Books - तप और योग के मार्मिक पक्ष
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Language: HINDI
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ध्यानयोग
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चेतना की बहिर्मुखी प्रवृत्ति को अंतर्मुखी बनाना, अंतर्जगत् की विशेषताओं को देखना, आत्मा उच्च उद्देश्यों पर केन्द्रीकरण ही इन सबका एकमात्र आधार है। मानसिक बिखराव को एक केंद्र पर केंद्रित करने से एकाग्रताजन्य ऊर्जा उत्पन्न होती है उसे जिस भी दिशा में नियोजित किया जाएगा उसी में चमत्कार उत्पन्न करेगी। आत्मिक प्रगति के लिए उसे लगाया जाए तो उस दिशा में भी उसका लाभ मिलेगा ही। वैज्ञानिक, शोधकर्ता जैसे प्रबुद्ध व्यक्ति इस मानसिक केन्द्रीकरण के फलस्वरूप ही अपने-अपने कार्यों में विविध सफलताएँ प्राप्त करते हैं। आत्मिक प्रगति के लिए योगीजन इसी शक्ति का उपयोग करके अपने लक्ष्य तक पहुँचते हैं। ध्यानयोग को चेतनात्मक पुरुषार्थों में अत्यंत उच्चकोटि का समझा जा सकता है ।
ध्यान के लिए आकार का आश्रय आवश्यक है। साधना का प्रमुख अवलंबन ध्यान है। इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए परब्रह्म को प्रकाशपुञ्ज माना जाता है। प्रकाशपुञ्ज की ईश्वरप्रदत्त प्रतिमा सूर्य है। उसी की छोटी-बड़ी आकृतियाँ बनाकर निराकारवादी ध्यान करते हैं। दृश्यमान प्रकाश को ज्ञान और ऊर्जा का प्रतीक माना जाता है। परब्रह्म परमात्मा की सविता के रूप में इसी आधार पर प्रतिष्ठापना की गई है। गायत्री का प्राण सविता है। सविता की आकृति प्रातःकाल के उदीयमान स्वर्णिम सूर्य जैसी मानी गई है ।
प्रकाश रूप में ध्यान साधना के सभी प्रकट ''त्राटक'' कहलाते हैं। सिद्धांत यह है कि आरंभ में खुले नेत्रों से किसी प्रकाश प्रतीक को देखा जाए फिर आँखें बंद करके उस ज्योति का ध्यान किया जाए। उगते हुए सूर्य को दो -पाँच सेकेंड खुली आँखों से देखकर आकाश में उसी स्थान पर देखने का कल्पना चित्र बनाया जाता है। वह अधिक स्पष्ट अनुभूति के साथ दीखने लगे इसके लिए चिंतन क्षमता पर अधिक दबाव दिया जाता है। सूर्य की ही तरह चंद्रमा पर, किसी तारक विशिष्ट पर भी यह धारणा की जाती है। प्रकाश को भगवान का प्रतीक माना जाता है और उसकी किरणें अपने तक आने की, चेतना में प्रवेश कर जाने की, दिव्य बलिष्ठता प्रदान करने की धारणा की जाती है। मोटे-तौर से इसी को त्राटक साधना का आरंभिक अभ्यास कहा जा सकता है ।
अंतःत्राटक से प्रकाश ज्योति की धारणा सूक्ष्म शरीर के अंतर्गत विद्यमान अतीव क्षमता संपन्न शक्ति केंद्रों पर की जाती है। षट्चक्रों का वर्णन साधना विज्ञान में विस्तारपूर्वक दिया गया है। उन्हें जाग्रत बनाने के लिए जिन उपायों को काम में लाया जाता है उनमें एक यह भी है कि उन केंद्रों पर प्रकाश ज्योति जलने का ध्यान किया जाए। मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहद, विशुद्धि और आज्ञाचक्र-ये षट्चक्र हैं। उनके स्थान सुनिश्चित हैं। उन्हीं स्थानों पर प्रकाश को धारण करने से उनमें हलचल उत्पन्न होती है और मूर्च्छना जागृति में बदल जाती है। दक्षिणमार्गी साधना में जागरण की प्रक्रिया ऊपर से नीचे की ओर चलती है और वाममार्ग में नीचे से ऊपर। गायत्री की उच्चस्तरीय पंचकोशी तप और साधना में आज्ञाचक्र प्रथम है और कुंडलिनी जागरण में मूलाधार से यह जागरण आरंभ होता है ।
इससे आगे का अभ्यास अंतःत्राटक का है। दोनों नेत्रों के बीच आज्ञाचक्र है। इसे तृतीय नेत्र भी कहते हैं। ध्यानयोग में अंतः त्राटक का अभ्यास आज्ञाचक्र से आरंभ होता है। सूर्य या दीपक की लौ का प्रकाश आज्ञाचक्र के स्थान पर किया जाता है और विश्वास किया जाता है कि उस अतिरिक्त ऊर्जा के पहुँचने से उस केंद्र में आलोक उत्पन्न होता है और प्रकाश से सूक्ष्मशरीर में अभिनव ऊष्मा का शक्ति संचार बढ़ता है ।
आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्ति:॥
ध्यान के लिए आकार का आश्रय आवश्यक है। साधना का प्रमुख अवलंबन ध्यान है। इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए परब्रह्म को प्रकाशपुञ्ज माना जाता है। प्रकाशपुञ्ज की ईश्वरप्रदत्त प्रतिमा सूर्य है। उसी की छोटी-बड़ी आकृतियाँ बनाकर निराकारवादी ध्यान करते हैं। दृश्यमान प्रकाश को ज्ञान और ऊर्जा का प्रतीक माना जाता है। परब्रह्म परमात्मा की सविता के रूप में इसी आधार पर प्रतिष्ठापना की गई है। गायत्री का प्राण सविता है। सविता की आकृति प्रातःकाल के उदीयमान स्वर्णिम सूर्य जैसी मानी गई है ।
प्रकाश रूप में ध्यान साधना के सभी प्रकट ''त्राटक'' कहलाते हैं। सिद्धांत यह है कि आरंभ में खुले नेत्रों से किसी प्रकाश प्रतीक को देखा जाए फिर आँखें बंद करके उस ज्योति का ध्यान किया जाए। उगते हुए सूर्य को दो -पाँच सेकेंड खुली आँखों से देखकर आकाश में उसी स्थान पर देखने का कल्पना चित्र बनाया जाता है। वह अधिक स्पष्ट अनुभूति के साथ दीखने लगे इसके लिए चिंतन क्षमता पर अधिक दबाव दिया जाता है। सूर्य की ही तरह चंद्रमा पर, किसी तारक विशिष्ट पर भी यह धारणा की जाती है। प्रकाश को भगवान का प्रतीक माना जाता है और उसकी किरणें अपने तक आने की, चेतना में प्रवेश कर जाने की, दिव्य बलिष्ठता प्रदान करने की धारणा की जाती है। मोटे-तौर से इसी को त्राटक साधना का आरंभिक अभ्यास कहा जा सकता है ।
अंतःत्राटक से प्रकाश ज्योति की धारणा सूक्ष्म शरीर के अंतर्गत विद्यमान अतीव क्षमता संपन्न शक्ति केंद्रों पर की जाती है। षट्चक्रों का वर्णन साधना विज्ञान में विस्तारपूर्वक दिया गया है। उन्हें जाग्रत बनाने के लिए जिन उपायों को काम में लाया जाता है उनमें एक यह भी है कि उन केंद्रों पर प्रकाश ज्योति जलने का ध्यान किया जाए। मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहद, विशुद्धि और आज्ञाचक्र-ये षट्चक्र हैं। उनके स्थान सुनिश्चित हैं। उन्हीं स्थानों पर प्रकाश को धारण करने से उनमें हलचल उत्पन्न होती है और मूर्च्छना जागृति में बदल जाती है। दक्षिणमार्गी साधना में जागरण की प्रक्रिया ऊपर से नीचे की ओर चलती है और वाममार्ग में नीचे से ऊपर। गायत्री की उच्चस्तरीय पंचकोशी तप और साधना में आज्ञाचक्र प्रथम है और कुंडलिनी जागरण में मूलाधार से यह जागरण आरंभ होता है ।
इससे आगे का अभ्यास अंतःत्राटक का है। दोनों नेत्रों के बीच आज्ञाचक्र है। इसे तृतीय नेत्र भी कहते हैं। ध्यानयोग में अंतः त्राटक का अभ्यास आज्ञाचक्र से आरंभ होता है। सूर्य या दीपक की लौ का प्रकाश आज्ञाचक्र के स्थान पर किया जाता है और विश्वास किया जाता है कि उस अतिरिक्त ऊर्जा के पहुँचने से उस केंद्र में आलोक उत्पन्न होता है और प्रकाश से सूक्ष्मशरीर में अभिनव ऊष्मा का शक्ति संचार बढ़ता है ।
आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्ति:॥