Magazine - Year 1973 - Version 2
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Language: HINDI
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एक पैसे का दान
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अंबे! आज मैंने सहस्र स्वर्णमुद्राओं का दान दिया है। सुन नहीं रहीं क्या? बाहर मेरी जय-जयकार हो रही है। मेरे इस पुण्य पर अवश्य ही दान शिरोमणि स्वर्गीय पिता प्रसन्न होंगे?
वृद्धा ने पुत्र चंद्रपीड़ की ओर पीड़ाभरी दृष्टि डाली और पुन: आरण्यक के स्वाध्याय में लीन हो गई। पुत्र को माँ की यह उपेक्षा अखरी तो, पर वह अपनी अप्रसन्नता अपने अंदर ही दबाकर चुपचाप वहाँ से चला गया।
चंद्रपीड़ ने दूसरे दिन प्रातःकाल होते ही निःशुल्क भोजनशाला प्रारंभ करने की घोषणा की। द्वारावती से अनेक नर-नारी प्रातःकाल से अन्नपूर्णा पहुँचने लगे। पाकशाला में हर किसी के लिए इच्छित रस और खाद वाले व्यंजन प्राप्त करने की पूर्ण व्यवस्था थी। सायंकाल तक की गणना के अनुसार सात सहस्र अभ्यागतों ने अन्नपूर्णा में भोजन ग्रहण किया, सहस्र स्वर्णमुद्राओं का खरच आया। चंद्रपीड़ ने सोचा आज माँ अवश्य प्रसन्न होंगी। घर पहुँचा, उस समय उसे देखकर ही यह बताया जा सकता था कि उसमें किसी बड़ी सिद्धि का अहंकार व्याप्त हो रहा है।
जननी! चंद्रपीड़ ने उच्च स्वर में कहा— “आपने सुना होगा आज चंद्रपीड़ ने सात सहस्र अभ्यागतों का सुरुचिपूर्ण व्यंजनों से सत्कार किया है। द्वारावती के घर-घर में यही चर्चा गूँज रही है कि चंद्रपीड़ के समान और कोई भी दानी इस दुनिया में नहीं रहा। आज तो मेरे स्वर्गीय पिता अवश्य ही प्रसन्न होंगे।”
वृद्धा की आँखों में कहीं भी खुशी का भाव नहीं था। अन्यमनस्क भाव से वह उठी और अपने स्वाध्याय-सदन में प्रविष्ट होकर अध्ययन में तल्लीन हो गई। चंद्रपीड़ अंतपीड़ा से कराह उठा। माँ का रूखापन उसे अच्छा नहीं लगा तथा उसने कहा— “कुछ नहीं।” विचार-मंथन के सागर में डूब गया, चंद्रपीड़ और उसी स्थिति में उसे कब निद्रा आ गई पता भी नहीं चला।
सवेरा हुआ, चंद्रपीड़ के द्वार पर भारी भीड़ जमा है, लोग तरह-तरह की याचनाएँ लेकर पहुँच रहे हैं। चंद्रपीड़ उन सबकी बातें सुन-सुनकर किसी को अन्न दे रहा है, किसी को वस्त्र, किसी को उसने गौवें दान दी, किसी को स्वर्णमुद्राएँ। यही क्रम अर्निशि चलता रहा तो भी उसे माँ से प्रशंसा का एक शब्द भी सुनने को नहीं मिला।
चंद्रपीड़ मर्माहत हो उठा। उसने द्वारावती का संपूर्ण वाणिज्य अपने भाइयों में वितरण कर दिया। शरीर में आवेष्ठित वस्त्रों को छोड़कर अपने लिए उसने कुछ भी नहीं लिया। इसी स्थिति में वह घर से निकल पड़ा और कई दिन तक भूखा-प्यासा रहकर वह राजगृही जा पहुँचा।
जीवन रक्षा के लिए आज चंद्रपीड़ को चाकरी करनी पड़ी। प्रातः से सायंकाल तक कठोर परिश्रम करने के बाद उसे दो पैसे मिले। उन्हें लेकर वह अभी भोजन की तलाश में निकला ही था कि उसकी एक अपंग से भेंट हो गई। उस निर्धन को भी प्रातःकाल में अन्न नसीब नहीं हुआ था। चंद्रपीड़ ने मुट्ठी खोली, एक सिक्का उसके हाथ में दिया, एक से स्वयं लेकर अन्नाहार किया।
रात को जीवन भर में सर्वाधिक सुखद नींद आई। स्वप्न में उसने देखा, माँ उसके शीश पर बैठी आशीर्वाद दे रही है और कह रही है— “तात! दान का श्रेय यश नहीं, आत्मसंतोष है। परिश्रमपूर्वक कमाई का एक अंश निरहंकार भाव से केवल सत्पात्र को ही देने से दान की सार्थकता है, तुम्हारे पिता ने आजीवन यही किया।” चंद्रपीड़ माँ की अब तक की उपेक्षा का आशय समझ गया।
वृद्धा ने पुत्र चंद्रपीड़ की ओर पीड़ाभरी दृष्टि डाली और पुन: आरण्यक के स्वाध्याय में लीन हो गई। पुत्र को माँ की यह उपेक्षा अखरी तो, पर वह अपनी अप्रसन्नता अपने अंदर ही दबाकर चुपचाप वहाँ से चला गया।
चंद्रपीड़ ने दूसरे दिन प्रातःकाल होते ही निःशुल्क भोजनशाला प्रारंभ करने की घोषणा की। द्वारावती से अनेक नर-नारी प्रातःकाल से अन्नपूर्णा पहुँचने लगे। पाकशाला में हर किसी के लिए इच्छित रस और खाद वाले व्यंजन प्राप्त करने की पूर्ण व्यवस्था थी। सायंकाल तक की गणना के अनुसार सात सहस्र अभ्यागतों ने अन्नपूर्णा में भोजन ग्रहण किया, सहस्र स्वर्णमुद्राओं का खरच आया। चंद्रपीड़ ने सोचा आज माँ अवश्य प्रसन्न होंगी। घर पहुँचा, उस समय उसे देखकर ही यह बताया जा सकता था कि उसमें किसी बड़ी सिद्धि का अहंकार व्याप्त हो रहा है।
जननी! चंद्रपीड़ ने उच्च स्वर में कहा— “आपने सुना होगा आज चंद्रपीड़ ने सात सहस्र अभ्यागतों का सुरुचिपूर्ण व्यंजनों से सत्कार किया है। द्वारावती के घर-घर में यही चर्चा गूँज रही है कि चंद्रपीड़ के समान और कोई भी दानी इस दुनिया में नहीं रहा। आज तो मेरे स्वर्गीय पिता अवश्य ही प्रसन्न होंगे।”
वृद्धा की आँखों में कहीं भी खुशी का भाव नहीं था। अन्यमनस्क भाव से वह उठी और अपने स्वाध्याय-सदन में प्रविष्ट होकर अध्ययन में तल्लीन हो गई। चंद्रपीड़ अंतपीड़ा से कराह उठा। माँ का रूखापन उसे अच्छा नहीं लगा तथा उसने कहा— “कुछ नहीं।” विचार-मंथन के सागर में डूब गया, चंद्रपीड़ और उसी स्थिति में उसे कब निद्रा आ गई पता भी नहीं चला।
सवेरा हुआ, चंद्रपीड़ के द्वार पर भारी भीड़ जमा है, लोग तरह-तरह की याचनाएँ लेकर पहुँच रहे हैं। चंद्रपीड़ उन सबकी बातें सुन-सुनकर किसी को अन्न दे रहा है, किसी को वस्त्र, किसी को उसने गौवें दान दी, किसी को स्वर्णमुद्राएँ। यही क्रम अर्निशि चलता रहा तो भी उसे माँ से प्रशंसा का एक शब्द भी सुनने को नहीं मिला।
चंद्रपीड़ मर्माहत हो उठा। उसने द्वारावती का संपूर्ण वाणिज्य अपने भाइयों में वितरण कर दिया। शरीर में आवेष्ठित वस्त्रों को छोड़कर अपने लिए उसने कुछ भी नहीं लिया। इसी स्थिति में वह घर से निकल पड़ा और कई दिन तक भूखा-प्यासा रहकर वह राजगृही जा पहुँचा।
जीवन रक्षा के लिए आज चंद्रपीड़ को चाकरी करनी पड़ी। प्रातः से सायंकाल तक कठोर परिश्रम करने के बाद उसे दो पैसे मिले। उन्हें लेकर वह अभी भोजन की तलाश में निकला ही था कि उसकी एक अपंग से भेंट हो गई। उस निर्धन को भी प्रातःकाल में अन्न नसीब नहीं हुआ था। चंद्रपीड़ ने मुट्ठी खोली, एक सिक्का उसके हाथ में दिया, एक से स्वयं लेकर अन्नाहार किया।
रात को जीवन भर में सर्वाधिक सुखद नींद आई। स्वप्न में उसने देखा, माँ उसके शीश पर बैठी आशीर्वाद दे रही है और कह रही है— “तात! दान का श्रेय यश नहीं, आत्मसंतोष है। परिश्रमपूर्वक कमाई का एक अंश निरहंकार भाव से केवल सत्पात्र को ही देने से दान की सार्थकता है, तुम्हारे पिता ने आजीवन यही किया।” चंद्रपीड़ माँ की अब तक की उपेक्षा का आशय समझ गया।