Books - यज्ञ का ज्ञान और विज्ञान
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Language: HINDI
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यज्ञ और भारतीय संस्कृति
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यज्ञ भारतीय संस्कृति का अविच्छिन्न अंग है। उसका प्रत्यक्ष प्रतीक अग्निहोत्र अपनी प्रत्येक परंपरा के साथ जुड़ा हुआ है। उसे साथ लेकर ही अपने समस्त शुभ कर्म किए जाते हैं। हिंदू जीवन जन्म से लेकर मृत्युपर्यंत १६ बार संस्कारित किया जाता है। सुसंस्कारों की स्थापना के इस विधान को षोडश संस्कार कहते हैं। पुंसवन, नामकरण, अन्नप्राशन, मुंडन, विद्यारंभ, उपनयन, विवाह, वानप्रस्थ आदि को संस्कार कहा जाता है। इन सभी धर्मकृत्यों का प्राण अग्निहोत्र है। उसके बिना इनमें से कोई भी कृत्य संपन्न नहीं होता। विवाह में तो अग्निहोत्र की परिक्रमाएँ करने को भाँवर फिरना कहते हैं और उसी को विवाह बंधन की प्रधान प्रक्रिया समझा जाता है। कहते हैं कि जिस तरह वेल्डिंग करके दो लोहे के टुकड़े जोड़ दिए जाते हैं उसी प्रकार दो आत्माओं को यज्ञाग्नि द्वारा अटूट गठबंधन में बाँधा जाता है। भारतीय जीवन यज्ञीय आदर्शों के साथ आरंभ होता है और उसका अंत यज्ञाग्नि में ही होता है। आज चिता जलाकर ऐसे ही अस्त-व्यस्त ढंग से अपने मुरदे जला दिए जाते हैं, किंतु वस्तुत: यह यज्ञ संस्कार है, जिसमें जीवन का आदि और मध्य ही नहीं अंत भी यज्ञदेव के अंचल में ही पूर्ण होता है।
पर्व-त्यौहारों का आज कुछ भी रूप बन गया हो, प्राचीन काल में उनमें से प्रत्येक समारोह सामूहिक यज्ञ आयोजन के साथ ही संपन्न होता था। अभी भी होली का त्यौहार उसी लकीर को पीटते हुए मनाया जाता है। नई फसल का नया अन्न तैयार होने पर उसका प्रथम उपयोग यज्ञ में, लोकमंगल में, परमार्थ में लगना चाहिए इस भावना को व्यवहार रूप देने के लिए ''होलिका यज्ञ'' किया जाता था। ''होली'' नवान्न को कहते हैं। जिस देवदृष्टि में नवान्न हवन प्रमुख हो, उसे होली कहते हैं। आज भी किसी प्रकार सामूहिक रूप में आग जलाकर उस पर अनाज की बालें भूनकर चिह्न पूजा कर ली जाती है। पर यदि गंभीरतापूर्वक देखा जाए तो प्रतीत होगा कि यह विशिष्ट वार्षिक यज्ञ था और उसे पूरे उत्साह के साथ सामूहिक रूप से मनाया जाता था। आज भी उस पुण्य प्रथा के खंडहर टूटे-फूटे रूप में बचे रह गए हैं।
यज्ञ को पर्व, त्यौहारों, संस्कारों एवं दैनिक नित्यकर्मों में सम्मिलित करने का प्रयोजन यही था कि भारतीयता के आदर्शों का अनुकरण करने वाला यह आवश्यक माने कि उसे संकीर्ण स्वार्थपरता की नीति अपनाकर पेट प्रजनन मात्र की पशु-वृत्तियों तक ही सीमित नहीं रहना है और न वासना-तृष्णा के भवबंधनों में फँस कर सुरदुर्लभ मनुष्य जीवन नष्ट करना है। यज्ञ अपना आदर्श है। हम सिद्धांतों के लिए देव परंपराओं का अनुसरण करने के लिए लोक-कल्याण के लिए जीवित रहेंगे। ऐसी रीति-नीति अपनाएँगे, जिससे मानवता का गौरव बढ़ सके एवं देश, धर्म, समाज, संस्कृति के उत्कर्ष में योगदान मिल सके। इसी लक्ष्य को निरंतर ध्यान में रखे रहने के लिए बार-बार छोटे-बड़े यज्ञ आयोजनों की व्यवस्था की जाती थी। हमारे आज के गायत्री यज्ञों में भी यही प्रेरणा जनमानस में उतारी जानी चाहिए और उन आयोजनों द्वारा समाज में ऐसी चेतना उत्पन्न की जानी चाहिए जिसमें सर्वत्र आदर्शवादी चिंतन, कर्म एवं व्यवहार को प्रश्रय मिल सके। यज्ञ किए जाएँ और उनमें किसी भी रूप में सम्मिलित होने वाला व्यक्ति यज्ञीय जीवन जीने का उत्साह प्राप्त कर सके ऐसा वातावरण बनाया जाए।
यज्ञीय विधि विधान संपन्न करने के साथ-साथ वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उस आदर्शवादिता की स्थापना की जाए जिसके लिए तत्त्ववेत्ताओं ने इस महान प्रचलन का प्रादुर्भाव किया है। वैयक्तिक जीवन में से असंयम एवं अनाचार को ढूँढ़ निकाला जाए और उसे मेध, अश्वमेध, नरमेध आदि की आलंकारिक प्रेरणा दुहराते हुए यज्ञाग्नि में झोंक दिया जाए। इसी प्रकार सामाजिक कुरीतियों, मूढ़ मान्यताओं एवं अंधविश्वासों को जन्मेजय द्वारा आयोजित नागयज्ञ की पुनरावृत्ति करते हुए आहुति रूप में होम दिया जाए यही देव दक्षिणा का स्वरूप है।
आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्ति:॥
पर्व-त्यौहारों का आज कुछ भी रूप बन गया हो, प्राचीन काल में उनमें से प्रत्येक समारोह सामूहिक यज्ञ आयोजन के साथ ही संपन्न होता था। अभी भी होली का त्यौहार उसी लकीर को पीटते हुए मनाया जाता है। नई फसल का नया अन्न तैयार होने पर उसका प्रथम उपयोग यज्ञ में, लोकमंगल में, परमार्थ में लगना चाहिए इस भावना को व्यवहार रूप देने के लिए ''होलिका यज्ञ'' किया जाता था। ''होली'' नवान्न को कहते हैं। जिस देवदृष्टि में नवान्न हवन प्रमुख हो, उसे होली कहते हैं। आज भी किसी प्रकार सामूहिक रूप में आग जलाकर उस पर अनाज की बालें भूनकर चिह्न पूजा कर ली जाती है। पर यदि गंभीरतापूर्वक देखा जाए तो प्रतीत होगा कि यह विशिष्ट वार्षिक यज्ञ था और उसे पूरे उत्साह के साथ सामूहिक रूप से मनाया जाता था। आज भी उस पुण्य प्रथा के खंडहर टूटे-फूटे रूप में बचे रह गए हैं।
यज्ञ को पर्व, त्यौहारों, संस्कारों एवं दैनिक नित्यकर्मों में सम्मिलित करने का प्रयोजन यही था कि भारतीयता के आदर्शों का अनुकरण करने वाला यह आवश्यक माने कि उसे संकीर्ण स्वार्थपरता की नीति अपनाकर पेट प्रजनन मात्र की पशु-वृत्तियों तक ही सीमित नहीं रहना है और न वासना-तृष्णा के भवबंधनों में फँस कर सुरदुर्लभ मनुष्य जीवन नष्ट करना है। यज्ञ अपना आदर्श है। हम सिद्धांतों के लिए देव परंपराओं का अनुसरण करने के लिए लोक-कल्याण के लिए जीवित रहेंगे। ऐसी रीति-नीति अपनाएँगे, जिससे मानवता का गौरव बढ़ सके एवं देश, धर्म, समाज, संस्कृति के उत्कर्ष में योगदान मिल सके। इसी लक्ष्य को निरंतर ध्यान में रखे रहने के लिए बार-बार छोटे-बड़े यज्ञ आयोजनों की व्यवस्था की जाती थी। हमारे आज के गायत्री यज्ञों में भी यही प्रेरणा जनमानस में उतारी जानी चाहिए और उन आयोजनों द्वारा समाज में ऐसी चेतना उत्पन्न की जानी चाहिए जिसमें सर्वत्र आदर्शवादी चिंतन, कर्म एवं व्यवहार को प्रश्रय मिल सके। यज्ञ किए जाएँ और उनमें किसी भी रूप में सम्मिलित होने वाला व्यक्ति यज्ञीय जीवन जीने का उत्साह प्राप्त कर सके ऐसा वातावरण बनाया जाए।
यज्ञीय विधि विधान संपन्न करने के साथ-साथ वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उस आदर्शवादिता की स्थापना की जाए जिसके लिए तत्त्ववेत्ताओं ने इस महान प्रचलन का प्रादुर्भाव किया है। वैयक्तिक जीवन में से असंयम एवं अनाचार को ढूँढ़ निकाला जाए और उसे मेध, अश्वमेध, नरमेध आदि की आलंकारिक प्रेरणा दुहराते हुए यज्ञाग्नि में झोंक दिया जाए। इसी प्रकार सामाजिक कुरीतियों, मूढ़ मान्यताओं एवं अंधविश्वासों को जन्मेजय द्वारा आयोजित नागयज्ञ की पुनरावृत्ति करते हुए आहुति रूप में होम दिया जाए यही देव दक्षिणा का स्वरूप है।
आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्ति:॥