Books - सर्वोपयोगी सुलभ साधनाएं
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Language: HINDI
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ज्ञान-योग से जन-मानस का परिष्कार
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ज्ञान-योग द्वारा सूक्ष्म शरीर में देवत्व की दैनिक प्रक्रिया है—स्वाध्याय। जन्म दिन वर्ष में एक बार आता है—झकझोर कर चला जाता है। उसे आत्म-ज्ञान का शुभारम्भ, श्रीगणेश एवं प्रेरक पर्व कह सकते हैं, इस उपलब्धि को नित्य सींचना आवश्यक है और यह कार्य दैनिक स्वाध्याय से ही सम्भव हो सकता है।
वातावरण का मनुष्य पर प्रभाव पड़ता है। आज के वातावरण में स्वार्थपरता, वासना, विलासिता, तृष्णा, उच्छृंखलता की मनोवृत्तियां बुरी तरह संव्याप्त है। इन्हीं से प्रेरित होकर लोगों की विचित्र गतिविधियां संचालित होती हैं। लोग बाहर से आदर्शवादिता की बातें करते हैं। पर उनके क्रियाकलाप में उपरोक्त तत्व ही घुले रहते हैं। बेईमानी और धूर्तता का सहारा लेकर सांसारिक वैभव उपार्जन करने वाले लोगों के उदाहरण चारों ओर भरे पड़े हैं। यह सारे का सारा वातावरण मौन रूप से मनुष्य को यही उपदेश करता है कि शीघ्र उन्नति करनी है—मौज-मजा के अधिक साधन उपलब्ध करने हों तो उचित अनुचित का अन्तर करने के झंझट में न पड़ कर जैसे बने वैसे अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहिए। आज के वातावरण की मौन रूप से यही शिक्षा है और यह शिक्षा हर दुर्बल मनः व्यक्ति को प्रभावित भी करती है। फलस्वरूप जनसाधारण की रुचि अकर्म कुकर्म करने की ओर बढ़ती चली जाती है। असुरता को दिन-दिन बढ़ते और देवत्व को दिन-दिन क्षीण होते हम भली प्रकार देख सकते हैं।
आम लोग इस पतन-प्रवाह में ही बहने लगते हैं। सामाजिक मूढ़ताएं, रूढ़ियां, अन्ध परम्परायें अधिकांश लोगों को अपने चंगुल में जकड़े रहती हैं। उनकी देखा-देखी दुर्बल मन व्यक्ति भी अनुकरण करते हैं। विवेक उनकी उपयोगिता पर सन्देह तो उत्पन्न करता है पर समर्थन न मिलने से चुप ही बैठना पड़ता है और जो ढर्रा चल रहा है उसी के साथ लुढ़कता पड़ता है। इस प्रकार अवांछनीय सामाजिक कुरीतियां, मूढ़ताएं और अन्ध परम्परायें घटने की बजाय बढ़ती ही रहती हैं। अनैतिकता का अभिवर्धन व्यक्तिगत चरित्र का पतन और सामाजिक मूढ़ताओं का विस्तार सामूहिक जीवन को जर्जर बनाते चले जा रहे हैं। पतन का पहिया तेजी से घूमता है और दुर्दशा में हम भयावह रूप से बढ़ते चले जा रहे हैं।
इस कुचक्र को कैसे रोका जाय? इस प्रश्न पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने से एक ही निष्कर्ष निकलता है कि सर्व साधारण के मस्तिष्क को पतन की ओर आकर्षित करने वाले प्रशिक्षण की तुलना में ठीक उतना ही प्रबल प्रतिरोधी वातावरण ऐसा तैयार किया जाय जो जन मानस की असुरता की विभीषिकाओं और देवत्व की शुभ सम्भावनाओं का प्रभाव उत्पन्न कर सके। अच्छा तो यह था कि जिस प्रकार दुष्टता अपनाकर सफलता उपलब्ध करने वालों के अगणित उदाहरण सामने उपस्थित है वैसे ही सज्जनता का अवलम्बन लेकर प्रगति के उच्च शिखर पर पहुंचने वालों के उदाहरण देखने को मिलते और उनका प्रभाव ग्रहण कर अनेकों को उस सन्मार्ग का अनुकरण करने की प्रेरणा मिलती। पर यदि वैसी व्यवस्था तत्काल नहीं हो सकती तो दूसरा उपाय यह है कि जन साधारण के मस्तिष्क को प्रभावित कर सकने योग्य उत्कृष्ट समर्थ विचार इतनी अधिक मात्रा में उपलब्ध हों कि सामयिक कुशिक्षा और दूषित प्रभाव का निराकरण किया जा सके।
यह कार्य स्वाध्याय की व्यापक सर्वांगपूर्ण व्यवस्था करके सम्पन्न किया जा सकता है। वर्तमान का काम इतिहास से चलाया जा सकता है और कुशिक्षा देने वाले वर्तमान व्यक्तियों के मुकाबले दूरस्थ अथवा दिवंगत महापुरुषों की विचार पद्धति सामने खड़ी की जा सकती है। स्वाध्याय इसी प्रक्रिया का नाम है। संसार में ऐसे उत्कृष्ट व्यक्तित्व हैं अथवा हो चुके हैं जिनकी ओजस्वी विचारधारा बड़ी समर्थ और सारगर्भित है, उसे सुनने का अवसर मिलता रहे तो वर्तमान दुर्बुद्धिपूर्ण शिक्षा की काट हो सकती है। इसी प्रकार दूरस्थ अथवा दिवंगत सन्मार्गगामी सज्जनों के महान् चरित्र आंखों के सामने प्रस्तुत होते रहें तो भी वर्तमान दुरात्माओं के भ्रष्ट अनुकरण से बचने की हिम्मत जाग सकती है। प्रत्यक्ष न सही, परोक्ष रूप से मस्तिष्कों के सम्मुख प्रेरक प्रशिक्षण एवं घटनात्मक विवरण प्रस्तुत किया जा सके तो भी पतन के प्रवाह को रोकने में बहुत सहायता मिल सकती है। स्वाध्याय इसी महती आवश्यकता को पूर्ण करता है। स्वाध्याय ज्ञानयोग का अविच्छिन्न अंग है।
‘सत्यं वद धर्मं चर’ के बाद शास्त्र का मानव प्राणी के लिए महत्वपूर्ण निर्देश ‘स्वाध्यायान्या प्रवक्तव्य’ ही है। स्वाध्याय में प्रमाद करने की कठोरता पूर्वक मनाही की गई है। भोजन, शयन, स्नान जैसे नित्य कर्मों में ही स्वाध्याय की भी गणना है। जिस प्रकार आहार की आवश्यकता है, उसी प्रकार मन शरीर के लिये स्वाध्याय चाहिए। इसके बिना क्षुधा की निवृत्ति नहीं हो सकती। जिस मनोभूमि को स्वाध्याय नहीं मिलता वह ऊसर, नीरस, दुर्बल और विवृत होती चली जाती है। बर्तनों को नित्य मांजना पड़ता है, दांत रोज साफ करने पड़ते हैं, स्नान नित्य किया जाता है, कमरे में झाड़ू रोज लगती है, इसी प्रकार मन पर वातावरण से निरन्तर पड़ने वाले बुरे प्रभाव का—मलीनता का—निराकरण करने के लिये नित्य ही स्वाध्याय की आवश्यकता पड़ती है। अन्यथा मनोभूमि मलीनता से इतनी आच्छादित हो जाती है कि उसमें सड़न और दुर्गन्ध के अतिरिक्त और कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता। ऐसा मन असुरता का ही निवास-स्थल हो सकता है।
पिछले दिनों कोई-कोई पौराणिक कथा ग्रन्थ थोड़ा-थोड़ा कर बांच लेना अथवा किसी प्राचीन धार्मिक पुस्तक के थोड़े-से पन्ने उलट लेना स्वाध्याय की लकीर पीटने के लिये काफी माना जाता रहा है। यह सर्वथा अपर्याप्त है। जीवन की—परिवार की—समाज की बाह्य तथा अन्तरंग समस्याओं पर जो साहित्य वर्तमान परिस्थितियों के सन्दर्भ का ध्यान रख कर व्यवहारिक एवं बुद्धि संगत हल उपस्थित कर सके वही स्वाध्याय का उपयुक्त माध्यम माना जा सकता है। उसी से किसी उपयुक्त मार्ग दर्शन की, समस्याओं के समाधान की—आशा की जा सकती है।
खेद की बात है कि इस प्रकार का स्वाध्यायोपयोगी साहित्य ढूंढ़े नहीं मिलता। बुकसेलरों और प्रकाशकों के गोदामों में केवल कूड़ा कचरा ही भरा दिखाई पड़ता है। और मानव जाति का—देश धर्म और समाज संस्कृति का दुर्भाग्य ही कहना चाहिये कि व्यक्ति तथा समाज का नवनिर्माण कर सकने की क्षमता सम्पन्न साहित्य का आज खटकने वाला अभाव दृष्टिगोचर होता है। इस अभाव की पूर्ति के लिये भी प्रयत्न आरम्भ हो गया है। ‘युग निर्माण योजना’ के अन्तर्गत ऐसा सर्व सुलभ साहित्य छोटे ट्रैक्टों के रूप में छापा जा रहा है जो जन मानस की विकृतियों का समाधान कर उसे आवश्यक प्रकाश एवं मार्ग दर्शन प्रस्तुत कर सके। जीवन के हर पहलू और समाज की हर समस्या पर इस प्रकाशन के अन्तर्गत एक क्रमबद्ध प्रेरणा प्रस्तुत की जा रही है। इस एक बड़े अभाव की पूर्ति एक सीमा तक इस माध्यम से पूरी हो सकेगी ऐसी आशा करना उचित ही माना जा सकता है।
ज्ञान-योग की साधना के लिए स्वाध्याय की अनिवार्य आवश्यकता को समझने के लिये आग्रह किया गया है। देवत्व के अभिवर्धन का—सूक्ष्म शरीर के परिष्करण का यह एक असाधारण उपाय है। हमें नित्य ही अनिवार्य रूप से सत्साहित्य का अध्ययन करना चाहिये। कुछ समय इसके लिए पूजा उपासना, आहार, स्नान आदि की तरह ही निर्धारित कर लेना चाहिये और कितने ही आवश्यक कार्यों की उपेक्षा कर इस आत्मिक आहार के लिये समय निकालना चाहिये। यह प्रेरक विचारधारा जिन अन्तःकरणों से निकलती है वह इतने समर्थ हैं कि पाठक में अपनी ज्योति एवं प्रेरणा उत्पन्न कर सकें। यों सद्गुणों का महत्व कई अन्य पुस्तकों एवं व्यक्तियों द्वारा समय-समय पर सुना समझा गया होगा पर यह साहित्य उन सबसे भिन्न—अपने ढंग का अनोखा है। वह पाठक के मस्तिष्क तक सीमित न हर कर अन्तःकरण के गहन स्तरों तक प्रवेश करने और वही हलचल उत्पन्न कर सकने की सामर्थ्य से उत्पन्न है। इसका नियमित अध्ययन किसी भी व्यक्ति को देवत्व के सत्य पर चलने की प्रबल प्रेरणा दिये बिना नहीं रह सकता। इसका वाचन निरर्थक नहीं जा सकता, इससे किसी भी व्यक्तित्व के उत्कर्ष में आशाजनक सहायता मिल सकती है।
हममें से प्रत्येक को ईश्वर की भावनात्मक उपासना करने के लिये स्वाध्याय को एक आवश्यक धर्म कर्तव्य बना लेना चाहिये। ईश्वर की प्राथमिक पूजा, मूर्ति चित्र आदि के ध्यान और अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, धूप आदि उपकरणों के साथ होती है। पर आगे चल कर माध्यमिक उपासना उच्च विचार धारा रूपी प्रतिमा को मन मन्दिर में स्थापित करके ही अग्रगामी बनाई जाती है। संयम, साहस, विवेक, सेवा, दया, करुणा, मैत्री, उदारता, सौजन्य, पवित्रता आदि सद्गुण विशुद्ध रूप से ईश्वर की भावनात्मक प्रतिमा ही हैं। स्वाध्याय सत्संग और चिंतन मनन द्वारा जितनी देर मन मन्दिर में इन सद्गुणों का प्रकाश बना रहे और उनमें अपनी श्रद्धा जमी रहे तो समझना चाहिये उतनी देर उच्च-स्तरीय ईश्वर पूजन होता रहा। प्रतिमायें ईश्वर की प्रतीक हैं पर उच्च भावनायें तो प्रभु की प्रतिनिधि ही मानी गई हैं। इसलिये स्वाध्याय हमारी उपासनात्मक आवश्यकता को पूर्ण करने का एक महत्वपूर्ण माध्यम भी है।
जो हमें आज की स्थिति के अनुरूप उच्च-स्तरीय मार्ग दर्शन एवं परामर्श दे सकें ऐसे मनीषी महापुरुषों का सत्संग सान्निध्य हर घड़ी—चाहे जहां उपलब्ध नहीं हो सकता। पर सद्ग्रंथों के माध्यम से हम जिस भी महापुरुष को—जिस भी समय जिस भी विषय पर परामर्श देने के लिये बुलाना चाहें वह बिना किसी कठिनाई के सामने उपस्थित होगा। इतना सरल और इतना महत्वपूर्ण आत्म-कल्याण का दूसरा कोई साधन नहीं हो सकता जितना कि स्वाध्याय। अस्तु हमें मानसिक परिष्कार के इस अमोघ माध्यम को अपने दैनिक जीवन में दृढ़ता, स्थिरता और श्रद्धापूर्वक स्थान देना चाहिये। स्वाध्याय में प्रमाद न करने की शास्त्राज्ञा को एक धर्मनिष्ठ व्यक्ति की तरह हमें निश्चित रूप से शिरोधार्य ही करना चाहिए।
जो शुभ है, श्रेयस्कर है, मंगलमय है, उसे स्वयं तो ग्रहण करना ही चाहिये, अपने परिवार को भी उसका पूरा-पूरा लाभ देना चाहिये। हमारी भौतिक उपलब्धियों का लाभ परिवार के लोगों को मिलता है, उन्हें इस भावनात्मक प्रकाश का लाभ उठाने के लिये भी अवसर देना चाहिये। घर में जितने भी शिक्षित व्यक्ति हैं उन सबको उसके स्तर का स्वाध्याय साधन उपलब्ध करना चाहिये और यदि उनमें अध्ययन की रुचि न हो तो प्रयत्न पूर्वक उसे जागृत करना चाहिये। इस रुचि का न होना मानव जीवन के विकास में एक भारी विघ्न है। इस गतिरोध को हटाने-मिटाने के लिये हर सम्भव प्रयत्न करना चाहिये और तभी चैन लेना चाहिये जब अपने प्रिय परिवार के हर शिक्षित सदस्य में स्वाध्याय की अभिरुचि उत्पन्न हो जाय और वह श्रेयस्कर साहित्य उपलब्ध करने के लिये—उसकी तलाश के लिये स्वयं उत्सुक रहने लगे। इस मानसिक स्थिति तक अपने परिवार के सदस्यों को पहुंचा देना हर विवेकवान गृहपति का एक परम पवित्र धर्म कर्तव्य है। घर में जो पढ़े न हों उन्हें जीवन साहित्य सुनने का शौक लगाया जाय। पढ़े सदस्य यह सेवा स्वीकार करें और बिना पढ़ों को नित्य प्रेरक विचार धारा का कुछ न कुछ लाभ एवं प्रकाश उपलब्ध कराया करें। जिन घरों में यह परम्परा चलने लगे, समझना चाहिये, देवत्व की दिशा में अग्रसर होने के लिये इस परिवार ने एक महत्वपूर्ण अवलम्बन ग्रहण कर लिया।
वातावरण का मनुष्य पर प्रभाव पड़ता है। आज के वातावरण में स्वार्थपरता, वासना, विलासिता, तृष्णा, उच्छृंखलता की मनोवृत्तियां बुरी तरह संव्याप्त है। इन्हीं से प्रेरित होकर लोगों की विचित्र गतिविधियां संचालित होती हैं। लोग बाहर से आदर्शवादिता की बातें करते हैं। पर उनके क्रियाकलाप में उपरोक्त तत्व ही घुले रहते हैं। बेईमानी और धूर्तता का सहारा लेकर सांसारिक वैभव उपार्जन करने वाले लोगों के उदाहरण चारों ओर भरे पड़े हैं। यह सारे का सारा वातावरण मौन रूप से मनुष्य को यही उपदेश करता है कि शीघ्र उन्नति करनी है—मौज-मजा के अधिक साधन उपलब्ध करने हों तो उचित अनुचित का अन्तर करने के झंझट में न पड़ कर जैसे बने वैसे अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहिए। आज के वातावरण की मौन रूप से यही शिक्षा है और यह शिक्षा हर दुर्बल मनः व्यक्ति को प्रभावित भी करती है। फलस्वरूप जनसाधारण की रुचि अकर्म कुकर्म करने की ओर बढ़ती चली जाती है। असुरता को दिन-दिन बढ़ते और देवत्व को दिन-दिन क्षीण होते हम भली प्रकार देख सकते हैं।
आम लोग इस पतन-प्रवाह में ही बहने लगते हैं। सामाजिक मूढ़ताएं, रूढ़ियां, अन्ध परम्परायें अधिकांश लोगों को अपने चंगुल में जकड़े रहती हैं। उनकी देखा-देखी दुर्बल मन व्यक्ति भी अनुकरण करते हैं। विवेक उनकी उपयोगिता पर सन्देह तो उत्पन्न करता है पर समर्थन न मिलने से चुप ही बैठना पड़ता है और जो ढर्रा चल रहा है उसी के साथ लुढ़कता पड़ता है। इस प्रकार अवांछनीय सामाजिक कुरीतियां, मूढ़ताएं और अन्ध परम्परायें घटने की बजाय बढ़ती ही रहती हैं। अनैतिकता का अभिवर्धन व्यक्तिगत चरित्र का पतन और सामाजिक मूढ़ताओं का विस्तार सामूहिक जीवन को जर्जर बनाते चले जा रहे हैं। पतन का पहिया तेजी से घूमता है और दुर्दशा में हम भयावह रूप से बढ़ते चले जा रहे हैं।
इस कुचक्र को कैसे रोका जाय? इस प्रश्न पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने से एक ही निष्कर्ष निकलता है कि सर्व साधारण के मस्तिष्क को पतन की ओर आकर्षित करने वाले प्रशिक्षण की तुलना में ठीक उतना ही प्रबल प्रतिरोधी वातावरण ऐसा तैयार किया जाय जो जन मानस की असुरता की विभीषिकाओं और देवत्व की शुभ सम्भावनाओं का प्रभाव उत्पन्न कर सके। अच्छा तो यह था कि जिस प्रकार दुष्टता अपनाकर सफलता उपलब्ध करने वालों के अगणित उदाहरण सामने उपस्थित है वैसे ही सज्जनता का अवलम्बन लेकर प्रगति के उच्च शिखर पर पहुंचने वालों के उदाहरण देखने को मिलते और उनका प्रभाव ग्रहण कर अनेकों को उस सन्मार्ग का अनुकरण करने की प्रेरणा मिलती। पर यदि वैसी व्यवस्था तत्काल नहीं हो सकती तो दूसरा उपाय यह है कि जन साधारण के मस्तिष्क को प्रभावित कर सकने योग्य उत्कृष्ट समर्थ विचार इतनी अधिक मात्रा में उपलब्ध हों कि सामयिक कुशिक्षा और दूषित प्रभाव का निराकरण किया जा सके।
यह कार्य स्वाध्याय की व्यापक सर्वांगपूर्ण व्यवस्था करके सम्पन्न किया जा सकता है। वर्तमान का काम इतिहास से चलाया जा सकता है और कुशिक्षा देने वाले वर्तमान व्यक्तियों के मुकाबले दूरस्थ अथवा दिवंगत महापुरुषों की विचार पद्धति सामने खड़ी की जा सकती है। स्वाध्याय इसी प्रक्रिया का नाम है। संसार में ऐसे उत्कृष्ट व्यक्तित्व हैं अथवा हो चुके हैं जिनकी ओजस्वी विचारधारा बड़ी समर्थ और सारगर्भित है, उसे सुनने का अवसर मिलता रहे तो वर्तमान दुर्बुद्धिपूर्ण शिक्षा की काट हो सकती है। इसी प्रकार दूरस्थ अथवा दिवंगत सन्मार्गगामी सज्जनों के महान् चरित्र आंखों के सामने प्रस्तुत होते रहें तो भी वर्तमान दुरात्माओं के भ्रष्ट अनुकरण से बचने की हिम्मत जाग सकती है। प्रत्यक्ष न सही, परोक्ष रूप से मस्तिष्कों के सम्मुख प्रेरक प्रशिक्षण एवं घटनात्मक विवरण प्रस्तुत किया जा सके तो भी पतन के प्रवाह को रोकने में बहुत सहायता मिल सकती है। स्वाध्याय इसी महती आवश्यकता को पूर्ण करता है। स्वाध्याय ज्ञानयोग का अविच्छिन्न अंग है।
‘सत्यं वद धर्मं चर’ के बाद शास्त्र का मानव प्राणी के लिए महत्वपूर्ण निर्देश ‘स्वाध्यायान्या प्रवक्तव्य’ ही है। स्वाध्याय में प्रमाद करने की कठोरता पूर्वक मनाही की गई है। भोजन, शयन, स्नान जैसे नित्य कर्मों में ही स्वाध्याय की भी गणना है। जिस प्रकार आहार की आवश्यकता है, उसी प्रकार मन शरीर के लिये स्वाध्याय चाहिए। इसके बिना क्षुधा की निवृत्ति नहीं हो सकती। जिस मनोभूमि को स्वाध्याय नहीं मिलता वह ऊसर, नीरस, दुर्बल और विवृत होती चली जाती है। बर्तनों को नित्य मांजना पड़ता है, दांत रोज साफ करने पड़ते हैं, स्नान नित्य किया जाता है, कमरे में झाड़ू रोज लगती है, इसी प्रकार मन पर वातावरण से निरन्तर पड़ने वाले बुरे प्रभाव का—मलीनता का—निराकरण करने के लिये नित्य ही स्वाध्याय की आवश्यकता पड़ती है। अन्यथा मनोभूमि मलीनता से इतनी आच्छादित हो जाती है कि उसमें सड़न और दुर्गन्ध के अतिरिक्त और कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता। ऐसा मन असुरता का ही निवास-स्थल हो सकता है।
पिछले दिनों कोई-कोई पौराणिक कथा ग्रन्थ थोड़ा-थोड़ा कर बांच लेना अथवा किसी प्राचीन धार्मिक पुस्तक के थोड़े-से पन्ने उलट लेना स्वाध्याय की लकीर पीटने के लिये काफी माना जाता रहा है। यह सर्वथा अपर्याप्त है। जीवन की—परिवार की—समाज की बाह्य तथा अन्तरंग समस्याओं पर जो साहित्य वर्तमान परिस्थितियों के सन्दर्भ का ध्यान रख कर व्यवहारिक एवं बुद्धि संगत हल उपस्थित कर सके वही स्वाध्याय का उपयुक्त माध्यम माना जा सकता है। उसी से किसी उपयुक्त मार्ग दर्शन की, समस्याओं के समाधान की—आशा की जा सकती है।
खेद की बात है कि इस प्रकार का स्वाध्यायोपयोगी साहित्य ढूंढ़े नहीं मिलता। बुकसेलरों और प्रकाशकों के गोदामों में केवल कूड़ा कचरा ही भरा दिखाई पड़ता है। और मानव जाति का—देश धर्म और समाज संस्कृति का दुर्भाग्य ही कहना चाहिये कि व्यक्ति तथा समाज का नवनिर्माण कर सकने की क्षमता सम्पन्न साहित्य का आज खटकने वाला अभाव दृष्टिगोचर होता है। इस अभाव की पूर्ति के लिये भी प्रयत्न आरम्भ हो गया है। ‘युग निर्माण योजना’ के अन्तर्गत ऐसा सर्व सुलभ साहित्य छोटे ट्रैक्टों के रूप में छापा जा रहा है जो जन मानस की विकृतियों का समाधान कर उसे आवश्यक प्रकाश एवं मार्ग दर्शन प्रस्तुत कर सके। जीवन के हर पहलू और समाज की हर समस्या पर इस प्रकाशन के अन्तर्गत एक क्रमबद्ध प्रेरणा प्रस्तुत की जा रही है। इस एक बड़े अभाव की पूर्ति एक सीमा तक इस माध्यम से पूरी हो सकेगी ऐसी आशा करना उचित ही माना जा सकता है।
ज्ञान-योग की साधना के लिए स्वाध्याय की अनिवार्य आवश्यकता को समझने के लिये आग्रह किया गया है। देवत्व के अभिवर्धन का—सूक्ष्म शरीर के परिष्करण का यह एक असाधारण उपाय है। हमें नित्य ही अनिवार्य रूप से सत्साहित्य का अध्ययन करना चाहिये। कुछ समय इसके लिए पूजा उपासना, आहार, स्नान आदि की तरह ही निर्धारित कर लेना चाहिये और कितने ही आवश्यक कार्यों की उपेक्षा कर इस आत्मिक आहार के लिये समय निकालना चाहिये। यह प्रेरक विचारधारा जिन अन्तःकरणों से निकलती है वह इतने समर्थ हैं कि पाठक में अपनी ज्योति एवं प्रेरणा उत्पन्न कर सकें। यों सद्गुणों का महत्व कई अन्य पुस्तकों एवं व्यक्तियों द्वारा समय-समय पर सुना समझा गया होगा पर यह साहित्य उन सबसे भिन्न—अपने ढंग का अनोखा है। वह पाठक के मस्तिष्क तक सीमित न हर कर अन्तःकरण के गहन स्तरों तक प्रवेश करने और वही हलचल उत्पन्न कर सकने की सामर्थ्य से उत्पन्न है। इसका नियमित अध्ययन किसी भी व्यक्ति को देवत्व के सत्य पर चलने की प्रबल प्रेरणा दिये बिना नहीं रह सकता। इसका वाचन निरर्थक नहीं जा सकता, इससे किसी भी व्यक्तित्व के उत्कर्ष में आशाजनक सहायता मिल सकती है।
हममें से प्रत्येक को ईश्वर की भावनात्मक उपासना करने के लिये स्वाध्याय को एक आवश्यक धर्म कर्तव्य बना लेना चाहिये। ईश्वर की प्राथमिक पूजा, मूर्ति चित्र आदि के ध्यान और अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, धूप आदि उपकरणों के साथ होती है। पर आगे चल कर माध्यमिक उपासना उच्च विचार धारा रूपी प्रतिमा को मन मन्दिर में स्थापित करके ही अग्रगामी बनाई जाती है। संयम, साहस, विवेक, सेवा, दया, करुणा, मैत्री, उदारता, सौजन्य, पवित्रता आदि सद्गुण विशुद्ध रूप से ईश्वर की भावनात्मक प्रतिमा ही हैं। स्वाध्याय सत्संग और चिंतन मनन द्वारा जितनी देर मन मन्दिर में इन सद्गुणों का प्रकाश बना रहे और उनमें अपनी श्रद्धा जमी रहे तो समझना चाहिये उतनी देर उच्च-स्तरीय ईश्वर पूजन होता रहा। प्रतिमायें ईश्वर की प्रतीक हैं पर उच्च भावनायें तो प्रभु की प्रतिनिधि ही मानी गई हैं। इसलिये स्वाध्याय हमारी उपासनात्मक आवश्यकता को पूर्ण करने का एक महत्वपूर्ण माध्यम भी है।
जो हमें आज की स्थिति के अनुरूप उच्च-स्तरीय मार्ग दर्शन एवं परामर्श दे सकें ऐसे मनीषी महापुरुषों का सत्संग सान्निध्य हर घड़ी—चाहे जहां उपलब्ध नहीं हो सकता। पर सद्ग्रंथों के माध्यम से हम जिस भी महापुरुष को—जिस भी समय जिस भी विषय पर परामर्श देने के लिये बुलाना चाहें वह बिना किसी कठिनाई के सामने उपस्थित होगा। इतना सरल और इतना महत्वपूर्ण आत्म-कल्याण का दूसरा कोई साधन नहीं हो सकता जितना कि स्वाध्याय। अस्तु हमें मानसिक परिष्कार के इस अमोघ माध्यम को अपने दैनिक जीवन में दृढ़ता, स्थिरता और श्रद्धापूर्वक स्थान देना चाहिये। स्वाध्याय में प्रमाद न करने की शास्त्राज्ञा को एक धर्मनिष्ठ व्यक्ति की तरह हमें निश्चित रूप से शिरोधार्य ही करना चाहिए।
जो शुभ है, श्रेयस्कर है, मंगलमय है, उसे स्वयं तो ग्रहण करना ही चाहिये, अपने परिवार को भी उसका पूरा-पूरा लाभ देना चाहिये। हमारी भौतिक उपलब्धियों का लाभ परिवार के लोगों को मिलता है, उन्हें इस भावनात्मक प्रकाश का लाभ उठाने के लिये भी अवसर देना चाहिये। घर में जितने भी शिक्षित व्यक्ति हैं उन सबको उसके स्तर का स्वाध्याय साधन उपलब्ध करना चाहिये और यदि उनमें अध्ययन की रुचि न हो तो प्रयत्न पूर्वक उसे जागृत करना चाहिये। इस रुचि का न होना मानव जीवन के विकास में एक भारी विघ्न है। इस गतिरोध को हटाने-मिटाने के लिये हर सम्भव प्रयत्न करना चाहिये और तभी चैन लेना चाहिये जब अपने प्रिय परिवार के हर शिक्षित सदस्य में स्वाध्याय की अभिरुचि उत्पन्न हो जाय और वह श्रेयस्कर साहित्य उपलब्ध करने के लिये—उसकी तलाश के लिये स्वयं उत्सुक रहने लगे। इस मानसिक स्थिति तक अपने परिवार के सदस्यों को पहुंचा देना हर विवेकवान गृहपति का एक परम पवित्र धर्म कर्तव्य है। घर में जो पढ़े न हों उन्हें जीवन साहित्य सुनने का शौक लगाया जाय। पढ़े सदस्य यह सेवा स्वीकार करें और बिना पढ़ों को नित्य प्रेरक विचार धारा का कुछ न कुछ लाभ एवं प्रकाश उपलब्ध कराया करें। जिन घरों में यह परम्परा चलने लगे, समझना चाहिये, देवत्व की दिशा में अग्रसर होने के लिये इस परिवार ने एक महत्वपूर्ण अवलम्बन ग्रहण कर लिया।