Magazine - Year 1973 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
तनाव का परिणाम विस्फोट ही होता है
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
जीवन शांत और संतुलित परिस्थितियों में चलना चाहिए। प्रयत्न यह होना चाहिए कि अपने को परिस्थितियों के अनुकूल और परिस्थितियों को अपने अनुकूल ढाला जाए। तनाव, दबाव, आवेश और उत्तेजना की स्थिति से यथासंभव बचा जाए। मानसिक संतुलन यदि सही हो और दृष्टिकोण दूरदर्शितापूर्ण रखा जाए तो विपन्न दीखने वाली परिस्थितियों में भी वह मार्ग खोजा जा सकता है, जिस पर चलते हुए गुत्थियों को सुलझाया जाना संभव हो सके। हलका-फुलका जीवन भले ही अधिक संपन्नता और तथाकथित प्रगति की दृष्टि से कुछ कमजोर मालूम पड़े, पर आंतरिक शांति को देखते हुए वह सामान्य स्थिति की अपेक्षा अधिक श्रेयष्कर और संतोषजनक सिद्ध होता है। दवाब और तनाव न केवल मानव जीवन में; वरन पृथ्वी जैसी भारी-भरकम और स्वस्थ-संतुलित सत्ता में भी विस्फोट उत्पन्न करता है। पृथ्वी से ज्वालामुखी फुटते रहते हैं, भूकंप आते रहते हैं। इसका कारण या तो भीतर दबाव होता है या बाहरी। व्यक्ति विद्रोही बनता है, जब उस पर अत्यधिक दबाव पड़ता है। चींटी जैसे दुर्बल प्राणी को भी सताया जाए तो वह भी काटने पर उतारू हो जाती है। इस तथ्य को हमें ध्यान में ही रखकर चलना चाहिए कि न अपने भीतर उद्वेगों का तनाव उत्पन्न करें और न समाज में शोषण-उत्पीड़न, अन्याय-अत्याचार को अवांछनीय परिस्थितियाँ उत्पन्न होने दें, अन्यथा पृथ्वी से समय-समय पर फूटते रहने वाले भूकंपों तथा ज्वालामुखियों का पग-पग पर सामना करना पड़ेगा।
पृथ्वी की गहराइयों में पिघली हुई चट्टानें (मैग्मा), उसमें घुली हुई अतितप्त जलवाष्प जैसे तत्त्व भरे पड़े हैं। ऊपर की पृथ्वी का इन पर अत्यधिक दबाव रहता है; पर ताप का फैलाव भी बाहर फूटने के लिए जोर लगाता रहता है। जब कभी, जहाँ कहीं पृथ्वी के धरातल का दबाव कम हो जाता है, तभी वह तप्त वाष्पीय द्रव बाहर फूट पड़ता है और भीतर के पदार्थों को बाहर ले आता है। यह ज्वालामुखी फूटने का प्रधान कारण है। सोडा-वाटर की बोतल खोलने पर जिस तरह उसका झाग बाहर निकल पड़ता है, उस तरह भीतरी मैग्मा बाहर आकर 'लावा' के रूप में उड़ता, बिखरा, जमता देखा जाता है।
जिस प्रकार शरीर में कुछ नाड़ियाँ मोटी और कुछ बहुत पतली होती हैं, उसी प्रकार ज्वालामुखी विस्फोट के लिए भूगर्भ केंद्र से उभरने वाले बड़े और चौड़े मार्ग ज्वालामुखी उगलते हैं; पर कभी-कभी बहुत पतली नाड़ियाँ भी जहाँ रास्ता पाती हैं, वहाँ से घूमती-फिरती सुविधाजनक स्थान पर जा फूटती हैं। उनके दबाव से उस क्षेत्र का पानी भी फब्बारे की तरह ऊपर उभर आता है अथवा वे तप्त धाराएँ पहले से ही बहते हुए जल में मिल जाती हैं, यही हैं तप्त झरने। इनमें भूगर्भ से ऊपर आए हुए अनेक पदार्थ भी घुले रहते हैं। चाक, रेत, गंधक, फिटकरी आदि सामान्य वस्तुओं से लेकर जहरीले आर्सनिक तक उन स्रोतों में उभरकर आते हैं और इर्द-गिर्द जमा होते रहते हैं।
कुछ ज्वालामुखी केवल धुँआ देते हैं। इन्हें 'फ्युमेअर' कहते हैं। धुँए के इन उद्गारों में प्रायः 80 प्रतिशत जलवाष्प, 20 प्रतिशत कार्बन द्विओषिद, उपहरिकाम्ल जैसी वस्तुएँ पाई जाती हैं। इनका अधिकतम तापमान 650 डिग्री श० होता है। कोहे सुलतान (बिलोचिस्तान) का गंधकीय 'फ्युमेअर' प्रसिद्ध है। अलास्का में कातमी पर्वत के समीप फ्युमरोल क्षेत्र में इस प्रकार के छोटे-बड़े लगभग दस हजार धुँआरे हैं। जावा में कार्बन द्विओषिद से भरी ‘मृत्यु घाटी’ भी विख्यात है। अमेरिका में इन फ्युमरोली की अतितप्त वाष्प से विद्युत उत्पादन का लाभ भी उठाया जाता है। मिट्टी के तेल वाले क्षेत्रों में पंक ज्वालामुखी भी देखे जाते हैं, वे कभी गरम कभी ठंड होते हैं। उनकी उछाल 6 मीटर से 125 मीटर तक पाई जाती हैं। सिंध के दक्षिणी भाग, बर्मा की इरावती घाटी तथा अराकान तट पर कामरी एवं चेटुवा द्वीपों में इनकी बहुत बड़ी संख्या है।
मानव जीवन में तनाव से उत्पन्न विद्रोह तभी तक रुका रहता है, जब तक उसे फूटने का अवसर नहीं मिलता। पृथ्वी की अंतःव्यथा यह प्रतीक्षा करती रहती है कि कब और कहाँ खाली स्थान मिले और उसे तोड़कर किस प्रकार बाहर निकलें। आहार-विहार के असंयम से उत्पन्न शारीरिक अंतर्वेदनाएँ— जैसे ही अवसर मिलता है, रोगों के रूप में फूट पड़ती हैं। मानसिक घुटन का भी यही हाल है, जैसे ही स्थिति असह्य हो जाती है, मनुष्य ऐसे काम करने पर उतारू हो जाता है, जिन्हें दुःखद और दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जा सकता है। यह स्थिति न आने पाए, इसके लिए जो समय से पूर्व संतुलन बनाए रहने के लिए तत्पर रहते हैं, उन्हें इस प्रकार के विद्रोहात्मक विस्फोटों का सामना नहीं करना पड़ता।
अन्वेषक सेपर के अनुसार पृथ्वी पर क्रियाशील एवं महत्त्वपूर्ण ज्वालामुखियों की संख्या 430 है। इनमें से 275 उत्तरी गोलार्ध में और 155 दक्षिणी गोलार्ध में हैं। इनमें से भी अधिकांश समुद्रों में स्थित हैं। मृत ज्वालामुखियों की संख्या हजारों हैं। कुछ नए ज्वालामुखी समय-समय पर प्रकट होते रहते हैं।
कई बार तो ज्वालामुखी विस्फोटों के साथ शीतल समझे जाने वाले जलस्रोत भी विद्रोही हो उठते हैं। तनावजन्य विद्रोह पर न केवल गरम प्रकृति के लिए उतारू रहते हैं, पर कई बार शांत प्रकृति को आग उगलने के लिए बाध्य होना पड़ता है। तप्त जलकुंड और गरम पानी के फब्बारे इसी स्तर के होते हैं। वे शांति चाहते हैं, पर विवशताएँ उन्हें बाध्य करती रहती हैं, उसे अंतर्द्वंद्व में रुक-रुककर उबलने के रूप में देखा जा सकता है। कई गरम जल के फब्बारे अथवा ज्वालामुखी इसी प्रकार रुक-रुककर विस्फोट करते रहते हैं।
राजगीर (पटना), सीताकुंड (मुंगेर), वक्रेश्वर (वीरभूमि), मणिकर्ण (कुल्लू), ज्वालामुखी (काँगड़ा), ताता-पानी (पूंछ) के तप्त झरने प्रसिद्ध हैं।
‘गेसर’ झरने उन्हें कहते हैं जो फब्बारे की तरह जमीन में से ऊपर उछलते हैं। आश्चर्य यह है कि यह बीच-बीच में विश्राम करने के लिए शांत हो जाते हैं और इसके बाद फिर उभरते हैं तो उनकी उछाल-ऊँचाई यथापूर्व होती है। विश्राम का समय भी प्रायः नियमित होता है।
यलोस्टोन पार्क का प्रसिद्ध 'ओल्ड फेथफुल' गेसर 65 मिनट विश्राम लेकर उछलता है और उसकी ऊँचाई हर बार 150 फुट ही रहती है। अन्य गेसरों की विश्राम अवधि तथा ऊँचाईयाँ भिन्न-भिन्न होती हैं। न्यूजीलैंड का पोहुत गेसर भी इसी प्रकार का विश्वप्रसिद्ध है।
यह विद्रोह सदा हानिकारक ही नहीं होते। क्रांतियाँ यों विध्वंसक-विनाशक दीखती हैं, पर देखा यह भी गया है कि उस आँधी-तूफान ने बहुत-सा कूड़ा-करकट, झाड़-बुहारकर साफ कर दिया और उपयोगी परिस्थितियों का नवनिर्माण सामने आया। ज्वालामुखी यों प्रकटतः हानिकारक ही दीखते हैं और स्थानीय एवं सामयिक हानि भी उस तोड़-फोड़ से प्रत्यक्ष दीखती है, पर उसके साथ-साथ यह लाभ भी जुड़ा रहता है कि नए वातावरण में, नए प्रकार की उपलब्धियों का पथ-प्रशस्त हो।
ज्वालामुखी मनुष्य जीवन के लिए लाभदायक भी है और हानिकारक भी। ये हित-अहित करते ही रहते हैं। उनके विस्फोट से अपार धन, जनहानि होती है। उनकी राख तथा अनुर्वर वस्तुएँ बहुत- सी भूमि को निर्जीव बना देती हैं। वहाँ न जीव रह सकते हैं, न वनस्पति उग सकती है। विषैला धुँआ वायुमंडल को विषाक्त करता है। पंक ज्वालामुखियों की दलदल भी एक प्रकार के संकट ही हैं।
इसके साथ ही ज्वालामुखियों के सृजनात्मक लाभ भी हैं। पृथ्वी के गर्भ से पुष्ट उर्वर मिट्टी की विशाल मात्रा धरातल पर आने से सहस्रों वर्ग मील भूमि उपजाऊ बनती है। नैपिल्स की खाड़ी, विसुवियस ज्वालामुखी के कारण ही उर्वर बनी है और उस उपलब्धि के कारण सारा इलाका मालामाल हो गया, सघन आबादी बस गई है। वाशिंगटन एवं आरेगन लावा-पठार भी ऐसे ही उर्वर एवं घने ज्वालामुखियों की कृपा से ही बने हैं।
भूगर्भ के गहन अंतराल में छिपे हुए बहुमूल्य खनिज, जो खुदाई करने पर संभवतः कभी भी मनुष्य के हाथ न लगते, ज्वालामुखियों के कारण ही ऊपर आते हैं। लोहा, ताँबा, सीसा, गंधक, प्युमिस, सरीखी खनिज-संपदा ज्वालामुखी-विस्फोट की अंतरंग हलचल के कारण मीलों ऊपर उठ आती हैं, तब मनुष्य उन्हें आसानी से खोद निकाल सकता है। हीरा, पन्ना जैसे रत्न भूगर्भ के उच्च तापमान में ही बनते हैं और विस्फोटक हलचलों के कारण नीचे से ऊपर आते हैं।
भूगर्भ विस्फोटों के कारण छोटी-बड़ी झीलें भी बनती हैं, जिनका जल कितनी ही नदियों को जन्म देता है। समुद्र में जा गिरने वाले जल को रोककर प्राणियों के प्रयोजन में लगाने का काम झीलें ही करती हैं। उनसे प्रचुर आर्थिक लाभ होते हैं। इस प्रकार ज्वालामुखियों का यह झील-अनुदान भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है।
हमें आंतरिक और बाह्यजीवन में शांति की कामना और चेष्टा करनी चाहिए; पर साथ ही इसके लिए भी तैयार रहना चाहिए कि यह अनुचित तनाव और दबाव किसी भी क्षेत्र में बढ़ा तो विस्फोट और विद्रोह ही खड़ा होगा। भले ही उसका परिणाम हानिकारक हो या लाभदायक।
आज महासमुद्रों में डूबे भूखंड, हिमाच्छादित ध्रुवप्रदेश, कभी भरे-पूरे महादेश थे। आज जहाँ हिमालय की चोटियाँ हैं, वहाँ कभी 'टिथिम' महासागर लहराते थे। पृथ्वी के आदि स्वरूप से लेकर आज की स्थिति तक आने में जो विशाल परिवर्तन भूलोक में हुए हैं, उनके पीछे विशालकाय भूकंपों का ही हाथ है।
भूकंपों के चार कारण हैं— (1) पृथ्वी के बाह्य धरातल पर लगने वाले प्राकृतिक आघात, (2) भूगर्भ में ज्वालामुखियों का विस्फोट, (3) भू-रचनात्मक आघातों से उत्पन्न हलचलें, (4) मनुष्यकृत आघातों के कारण।
हिमाच्छादित पर्वत चोटियों के टूटकर गिरने से, समुद्रों में डूबे पर्वत-खंडो के टूटकर गिरने से, समुद्री तरंगों के तटों पर टकराने से, भूतल पर इतने प्रचंड वेग से आघात होते हैं कि पृथ्वी कंपित हो उठती है, इन्हें प्राकृतिक आघातों से उत्पन्न भूकंप कहते हैं।
ज्वालामुखियों के प्रचंड विस्फोट के आघात से पृथ्वी के अंतःभागों में शक्तिशाली कंपन उठते हैं और विस्फोटजन्य भूकंप उत्पन्न होते हैं।
शांति और संतुलन की तरह विद्रोह और विस्फोट भी अपनी जगह आवश्यक है। प्रकृति के गर्भ में इस प्रकार की परस्पर विरोधी हलचलें अकारण नहीं होतीं। उसके पीछे कुछ ठोस कारण रहते हैं। व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में भी शांति और अशांति देखी जाती है, इसके कारण हमें समझने चाहिए और उन कारणों के अनुरूप प्रतिक्रिया का सामना करने के लिए भी तैयार रहना चाहिए।
पृथ्वी की गहराइयों में पिघली हुई चट्टानें (मैग्मा), उसमें घुली हुई अतितप्त जलवाष्प जैसे तत्त्व भरे पड़े हैं। ऊपर की पृथ्वी का इन पर अत्यधिक दबाव रहता है; पर ताप का फैलाव भी बाहर फूटने के लिए जोर लगाता रहता है। जब कभी, जहाँ कहीं पृथ्वी के धरातल का दबाव कम हो जाता है, तभी वह तप्त वाष्पीय द्रव बाहर फूट पड़ता है और भीतर के पदार्थों को बाहर ले आता है। यह ज्वालामुखी फूटने का प्रधान कारण है। सोडा-वाटर की बोतल खोलने पर जिस तरह उसका झाग बाहर निकल पड़ता है, उस तरह भीतरी मैग्मा बाहर आकर 'लावा' के रूप में उड़ता, बिखरा, जमता देखा जाता है।
जिस प्रकार शरीर में कुछ नाड़ियाँ मोटी और कुछ बहुत पतली होती हैं, उसी प्रकार ज्वालामुखी विस्फोट के लिए भूगर्भ केंद्र से उभरने वाले बड़े और चौड़े मार्ग ज्वालामुखी उगलते हैं; पर कभी-कभी बहुत पतली नाड़ियाँ भी जहाँ रास्ता पाती हैं, वहाँ से घूमती-फिरती सुविधाजनक स्थान पर जा फूटती हैं। उनके दबाव से उस क्षेत्र का पानी भी फब्बारे की तरह ऊपर उभर आता है अथवा वे तप्त धाराएँ पहले से ही बहते हुए जल में मिल जाती हैं, यही हैं तप्त झरने। इनमें भूगर्भ से ऊपर आए हुए अनेक पदार्थ भी घुले रहते हैं। चाक, रेत, गंधक, फिटकरी आदि सामान्य वस्तुओं से लेकर जहरीले आर्सनिक तक उन स्रोतों में उभरकर आते हैं और इर्द-गिर्द जमा होते रहते हैं।
कुछ ज्वालामुखी केवल धुँआ देते हैं। इन्हें 'फ्युमेअर' कहते हैं। धुँए के इन उद्गारों में प्रायः 80 प्रतिशत जलवाष्प, 20 प्रतिशत कार्बन द्विओषिद, उपहरिकाम्ल जैसी वस्तुएँ पाई जाती हैं। इनका अधिकतम तापमान 650 डिग्री श० होता है। कोहे सुलतान (बिलोचिस्तान) का गंधकीय 'फ्युमेअर' प्रसिद्ध है। अलास्का में कातमी पर्वत के समीप फ्युमरोल क्षेत्र में इस प्रकार के छोटे-बड़े लगभग दस हजार धुँआरे हैं। जावा में कार्बन द्विओषिद से भरी ‘मृत्यु घाटी’ भी विख्यात है। अमेरिका में इन फ्युमरोली की अतितप्त वाष्प से विद्युत उत्पादन का लाभ भी उठाया जाता है। मिट्टी के तेल वाले क्षेत्रों में पंक ज्वालामुखी भी देखे जाते हैं, वे कभी गरम कभी ठंड होते हैं। उनकी उछाल 6 मीटर से 125 मीटर तक पाई जाती हैं। सिंध के दक्षिणी भाग, बर्मा की इरावती घाटी तथा अराकान तट पर कामरी एवं चेटुवा द्वीपों में इनकी बहुत बड़ी संख्या है।
मानव जीवन में तनाव से उत्पन्न विद्रोह तभी तक रुका रहता है, जब तक उसे फूटने का अवसर नहीं मिलता। पृथ्वी की अंतःव्यथा यह प्रतीक्षा करती रहती है कि कब और कहाँ खाली स्थान मिले और उसे तोड़कर किस प्रकार बाहर निकलें। आहार-विहार के असंयम से उत्पन्न शारीरिक अंतर्वेदनाएँ— जैसे ही अवसर मिलता है, रोगों के रूप में फूट पड़ती हैं। मानसिक घुटन का भी यही हाल है, जैसे ही स्थिति असह्य हो जाती है, मनुष्य ऐसे काम करने पर उतारू हो जाता है, जिन्हें दुःखद और दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जा सकता है। यह स्थिति न आने पाए, इसके लिए जो समय से पूर्व संतुलन बनाए रहने के लिए तत्पर रहते हैं, उन्हें इस प्रकार के विद्रोहात्मक विस्फोटों का सामना नहीं करना पड़ता।
अन्वेषक सेपर के अनुसार पृथ्वी पर क्रियाशील एवं महत्त्वपूर्ण ज्वालामुखियों की संख्या 430 है। इनमें से 275 उत्तरी गोलार्ध में और 155 दक्षिणी गोलार्ध में हैं। इनमें से भी अधिकांश समुद्रों में स्थित हैं। मृत ज्वालामुखियों की संख्या हजारों हैं। कुछ नए ज्वालामुखी समय-समय पर प्रकट होते रहते हैं।
कई बार तो ज्वालामुखी विस्फोटों के साथ शीतल समझे जाने वाले जलस्रोत भी विद्रोही हो उठते हैं। तनावजन्य विद्रोह पर न केवल गरम प्रकृति के लिए उतारू रहते हैं, पर कई बार शांत प्रकृति को आग उगलने के लिए बाध्य होना पड़ता है। तप्त जलकुंड और गरम पानी के फब्बारे इसी स्तर के होते हैं। वे शांति चाहते हैं, पर विवशताएँ उन्हें बाध्य करती रहती हैं, उसे अंतर्द्वंद्व में रुक-रुककर उबलने के रूप में देखा जा सकता है। कई गरम जल के फब्बारे अथवा ज्वालामुखी इसी प्रकार रुक-रुककर विस्फोट करते रहते हैं।
राजगीर (पटना), सीताकुंड (मुंगेर), वक्रेश्वर (वीरभूमि), मणिकर्ण (कुल्लू), ज्वालामुखी (काँगड़ा), ताता-पानी (पूंछ) के तप्त झरने प्रसिद्ध हैं।
‘गेसर’ झरने उन्हें कहते हैं जो फब्बारे की तरह जमीन में से ऊपर उछलते हैं। आश्चर्य यह है कि यह बीच-बीच में विश्राम करने के लिए शांत हो जाते हैं और इसके बाद फिर उभरते हैं तो उनकी उछाल-ऊँचाई यथापूर्व होती है। विश्राम का समय भी प्रायः नियमित होता है।
यलोस्टोन पार्क का प्रसिद्ध 'ओल्ड फेथफुल' गेसर 65 मिनट विश्राम लेकर उछलता है और उसकी ऊँचाई हर बार 150 फुट ही रहती है। अन्य गेसरों की विश्राम अवधि तथा ऊँचाईयाँ भिन्न-भिन्न होती हैं। न्यूजीलैंड का पोहुत गेसर भी इसी प्रकार का विश्वप्रसिद्ध है।
यह विद्रोह सदा हानिकारक ही नहीं होते। क्रांतियाँ यों विध्वंसक-विनाशक दीखती हैं, पर देखा यह भी गया है कि उस आँधी-तूफान ने बहुत-सा कूड़ा-करकट, झाड़-बुहारकर साफ कर दिया और उपयोगी परिस्थितियों का नवनिर्माण सामने आया। ज्वालामुखी यों प्रकटतः हानिकारक ही दीखते हैं और स्थानीय एवं सामयिक हानि भी उस तोड़-फोड़ से प्रत्यक्ष दीखती है, पर उसके साथ-साथ यह लाभ भी जुड़ा रहता है कि नए वातावरण में, नए प्रकार की उपलब्धियों का पथ-प्रशस्त हो।
ज्वालामुखी मनुष्य जीवन के लिए लाभदायक भी है और हानिकारक भी। ये हित-अहित करते ही रहते हैं। उनके विस्फोट से अपार धन, जनहानि होती है। उनकी राख तथा अनुर्वर वस्तुएँ बहुत- सी भूमि को निर्जीव बना देती हैं। वहाँ न जीव रह सकते हैं, न वनस्पति उग सकती है। विषैला धुँआ वायुमंडल को विषाक्त करता है। पंक ज्वालामुखियों की दलदल भी एक प्रकार के संकट ही हैं।
इसके साथ ही ज्वालामुखियों के सृजनात्मक लाभ भी हैं। पृथ्वी के गर्भ से पुष्ट उर्वर मिट्टी की विशाल मात्रा धरातल पर आने से सहस्रों वर्ग मील भूमि उपजाऊ बनती है। नैपिल्स की खाड़ी, विसुवियस ज्वालामुखी के कारण ही उर्वर बनी है और उस उपलब्धि के कारण सारा इलाका मालामाल हो गया, सघन आबादी बस गई है। वाशिंगटन एवं आरेगन लावा-पठार भी ऐसे ही उर्वर एवं घने ज्वालामुखियों की कृपा से ही बने हैं।
भूगर्भ के गहन अंतराल में छिपे हुए बहुमूल्य खनिज, जो खुदाई करने पर संभवतः कभी भी मनुष्य के हाथ न लगते, ज्वालामुखियों के कारण ही ऊपर आते हैं। लोहा, ताँबा, सीसा, गंधक, प्युमिस, सरीखी खनिज-संपदा ज्वालामुखी-विस्फोट की अंतरंग हलचल के कारण मीलों ऊपर उठ आती हैं, तब मनुष्य उन्हें आसानी से खोद निकाल सकता है। हीरा, पन्ना जैसे रत्न भूगर्भ के उच्च तापमान में ही बनते हैं और विस्फोटक हलचलों के कारण नीचे से ऊपर आते हैं।
भूगर्भ विस्फोटों के कारण छोटी-बड़ी झीलें भी बनती हैं, जिनका जल कितनी ही नदियों को जन्म देता है। समुद्र में जा गिरने वाले जल को रोककर प्राणियों के प्रयोजन में लगाने का काम झीलें ही करती हैं। उनसे प्रचुर आर्थिक लाभ होते हैं। इस प्रकार ज्वालामुखियों का यह झील-अनुदान भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है।
हमें आंतरिक और बाह्यजीवन में शांति की कामना और चेष्टा करनी चाहिए; पर साथ ही इसके लिए भी तैयार रहना चाहिए कि यह अनुचित तनाव और दबाव किसी भी क्षेत्र में बढ़ा तो विस्फोट और विद्रोह ही खड़ा होगा। भले ही उसका परिणाम हानिकारक हो या लाभदायक।
आज महासमुद्रों में डूबे भूखंड, हिमाच्छादित ध्रुवप्रदेश, कभी भरे-पूरे महादेश थे। आज जहाँ हिमालय की चोटियाँ हैं, वहाँ कभी 'टिथिम' महासागर लहराते थे। पृथ्वी के आदि स्वरूप से लेकर आज की स्थिति तक आने में जो विशाल परिवर्तन भूलोक में हुए हैं, उनके पीछे विशालकाय भूकंपों का ही हाथ है।
भूकंपों के चार कारण हैं— (1) पृथ्वी के बाह्य धरातल पर लगने वाले प्राकृतिक आघात, (2) भूगर्भ में ज्वालामुखियों का विस्फोट, (3) भू-रचनात्मक आघातों से उत्पन्न हलचलें, (4) मनुष्यकृत आघातों के कारण।
हिमाच्छादित पर्वत चोटियों के टूटकर गिरने से, समुद्रों में डूबे पर्वत-खंडो के टूटकर गिरने से, समुद्री तरंगों के तटों पर टकराने से, भूतल पर इतने प्रचंड वेग से आघात होते हैं कि पृथ्वी कंपित हो उठती है, इन्हें प्राकृतिक आघातों से उत्पन्न भूकंप कहते हैं।
ज्वालामुखियों के प्रचंड विस्फोट के आघात से पृथ्वी के अंतःभागों में शक्तिशाली कंपन उठते हैं और विस्फोटजन्य भूकंप उत्पन्न होते हैं।
शांति और संतुलन की तरह विद्रोह और विस्फोट भी अपनी जगह आवश्यक है। प्रकृति के गर्भ में इस प्रकार की परस्पर विरोधी हलचलें अकारण नहीं होतीं। उसके पीछे कुछ ठोस कारण रहते हैं। व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में भी शांति और अशांति देखी जाती है, इसके कारण हमें समझने चाहिए और उन कारणों के अनुरूप प्रतिक्रिया का सामना करने के लिए भी तैयार रहना चाहिए।