Magazine - Year 1973 - Version 2
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Language: HINDI
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मानवी मस्तिष्क पर नियंत्रण— एक वरदान भी एक अभिशाप भी
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विज्ञान जगत की मान्यता है कि अगले पचास वर्षों में सबसे महत्त्वपूर्ण शोध जीव विज्ञान और मस्तिष्क विज्ञान की ही होगी और उन्ही के आधार पर विश्व के भाग्य एवं भविष्य का निर्णय— निर्धारण होगा।
शरीर-रचना, स्वास्थ्य-संवर्द्धन एवं चिकित्सा-क्षेत्रों की खोजों के फलस्वरूप इतना ही हो सकता है कि काया को मजबूत, निरोग और दीर्घजीवी बनाया जा सके, पर यह कोई बड़ी बात नहीं है। अपितु इस सफलता के साथ-साथ एक विपत्ति भी सामने आ खड़ी होगी। प्रजननक्रम रुका नहीं तो इस सफलता के साथ-साथ वंशवृद्धि की गति बढ़ेगी। देर से मरने वाले लोग नवागतों की जगह घेरे रहेंगे और बढ़ती आबादी से ऐसे नए संकट उत्पन्न होंगे, जिन्हें देखते हुए कमजोरी, बीमारी से भरे दिन ही याद रहेंगे और वे ही अतीत की स्मृति के साथ सराहे जाने लगेंगे।
शरीर नहीं, मानव जीवन का सार उसके मस्तिष्क में सन्निहित है। बौद्धिक दृष्टि से जो जैसा है, उसे उसी स्तर का नापा, आँका जाएगा। अगले दिनों विज्ञान की शोधें मानवी मानसिक स्थिति पर नियंत्रण स्थापित कर सकने में सफल होंगी तो कोई अपनी इच्छानुसार सोच नहीं सकेगा। उसे वहीं सोना पड़ेगा, जिसके लिए उसे वैज्ञानिक दबाव ने बाध्य किया है।
इलेक्ट्रिकल स्टीक्यूलेशन आफ ब्रेन (ई. एस. वी.) पद्धति के अनुसार, कई एशियन विश्वविद्यालयों ने आंशिक रूप से मस्तिष्क की धुलाई (ब्रेन वाशिंग) में सफलता प्राप्त कर ली है। अभी यह बंदर, कुत्ते, बिल्ली, खरगोश, चूहे जैसे छोटे स्तर के जीवों पर ही प्रयोग किए गए हैं। आहार की रुचि, शत्रुता, मित्रता, भय, आक्रमण आदि के सामान्य स्वभाव की जिन परिस्थितियों में, जिस प्रकार चरितार्थ किया जाना चाहिए। उसे वे बिलकुल भूल जाते हैं और विचित्र प्रकार का आचरण करते हैं। बिल्ली के सामने चूहा छोड़ा गया तो वह आक्रमण करना तो दूर उससे डरकर एक कोने में जा छिपी। क्षणभर में एकदूसरे पर खूनी आक्रमण करना, एक-आधे मिनट बाद परस्पर लिपटकर प्यार करना, यह परिवर्तन उस विद्युत-क्रिया से होता है, जो उनके मस्तिष्कीय कोषों के साथ संबद्ध रहती है। यही बात मनुष्यों पर भी लागू हो सकती है। मानव मस्तिष्क अपेक्षाकृत अधिक परिष्कृत होता है, उसमें प्रतिरोधक शक्ति भी अधिक होती है, इसलिए उसमें हेर-फेर करने के लिए प्रयास भी कुछ अधिक करने पड़ेंगे और पूर्ण सफलता प्राप्त करने में देर भी लगेगी; पर जो सिद्धांत स्पष्ट हो गए हैं, उनके आधार पर यह निश्चित हो गया है कि मनुष्य को भी, जैसा चाहे सोचने, मान्यता बनाने और गतिविधियाँ अपनाने के लिए विवश किया जा सकता है। निर्धारित रसायन तत्त्वों को पानी में घोलकर पिलाया जाता रहे तो किसी तानाशाह शासक की इच्छानुकूल समस्त प्रजा बन सकती है। फिर विचार-प्रसार की आवश्यकता न रहेगी; वरन अन्न, जल, औषधि आदि के माध्यम से कुछ रसायन भर लोगों के शरीर में पहुँचाने की आवश्यकता पड़ेगी। वे मस्तिष्क में पहुँचकर वैसा ही परिवर्तन कर देंगे जैसा वैज्ञानिकों या शासकों को अभीष्ट होगा, तब घोर अभावग्रस्त स्थिति में भी जनता अपने को रामराज्य जैसी सुखद स्थिति में अनुभव करती रह सकती है। यदि लड़ाकू पीढ़ी बनानी हो तो उस देश का हर नागरिक दूसरे देशों पर आक्रमण करने के लिए आतुर हो सकता है।
चाहे हम सो रहे हों या जग रहे हों, हर समय तीन पौंड भारी मस्तिष्क, मेरुदंड एवं लगभग दस अरब तंत्रिकाओं द्वारा देह की समस्त क्रियाओं का नियंत्रण एवं संचालन करता रहता है। उसे करीब 20 वाट विद्युत ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है, जो ग्लूकोज एवं ऑक्सिजन से प्राप्त होती है।
वैज्ञानिकों की दृष्टि में हर विचार, हर आकांक्षा और हर अनुभूति एक विद्युत हलचल अथवा रासायनिक-प्रक्रिया है। इस क्रियाकलाप को इलेक्ट्रो एनसिफेलो ग्राफ ( ई. सी. जी.) यंत्र द्वारा जाना जा सकता है और यह समझा जा सकता है कि मस्तिष्क में किस स्तर की विचारधारा प्रवाहित हो रही है।
इन दिनों विज्ञानवेत्ता मानवी मस्तिष्क पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए जिन शोधों में संलग्न हैं, जिन आविष्कारों को प्रत्यक्ष करने एवं जिन उपकरणों को विनिर्मित करने में प्रयत्नशील हैं, वे काफी जटिल हैं। उनमें यह आशंका भी है, यदि यह नियंत्रण प्रयास त्रुटिपूर्ण रह गया तो जिस पर प्रयोग किया गया है, वह मानवी सभ्यता से भिन्न किसी देवी-दानवी स्तर को अपनाकर स्वयं विचित्र सिद्ध हो सकता है और विचित्र परिस्थितियाँ उत्पन्न कर सकता है। इस आशंका से किस प्रकार बचा जाए, यह पहेली शोधकर्त्ताओं को बेतरह हैरान किए हुए है।
यदि उनके आविष्कार एक बार कोई असाधारण विद्युत तरंग व्यापक क्षेत्र में फैलाकर लोगों की विचारशैली को किसी विशेष दिशा में मोड़ दें, मस्तिष्कीय संरचना एवं प्रवाह-प्रक्रिया में हेर-फेर उत्पन्न कर दें तो फिर उनका प्रभाव वंशपरंपरा बनकर पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता ही चला जाएगा। एक बार सरल संरचना को किसी बड़े झटके से मोड़ा-तोड़ा जा सकता है, पर बार-बार यह प्रयोग सफल नहीं होगा। गीली लकड़ी को एक बार मोड़कर किसी खास शकल का बनाया जा सकता है, पर जब वह उस स्थिति में मजबूत हो जाए तो बार-बार मोड़ना संभव न होगा। मस्तिष्कीय संरचना प्रकृति-प्रदत्त क्रम के अनुसार गीली लकड़ी की तरह है, पर पीछे जब उसे रेडियो सक्रिय ऊर्जा की भट्टी से तपाकर एक ढाँचे में ढाल दिया जाएगा तो पीछे उसमें भिन्न प्रकार के परिवर्तन कर सकना सरल न रहेगा।
प्राचीनकाल में मस्तिष्कों की संभाल-सुधार-प्रक्रिया ऐसे लोग संपन्न करते थे, जिन्होंने अपने मस्तिष्क को इसके लिए समर्थ और प्रशिक्षित बना लिया हो। योग-साधना, तपश्चर्या, प्रगाढ़ तत्त्व, चिंतन एवं परमार्थपरायणता का आश्रय लेकर किसी भी उर्वर मस्तिष्क को इस योग्य बनाया जा सकता है कि वह अपने प्राण-प्रवाह से समीपवर्त्ती लोगों को सुचिंतन के लिए उत्तेजित कर सके और सद्भावनाओं से ओत-प्रोत गति के लिए बाध्य कर सके। प्राचीनकाल के ऋषि-मुनि यही कार्य करते थे। अब उसे विज्ञानवेत्ता यंत्र-उपकरण के माध्यम से, विद्युत-विकरण द्वारा कार्यांवित करने के लिए प्रयत्नशील हैं।
टैक्सस विश्वविद्यालय के रावर्ट थाम्सन और जेम्स मैक कौनेल वैज्ञानिकों ने प्लेनेरिया नामक जीव पर परीक्षण करके यह सिद्ध किया कि विद्युत उपकरणों की सहायता से मस्तिष्कीय क्षमता को घटाया और बढ़ाया जा सकता है। कैलीफोनिया विश्वविद्यालय के डा. एलन जेकवसन ने प्रशिक्षित चूहों के मस्तिष्क में से 'आर. एन. ए.' रसायन निकालकर अनाड़ी चूहों के मस्तिष्क में पहुँचाया तो अनाड़ी भी प्रशिक्षितों की तरह बुद्धिमान बन गए।
बुढ़ापे के साथ घटती स्मरणशक्ति की रोक-थाम करने के लिए अभी-अभी मैग्नीशियम पेमोलिन (माइलर्ट) नामक औषधि बाजार में आई है। साथ ही यह प्रयास भी जारी है कि कोई विचार मस्तिष्क पर बेतरह सवार हो गया हो तो उसे किस प्रकार भुलाया जाए। स्मृतियाँ भी यदि धुंधली न पड़े और आरंभकाल की तरह आगे भी सतेज बनी रहें तो समझना चाहिए कि एक सप्ताह में ही वह पागल हो जाएगा। मृत्युशोक जैसे आघात अपनी तीव्र स्थिति में कुछ मिनट ही रहते हैं, उसके बाद वे धुँधले और सह्य बनते जाते हैं, पर यदि वे यथावत् बने रहें तो मस्तिष्कीय चेतना को पक्षाघात ही मार जाएगा। उत्तेजित स्थिति की भाँति ही स्मृति की प्रखरता भी एक विपत्ति है, उसे यथास्थिति धूमिल करना भी अपेक्षित होता है। ऐसे रोगियों के लिए भुलाने की दवाएँ ईजाद की गई हैं।
मिशीवान विश्वविद्यालय के डा. वार्ड एग्रानोफ ने सुनहरी मछलियों पर यह प्रयोग किया कि उन्हें यदि भोजन के बाद प्यूरोमाइसिन नामक औषधि खिला दी जाए तो वे यह भूल जाती हैं कि वे भोजन कर चुकीं। कुछ कुत्तों को स्मृतिनाशक दवा खिलाई गई तो वे अपने घर और उस मालिक को भी भूल गए, जिसे वे बहुत प्यार करते थे। यह प्रयोग अभी मनुष्यों पर एक सीमा तक ही सफल न हुए हैं और दवा का असर रहने तक ही कारगर रहते हैं, पर सोचा यह भी जा रहा है कि किन्हीं प्रियजनों की मृत्यु, अपमानजनक घटना, शत्रुता या भयंकर क्षति की वित्त को विक्षुब्ध करते रहने वाली दुःखद घटनाओं को स्थाई रूप से विस्मृत कराने के लिए मस्तिष्क के उस भाग को मूर्छित कर दिया जाए, जहाँ वे जमकर बैठी हुई हों। इसी प्रकार मंदबुद्धि लोगों के लिए स्मरणशक्ति बढ़ाने के उपाय औपधि जगत में खोजे जा रहे हैं, यदि यह सफल हो सके तो छात्रों को पाठ याद करने के श्रम से छुटकारा मिल जाएगा और वे एक बार पुस्तक पढ़कर ही परीक्षा भवन में पूरे उत्साह और विश्वास के साथ प्रवेश कर सकेंगे।
खाद्य पदार्थ केवल रक्त-माँस ही नहीं बनाते, उनका सूक्ष्म अंश मस्तिष्कीय चेतना में रुझान भी उत्पन्न करता है। खाद्य पदार्थों की सतोगुणी, रजोगुणी, तमोगुणी प्रकृति का निर्धारण इसी आधार पर हुआ है कि अंततः मानवी चेतना पर उनका भावनात्मक प्रभाव क्या पड़ता है और वे चिंतन के प्रवाह को किस दिशा में मोड़ते हैं। दैनिक खाद्य पदार्थों में भक्ष्य-अभक्ष्य का विभेद भारत में इसी दृष्टि से होता रहा है। इसके अतिरिक्त यज्ञचरु, पंचामृत, सोमरस, ब्रह्मकल्प सरीखे देवहव्य भी विनिर्मित करने की प्रक्रिया भी धार्मिक कर्मकांडों के साथ संपन्न की जाती रही है, जिसका सेवन करने से मनुष्य को प्रकृति में भरे हुए दोष-दुगुणों का निष्कासन और सद्भाव-अभिवर्द्धन का उद्देश्य पूरा हो सके। देवप्रसाद वितरण के पीछे यही प्रयोजन सन्निहित है। खाद्य पदार्थों की मूलभूत सूक्ष्म सात्विकता के साथ-साथ यदि उन में मंत्रविधान एवं आत्मबल समन्वय का अन्य उपाय जोड़ दिया जाए तो वे देवहव्य भी वांछनीय विचार परिवर्तन संपन्न कर सकते हैं। मस्तिष्कीय चिकित्सा की यह अनोखी लगने वाली पद्धति प्राचीनकाल में बहुप्रचलित रही है और योगी-तपस्वियों द्वारा उसका लाभ असंख्य जनसमूह को दिया जाता रहा है।
मस्तिष्क को उद्दीप्त करने के लिए रसायनों के प्रयोग की परंपरा बहुत पुरानी है। सोमरस से लेकर मदिरा आसव, ब्राह्मी, गाँजा, चरस, भांग, अफीम, तमाखू, चाय, काफी से लेकर अब एल. एस. डी. तक की विविध मादक-प्रक्रियाओं का यही आधार है। अब मानसिक उद्दीपन को शांत और शिथिल करने के भी रासायनिक उपाय ढूँढ लिए गए हैं। ट्रक्विलाइजरों से केमिस्टों की दुकानें भरी पड़ी हैं। उनकी बिक्री दिन-दिन जिस तेजी से बढ़ रही है, उसे देखते हुए लगता है कि वे औषधियाँ एक अपरिहार्य आवश्यकता बनने जा रही हैं।
राकलेण्ड स्टेट हॉस्पिटल न्यूयार्क के डॉ. नाचान क्लाइन ने सर्पगंधा बूटी से 'एजिमेलिन' नामक रसायन निकाला था। इससे उद्दीप्त मस्तिष्क को शांत करने में बहुत सफलता मिली। पीछे इस रसायन को और भी परिष्कृत करके पिप्राडोल, क्लोर प्रोमेजीन, मेप्रोवोमेट जैसी दवाओं का तांता बँध गया। अब इन शामक रसायनों के सहारे मष्तिष्क पर छाई चिंता, भय, उद्वेग, आवेश जैसी परेशानियों को एक गोली के साथ गले से नीचे उतारा जा सकता है और आराम के साथ चैन की नींद सोया जा सकता है। पूर्वकाल में दुःख-उद्वेगों से संतप्त लोग वैराग्य धारण करते थे और तप करके वनवासी बनते थे; भजन, पूजन करते थे। अब यह सारी आवश्यकता 'ट्रेंक्विलाइजर' की शामक गोलियाँ आसानी से पूरी कर सकती हैं। हो सकता है अगले दिनों झगड़ालू पतियों की पत्नियाँ चाय के साथ जरा-सा शामक रसायन खिलाकर उनकी बक-झक से पीछा छुड़ा लिया करें।
शरीरशास्त्रियों के विश्लेषण के अनुसार क्रोध, आवेश, चिड़चिड़ापन और विक्षोभ एक प्रकार का शारीरिक रोग है, जो यूरिक ऐसिड की मात्रा बढ़ जाने के कारण उत्पन्न होता है। सीगामिलर, रीजेन ब्लूम, केली आदि वैज्ञानिकों के कथनानुसार क्रोधी मनुष्यों में बढ़े हुए यूरिक ऐसिड का कारण एक हाइपोजैन्थिन ग्वागिन फोस्फोराइवोसिल ट्रान्सफरेस नामक ऐंजाइन की कमी पड़ जाना है। यह रसायन अक्सर पुरुषों में अधिक घट जाता है। स्त्रियों में इसकी उतनी कमी नहीं पड़ती। यही कारण है कि महिलाओं की अपेक्षा पुरुष अधिक क्रोधी और चिड़चिड़े पाए जाते हैं। यदि यह ऐंजाइम शरीर में प्रविष्ट कराया जा सके तो यूरिक ऐसिड की मात्रा घट सकती है और क्रोधी स्वभाव का मनुष्य हँसमुख बन सकता है।
सिर में चोट लगने से स्मृति गायब हो जाने की अथवा अनिद्रा, मंदबुद्धि जैसे संकट उत्पन्न— उठ खड़े होने की घटनाएँ घटित होती रहती हैं। किसी प्रकार, किसी विशिष्ट विद्युत आघात से कालिदास जैसे मंदबुद्धि अत्यंत प्रखर, कुशाग्र बुद्धि प्राप्त कर सकते हैं।
आदमी का सिर एक प्रकार का जादुई भंडार है। इसमें इतनी जानकारियाँ भरी रहती हैं कि यदि किसी मानवकृत कंप्यूटर में उतना ज्ञान संग्रह किया जाए तो धरती के क्षेत्रफल जितने चुंबकीय टैप की उसमें आवश्यकता पड़ेगी, किंतु इसे उभारना, उत्तेजित करना डी. एन. ए. (डी-ऑक्सीराइबो न्यूक्लिक ऐसिड) के या आर. एन. ए. (राइबो न्यूक्लिक ऐसिड) के एक इंजेक्शन से ही संभव हो सकता है। स्वीडन के गोडेनवर्ग युनिवर्सिटी के प्राध्यापक होलगर हाइडेन ने यह सिद्ध किया है कि मानवी मस्तिष्क की स्थिति पत्थर की लकीर नहीं है, उसकी क्षमता को रासायनिक पदार्थों की सहायता से घटाया-बढ़ाया और सुधारा-बिगाड़ा जा सकता है।
मानवी मस्तिष्क की मोड़-तोड़ करने के लिए भौतिकी ऊर्जा-प्रवाह का उपयोग करने के खतरे समझे जाने चाहिए। चेतन के ऊपर जड़ का आधिपत्य जमाने का प्रयोजन यदि सफल हो गया तो देर-सबेर में वह खतरा ही सामने आएगा, जिसमें सत्ता के लालची सारी विश्वचेतना को अपनी मानसिक दासता में जकड़ लें। जिनके अंतःकरण आज आदि से अंत तक भौतिकवादी स्वार्थपरता में निमग्न हैं, वे इसी परिधि में सोचेंगे और इसी प्रकार के कदम बढ़ाएँगे। मस्तिष्कीय चेतना पर नियंत्रण करने की सफलता अंततः मानवी सभ्यता के उत्कर्ष भाग को हनन ही करेगी, इसलिए इस प्रयोग को उसी स्तर पर विकसित किया जाना चाहिए, जिस प्रकार कि प्राचीनकाल में किया जाता रहा है। कुछ मनस्वी लोग अपने मस्तिष्क और व्यक्तित्व को ही ऐसा संयंत्र बनाएँ, जिसमें लोक-मानस को उत्कृष्टता की दिशा में मोड़ने की क्षमता भरी हुई हो। मस्तिष्कीय नियंत्रण पर व्यापक सफलता यदि प्राप्त करनी ही है तो वह आत्मविज्ञानियों द्वारा उपलब्ध की जानी चाहिए।
शरीर-रचना, स्वास्थ्य-संवर्द्धन एवं चिकित्सा-क्षेत्रों की खोजों के फलस्वरूप इतना ही हो सकता है कि काया को मजबूत, निरोग और दीर्घजीवी बनाया जा सके, पर यह कोई बड़ी बात नहीं है। अपितु इस सफलता के साथ-साथ एक विपत्ति भी सामने आ खड़ी होगी। प्रजननक्रम रुका नहीं तो इस सफलता के साथ-साथ वंशवृद्धि की गति बढ़ेगी। देर से मरने वाले लोग नवागतों की जगह घेरे रहेंगे और बढ़ती आबादी से ऐसे नए संकट उत्पन्न होंगे, जिन्हें देखते हुए कमजोरी, बीमारी से भरे दिन ही याद रहेंगे और वे ही अतीत की स्मृति के साथ सराहे जाने लगेंगे।
शरीर नहीं, मानव जीवन का सार उसके मस्तिष्क में सन्निहित है। बौद्धिक दृष्टि से जो जैसा है, उसे उसी स्तर का नापा, आँका जाएगा। अगले दिनों विज्ञान की शोधें मानवी मानसिक स्थिति पर नियंत्रण स्थापित कर सकने में सफल होंगी तो कोई अपनी इच्छानुसार सोच नहीं सकेगा। उसे वहीं सोना पड़ेगा, जिसके लिए उसे वैज्ञानिक दबाव ने बाध्य किया है।
इलेक्ट्रिकल स्टीक्यूलेशन आफ ब्रेन (ई. एस. वी.) पद्धति के अनुसार, कई एशियन विश्वविद्यालयों ने आंशिक रूप से मस्तिष्क की धुलाई (ब्रेन वाशिंग) में सफलता प्राप्त कर ली है। अभी यह बंदर, कुत्ते, बिल्ली, खरगोश, चूहे जैसे छोटे स्तर के जीवों पर ही प्रयोग किए गए हैं। आहार की रुचि, शत्रुता, मित्रता, भय, आक्रमण आदि के सामान्य स्वभाव की जिन परिस्थितियों में, जिस प्रकार चरितार्थ किया जाना चाहिए। उसे वे बिलकुल भूल जाते हैं और विचित्र प्रकार का आचरण करते हैं। बिल्ली के सामने चूहा छोड़ा गया तो वह आक्रमण करना तो दूर उससे डरकर एक कोने में जा छिपी। क्षणभर में एकदूसरे पर खूनी आक्रमण करना, एक-आधे मिनट बाद परस्पर लिपटकर प्यार करना, यह परिवर्तन उस विद्युत-क्रिया से होता है, जो उनके मस्तिष्कीय कोषों के साथ संबद्ध रहती है। यही बात मनुष्यों पर भी लागू हो सकती है। मानव मस्तिष्क अपेक्षाकृत अधिक परिष्कृत होता है, उसमें प्रतिरोधक शक्ति भी अधिक होती है, इसलिए उसमें हेर-फेर करने के लिए प्रयास भी कुछ अधिक करने पड़ेंगे और पूर्ण सफलता प्राप्त करने में देर भी लगेगी; पर जो सिद्धांत स्पष्ट हो गए हैं, उनके आधार पर यह निश्चित हो गया है कि मनुष्य को भी, जैसा चाहे सोचने, मान्यता बनाने और गतिविधियाँ अपनाने के लिए विवश किया जा सकता है। निर्धारित रसायन तत्त्वों को पानी में घोलकर पिलाया जाता रहे तो किसी तानाशाह शासक की इच्छानुकूल समस्त प्रजा बन सकती है। फिर विचार-प्रसार की आवश्यकता न रहेगी; वरन अन्न, जल, औषधि आदि के माध्यम से कुछ रसायन भर लोगों के शरीर में पहुँचाने की आवश्यकता पड़ेगी। वे मस्तिष्क में पहुँचकर वैसा ही परिवर्तन कर देंगे जैसा वैज्ञानिकों या शासकों को अभीष्ट होगा, तब घोर अभावग्रस्त स्थिति में भी जनता अपने को रामराज्य जैसी सुखद स्थिति में अनुभव करती रह सकती है। यदि लड़ाकू पीढ़ी बनानी हो तो उस देश का हर नागरिक दूसरे देशों पर आक्रमण करने के लिए आतुर हो सकता है।
चाहे हम सो रहे हों या जग रहे हों, हर समय तीन पौंड भारी मस्तिष्क, मेरुदंड एवं लगभग दस अरब तंत्रिकाओं द्वारा देह की समस्त क्रियाओं का नियंत्रण एवं संचालन करता रहता है। उसे करीब 20 वाट विद्युत ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है, जो ग्लूकोज एवं ऑक्सिजन से प्राप्त होती है।
वैज्ञानिकों की दृष्टि में हर विचार, हर आकांक्षा और हर अनुभूति एक विद्युत हलचल अथवा रासायनिक-प्रक्रिया है। इस क्रियाकलाप को इलेक्ट्रो एनसिफेलो ग्राफ ( ई. सी. जी.) यंत्र द्वारा जाना जा सकता है और यह समझा जा सकता है कि मस्तिष्क में किस स्तर की विचारधारा प्रवाहित हो रही है।
इन दिनों विज्ञानवेत्ता मानवी मस्तिष्क पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए जिन शोधों में संलग्न हैं, जिन आविष्कारों को प्रत्यक्ष करने एवं जिन उपकरणों को विनिर्मित करने में प्रयत्नशील हैं, वे काफी जटिल हैं। उनमें यह आशंका भी है, यदि यह नियंत्रण प्रयास त्रुटिपूर्ण रह गया तो जिस पर प्रयोग किया गया है, वह मानवी सभ्यता से भिन्न किसी देवी-दानवी स्तर को अपनाकर स्वयं विचित्र सिद्ध हो सकता है और विचित्र परिस्थितियाँ उत्पन्न कर सकता है। इस आशंका से किस प्रकार बचा जाए, यह पहेली शोधकर्त्ताओं को बेतरह हैरान किए हुए है।
यदि उनके आविष्कार एक बार कोई असाधारण विद्युत तरंग व्यापक क्षेत्र में फैलाकर लोगों की विचारशैली को किसी विशेष दिशा में मोड़ दें, मस्तिष्कीय संरचना एवं प्रवाह-प्रक्रिया में हेर-फेर उत्पन्न कर दें तो फिर उनका प्रभाव वंशपरंपरा बनकर पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता ही चला जाएगा। एक बार सरल संरचना को किसी बड़े झटके से मोड़ा-तोड़ा जा सकता है, पर बार-बार यह प्रयोग सफल नहीं होगा। गीली लकड़ी को एक बार मोड़कर किसी खास शकल का बनाया जा सकता है, पर जब वह उस स्थिति में मजबूत हो जाए तो बार-बार मोड़ना संभव न होगा। मस्तिष्कीय संरचना प्रकृति-प्रदत्त क्रम के अनुसार गीली लकड़ी की तरह है, पर पीछे जब उसे रेडियो सक्रिय ऊर्जा की भट्टी से तपाकर एक ढाँचे में ढाल दिया जाएगा तो पीछे उसमें भिन्न प्रकार के परिवर्तन कर सकना सरल न रहेगा।
प्राचीनकाल में मस्तिष्कों की संभाल-सुधार-प्रक्रिया ऐसे लोग संपन्न करते थे, जिन्होंने अपने मस्तिष्क को इसके लिए समर्थ और प्रशिक्षित बना लिया हो। योग-साधना, तपश्चर्या, प्रगाढ़ तत्त्व, चिंतन एवं परमार्थपरायणता का आश्रय लेकर किसी भी उर्वर मस्तिष्क को इस योग्य बनाया जा सकता है कि वह अपने प्राण-प्रवाह से समीपवर्त्ती लोगों को सुचिंतन के लिए उत्तेजित कर सके और सद्भावनाओं से ओत-प्रोत गति के लिए बाध्य कर सके। प्राचीनकाल के ऋषि-मुनि यही कार्य करते थे। अब उसे विज्ञानवेत्ता यंत्र-उपकरण के माध्यम से, विद्युत-विकरण द्वारा कार्यांवित करने के लिए प्रयत्नशील हैं।
टैक्सस विश्वविद्यालय के रावर्ट थाम्सन और जेम्स मैक कौनेल वैज्ञानिकों ने प्लेनेरिया नामक जीव पर परीक्षण करके यह सिद्ध किया कि विद्युत उपकरणों की सहायता से मस्तिष्कीय क्षमता को घटाया और बढ़ाया जा सकता है। कैलीफोनिया विश्वविद्यालय के डा. एलन जेकवसन ने प्रशिक्षित चूहों के मस्तिष्क में से 'आर. एन. ए.' रसायन निकालकर अनाड़ी चूहों के मस्तिष्क में पहुँचाया तो अनाड़ी भी प्रशिक्षितों की तरह बुद्धिमान बन गए।
बुढ़ापे के साथ घटती स्मरणशक्ति की रोक-थाम करने के लिए अभी-अभी मैग्नीशियम पेमोलिन (माइलर्ट) नामक औषधि बाजार में आई है। साथ ही यह प्रयास भी जारी है कि कोई विचार मस्तिष्क पर बेतरह सवार हो गया हो तो उसे किस प्रकार भुलाया जाए। स्मृतियाँ भी यदि धुंधली न पड़े और आरंभकाल की तरह आगे भी सतेज बनी रहें तो समझना चाहिए कि एक सप्ताह में ही वह पागल हो जाएगा। मृत्युशोक जैसे आघात अपनी तीव्र स्थिति में कुछ मिनट ही रहते हैं, उसके बाद वे धुँधले और सह्य बनते जाते हैं, पर यदि वे यथावत् बने रहें तो मस्तिष्कीय चेतना को पक्षाघात ही मार जाएगा। उत्तेजित स्थिति की भाँति ही स्मृति की प्रखरता भी एक विपत्ति है, उसे यथास्थिति धूमिल करना भी अपेक्षित होता है। ऐसे रोगियों के लिए भुलाने की दवाएँ ईजाद की गई हैं।
मिशीवान विश्वविद्यालय के डा. वार्ड एग्रानोफ ने सुनहरी मछलियों पर यह प्रयोग किया कि उन्हें यदि भोजन के बाद प्यूरोमाइसिन नामक औषधि खिला दी जाए तो वे यह भूल जाती हैं कि वे भोजन कर चुकीं। कुछ कुत्तों को स्मृतिनाशक दवा खिलाई गई तो वे अपने घर और उस मालिक को भी भूल गए, जिसे वे बहुत प्यार करते थे। यह प्रयोग अभी मनुष्यों पर एक सीमा तक ही सफल न हुए हैं और दवा का असर रहने तक ही कारगर रहते हैं, पर सोचा यह भी जा रहा है कि किन्हीं प्रियजनों की मृत्यु, अपमानजनक घटना, शत्रुता या भयंकर क्षति की वित्त को विक्षुब्ध करते रहने वाली दुःखद घटनाओं को स्थाई रूप से विस्मृत कराने के लिए मस्तिष्क के उस भाग को मूर्छित कर दिया जाए, जहाँ वे जमकर बैठी हुई हों। इसी प्रकार मंदबुद्धि लोगों के लिए स्मरणशक्ति बढ़ाने के उपाय औपधि जगत में खोजे जा रहे हैं, यदि यह सफल हो सके तो छात्रों को पाठ याद करने के श्रम से छुटकारा मिल जाएगा और वे एक बार पुस्तक पढ़कर ही परीक्षा भवन में पूरे उत्साह और विश्वास के साथ प्रवेश कर सकेंगे।
खाद्य पदार्थ केवल रक्त-माँस ही नहीं बनाते, उनका सूक्ष्म अंश मस्तिष्कीय चेतना में रुझान भी उत्पन्न करता है। खाद्य पदार्थों की सतोगुणी, रजोगुणी, तमोगुणी प्रकृति का निर्धारण इसी आधार पर हुआ है कि अंततः मानवी चेतना पर उनका भावनात्मक प्रभाव क्या पड़ता है और वे चिंतन के प्रवाह को किस दिशा में मोड़ते हैं। दैनिक खाद्य पदार्थों में भक्ष्य-अभक्ष्य का विभेद भारत में इसी दृष्टि से होता रहा है। इसके अतिरिक्त यज्ञचरु, पंचामृत, सोमरस, ब्रह्मकल्प सरीखे देवहव्य भी विनिर्मित करने की प्रक्रिया भी धार्मिक कर्मकांडों के साथ संपन्न की जाती रही है, जिसका सेवन करने से मनुष्य को प्रकृति में भरे हुए दोष-दुगुणों का निष्कासन और सद्भाव-अभिवर्द्धन का उद्देश्य पूरा हो सके। देवप्रसाद वितरण के पीछे यही प्रयोजन सन्निहित है। खाद्य पदार्थों की मूलभूत सूक्ष्म सात्विकता के साथ-साथ यदि उन में मंत्रविधान एवं आत्मबल समन्वय का अन्य उपाय जोड़ दिया जाए तो वे देवहव्य भी वांछनीय विचार परिवर्तन संपन्न कर सकते हैं। मस्तिष्कीय चिकित्सा की यह अनोखी लगने वाली पद्धति प्राचीनकाल में बहुप्रचलित रही है और योगी-तपस्वियों द्वारा उसका लाभ असंख्य जनसमूह को दिया जाता रहा है।
मस्तिष्क को उद्दीप्त करने के लिए रसायनों के प्रयोग की परंपरा बहुत पुरानी है। सोमरस से लेकर मदिरा आसव, ब्राह्मी, गाँजा, चरस, भांग, अफीम, तमाखू, चाय, काफी से लेकर अब एल. एस. डी. तक की विविध मादक-प्रक्रियाओं का यही आधार है। अब मानसिक उद्दीपन को शांत और शिथिल करने के भी रासायनिक उपाय ढूँढ लिए गए हैं। ट्रक्विलाइजरों से केमिस्टों की दुकानें भरी पड़ी हैं। उनकी बिक्री दिन-दिन जिस तेजी से बढ़ रही है, उसे देखते हुए लगता है कि वे औषधियाँ एक अपरिहार्य आवश्यकता बनने जा रही हैं।
राकलेण्ड स्टेट हॉस्पिटल न्यूयार्क के डॉ. नाचान क्लाइन ने सर्पगंधा बूटी से 'एजिमेलिन' नामक रसायन निकाला था। इससे उद्दीप्त मस्तिष्क को शांत करने में बहुत सफलता मिली। पीछे इस रसायन को और भी परिष्कृत करके पिप्राडोल, क्लोर प्रोमेजीन, मेप्रोवोमेट जैसी दवाओं का तांता बँध गया। अब इन शामक रसायनों के सहारे मष्तिष्क पर छाई चिंता, भय, उद्वेग, आवेश जैसी परेशानियों को एक गोली के साथ गले से नीचे उतारा जा सकता है और आराम के साथ चैन की नींद सोया जा सकता है। पूर्वकाल में दुःख-उद्वेगों से संतप्त लोग वैराग्य धारण करते थे और तप करके वनवासी बनते थे; भजन, पूजन करते थे। अब यह सारी आवश्यकता 'ट्रेंक्विलाइजर' की शामक गोलियाँ आसानी से पूरी कर सकती हैं। हो सकता है अगले दिनों झगड़ालू पतियों की पत्नियाँ चाय के साथ जरा-सा शामक रसायन खिलाकर उनकी बक-झक से पीछा छुड़ा लिया करें।
शरीरशास्त्रियों के विश्लेषण के अनुसार क्रोध, आवेश, चिड़चिड़ापन और विक्षोभ एक प्रकार का शारीरिक रोग है, जो यूरिक ऐसिड की मात्रा बढ़ जाने के कारण उत्पन्न होता है। सीगामिलर, रीजेन ब्लूम, केली आदि वैज्ञानिकों के कथनानुसार क्रोधी मनुष्यों में बढ़े हुए यूरिक ऐसिड का कारण एक हाइपोजैन्थिन ग्वागिन फोस्फोराइवोसिल ट्रान्सफरेस नामक ऐंजाइन की कमी पड़ जाना है। यह रसायन अक्सर पुरुषों में अधिक घट जाता है। स्त्रियों में इसकी उतनी कमी नहीं पड़ती। यही कारण है कि महिलाओं की अपेक्षा पुरुष अधिक क्रोधी और चिड़चिड़े पाए जाते हैं। यदि यह ऐंजाइम शरीर में प्रविष्ट कराया जा सके तो यूरिक ऐसिड की मात्रा घट सकती है और क्रोधी स्वभाव का मनुष्य हँसमुख बन सकता है।
सिर में चोट लगने से स्मृति गायब हो जाने की अथवा अनिद्रा, मंदबुद्धि जैसे संकट उत्पन्न— उठ खड़े होने की घटनाएँ घटित होती रहती हैं। किसी प्रकार, किसी विशिष्ट विद्युत आघात से कालिदास जैसे मंदबुद्धि अत्यंत प्रखर, कुशाग्र बुद्धि प्राप्त कर सकते हैं।
आदमी का सिर एक प्रकार का जादुई भंडार है। इसमें इतनी जानकारियाँ भरी रहती हैं कि यदि किसी मानवकृत कंप्यूटर में उतना ज्ञान संग्रह किया जाए तो धरती के क्षेत्रफल जितने चुंबकीय टैप की उसमें आवश्यकता पड़ेगी, किंतु इसे उभारना, उत्तेजित करना डी. एन. ए. (डी-ऑक्सीराइबो न्यूक्लिक ऐसिड) के या आर. एन. ए. (राइबो न्यूक्लिक ऐसिड) के एक इंजेक्शन से ही संभव हो सकता है। स्वीडन के गोडेनवर्ग युनिवर्सिटी के प्राध्यापक होलगर हाइडेन ने यह सिद्ध किया है कि मानवी मस्तिष्क की स्थिति पत्थर की लकीर नहीं है, उसकी क्षमता को रासायनिक पदार्थों की सहायता से घटाया-बढ़ाया और सुधारा-बिगाड़ा जा सकता है।
मानवी मस्तिष्क की मोड़-तोड़ करने के लिए भौतिकी ऊर्जा-प्रवाह का उपयोग करने के खतरे समझे जाने चाहिए। चेतन के ऊपर जड़ का आधिपत्य जमाने का प्रयोजन यदि सफल हो गया तो देर-सबेर में वह खतरा ही सामने आएगा, जिसमें सत्ता के लालची सारी विश्वचेतना को अपनी मानसिक दासता में जकड़ लें। जिनके अंतःकरण आज आदि से अंत तक भौतिकवादी स्वार्थपरता में निमग्न हैं, वे इसी परिधि में सोचेंगे और इसी प्रकार के कदम बढ़ाएँगे। मस्तिष्कीय चेतना पर नियंत्रण करने की सफलता अंततः मानवी सभ्यता के उत्कर्ष भाग को हनन ही करेगी, इसलिए इस प्रयोग को उसी स्तर पर विकसित किया जाना चाहिए, जिस प्रकार कि प्राचीनकाल में किया जाता रहा है। कुछ मनस्वी लोग अपने मस्तिष्क और व्यक्तित्व को ही ऐसा संयंत्र बनाएँ, जिसमें लोक-मानस को उत्कृष्टता की दिशा में मोड़ने की क्षमता भरी हुई हो। मस्तिष्कीय नियंत्रण पर व्यापक सफलता यदि प्राप्त करनी ही है तो वह आत्मविज्ञानियों द्वारा उपलब्ध की जानी चाहिए।