे सभी ईश्वर में सन्निहित हैं। ईश्वर समस्त सत् सम्भावनाओं का केन्द्र है। इस एक ही उद्गम से हमारी सभी आवश्यकतायें पूर्ण हो सकती हैं। आवश्यकताओं और अभावों की पूर्ति के लिये कल्प-वक्ष को स्मरण किया जाता है। बाह्य और आन्तरिक तृप्ति की पयस्विनी कामधेनु मानी गई है। मृत्यु और जराजीर्णता से छुटकारा दिलाने वाला पदार्थ अमृत कहा जाता है। लोहे को स्वर्ण में बदल लेने की क्षमता पारस में बताई जाती है।
इन माध्यमों से मनुष्य के समस्त शोक सन्तापों और अभावों का निराकरण हो सकने की बात कथा-पुराणों में कही तो जाती है पर उन्हें देखा नहीं जाता। किन्तु यह सभी सम्भावनायें ईश्वर में विद्यमान हैं। उसको स्पर्श करने वाला आप्तकाम बन जाता है, उसकी कोई कामना शेष नहीं रहती। कष्ट और अभावों का दुःख उसे नहीं सहना पड़ता। अग्नि कुण्ड में डाला हुआ पत्थर का टुकड़ा भी थोड़ी देर में अग्नि के गुण धर्म से परिपूर्ण होकर ज्वलन्त अंगारे जैसा बन जाता है। उसी प्रकार साधारण स्तर का तुच्छ सा जीवधारी मनुष्य ‘देव’-सत्ता में परिणित हो जाता है।
लोहा पारस को छूकर सोना बनता है कि नहीं यह तथ्य संदिग्ध हो सकता है पर यह असंदिग्ध है कि जीव का ब्रह्म से सम्पर्क होना उसे देव-संज्ञा में परिणित कर देता है। भूसुर और भूदेव कल्पना की वस्तु नहीं, उन्हें देखा और परखा जा सकता है। नर पशु को नर-देव में परिणित कर देने की क्षमता ईश्वर की समीपता में रहने से उपलब्ध हो सकती है। इस दिव्य सान्निध्य की पुण्य प्रक्रिया का नाम ही उपासना है। उपासना मानव जीवन का महानतम सम्बल है। उसे परम पुरुषार्थ कहा जाता है। संसार में जितनी विभूतियां सफलतायें और उपलब्धियां हो सकती हैं, उन सब में बड़ी यह है कि हम ईश्वर से परिचित मात्र न रह कर उसके साथ दोस्ती का रिश्ता जोड़ लें और उस समस्त वैभव के उत्तराधिकारी बन जायं जो उसके पास है। इससे बढ़ कर और कोई उपलब्धि इस जीवन में हो ही नहीं सकती। इसलिये बुद्धिमत्ता एवं दूरदर्शिता इसी में है कि हम अन्य आवश्यक क्रिया-कलापों से कम नहीं वरन् अधिक महत्व ईश्वर की समीपता के लाभ को दें और उसके लिये ‘उपासना’ की प्रक्रिया परिपूर्ण निष्ठा के साथ अपनायें। मानव प्राणी अनेक भूल करता है। उनका दंड भी भोगता है। इन भूलों में सबसे बड़ी भूल है—उपासना के प्रति उपेक्षा। सृष्टि के संविधान में क्षमा के लिए गुंजाइश नहीं। हर किसी को अपने कर्मों का प्रतिफल भोगना पड़ता है उपासना की उपेक्षा को चाहे भूल कहा जाय, चाहे उद्दंडता, उसका दंड हमें एक ऐसे भारी आत्मिक अभाव के रूप में भुगतना पड़ता है, जिसके कारण जीवन में न रस रह जाता है और न आनन्द। उत्कृष्टता की सरलता की अनुभूति ही वह अमृत है, जिसे पीकर आत्मा तृप्ति का अनुभव करती है और जिसका रसास्वादन करने के लिये वह बार-बार जन्म मृत्यु का कष्ट सह कर भी, मानव शरीर धारण करने के लिये लालायित रहती है। निम्न स्तर के विचारों और कार्यों को तो कीचड़ ही कहा जा सकता है। कृमि-कीट उसमें बुजबुजाते हुये अपने दिन गुजार सकते हैं, पर जिसकी आत्मा जाग पड़ी उसके लिये यह स्थिति असह्य है। उसकी तृप्ति और संतुष्टि उत्कृष्टता से ही सम्भव है।
मधुमक्खी और भौंरे पुष्पों की समीपता से ही जीवित रह सकते हैं। जागृत आत्मायें केवल उत्कृष्टता की भूमिका का रसास्वादन करने के लिये जीवन धारण करती है। निकृष्टता की विचारणा और प्रक्रिया उन्हें मृत्यु जैसी कष्टकारक होती है। यह स्तर कैसे प्राप्त होकर कहां से प्राप्त हो? इन प्रश्नों का उत्तर एक ही हो सकता है—ईश्वर की समीपता व उपासना। उपासना हमें वह प्रकाश और मार्ग दर्शन प्रदान करती है, जिसमें समस्त उत्कृष्टताओं का समुच्चय भगवान् हमारे समीप आता है और अपनी श्रेष्ठताओं से हमें ओत-प्रोत कर देता है।
प्रकृति और परमेश्वर के संयोग से यह जगत बना है। प्रकृति जड़ है। उसमें जड़ता और तमोगुण ही भरा है। स्थूल पदार्थ केवल इन्द्रिय सुख दे सकते हैं। वे वासना का क्षणिक सुख और तृष्णा का भ्रम जंजाल पैदा कर सकते हैं, उत्कृष्टता उनमें नहीं। उत्कृष्टता तो उच्च स्तरीय उस स्थिति में है, जिसे ईश्वर की समीपता कहते हैं। ईश्वर उत्कृष्ट है, वही हमें उत्कृष्टता प्रदान कर सकता है। संतोष और आनन्द से अन्तःकरण को परिपूर्ण कर सकने वाली स्थिति उत्पन्न करने की क्षमता ईश्वर की समीपता में है और उसी को प्राप्त करने के लिये उपासना की जाती है। इस आवश्यक नित्यकर्म का पालन करना ही हमारे लिए उचित है। उत्कृष्टता की अनुभूतियों के सम्पर्क में आकर ही हम उन दैवी सम्पदाओं के अधिपति बन सकते हैं, जिन्हें प्राप्त करने के लिये यह महान् मानव जीवन उपलब्ध हुआ है।
जिस प्रकार शरीर शुद्धि के लिए मलमूत्र विसर्जन, हाथ-मुंह धोना, स्नान करना आवश्यक है—दसों इन्द्रियों को मल रहित करना आवश्यक है—उसी प्रकार मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के अन्तःकरण चतुष्टय की शुद्धि आत्म-चिन्तन, आत्म-शोधन, आत्म-निर्माण एवं आत्म-विकास की प्रक्रिया अपनाकर अन्तः शरीर की परिशोधन आवश्यक है। नित्य कर्म केवल शरीर शुद्धि तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए वरन् नित्य धर्म के रूप में आन्तरिक मलीनताओं का निष्कासन भी नित्य किया जाना चाहिए।
शारीरिक स्वास्थ्य की तरह, बाह्य शुद्धि की तरह—मानसिक स्वास्थ्य और आन्तरिक शुद्धि का ध्यान रखा जाना चाहिए। हम शरीर ही नहीं आत्मा भी है, इसलिए दोनों की संतुलित सुरक्षा के लिए नित्य-कर्म ही नहीं नित्य धर्म भी आवश्यक माना जाना चाहिए। बाह्य शुद्धि क्रिया को नित्य-कर्म कहते हैं और आन्तरिक शुद्धि को नित्य-धर्म। इन दोनों के लिए हमें तत्परतापूर्वक जागरूक रहना चाहिए। अन्यथा समग्र स्वास्थ्य को स्थिर न रखा जा सकेगा और जीवनोद्देश्य की प्राप्ति सम्भव न हो सकेगी।
अग्नि की समीपता से ही गर्मी प्राप्त की जा सकती है, उससे दूर रहने पर उष्णता के माध्यम से मिल सकने वाले लाभ प्राप्त न हो सकेंगे। ठण्ड लग रही हो तो जलती हुई आग की समीपता से वह कष्ट दूर हो जाता है, भोजन पचाना हो, पानी गरम करना हो तो इन वस्तुओं को आग के समीप रखना पड़ता है। चूल्हा कहीं और पदार्थ कहीं रखा जाय तो भोजन पकाने का उद्देश्य पूरा न हो सकेगा। इसी प्रकार समस्त शक्तियों के अधिपति परमात्मा से यदि दूर रहा जाय, उसके पास न बैठा जाय तो वे तत्व, वे गुण हमें प्राप्त न हो सकेंगे, जिनके आधार पर सामान्य नर-पशु—महान् नर-नारायण के रूप में विकसित होता है।
समीपता का लाभ और आनन्द सर्व विदित है। सगे-सम्बन्धी दूर रहते हैं, तो मन उदास रहता है, पर जब वे साथ-साथ रहने का अवसर पाते हैं, तब आनन्दित और प्रसुदित रहते हैं। पति-पत्नी, माता-पुत्र, भाई-भाई, मित्र-मित्र जब साथ-साथ रहने का अवसर पाते हैं, तब उन्हें बड़ा संतोष होता है और बल मिलता है। विछोह में स्थिति बदल जाती है। उदासीनता घेर लेती है और एकाकीपन, शैथिल्य एवं दौर्बल्य का अनुभव होता है। प्रियजनों के शरीर और मन एक दूसरे को बल, उत्साह एवं आनन्द प्रदान करते हैं, यह एक सुनिश्चित तथ्य है। इसलिये हर कोई प्रियजनों की समीपता प्राप्त करने के लिए लालायित एवं प्रयत्नशील रहता है।
उपासना का अर्थ है—समीपता—पास बैठना। जीव का ईश्वर के समीप बैठना—इसी का नाम उपासना है। यों सत्ता की दृष्टि से ईश्वर इस विश्व के कण-कण में समाया हुआ है। हमारे शरीर और समीपवर्ती वातावरण में भी ओत-प्रात है। तथ्य की दृष्टि से वह समीप है। पर तत्व की दृष्टि से फिर भी वह दूर ही बना रहता है। भावनात्मक दृष्टि से यदि समीपता न हो तो फिर अभीष्ट आनन्द नहीं मिल सकता। दो प्रियजन एक ही किले में कैद रहें, दोनों की कोठरियों में एक दीवार मात्र का अन्तर है, तो उतना व्यवधान ही दोनों को हजारों मील की दूरी जैसा कष्ट देता है।
भावनात्मक दृष्टि से समीपता के अभाव में आनन्द कहां? टकसाल में सिक्के ढालने वाले कारीगर रोज लाखों रुपये उठाते धरते हैं, उन्हें उस सम्पत्ति पर कोई प्रसन्नता नहीं होती। बैंकों के खजांची अपने हाथों कितने धन की उलट-पुलट करते हैं पर उन्हें उससे क्या सुख मिलता है? जिस घर में हम रहते हैं, उसके नीचे की पृथ्वी को आर-बार खोद डाला जाय तो उसमें लाखों टन सोना, चांदी, तांबा आदि मूल्यवान धातुयें मिलेंगी। हम उस जमीन पर बैठे हैं, उसके स्वामी हैं फिर भी उससे लाभान्वित या आनन्दित नहीं होते। कारण एक ही है—भावनात्मक समीपता का न होना।
जिस धन से हमारी भावनात्मक समीपता जुड़ जाती है, जिसे हम अपना समझने लगते हैं, उसी में रह और आनन्द मिलने लगता है। कोई पति-पत्नी बाल्यकाल से परस्पर परिचित रहे हों तो भी उन्हें तब वह आनन्द, उल्लास नहीं मिला होगा, जो कि प्रणय सूत्र में बंध जाने के बाद मिलता है। पहले वे परिचित मात्र थे। अब वे एक दूसरे से सम्बद्ध हो गये। परिचय और सम्बद्ध होने में भारी भावनात्मक अन्तर है, इसी अन्तर के आधार पर सुखानुभूति की नींव रखी होती है।
ईश्वर को हम जानते तो हैं—उसे अपने चारों ओर बिखरा भी अनुभव करते हैं, यह परिचय मात्र है। इतने मात्र से काम नहीं चलता। आनन्द तब आता है—लाभ तब मिलता है जब दोनों के बीच भावनात्मक एकता का सम्बन्ध सूत्र बंध जाता है। उपासना जीव और ईश्वर को एकनिष्ठ आत्मीयता के सम्बन्ध सूत्र में बांध देने की एक सर्वमान्य एवं सुनिश्चित पद्धति है।
ईश्वर समस्त सद्गुणों, सत्प्रवृत्तियों, सद्भावनाओं एवं सद्-सम्भावनाओं का मूल केन्द्र है। उसकी समीपता हमारे लिये वैसी ही उपयोगी है, जैसे शीत के कष्ट से कांपते हुये व्यक्ति के लिए अग्नि की समीपता। जीवनोद्देश्य की रसायन का परिपाक उस अग्नि की समीपता से ही सम्भव है। जल से दूर रहने वाली मछली की जो दुर्गति होती है, वैसी ही ईश्वर विमुख जीव को भी भुगतनी पड़ती है। जीवन एक बल्ब मात्र है, उसमें जो रोशनी चमकती है वह विद्युत धारा का चमत्कार है। चमकता तो निःसन्देह बल्ब ही है पर उसके भीतर काम करने वाली शक्ति पावर हाउस से आने वाली बिजली की ही है।
अनेक विद्युत उपकरण अपने अनोखे करतब दिखाते हैं। बल्ब, पंखे, रेडियो, रेफ्रिजरेटर, हीटर, कूलर, टेलीफोन आदि के आश्चर्यजनक और उपयोगी कार्य होने का मूल श्रेय उस विद्युत धारा को ही है। जिसके कारण यह सभी यन्त्र गतिशील रहते हैं। यदि बिजली से उनका सम्बन्ध कट जाय तो वे निकम्मे से खिलौने मात्र बन कर रह जायेंगे। उनकी उपयोगिता तभी है, जब बिजली के प्रवाह से जुड़े रहें। ठीक इसी प्रकार जीव जब भावनात्मक एकता के द्वारा ईश्वर के साथ जुड़ा रहता है, तब वह स्वयं प्रकाशवान् रहता है और दूसरों को प्रकाशित करता है। यह संयोग यदि कटा रहे तो भीतर और बाहर अन्धकार ही अन्धकार छाया दृष्टिगोचर होता है। ईश्वर से वियुक्त होकर जीव तेलहीन दीपक की तरह, प्राण रहित शरीर की तरह निरुपयोगी बन कर रह जाता है। उसमें वह तेजस्विता रह नहीं जाती, जो सृष्टि के मुकुटमणि परमेश्वर के परम प्रिय राजकुमार—मनुष्य में स्वभावतः होनी चाहिये।
उपासना उसी अभाव की पूर्ति करती है। ईश्वर और जीव के बीच घनिष्ठ आत्मीयता के सम्बन्धों को सजग एवं गतिशील बनाती है। कहावत है कि ‘‘दोस्ती और दुश्मनी पास रहने से बढ़ती है और दूर रहने से घट जाती है।’’ ईश्वर और जीव की दोस्ती के बारे में भी यह उक्ति पूरी तरह लागू होती है। बार-बार पास बैठने से—हर दिन सम्पर्क बनाये रहने से—ईश्वर और जीव के बीच दोस्ती का रिश्ता मजबूत होता चला जाता है। यदि उपासना से विमुख रहें तो दोस्ती सम्भव नहीं—तब साधारण जान-पहचान मात्र रह जायगी और वह उतनी लाभदायक सिद्ध न हो सकेगी।
उच्च राज्य-कर्मचारियों एवं शासन सत्ताधीशों से जिनकी मित्रता होती है, वे दूसरों के लिए प्रभावशाली रहते हैं, स्वयं गर्व एवं गौरव अनुभव करते हैं, निर्भय और निश्चिन्त रहते हैं और समय-समय पर उस दोस्ती से ऐसे लाभ भी उठा लेते हैं, जो सर्वसाधारण लोगों के लिये सम्भव नहीं। लोग इस तथ्य को समझते हैं, इसलिये राज्याधिकारियों से दोस्ती बढ़ाने में बहुत सा समय और धन खर्च करते हैं। इतनी समझ जिन्हें है वे शासनाध्यक्षों के शासनाध्यक्ष—परमेश्वर के साथ दोस्ती जोड़ने में न जाने थोड़ा समय और मनोयोग लगाने में क्यों उपेक्षा बरतते हैं? जब यह दोस्ती संसार के किसी भी प्राणी की अपेक्षा असंख्य गुनी अधिक उपयोगी और लाभदायक सिद्ध हो सकती है। सम्पर्क में गुणों के आदान-प्रदान की सम्भावना जुड़ी हुई है। बुरे लोगों के साथ बैठने का कुसंग व अच्छे लोगों के साथ बैठने का सत्संग अपना भला-बुरा परिणाम थोड़े ही समय में दिखा देता है। दुष्टों के साथ रहने से उन्हीं जैसे दोष-दुर्गुण साथी से पैदा हो जाते हैं। सज्जनों की संगति में बढ़ने वाले सद्गुणों का लाभ भी सहज ही अनुभव किया जा सकता है। चन्दन वृक्ष के समीप उगे हुये जंगली पेड़-पौधे भी सुगन्धित हो जाते हैं। नदी नालों में गिरा हुआ गंगा जल भी अपवित्र बन जाता है। संगति की महत्ता कौन नहीं जानता?
सामान्य बुद्धि का प्रयत्न यही रहता है कि सुसंगति का अवसर मिले। इसके लिये लोग क्लबों में सदस्य बनते हैं, संस्थाओं में प्रवेश करते हैं ताकि वहां ऊंचे लोगों के साथ सम्पर्क साधने का अवसर मिले। न जाने क्यों हम ईश्वर की सत्ता और महत्ता से अपरिचित हैं? और न जाने क्यों उससे सम्बन्ध साधने के लिये अति सरल और अति सस्ते उपाय—उपासना को उपेक्षापूर्वक त्यागे रहते हैं?
जिन सत्प्रवृत्तियों की दिव्य शक्तियों की हमें जीवन विकास के लिये—जीवनोद्देश्य की प्राप्ति के लिये आवश्यकता है। वे सभी ईश्वर में सन्निहित हैं। ईश्वर समस्त सत् सम्भावनाओं का केन्द्र है। इस एक ही उद्गम से हमारी सभी आवश्यकतायें पूर्ण हो सकती हैं। आवश्यकताओं और अभावों की पूर्ति के लिये कल्प-वक्ष को स्मरण किया जाता है। बाह्य और आन्तरिक तृप्ति की पयस्विनी कामधेनु मानी गई है। मृत्यु और जराजीर्णता से छुटकारा दिलाने वाला पदार्थ अमृत कहा जाता है। लोहे को स्वर्ण में बदल लेने की क्षमता पारस में बताई जाती है।
इन माध्यमों से मनुष्य के समस्त शोक सन्तापों और अभावों का निराकरण हो सकने की बात कथा-पुराणों में कही तो जाती है पर उन्हें देखा नहीं जाता। किन्तु यह सभी सम्भावनायें ईश्वर में विद्यमान हैं। उसको स्पर्श करने वाला आप्तकाम बन जाता है, उसकी कोई कामना शेष नहीं रहती। कष्ट और अभावों का दुःख उसे नहीं सहना पड़ता। अग्नि कुण्ड में डाला हुआ पत्थर का टुकड़ा भी थोड़ी देर में अग्नि के गुण धर्म से परिपूर्ण होकर ज्वलन्त अंगारे जैसा बन जाता है। उसी प्रकार साधारण स्तर का तुच्छ सा जीवधारी मनुष्य ‘देव’-सत्ता में परिणित हो जाता है।
लोहा पारस को छूकर सोना बनता है कि नहीं यह तथ्य संदिग्ध हो सकता है पर यह असंदिग्ध है कि जीव का ब्रह्म से सम्पर्क होना उसे देव-संज्ञा में परिणित कर देता है। भूसुर और भूदेव कल्पना की वस्तु नहीं, उन्हें देखा और परखा जा सकता है। नर पशु को नर-देव में परिणित कर देने की क्षमता ईश्वर की समीपता में रहने से उपलब्ध हो सकती है। इस दिव्य सान्निध्य की पुण्य प्रक्रिया का नाम ही उपासना है। उपासना मानव जीवन का महानतम सम्बल है। उसे परम पुरुषार्थ कहा जाता है। संसार में जितनी विभूतियां सफलतायें और उपलब्धियां हो सकती हैं, उन सब में बड़ी यह है कि हम ईश्वर से परिचित मात्र न रह कर उसके साथ दोस्ती का रिश्ता जोड़ लें और उस समस्त वैभव के उत्तराधिकारी बन जायं जो उसके पास है। इससे बढ़ कर और कोई उपलब्धि इस जीवन में हो ही नहीं सकती। इसलिये बुद्धिमत्ता एवं दूरदर्शिता इसी में है कि हम अन्य आवश्यक क्रिया-कलापों से कम नहीं वरन् अधिक महत्व ईश्वर की समीपता के लाभ को दें और उसके लिये ‘उपासना’ की प्रक्रिया परिपूर्ण निष्ठा के साथ अपनायें। मानव प्राणी अनेक भूल करता है। उनका दंड भी भोगता है। इन भूलों में सबसे बड़ी भूल है—उपासना के प्रति उपेक्षा। सृष्टि के संविधान में क्षमा के लिए गुंजाइश नहीं। हर किसी को अपने कर्मों का प्रतिफल भोगना पड़ता है उपासना की उपेक्षा को चाहे भूल कहा जाय, चाहे उद्दंडता, उसका दंड हमें एक ऐसे भारी आत्मिक अभाव के रूप में भुगतना पड़ता है, जिसके कारण जीवन में न रस रह जाता है और न आनन्द। उत्कृष्टता की सरलता की अनुभूति ही वह अमृत है, जिसे पीकर आत्मा तृप्ति का अनुभव करती है और जिसका रसास्वादन करने के लिये वह बार-बार जन्म मृत्यु का कष्ट सह कर भी, मानव शरीर धारण करने के लिये लालायित रहती है। निम्न स्तर के विचारों और कार्यों को तो कीचड़ ही कहा जा सकता है। कृमि-कीट उसमें बुजबुजाते हुये अपने दिन गुजार सकते हैं, पर जिसकी आत्मा जाग पड़ी उसके लिये यह स्थिति असह्य है। उसकी तृप्ति और संतुष्टि उत्कृष्टता से ही सम्भव है।
मधुमक्खी और भौंरे पुष्पों की समीपता से ही जीवित रह सकते हैं। जागृत आत्मायें केवल उत्कृष्टता की भूमिका का रसास्वादन करने के लिये जीवन धारण करती है। निकृष्टता की विचारणा और प्रक्रिया उन्हें मृत्यु जैसी कष्टकारक होती है। यह स्तर कैसे प्राप्त होकर कहां से प्राप्त हो? इन प्रश्नों का उत्तर एक ही हो सकता है—ईश्वर की समीपता व उपासना। उपासना हमें वह प्रकाश और मार्ग दर्शन प्रदान करती है, जिसमें समस्त उत्कृष्टताओं का समुच्चय भगवान् हमारे समीप आता है और अपनी श्रेष्ठताओं से हमें ओत-प्रोत कर देता है।
प्रकृति और परमेश्वर के संयोग से यह जगत बना है। प्रकृति जड़ है। उसमें जड़ता और तमोगुण ही भरा है। स्थूल पदार्थ केवल इन्द्रिय सुख दे सकते हैं। वे वासना का क्षणिक सुख और तृष्णा का भ्रम जंजाल पैदा कर सकते हैं, उत्कृष्टता उनमें नहीं। उत्कृष्टता तो उच्च स्तरीय उस स्थिति में है, जिसे ईश्वर की समीपता कहते हैं। ईश्वर उत्कृष्ट है, वही हमें उत्कृष्टता प्रदान कर सकता है। संतोष और आनन्द से अन्तःकरण को परिपूर्ण कर सकने वाली स्थिति उत्पन्न करने की क्षमता ईश्वर की समीपता में है और उसी को प्राप्त करने के लिये उपासना की जाती है। इस आवश्यक नित्यकर्म का पालन करना ही हमारे लिए उचित है। उत्कृष्टता की अनुभूतियों के सम्पर्क में आकर ही हम उन दैवी सम्पदाओं के अधिपति बन सकते हैं, जिन्हें प्राप्त करने के लिये यह महान् मानव जीवन उपलब्ध हुआ है।