Books - सर्वोपयोगी सुलभ साधनाएं
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Language: HINDI
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कुछ प्रेरक प्रार्थनायें
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प्रभु जीवन ज्योति जगा दें !
घट-घट वासी ! सभी घटों में, निर्मल गंगाजल हो ।
हे बलशाली ! तन तन में, प्रतिभाषित तेरा वल हो ।
अहे सच्चिदानंद ! बहे आनन्दमयी निर्झरिणी—
नन्दनवन सा शीतल इस जलती जगती का तल हो ।।
सत् की सुगन्ध फैला दें ।
प्रभु जीवन ज्योति जगा दें ।।
विश्वे देवा ! अखिल विश्व यह देवों का ही घर हो ।
पूषन् ! इस पृथ्वी के ऊपर असुर न कोई नर हो ।।
इन्द्र ! इन्द्रियों की गुलाम यह आत्मा नहीं कहावे—
प्रभुका प्यारा मानव, निर्मल, शुद्ध स्वतन्त्र अमर हो ।।
मन का तम तोम भगा दें ।
प्रभु जीवन ज्योति जगा दें ।।
इस जग में सुख शान्ति विराजे, कल्मष कलह नसावें ।
दूषित दूषण भस्मसात हों, पाप ताप मिट जावें ।।
सत्य, अहिंसा, प्रेम पुण्य, जन-जन के मन मन में हो ।
विमल ‘‘अखण्ड-ज्योति’’ के नीचे सब सच्चा पथ पावें ।।
भूतल पर स्वर्ग बसादे ।
प्रभु जीवन ज्योति जगादे ।।
ईश्वर की खोज !
मैं ढूंढ़ता तुझे था जब कुंज और वन में ।
तू खोजता मुझे था तब दीन के वतन में ।।
तू आह वन किसी को मुझको पुकारता था—
मैं था तुझे बुलाता संगीत में भेजन में ।।1।।
मेरे लिये खड़ा था दुखियों के द्वार पर तू
मैं बाट जोहता था तेरी किसी चमन में ।
बन कर किसी के आंसू मेरे लिए बहा तू—
आंखें लगी थीं मेरी तब याद के बदन में ।।2।।
बाजे बजा बजा के मैं था तुझे रिझाता—
तब तू लगा हुआ था पतितों के संगठन में ।
मैं था विरक्त तुझसे जग की अनित्यता पर-
उत्थान भर रहा था तब तू किसी पतन में ।।3।।
बेबस गिरे हुओं के तू बीच में खड़ा था—
मैं स्वर्ग देखता था झुकता कहां चरन में ।
तूने दिये अनेकों अवसर न मिल सका मैं—
तू कर्म में मगन था मैं व्यस्त था कथन में ।।4।।
हरिचन्द और ध्रुव ने कुछ और ही बताया—
मैं तो समझ रहा था तेरा प्रताप धन में ।
मैं सोचता तुझे था रावण की लालसा में—
पर था दधीचि के तू परमार्थ-रूप तन में ।।5।।
जगदीश ज्ञानदाता
जगदीश ज्ञान दाता सुख मूल शोकहारी ।
भगवन् ! तुम्हीं सदा हो निष्पक्ष न्यायकारी ।
सब काल सर्व ज्ञाता सविता पिता विधाता ।
सब में रहमे हुए हो विश्व के बिहारी ।।
कर दो बलिष्ठ आत्मा, घबरायें न दुःखों से ।
कठिनाइयों का जिससे तर जायें सिन्धु भारी ।।
निश्चय दया करोगे, हम मांगते यही हैं।
हमको मिले स्वयम् ही, उठने की शक्ति सारी ।।
विधाता तू हमारा है
विधाता तू हमारा है, तू ही विज्ञान दाता है ।
बिना तेरी दया कोई, नहीं आनन्द पाता है ।।
तितिक्षा को कसौटी से, जिसे तू जांच लेता है ।
उसी विद्याधिकारी को, अविद्या से छुड़ाता है ।।
सताता जो न औरों को, न धोखा आप खाता है ।
वही सद्भक्त है तेरा, सदाचारी कहाता है ।।
सदा जो न्याय का प्यारा, प्रजा को दान देता है ।
महाराजा ! उसी को तू बड़ा राजा बनाता है ।।
तजे जो धर्म को, धारा कुकर्मों को बहाता है ।
न ऐसे नीच पापी को कभी ऊंचा चढ़ाता है ।।
स्वयंभू शंकरानन्दी तुझे जो जान लेता है ।
वही कैवल्य सत्ता की महत्ता में समाता है ।।
भक्ति की झंकार
भक्ति की झंकार उर के तारों में कर्त्तार भर दो ।।
लौट जाए स्वार्थ, कटुता, द्वेष, दम्भ निराश होकर ।
शून्य मेरे मन भवन में देव ! इतना प्यार भर दो ।।
बात जो कह दूं, हृदय में वो उतर जाये सभी के ।
इस निरस मेरी गिरा में वह प्रभाव अपार भर दो ।।
कृष्ण के सदृश सुदामा प्रेमियों के पांव धोने ।
नयन में मेरे तरंगित अश्रु पारावार भर दो ।।
पीड़ितों को दूं सहारा और गिरतों को उठा लूं ।
बाहुओं में शक्ति ऐसी ईश सर्वाधार भर दो ।।
रंग झूठे सब जगत के ये ‘‘प्रकाश’’ विचार देखा ।
क्षुद्र जीवन में सुघड़ निज रंग परमोदार भर दो ।।
कामना
न मैं धान धरती न धन चाहता हूं ।
कृपा का तेरी एक कण चाहता हूं ।।
रहे नाम तेरा वो चाहूं मैं रसना ।
सुने यश तेरा वह श्रवण चाहता हूं ।।1
विमल ज्ञान धारा से मस्तिष्क उर्बर ।
व श्रद्धा से भरपूर मन चाहता हूं ।।2
करे दिव्य दर्शन तेरा जो निरन्तर ।
वही भाग्यशाली नयन चाहता हूं ।।3
नहीं चाहता है मुझे स्वर्ग छवि की ।
मैं केवल तुम्हें प्राण धन ! चाहता हूं ।।4
प्रकाश आत्मा में अलौकिक तेरा है ।
परम ज्योति प्रत्येक क्षण चाहता हूं ।।5
दे विभो ! वरदान ऐसा
दे प्रभो वरदान ऐसा दे विभो वरदान ऐसा ।
भूल जाऊं भेद सब, अपना पराया मान तैसा ।।
मुक्त होऊं बन्धनों से मोह माया पाश टूटे ।
स्वार्थ, ईर्षा, द्वेष, आदिक दुर्गुणों का संग छूटे ।।
प्रेम मानस में भरा हो, हो हृदय में शान्ति छायी ।
देखता होऊं जिधर मैं, दे उधर तू ही दिखायी ।।
नष्ट हो सब भिन्नता, फिर बैर और विरोध कैसा ।
दे प्रभो वरदान ऐसा, दे विभो ! वरदान ऐसा ।।
ज्ञान के आलोक से उज्ज्वल बने यह चित्त मेरा ।
लुप्त हो अज्ञान का, अविचार का छाया अंधेरा ।।
हे प्रभो परमार्थ के शुभ कार्य में रुचि नित्य मेरी ।
दीन दुखियों की कुटी में ही मिले अनुभूति तेरी ।।
दूसरों के दुःख को समझूं सदा मैं आप जैसा ।
दे प्रभो ! वरदान ऐसा दे विभो वरदान ऐसा ।।
हे अभय अविवेक तज शुचि सत्य पथ गामी बनूं मैं ।
आपदाओं से भला क्या, काल से भी न डरूं मैं ।।
सत्य को ही धर्म मानूं, सत्य को ही साधना मैं ।
सत्य के ही रूप में तेरी करूं आराधना मैं ।।
भूल जाऊं भेद सब अपना पराया मान तैसा ।
दे प्रभो ! वरदान ऐसा दे विभो ! वरदान ऐसा ।।
वह शक्ति हमें दो दयानिधे !
वह शक्ति हमें दो दयानिधे, कर्तव्य मार्ग, पर डट जावें ।
पर सेवा पर उपकार में हम, निज जीवन सफल बना जावें ।।
हम दीन दुःखी निबलों विकलों, के सेवक बन सन्ताप हरें ।
जो हों भूले भटके बिछुड़े, उनको तारें खुद तर जावें ।।
छल, छिद, द्वेष, पाखण्ड झूंठ, अन्याय से निशदिन दूर रहें ।
जीवन हो शुद्ध सरल अपना शुचि प्रेम सुधा रस बरसावें ।
निज आन कान मर्यादा का, प्रभु ध्यान रहे अभिमान रहे ।।
जिस देश जाति में जन्म लिया, बलिदान उसी पर हो जावें ।
प्रातःकाल की प्रार्थना
कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूं अब तेरे काज ।
पालन करने को आज्ञा तब मैं नियुक्त होता हूं आज ।।
अन्तर में स्थित रह मेरी बागडोर पकड़े रहना ।
निपट निरंकुश चंचल मन को सावधान करते रहना ।।
अन्तर्यामी को अन्तः स्थित देख सशंकित होवे मन ।
पाप वासना उठते ही हो, नाश लाज से वह जल भुन ।।
जीवों का कलरव जो दिन भर सुनने में मेरे आवे ।
तेरा ही गुनमान जान मन प्रमुदित हो अति सुख पावे ।।
तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि ! तुझमें यह सारा संसार ।
इसी भावना से अन्तर भर मिलूं सभी से तुझे निहार ।।
प्रतिपल निज इन्द्रिय समूह से जो कुछ भी आचार करूं ।
केवल तुझे रिझाने, को बस तेरा ही व्यवहार करूं ।।
गायत्री वन्दना
मातु मेरी यह प्रार्थना है भूलूं ।
न मैं नाम कभी तुम्हारा ।।
निष्काम हो के दिन रात गाऊं ।
नमो वेद माता नमो विश्वमाता ।।
नमो हंस आरूढ़िनी बुद्धिदाता ।
नमोः नमोः नमो वेदमाता ।।
देहान्तकाले तुम्हारी छवी हो ।
पुस्तक कमण्डल लिए हाथ में हो ।।
गाता यही मैं तनु मातु त्यागूं ।
नमो वेदमाता नमो विश्वमाता ।।
यह यज्ञ हमारा हो पुण्य देकर ।
चलूं तो हृदय में अलख शांति लेकर ।।
नहीं द्रोह ही हो नहीं मोह ही हो।
नमो वेदमाता नमो विश्वमाता ।।
प्यारे जरा तो मन में विचारो ।
क्या साथ लाये और क्या ले चलोगे ।।
सेवा न की तो यह जिन्दगी धिक ।
नमोः वेदमाता नमोः विश्वामाता ।।
सविता तुम्हारी महाभर्ग शक्ति ।
वरेण्यं सदा ध्यान में हो हमारे ।।
करो प्रेरणा ले चलो सत्यपथ से ।
नमोः वेदमाता नमोः विश्वमाता ।।
ऐसा जगादो फिर सो न जाऊं ।
ज्योति तुम्हारी उर में जगाऊं ।।
श्रद्धा विनत हो दिन रात गाऊं ।
मनोः वेदमाता नमो विश्वमाता ।।
वह योग्यता दो सत्कर्म कर लूं ।
अपने हृदय में सद्भाव भर लूं ।।
नर तन है साधन महामन्त्र जप लूं ।
नमो वेदमाता नमो विश्वमाता ।।
हे मातु अब तो ऐसी दया हो ।
जीवन निरर्थक जाने न पावे ।।
यह मन तुम्हारा ही गीत गावे ।
नमो वेदमाता नमो विश्वमाता ।।
गुरु-वन्दना
एक तुम्हीं आधार सदगुरु ।
जब तक तुम न मिलो जीवन में ।।
शांति कहां मिल सकती मन में ।
खोज फिर संसार सद्गुरु । एक तुम्हीं0
कैसा भी हो तैरन हारा ।
मिले न जब तक शरण सहारा ।।
हो न सका उस पार सद्गुरु ।। एक तुम्हीं0
हे प्रभु तुम्हीं विविध रूपों से,
हमें बचाते भव कूपों से ।।
ऐसे परम उदार सद्गुरु । एक तुम्हीं0
हम आये हैं द्वार तुम्हारे ।
अब उद्धार करो दुःखहारे ।।
सुन लो दास पुकार सद्गुरु ।
एक तुम्हीं आधार सद्गुरु ।।
ईश प्रार्थना
हे नाथ अब तो ऐसी दया हो, जीवन निरर्थक जाने न पाये ।
यह मन न जाने क्या-क्या कराये, कुछ बन न पाया अपने बनाये ।।
संसार में ही आसक्त रहकर, दिन रात अपने मतलब की कहकर ।
सुख के लिए लाखों दुःख सहकर, ये दिन अभी तक योंही बताये ।।
ऐसा जगा दो फिर सो न जाऊं, अपने को निष्काम प्रेमी बनाऊं।
मैं आपको चाहूं और पाऊं, संसार का कुछ भय रह न जाये ।।
वह योग्यता दो सत्कर्म कर लूं, अपने हृदय में सदभाव भर लूं ।
नर तन है साधन भवसिन्धु तर लूं, ऐसा समय फिर आये न आये ।।
हे प्रभु हमें निरभिमानी बना दो, दारिद्र्य हर लो दानी बना दो ।
आनन्दमय विज्ञानी बना दो, मैं हूं तुम्हारी आशा लगाये ।
कर्मवीर बनना खिला दो
जाति को जीवन दो भगवान ।
आशा का अंकुर उपजादो, परहित का पीयूष पिला दो ।
सेवा का सन्मार्ग सुझादो, साहस का सोपान ।।
प्रेम एकता का वर वरदो, ज्ञान उजाला घर-घर करदो ।
कूट-कूट हृदयों में भर दो, स्वाभिमान सम्मान ।।
दलितों के अधिकार दिलादो, बिछुड़ों को फिर गले मिलादो ।
भेद भाव का भूत भगादो, हों सब लोग समान ।।
विधवा दल के संकट टारो गोकुल के कुल क्लेश निवारो ।
बलहीनों में बल संचारों, निर्भय करो निदान ।।
देश भक्ति की ज्योति जगादो, धर्म धाम का द्वार दिखादो ।
कर्मवीर बनना सिखलादो, कर दयालुता दान ।।
जाति को जीवन दो भगवान ।
अभी का कर्त्तव्य
सज्जनो, परमेश्वर का सुमिरन बारम्बार कर लो ।
कभी कुछ बिगड़ा है तो अभी सुधार करलो ।
जिसे तुम अपना कहते हो, उसके साथ सदा न रहोगे ।
जहां सुख मान रहे हो, वहीं अन्त में दुःख सहोगे ।।
मुक्ति मिल जायगी, जब तुम इस जन में कुछ न चाहोगे।
मृत्यु आने के पहले, जीवन का उद्धार करलो ।।
बचाओगे जो कुछ तुम वह, तुमसे छिन जायेगा ही ।
जिसने जो कुछ दे रक्खा है, वह जीवन में पायेगा ही ।।
अरे चिन्ता छोड़ो, जो भाग्य लिखा वह आयेगा ही ।
कहीं सुख के पीछे, यदि होगा पाप रुलायेगा ही ।।
सदा कुछ भी न रहेगा, कितना ही विस्तार कर लो ।
अनेकों पछताते हैं, जीवन के अच्छे दिन खोकर ।।
अनेक भोग रहे हैं, दुष्कर्मों का फल रो रोकर ।
अनेकों पशुवत जीते हैं, औरों का बोझा ढोकर ।।
कहीं विरले ही मानव जो रहते स्वाधीन होकर ।
तुम्हें जो कुछ भी करना है, वह अभी विचार करलो ।।
भक्त होना है तो प्रभु को ही, अपना मान लेना ।
मोह ममता तजकर, बस सेवा का व्रत ठान लेना ।।
त्याग करना है, सारे दोषों को पहिचान लेना ।
असत् से असंग होकर, सत्स्वरूप को जान लेना ।
पथिक अपने में ही निज प्रियतम को स्वीकार करलो ।।
गायत्री तत्व चिंतन
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं ।
भर्गो देवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात् ।।
ॐ ही रक्षक हमारे, सब गुणों की खान हो ।
भूः सदा सब प्राणिओं के, प्राण के भी प्राण हो ।।
भुवः सब दुखों को हरते और कृपा निधान हो ।
स्वः सदा सुख रूप सुखमय, सुखद सुखधि महान् हो ।।
तत् वही सुप्रसिद्ध ब्रह्म देव वर्णित सार हो ।
देव सवितुः सर्व उत्पादक हो पालन हार हो ।।
शुभ वरेण्यं वरन् करने, योग्य भगवन् आप हो ।
शुद्ध भर्गः मल रहिम, निर्लेप हो निष्पाप हो ।।
दिव्य गुण देवस्य स्वरूप देव अनूप के ।
धीमहिः धारे हृदय में दिव्य गुण सब आपके ।।
धियो योनः वह हमारी, बुद्धियों का हित करो ।
‘अमर’ प्रचोदयात् नित सन्मार्ग में प्रेरित करो ।।
जीवन-ज्योति
भगवन जीवन ज्योति जगादो ।
नव युवकों में नित्य स्फूर्ति की धारा निमल बहा दो ।
भव्य भाव भर कर्म वीरता का प्रिय पाठ पढ़ादो ।।
करदें दूर देश की निद्रा ऐसा मन्त्र बतादो ।
फोड़ फूट का कर्म प्रेम का, शुभ सन्देश सुनादो ।।
करके नष्ट कुरीति सुरीतों का सौरभ सरसादो ।
तन मन धन से प्रभो ! देश सेवा में हमें लगादो ।
दुखद दीनता दुरा देश में सुख का साज सजादो ।।
भगवन ! जीवन-ज्योति जगादो ।
माटी में मिल
क्या तन मांजता रे, एक दिन माटी में मिल जाना ।
माटी ओढ़ना, माटी बिछोना, माटी का सिरहाना ।
माटी का कल वूत बनाया, जामें भंवर समाना ।।
माटी कहे कुम्हार से तू क्या रूंधे मोय ।
एक दिन ऐसा आयेगा, मैं रूंधूंगी तोय ।।
चुन-चुन लकड़ी महल बनावें, वन्दा कहे घर मेरा ।
ना घर तेरा ना घर मेरा, चिड़िया रैन बसेरा ।।
फाटा चोला भया पुराना, कब लग सीवे दरजी ।
दिलका मरहम कोई न मिलिया, जो मिला वह गर्जी ।
दिन के मरहम सतगुरु मिल गये, उपकारन के गर्जी ।।
नानक चोला अमर भयो, जो सन्त मिल गये दर्जी ।।
नर से नारायण
उद्धार-पतन दोनों ही हैं, रे मानव! तेरे हाथों में ।
हंस हंस कर जी या रो-रोकर, है केवल तेरे हाथों में ।।
सोने वाला खो देता है, जगने वाला पा लेता है।
सोना जगना दोनों ही हैं, रे मानव तेरे हाथों में ।।
है मिला तुझे सुरदुर्लभ तन, पाकर मत खो अनमोल रतन ।
वश में करना यह चंचल मन, रे मानव तेरे हाथों में ।।
तू ही है अपना मित्र स्वयं, तू ही है अपना शत्रु स्वयं ।
बन मित्र या कि तू शत्रु स्वयं, रे मानव ! तेरे हाथों में ।।
तू खुद ही भाग्य विधाता है, उद्योगी सब पा जाता है ।
नर से नारायण बन जाना, है केवल तेरे हाथों में ।।
यज्ञ श्रेष्ठ कर्म है
यज्ञ जीवन का श्रेष्ठ सुन्दर कर्म है ।
यज्ञ का करना कराना ही हमारा धर्म है ।।
यज्ञ से दिशि हो सुगन्धित शान्त हो वातावरण ।
यज्ञ से सदज्ञान हो, हो यज्ञ से शुद्धाचरण ।।
यज्ञ से हो स्वस्थ काया, व्याधियां सब नष्ट हो ।
यज्ञ से सुख सम्पदा हो, दूर सारे कष्ट हों ।।
यज्ञ से धन धान्य हो, बहु भांति सुखमय सृष्टि हो ।
यज्ञ है प्रिय मोक्ष दाता यज्ञ शक्ति अनूप है ।
यज्ञ मय यह विश्व है विश्वेश यज्ञ स्वरूप है ।।
यज्ञ मय अखिलेश ! ऐसी आप अनुकम्पा करें ।
यज्ञ के प्रति धर्म पुरुषों में अमित श्रद्धा भरें ।।
यज्ञ पुण्य प्रताप से सब पाप ताप तिमिर हरें ।
यज्ञ नौका से अगम संसार सागर को तरें ।।
जाग मुसाफिर
उठ जाग मुसाफिर भेर भई, अब रैन कहां जो सोवत है ।
जो सोवत है सो खोवत है, जो जागत है सो पावत है ।।
टुक नींद से अंखियां खोल जरा, ओ गाफिल रब से ध्यान लगा । यह प्रीति करन की रीत नहीं रब जागत है तू सोवत है ।।
अनजान भुगत करनी अपनी, ओ पापी पाप में चैन कहां ।
जब पाप की गठरी सीस धरी, फिर सीस पकड़ क्यों रोवत है ।।
जो काल करे सो आज करले, जो आज करे सो अब करले ।
जब चिड़ियन खेती चुगि डारी, फिर पछताये क्या होवत है ।।
सुसंगति महिमा
सदा जो सुसंगति में आते रहेंगे, विवेकी स्वयं को बनाते रहेंगे ।
मिलेगी नहीं शांति उनको कहीं भी, जो परमात्मा को भुलाते रहेंगे ।।
बनेंगे कभी मुक्त जीवन में वे ही, जो चाहों को अपनी उठाते रहेंगे ।
सुखी होंगे जो किसी को दुःख देकर, वही अन्त में दुःख उठाते रहेंगे ।।
उन्हें ही वह सुख सिंधु स्वामी मिलेंगे, जो दुःखियों को सुख देते रहेंगे ।
उन्हीं की बनी और बनती रहेगी, जो बिगड़ी किसी की बनाते रहेंगे ।।
जो जितना अधिक दान कर लेंगे जग में,
वह पुण्यों की पूंजी बढ़ाते रहेंगे ।
न देंगे किसी को जो शुभ और सुन्दर, कभी बैठे माखी उड़ाते रहेंगे ।।
जो कुछ दीखता है रहेगा न सब दिन कहां तक यहां मन फंसाते रहेंगे ।
जो कुछ दीखता है रहेगा न सब दिन कहां तक यहां मन फंसाते रहेंगे ।
पथिक अपने में अपने प्रियतम को पाकर,
महोत्सव निरन्तर मनाते रहेंगे ।।
भजन कर ईश्वर का
सताते जो गरीबों को उन्हें ईश्वर सतावेगा ।
रुलाते जो अनाथों को उन्हें ईश्वर रुलावेगा ।।
भलाई का भला फल है, बुराई का बुरा फल है ।
दया दीनों पै करलीजे किसी को दुःख नहीं दीजे ।।
तुम्हारी नाव को मालिक किनारे से लगावेगा ।
करो रक्षा अनाथों की दो जो कुछ बम सके भाई ।।
न दौलत में से पैसा भी, तुम्हारे साथ जावेगा ।
फिरे किस ऐंठ में भूला, भजनकर रूप ईश्वर का ।।
अरे नादान फिर यह दम नर-तन में न आवेगा ।
सबसे करना प्रेम जगत में
सबसे करना प्रेम जगत में यही धर्म सच्चा है ।
जो है जग में हीन पतित अति, उसको गले लगाओ ।
जो हैं दीन दुःखी या पीड़ित, उनको धीर बंधाओ ।।
जिन्हें न कोई त्राता जग में उनको जा अपनाओ ।
जो रोते हैं उन्हें हंसाओ, सबसे प्रेम जताओ ।।
सबमें प्रभु का रूप निहारो, यही भाव अच्छा है ।।
सबसे हिलमिल रहना सीखो, करो न द्वेष किसी से ।
सबसे मीठी बोली बोलो, होगा भला इसीसे ।।
जो अनाथ हैं उन्हें सहारा देना बड़ी खुशी से ।
तुच्छ न समझो कभी किसी को, रखना नेह सभी से ।।
गिरे हुए हैं उन्हें उठाओ यही मार्ग अच्छा है ।।
एक प्रभु के सब बालक हैं सब हैं उसके प्यारे ।
अहंकार से बने हुए हैं हम सब न्यारे न्यारे ।।
हिन्दू, मुस्लिम, जैन, पारसी, बौद्ध, सिख, ईसाई ।
सब भारत माता के जाये, सब हैं भाई भाई ।।
फिर भाई-भाई आपस में लड़ना, क्या अच्छा है ।।
जहां निराशा उदासीनता का हो गहन अन्धेरा ।
आलस जड़ता, निष्क्रियता का जहां पड़ा हो घेरा ।।
वहां ज्ञान का दीप जलाकर नव प्रकाश फैलाओ ।
सारा जग आनन्द मग्न हो, ऐसा राग सुनाओ ।।
सबको सुख पहुंचाना केवल, यही कर्म अच्छा है ।।
जो है अपने पास कला विद्या या धन सम्पत्ति ।
सबके हित में उसे लगाओ अगर चाहते मुक्ति ।।
मेरा-मेरा मत कर भाई यहां नहीं कुछ तेरा ।
छोड़-छाड़ सब चलना होगा, दुनिया रैन बसेरा ।।
इसीलिये सेवामय जीवन जीना ही अच्छा है ।
सबसे करना प्रेम जगत में यही धर्म सच्चा है ।।
यज्ञ वन्दना
होता है सारे विश्व का कल्याण यज्ञ से ।
जल्दी प्रसन्न होते हैं भगवान् यज्ञ से ।।
ऋषियों ने ऊंचा माना है स्थान यज्ञ का,
भगवान का यह यज्ञ है और भगवान यज्ञ का ।
जाता है देवलोक में, इन्सान यज्ञ से,
जल्दी प्रसन्न होते हैं भगवान यज्ञ से ।
जो कुछ भी डालो यज्ञ में, हैं खाते अग्नि देव ।
इक इक के बदले सौ-सौ हैं दिलाते अग्नि देव ।
बादल बनाकर पानी है बरसाते अग्नि देव,
पैदा अनाज करना है भगवान यज्ञ से ।
जल्दी प्रसन्न होते हैं भगवान यज्ञ से ।।
होता है कन्यादान, इसके ही सामने ।
पूजा है इसको कृष्ण ने भगवान राम ने ।
शक्ति व तेज यश भरा, इस शुद्ध नाम में ।।
मिलता है राज, कीर्ति, सन्तान यज्ञ से ।
जल्दी प्रसन्न होते हैं भगवान यज्ञ से ।।
चाहे अमीर है कोई, चाहे गरीब है ।
जो नित्य यज्ञ करता है, वह खुश नसीब है ।।
उपकारी मनुष्य बनता है देव यज्ञ से ।
जल्दी प्रसन्न होते हैं भगवान यज्ञ से ।
घट-घट वासी ! सभी घटों में, निर्मल गंगाजल हो ।
हे बलशाली ! तन तन में, प्रतिभाषित तेरा वल हो ।
अहे सच्चिदानंद ! बहे आनन्दमयी निर्झरिणी—
नन्दनवन सा शीतल इस जलती जगती का तल हो ।।
सत् की सुगन्ध फैला दें ।
प्रभु जीवन ज्योति जगा दें ।।
विश्वे देवा ! अखिल विश्व यह देवों का ही घर हो ।
पूषन् ! इस पृथ्वी के ऊपर असुर न कोई नर हो ।।
इन्द्र ! इन्द्रियों की गुलाम यह आत्मा नहीं कहावे—
प्रभुका प्यारा मानव, निर्मल, शुद्ध स्वतन्त्र अमर हो ।।
मन का तम तोम भगा दें ।
प्रभु जीवन ज्योति जगा दें ।।
इस जग में सुख शान्ति विराजे, कल्मष कलह नसावें ।
दूषित दूषण भस्मसात हों, पाप ताप मिट जावें ।।
सत्य, अहिंसा, प्रेम पुण्य, जन-जन के मन मन में हो ।
विमल ‘‘अखण्ड-ज्योति’’ के नीचे सब सच्चा पथ पावें ।।
भूतल पर स्वर्ग बसादे ।
प्रभु जीवन ज्योति जगादे ।।
ईश्वर की खोज !
मैं ढूंढ़ता तुझे था जब कुंज और वन में ।
तू खोजता मुझे था तब दीन के वतन में ।।
तू आह वन किसी को मुझको पुकारता था—
मैं था तुझे बुलाता संगीत में भेजन में ।।1।।
मेरे लिये खड़ा था दुखियों के द्वार पर तू
मैं बाट जोहता था तेरी किसी चमन में ।
बन कर किसी के आंसू मेरे लिए बहा तू—
आंखें लगी थीं मेरी तब याद के बदन में ।।2।।
बाजे बजा बजा के मैं था तुझे रिझाता—
तब तू लगा हुआ था पतितों के संगठन में ।
मैं था विरक्त तुझसे जग की अनित्यता पर-
उत्थान भर रहा था तब तू किसी पतन में ।।3।।
बेबस गिरे हुओं के तू बीच में खड़ा था—
मैं स्वर्ग देखता था झुकता कहां चरन में ।
तूने दिये अनेकों अवसर न मिल सका मैं—
तू कर्म में मगन था मैं व्यस्त था कथन में ।।4।।
हरिचन्द और ध्रुव ने कुछ और ही बताया—
मैं तो समझ रहा था तेरा प्रताप धन में ।
मैं सोचता तुझे था रावण की लालसा में—
पर था दधीचि के तू परमार्थ-रूप तन में ।।5।।
जगदीश ज्ञानदाता
जगदीश ज्ञान दाता सुख मूल शोकहारी ।
भगवन् ! तुम्हीं सदा हो निष्पक्ष न्यायकारी ।
सब काल सर्व ज्ञाता सविता पिता विधाता ।
सब में रहमे हुए हो विश्व के बिहारी ।।
कर दो बलिष्ठ आत्मा, घबरायें न दुःखों से ।
कठिनाइयों का जिससे तर जायें सिन्धु भारी ।।
निश्चय दया करोगे, हम मांगते यही हैं।
हमको मिले स्वयम् ही, उठने की शक्ति सारी ।।
विधाता तू हमारा है
विधाता तू हमारा है, तू ही विज्ञान दाता है ।
बिना तेरी दया कोई, नहीं आनन्द पाता है ।।
तितिक्षा को कसौटी से, जिसे तू जांच लेता है ।
उसी विद्याधिकारी को, अविद्या से छुड़ाता है ।।
सताता जो न औरों को, न धोखा आप खाता है ।
वही सद्भक्त है तेरा, सदाचारी कहाता है ।।
सदा जो न्याय का प्यारा, प्रजा को दान देता है ।
महाराजा ! उसी को तू बड़ा राजा बनाता है ।।
तजे जो धर्म को, धारा कुकर्मों को बहाता है ।
न ऐसे नीच पापी को कभी ऊंचा चढ़ाता है ।।
स्वयंभू शंकरानन्दी तुझे जो जान लेता है ।
वही कैवल्य सत्ता की महत्ता में समाता है ।।
भक्ति की झंकार
भक्ति की झंकार उर के तारों में कर्त्तार भर दो ।।
लौट जाए स्वार्थ, कटुता, द्वेष, दम्भ निराश होकर ।
शून्य मेरे मन भवन में देव ! इतना प्यार भर दो ।।
बात जो कह दूं, हृदय में वो उतर जाये सभी के ।
इस निरस मेरी गिरा में वह प्रभाव अपार भर दो ।।
कृष्ण के सदृश सुदामा प्रेमियों के पांव धोने ।
नयन में मेरे तरंगित अश्रु पारावार भर दो ।।
पीड़ितों को दूं सहारा और गिरतों को उठा लूं ।
बाहुओं में शक्ति ऐसी ईश सर्वाधार भर दो ।।
रंग झूठे सब जगत के ये ‘‘प्रकाश’’ विचार देखा ।
क्षुद्र जीवन में सुघड़ निज रंग परमोदार भर दो ।।
कामना
न मैं धान धरती न धन चाहता हूं ।
कृपा का तेरी एक कण चाहता हूं ।।
रहे नाम तेरा वो चाहूं मैं रसना ।
सुने यश तेरा वह श्रवण चाहता हूं ।।1
विमल ज्ञान धारा से मस्तिष्क उर्बर ।
व श्रद्धा से भरपूर मन चाहता हूं ।।2
करे दिव्य दर्शन तेरा जो निरन्तर ।
वही भाग्यशाली नयन चाहता हूं ।।3
नहीं चाहता है मुझे स्वर्ग छवि की ।
मैं केवल तुम्हें प्राण धन ! चाहता हूं ।।4
प्रकाश आत्मा में अलौकिक तेरा है ।
परम ज्योति प्रत्येक क्षण चाहता हूं ।।5
दे विभो ! वरदान ऐसा
दे प्रभो वरदान ऐसा दे विभो वरदान ऐसा ।
भूल जाऊं भेद सब, अपना पराया मान तैसा ।।
मुक्त होऊं बन्धनों से मोह माया पाश टूटे ।
स्वार्थ, ईर्षा, द्वेष, आदिक दुर्गुणों का संग छूटे ।।
प्रेम मानस में भरा हो, हो हृदय में शान्ति छायी ।
देखता होऊं जिधर मैं, दे उधर तू ही दिखायी ।।
नष्ट हो सब भिन्नता, फिर बैर और विरोध कैसा ।
दे प्रभो वरदान ऐसा, दे विभो ! वरदान ऐसा ।।
ज्ञान के आलोक से उज्ज्वल बने यह चित्त मेरा ।
लुप्त हो अज्ञान का, अविचार का छाया अंधेरा ।।
हे प्रभो परमार्थ के शुभ कार्य में रुचि नित्य मेरी ।
दीन दुखियों की कुटी में ही मिले अनुभूति तेरी ।।
दूसरों के दुःख को समझूं सदा मैं आप जैसा ।
दे प्रभो ! वरदान ऐसा दे विभो वरदान ऐसा ।।
हे अभय अविवेक तज शुचि सत्य पथ गामी बनूं मैं ।
आपदाओं से भला क्या, काल से भी न डरूं मैं ।।
सत्य को ही धर्म मानूं, सत्य को ही साधना मैं ।
सत्य के ही रूप में तेरी करूं आराधना मैं ।।
भूल जाऊं भेद सब अपना पराया मान तैसा ।
दे प्रभो ! वरदान ऐसा दे विभो ! वरदान ऐसा ।।
वह शक्ति हमें दो दयानिधे !
वह शक्ति हमें दो दयानिधे, कर्तव्य मार्ग, पर डट जावें ।
पर सेवा पर उपकार में हम, निज जीवन सफल बना जावें ।।
हम दीन दुःखी निबलों विकलों, के सेवक बन सन्ताप हरें ।
जो हों भूले भटके बिछुड़े, उनको तारें खुद तर जावें ।।
छल, छिद, द्वेष, पाखण्ड झूंठ, अन्याय से निशदिन दूर रहें ।
जीवन हो शुद्ध सरल अपना शुचि प्रेम सुधा रस बरसावें ।
निज आन कान मर्यादा का, प्रभु ध्यान रहे अभिमान रहे ।।
जिस देश जाति में जन्म लिया, बलिदान उसी पर हो जावें ।
प्रातःकाल की प्रार्थना
कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूं अब तेरे काज ।
पालन करने को आज्ञा तब मैं नियुक्त होता हूं आज ।।
अन्तर में स्थित रह मेरी बागडोर पकड़े रहना ।
निपट निरंकुश चंचल मन को सावधान करते रहना ।।
अन्तर्यामी को अन्तः स्थित देख सशंकित होवे मन ।
पाप वासना उठते ही हो, नाश लाज से वह जल भुन ।।
जीवों का कलरव जो दिन भर सुनने में मेरे आवे ।
तेरा ही गुनमान जान मन प्रमुदित हो अति सुख पावे ।।
तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि ! तुझमें यह सारा संसार ।
इसी भावना से अन्तर भर मिलूं सभी से तुझे निहार ।।
प्रतिपल निज इन्द्रिय समूह से जो कुछ भी आचार करूं ।
केवल तुझे रिझाने, को बस तेरा ही व्यवहार करूं ।।
गायत्री वन्दना
मातु मेरी यह प्रार्थना है भूलूं ।
न मैं नाम कभी तुम्हारा ।।
निष्काम हो के दिन रात गाऊं ।
नमो वेद माता नमो विश्वमाता ।।
नमो हंस आरूढ़िनी बुद्धिदाता ।
नमोः नमोः नमो वेदमाता ।।
देहान्तकाले तुम्हारी छवी हो ।
पुस्तक कमण्डल लिए हाथ में हो ।।
गाता यही मैं तनु मातु त्यागूं ।
नमो वेदमाता नमो विश्वमाता ।।
यह यज्ञ हमारा हो पुण्य देकर ।
चलूं तो हृदय में अलख शांति लेकर ।।
नहीं द्रोह ही हो नहीं मोह ही हो।
नमो वेदमाता नमो विश्वमाता ।।
प्यारे जरा तो मन में विचारो ।
क्या साथ लाये और क्या ले चलोगे ।।
सेवा न की तो यह जिन्दगी धिक ।
नमोः वेदमाता नमोः विश्वामाता ।।
सविता तुम्हारी महाभर्ग शक्ति ।
वरेण्यं सदा ध्यान में हो हमारे ।।
करो प्रेरणा ले चलो सत्यपथ से ।
नमोः वेदमाता नमोः विश्वमाता ।।
ऐसा जगादो फिर सो न जाऊं ।
ज्योति तुम्हारी उर में जगाऊं ।।
श्रद्धा विनत हो दिन रात गाऊं ।
मनोः वेदमाता नमो विश्वमाता ।।
वह योग्यता दो सत्कर्म कर लूं ।
अपने हृदय में सद्भाव भर लूं ।।
नर तन है साधन महामन्त्र जप लूं ।
नमो वेदमाता नमो विश्वमाता ।।
हे मातु अब तो ऐसी दया हो ।
जीवन निरर्थक जाने न पावे ।।
यह मन तुम्हारा ही गीत गावे ।
नमो वेदमाता नमो विश्वमाता ।।
गुरु-वन्दना
एक तुम्हीं आधार सदगुरु ।
जब तक तुम न मिलो जीवन में ।।
शांति कहां मिल सकती मन में ।
खोज फिर संसार सद्गुरु । एक तुम्हीं0
कैसा भी हो तैरन हारा ।
मिले न जब तक शरण सहारा ।।
हो न सका उस पार सद्गुरु ।। एक तुम्हीं0
हे प्रभु तुम्हीं विविध रूपों से,
हमें बचाते भव कूपों से ।।
ऐसे परम उदार सद्गुरु । एक तुम्हीं0
हम आये हैं द्वार तुम्हारे ।
अब उद्धार करो दुःखहारे ।।
सुन लो दास पुकार सद्गुरु ।
एक तुम्हीं आधार सद्गुरु ।।
ईश प्रार्थना
हे नाथ अब तो ऐसी दया हो, जीवन निरर्थक जाने न पाये ।
यह मन न जाने क्या-क्या कराये, कुछ बन न पाया अपने बनाये ।।
संसार में ही आसक्त रहकर, दिन रात अपने मतलब की कहकर ।
सुख के लिए लाखों दुःख सहकर, ये दिन अभी तक योंही बताये ।।
ऐसा जगा दो फिर सो न जाऊं, अपने को निष्काम प्रेमी बनाऊं।
मैं आपको चाहूं और पाऊं, संसार का कुछ भय रह न जाये ।।
वह योग्यता दो सत्कर्म कर लूं, अपने हृदय में सदभाव भर लूं ।
नर तन है साधन भवसिन्धु तर लूं, ऐसा समय फिर आये न आये ।।
हे प्रभु हमें निरभिमानी बना दो, दारिद्र्य हर लो दानी बना दो ।
आनन्दमय विज्ञानी बना दो, मैं हूं तुम्हारी आशा लगाये ।
कर्मवीर बनना खिला दो
जाति को जीवन दो भगवान ।
आशा का अंकुर उपजादो, परहित का पीयूष पिला दो ।
सेवा का सन्मार्ग सुझादो, साहस का सोपान ।।
प्रेम एकता का वर वरदो, ज्ञान उजाला घर-घर करदो ।
कूट-कूट हृदयों में भर दो, स्वाभिमान सम्मान ।।
दलितों के अधिकार दिलादो, बिछुड़ों को फिर गले मिलादो ।
भेद भाव का भूत भगादो, हों सब लोग समान ।।
विधवा दल के संकट टारो गोकुल के कुल क्लेश निवारो ।
बलहीनों में बल संचारों, निर्भय करो निदान ।।
देश भक्ति की ज्योति जगादो, धर्म धाम का द्वार दिखादो ।
कर्मवीर बनना सिखलादो, कर दयालुता दान ।।
जाति को जीवन दो भगवान ।
अभी का कर्त्तव्य
सज्जनो, परमेश्वर का सुमिरन बारम्बार कर लो ।
कभी कुछ बिगड़ा है तो अभी सुधार करलो ।
जिसे तुम अपना कहते हो, उसके साथ सदा न रहोगे ।
जहां सुख मान रहे हो, वहीं अन्त में दुःख सहोगे ।।
मुक्ति मिल जायगी, जब तुम इस जन में कुछ न चाहोगे।
मृत्यु आने के पहले, जीवन का उद्धार करलो ।।
बचाओगे जो कुछ तुम वह, तुमसे छिन जायेगा ही ।
जिसने जो कुछ दे रक्खा है, वह जीवन में पायेगा ही ।।
अरे चिन्ता छोड़ो, जो भाग्य लिखा वह आयेगा ही ।
कहीं सुख के पीछे, यदि होगा पाप रुलायेगा ही ।।
सदा कुछ भी न रहेगा, कितना ही विस्तार कर लो ।
अनेकों पछताते हैं, जीवन के अच्छे दिन खोकर ।।
अनेक भोग रहे हैं, दुष्कर्मों का फल रो रोकर ।
अनेकों पशुवत जीते हैं, औरों का बोझा ढोकर ।।
कहीं विरले ही मानव जो रहते स्वाधीन होकर ।
तुम्हें जो कुछ भी करना है, वह अभी विचार करलो ।।
भक्त होना है तो प्रभु को ही, अपना मान लेना ।
मोह ममता तजकर, बस सेवा का व्रत ठान लेना ।।
त्याग करना है, सारे दोषों को पहिचान लेना ।
असत् से असंग होकर, सत्स्वरूप को जान लेना ।
पथिक अपने में ही निज प्रियतम को स्वीकार करलो ।।
गायत्री तत्व चिंतन
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं ।
भर्गो देवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात् ।।
ॐ ही रक्षक हमारे, सब गुणों की खान हो ।
भूः सदा सब प्राणिओं के, प्राण के भी प्राण हो ।।
भुवः सब दुखों को हरते और कृपा निधान हो ।
स्वः सदा सुख रूप सुखमय, सुखद सुखधि महान् हो ।।
तत् वही सुप्रसिद्ध ब्रह्म देव वर्णित सार हो ।
देव सवितुः सर्व उत्पादक हो पालन हार हो ।।
शुभ वरेण्यं वरन् करने, योग्य भगवन् आप हो ।
शुद्ध भर्गः मल रहिम, निर्लेप हो निष्पाप हो ।।
दिव्य गुण देवस्य स्वरूप देव अनूप के ।
धीमहिः धारे हृदय में दिव्य गुण सब आपके ।।
धियो योनः वह हमारी, बुद्धियों का हित करो ।
‘अमर’ प्रचोदयात् नित सन्मार्ग में प्रेरित करो ।।
जीवन-ज्योति
भगवन जीवन ज्योति जगादो ।
नव युवकों में नित्य स्फूर्ति की धारा निमल बहा दो ।
भव्य भाव भर कर्म वीरता का प्रिय पाठ पढ़ादो ।।
करदें दूर देश की निद्रा ऐसा मन्त्र बतादो ।
फोड़ फूट का कर्म प्रेम का, शुभ सन्देश सुनादो ।।
करके नष्ट कुरीति सुरीतों का सौरभ सरसादो ।
तन मन धन से प्रभो ! देश सेवा में हमें लगादो ।
दुखद दीनता दुरा देश में सुख का साज सजादो ।।
भगवन ! जीवन-ज्योति जगादो ।
माटी में मिल
क्या तन मांजता रे, एक दिन माटी में मिल जाना ।
माटी ओढ़ना, माटी बिछोना, माटी का सिरहाना ।
माटी का कल वूत बनाया, जामें भंवर समाना ।।
माटी कहे कुम्हार से तू क्या रूंधे मोय ।
एक दिन ऐसा आयेगा, मैं रूंधूंगी तोय ।।
चुन-चुन लकड़ी महल बनावें, वन्दा कहे घर मेरा ।
ना घर तेरा ना घर मेरा, चिड़िया रैन बसेरा ।।
फाटा चोला भया पुराना, कब लग सीवे दरजी ।
दिलका मरहम कोई न मिलिया, जो मिला वह गर्जी ।
दिन के मरहम सतगुरु मिल गये, उपकारन के गर्जी ।।
नानक चोला अमर भयो, जो सन्त मिल गये दर्जी ।।
नर से नारायण
उद्धार-पतन दोनों ही हैं, रे मानव! तेरे हाथों में ।
हंस हंस कर जी या रो-रोकर, है केवल तेरे हाथों में ।।
सोने वाला खो देता है, जगने वाला पा लेता है।
सोना जगना दोनों ही हैं, रे मानव तेरे हाथों में ।।
है मिला तुझे सुरदुर्लभ तन, पाकर मत खो अनमोल रतन ।
वश में करना यह चंचल मन, रे मानव तेरे हाथों में ।।
तू ही है अपना मित्र स्वयं, तू ही है अपना शत्रु स्वयं ।
बन मित्र या कि तू शत्रु स्वयं, रे मानव ! तेरे हाथों में ।।
तू खुद ही भाग्य विधाता है, उद्योगी सब पा जाता है ।
नर से नारायण बन जाना, है केवल तेरे हाथों में ।।
यज्ञ श्रेष्ठ कर्म है
यज्ञ जीवन का श्रेष्ठ सुन्दर कर्म है ।
यज्ञ का करना कराना ही हमारा धर्म है ।।
यज्ञ से दिशि हो सुगन्धित शान्त हो वातावरण ।
यज्ञ से सदज्ञान हो, हो यज्ञ से शुद्धाचरण ।।
यज्ञ से हो स्वस्थ काया, व्याधियां सब नष्ट हो ।
यज्ञ से सुख सम्पदा हो, दूर सारे कष्ट हों ।।
यज्ञ से धन धान्य हो, बहु भांति सुखमय सृष्टि हो ।
यज्ञ है प्रिय मोक्ष दाता यज्ञ शक्ति अनूप है ।
यज्ञ मय यह विश्व है विश्वेश यज्ञ स्वरूप है ।।
यज्ञ मय अखिलेश ! ऐसी आप अनुकम्पा करें ।
यज्ञ के प्रति धर्म पुरुषों में अमित श्रद्धा भरें ।।
यज्ञ पुण्य प्रताप से सब पाप ताप तिमिर हरें ।
यज्ञ नौका से अगम संसार सागर को तरें ।।
जाग मुसाफिर
उठ जाग मुसाफिर भेर भई, अब रैन कहां जो सोवत है ।
जो सोवत है सो खोवत है, जो जागत है सो पावत है ।।
टुक नींद से अंखियां खोल जरा, ओ गाफिल रब से ध्यान लगा । यह प्रीति करन की रीत नहीं रब जागत है तू सोवत है ।।
अनजान भुगत करनी अपनी, ओ पापी पाप में चैन कहां ।
जब पाप की गठरी सीस धरी, फिर सीस पकड़ क्यों रोवत है ।।
जो काल करे सो आज करले, जो आज करे सो अब करले ।
जब चिड़ियन खेती चुगि डारी, फिर पछताये क्या होवत है ।।
सुसंगति महिमा
सदा जो सुसंगति में आते रहेंगे, विवेकी स्वयं को बनाते रहेंगे ।
मिलेगी नहीं शांति उनको कहीं भी, जो परमात्मा को भुलाते रहेंगे ।।
बनेंगे कभी मुक्त जीवन में वे ही, जो चाहों को अपनी उठाते रहेंगे ।
सुखी होंगे जो किसी को दुःख देकर, वही अन्त में दुःख उठाते रहेंगे ।।
उन्हें ही वह सुख सिंधु स्वामी मिलेंगे, जो दुःखियों को सुख देते रहेंगे ।
उन्हीं की बनी और बनती रहेगी, जो बिगड़ी किसी की बनाते रहेंगे ।।
जो जितना अधिक दान कर लेंगे जग में,
वह पुण्यों की पूंजी बढ़ाते रहेंगे ।
न देंगे किसी को जो शुभ और सुन्दर, कभी बैठे माखी उड़ाते रहेंगे ।।
जो कुछ दीखता है रहेगा न सब दिन कहां तक यहां मन फंसाते रहेंगे ।
जो कुछ दीखता है रहेगा न सब दिन कहां तक यहां मन फंसाते रहेंगे ।
पथिक अपने में अपने प्रियतम को पाकर,
महोत्सव निरन्तर मनाते रहेंगे ।।
भजन कर ईश्वर का
सताते जो गरीबों को उन्हें ईश्वर सतावेगा ।
रुलाते जो अनाथों को उन्हें ईश्वर रुलावेगा ।।
भलाई का भला फल है, बुराई का बुरा फल है ।
दया दीनों पै करलीजे किसी को दुःख नहीं दीजे ।।
तुम्हारी नाव को मालिक किनारे से लगावेगा ।
करो रक्षा अनाथों की दो जो कुछ बम सके भाई ।।
न दौलत में से पैसा भी, तुम्हारे साथ जावेगा ।
फिरे किस ऐंठ में भूला, भजनकर रूप ईश्वर का ।।
अरे नादान फिर यह दम नर-तन में न आवेगा ।
सबसे करना प्रेम जगत में
सबसे करना प्रेम जगत में यही धर्म सच्चा है ।
जो है जग में हीन पतित अति, उसको गले लगाओ ।
जो हैं दीन दुःखी या पीड़ित, उनको धीर बंधाओ ।।
जिन्हें न कोई त्राता जग में उनको जा अपनाओ ।
जो रोते हैं उन्हें हंसाओ, सबसे प्रेम जताओ ।।
सबमें प्रभु का रूप निहारो, यही भाव अच्छा है ।।
सबसे हिलमिल रहना सीखो, करो न द्वेष किसी से ।
सबसे मीठी बोली बोलो, होगा भला इसीसे ।।
जो अनाथ हैं उन्हें सहारा देना बड़ी खुशी से ।
तुच्छ न समझो कभी किसी को, रखना नेह सभी से ।।
गिरे हुए हैं उन्हें उठाओ यही मार्ग अच्छा है ।।
एक प्रभु के सब बालक हैं सब हैं उसके प्यारे ।
अहंकार से बने हुए हैं हम सब न्यारे न्यारे ।।
हिन्दू, मुस्लिम, जैन, पारसी, बौद्ध, सिख, ईसाई ।
सब भारत माता के जाये, सब हैं भाई भाई ।।
फिर भाई-भाई आपस में लड़ना, क्या अच्छा है ।।
जहां निराशा उदासीनता का हो गहन अन्धेरा ।
आलस जड़ता, निष्क्रियता का जहां पड़ा हो घेरा ।।
वहां ज्ञान का दीप जलाकर नव प्रकाश फैलाओ ।
सारा जग आनन्द मग्न हो, ऐसा राग सुनाओ ।।
सबको सुख पहुंचाना केवल, यही कर्म अच्छा है ।।
जो है अपने पास कला विद्या या धन सम्पत्ति ।
सबके हित में उसे लगाओ अगर चाहते मुक्ति ।।
मेरा-मेरा मत कर भाई यहां नहीं कुछ तेरा ।
छोड़-छाड़ सब चलना होगा, दुनिया रैन बसेरा ।।
इसीलिये सेवामय जीवन जीना ही अच्छा है ।
सबसे करना प्रेम जगत में यही धर्म सच्चा है ।।
यज्ञ वन्दना
होता है सारे विश्व का कल्याण यज्ञ से ।
जल्दी प्रसन्न होते हैं भगवान् यज्ञ से ।।
ऋषियों ने ऊंचा माना है स्थान यज्ञ का,
भगवान का यह यज्ञ है और भगवान यज्ञ का ।
जाता है देवलोक में, इन्सान यज्ञ से,
जल्दी प्रसन्न होते हैं भगवान यज्ञ से ।
जो कुछ भी डालो यज्ञ में, हैं खाते अग्नि देव ।
इक इक के बदले सौ-सौ हैं दिलाते अग्नि देव ।
बादल बनाकर पानी है बरसाते अग्नि देव,
पैदा अनाज करना है भगवान यज्ञ से ।
जल्दी प्रसन्न होते हैं भगवान यज्ञ से ।।
होता है कन्यादान, इसके ही सामने ।
पूजा है इसको कृष्ण ने भगवान राम ने ।
शक्ति व तेज यश भरा, इस शुद्ध नाम में ।।
मिलता है राज, कीर्ति, सन्तान यज्ञ से ।
जल्दी प्रसन्न होते हैं भगवान यज्ञ से ।।
चाहे अमीर है कोई, चाहे गरीब है ।
जो नित्य यज्ञ करता है, वह खुश नसीब है ।।
उपकारी मनुष्य बनता है देव यज्ञ से ।
जल्दी प्रसन्न होते हैं भगवान यज्ञ से ।