Magazine - Year 1973 - Version 2
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Language: HINDI
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क्या हमारे अनुभव, निष्कर्ष सही है
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पराञ्चि खानि व्यतृणत्स्वयंभूस्तस्मात्पराङ् पश्यति नान्तरात्मन्।
कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्षदावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन्।।
— कठो. 2/1/1
अर्थात— “स्वयंभू परमात्मा ने समस्त इंद्रियों के द्वार बाहर की ओर निर्मित किए हैं, इसलिए बाह्य वस्तुएँ ही देखी जाती हैं, अंतरात्मा नहीं देखी जाती। किसी मेधावी ने ही अमृतत्त्व की कामनाकर चक्षु आदि को भीतर की ओर प्रेरितकर अंतरात्मा के दर्शन (अनुभव) किए हैं।”
हम बाह्यजीवन के बारे में, सुविस्तृत संसार के बारे में बहुत कुछ जानते हैं; पर आश्चर्य की बात यह है कि अपने संबंध में, अपनी सत्ता और महत्ता के संबंध में बहुत ही कम जानते हैं। बहिर्मुखी जीवन व्यस्त रहता है और यथार्थता के समझने की न तो आवश्यकता समझता है और न अवसर पाता है। यदि अपने स्वरूप, लक्ष्य और कर्त्तव्य का ठीक तरह भान हो जाए और संसार के साथ अपने संबंधों को ठीक तरह जान-सुधार लिया जाए तो यह साधारण दीखने वाला मानवी अस्तित्व, महानता से सहज ही ओत-प्रोत हो सकता है।
जीवनयापन करने के लिए हमें नौ उपकरण प्राप्त हैं— (1) नेत्र (2) जिह्वा (3) नासिका (4) कान (5) त्वचा (6) मन (7) बुद्धि (8) चित्त (9) अहंकार, इन्हीं के माध्यम से हमें विभिन्न प्रकार का ज्ञान प्राप्त होता है। इस ज्ञान को ही यथार्थ मानते हैं; पर थोड़ी गहराई के साथ देखा जाए तो प्रतीत होगा कि यह सभी उपकरण एक सीमित और सापेक्ष जानकारी देते हैं, इनके माध्यम से मिली जानकारी न तो यथार्थ होती है और न पूर्ण; इसलिए उन अपूर्ण साधनों से मिली जानकारी को सही मान बैठना 'भूल' ही कही जाएगी। वेदांत की भाषा में इस अपूर्ण जानकारी को 'स्वप्न'— मिथ्या कहकर उसकी वस्तुस्थिति पर प्रकाश डाला गया है।
संसार में अनेक कारणों से अनेक शब्द कंपन उत्पन्न होते रहते हैं, इन ध्वनि-तरंगों की गति भिन्न-भिन्न होती है। मनुष्य के कान केवल उतने ही ध्वनि कंपन पकड़— सुन सकते हैं, जिनकी गति 33 प्रति सैकिंड से लेकर 40 हज़ार प्रति सैंकिंड के बीच में होती है। इससे कम या ज्यादा गति वाले कंपन अपने कानों की पकड़ में नहीं आते। इस परिधि के बाहर विचरण करने वाला शब्द-प्रवाह इतना अधिक है, जिसकी तुलना में सुनाई देने वाले शब्दों को लाख-करोड़वाँ हिस्सा कह सकते हैं। इतनी स्वल्प ध्वनि को सुन सकने वाले कानों को शब्द-सागर की कुछ बूँदों का ही अनुभव होता है। शेष के बारे में वे सर्वथा अनजान ही बने रहते हैं। इस अपूर्ण उपकरण के माध्यम से, ध्वनि के माध्यम से विचरण करने वाले ज्ञान को सर्वथा स्वल्प ही कहा जा सकता है और उतने से साधन से मिलने वाली जानकारी के आधार पर वस्तुस्थिति समझने का दावा नहीं कर सकते।
त्वचा के माध्यम से मिलने वाली जानकारी भी कानों की तरह ही अपूर्ण होती है, साथ ही भ्रांत भी। हाथ पर एक मिनट तक बरफ रखे रहें, इसके बाद उसी हाथ को साधारण जल मे डुबोएँ: लगेगा पानी गरम है। इसके बाद हाथ पर कुछ देर कोई गरम चीज रखे रहें, इसके बाद हाथ को उसी पानी में डुबाएँ, प्रतीत होगा पानी ठंडा है। जल एक ही तापमान का था, पर बरफ अथवा गरम चीज रखने के बाद हाथ डुबोनें पर अलग-अलग तरह के अनुभव हुए। ऐसी त्वचा की गवाही पर क्या भरोसा किया जाए, जो कुछ-का-कुछ बताती है। ठंड और गरमी की न्यूनाधिकता का अंतर भी त्वचा एक सीमा तक ही बनाती है। अत्यधिक गरम या अत्यधिक ठंडी वस्तु में तापमान या शीतमान का जो अंतर होता है, उसे त्वचा नहीं बता सकती। ऐसी सीमित शक्ति वाली त्वचा इंद्रिय के माध्यम से हम समग्र सत्य को समझ सकने में कैसे समर्थ हो सकते हैं ?
अपनी आँखें सघन रात्रि में घोर अंधकार का अनुभव करती हैं। कुछ भी देख नहीं सकतीं, पर उसी स्थिति में उल्लू, चमगादड़, बिल्ली, चीता आदि प्राणी भली प्रकार से देखते हैं। विज्ञान कहता है कि जगत में प्रकाश सर्वदा और सर्वत्र विद्यमान है। अंधकार नाम की कोई चीज इस दुनियाँ में नहीं है। मनुष्य की आँखें एक सीमा तक के ही प्रकाश-कंपनों को देख पाती हैं, जब प्रकाश की गति मनुष्य की नेत्रशक्ति की सीमा से कम होती है तो उसे अंधकार प्रतीत होता है।
आकाश में अनेक रंगों के भिन्न-भिन्न गति वाले प्रकाश-कंपन चलते रहते हैं। मनुष्य के नेत्र उनमें से केवल सात रंगों की स्वल्प जितनी प्रकाश-तरंगों को ही अनुभव कर पाते हैं और शेष को देखने में असमर्थ रहते हैं। पीलिया रोग हो जाने पर वस्तु पीली दीखती है। ‘रैटिनाइटिस पिग मैन्टोजा’ रोग हो जाने पर एक सीधी रेखा धब्बे या बिंदुओं के रूप में दिखाई देती है। आकाश को ही लीजिए, वह हमें नीली चादर वाला, गोलाकार पर्दे जैसा लगा दीखता है और लगता है उसमें समतल तारे टँगें हुए हैं, पर क्या वह ज्ञान सही है? क्या आकाश की सीमा उतनी ही है, जितनी आँखों से दीखती है? क्या तारे उतने ही छोटे हैं, जितने कि आँखों को प्रतीत होते हैं? क्या वे सब समतल बिछे हैं? क्या आकाश का रंग वस्तुतः नीला है? इन प्रश्नों का उत्तर खगोलशास्त्र के अनुसार नहीं ही हो सकता है; पर इन आँखों को क्या कहा जाए, जो हमें यथार्थता से सर्वत्र भिन्न प्रकार की जानकारी देती हैं और भ्रम में डालती हैं।
यही हाल नासिका का है। हमें कितनी ही वस्तुएँ गंधहीन लगती हैं, पर वस्तुत: उनमें गंध रहती है और उनके स्तर अगणित प्रकार के होते हैं। कुत्तों की नाक इस गंधस्तर की भिन्नता को समझती है और बिछुड़ जाने पर अपने घर तक उसे पहुँचा देती है। प्रशिक्षित कुत्ते इसी गंध के आधार पर चोरी, हत्या आदि अपराध करने वालों को ढूँढ निकालते हैं। यही बात सुगंध-दुर्गंध के भेदभाव से संबंधित है। प्याज, लहसुन आदि की गंध कितनों को बड़ी अरुचिकर लगती है, भोजन में थोड़ी-सी भी पड़ जाने से उल्टी-सी आती है; पर कितनों को इसके बिना भोजन में जायका ही नहीं आता। यही बात सिगरेट, शराब आदि की गंध के बारे में भी है। इन परिस्थितियों में नासिका के आधार पर यथार्थता का निर्णय कैसे किया जाए?
जिह्वा स्वादों की जो अनुभूति कराती है, वह भी वस्तुस्थिति नहीं है। खाद्य पदार्थ के साथ मुख के स्राव मिलकर एक विशेष प्रकार का सम्मिश्रण बनाते हैं, उसी को मस्तिष्क स्वाद के रूप में अनुभव करता है। यदि वही वास्तविकता होती तो नीम के पत्ते मनुष्य की तरह ऊँट को भी कड़वे लगते और वह भी उन्हें न खाता। ऊँट को नीम की पत्तियों का स्वाद मनुष्य की जिह्वा- अनुभूतियों से सर्वथा भिन्न प्रकार का होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि पदार्थों का वास्तविक स्वाद जीभ पकड़ नहीं पाती, भिन्न-भिन्न प्राणी अपनी जीभ बनावट के अनुसार उसका स्वाद अनुभव करते हैं। कच्चा माँस मनुष्य के लिए अरुचिकर होता है; पर इसी को माँसभोजी पशु बड़ी रुचिपूर्वक खाते हैं। मलीन वस्तुओं को मनुष्य की जीभ सहन— स्वीकार नहीं कर सकती, पर शूकर को उसमें प्रिय स्वाद की अनुभूति होती है। मुँह में छाले हो जाने पर, बुखार या अपच रहने पर अथवा ‘गुड़मार बूटी’ खाकर रसना मूर्छित कर देने पर वस्तु के स्वाद का अनुभव नहीं होता। इस अधूरी जानकारी वाली जिह्वा इंद्रिय को सत्य की साक्षी के रूप में कैसे प्रामाणिक माना जाए ?
मुसलमान दार्शनिक फारावी का कथन है— “प्रत्येक वस्तु सत्तास्वरूप है। पदार्थ के पीछे एक गति ही नहीं, चेतना भी है। यह गति और चेतना न केवल पदार्थों में, वरन प्राणधारियों में भी काम करती है। फिर जड़-चेतन से संयुक्त उस विशाल ब्रह्म के पीछे सत्ता क्यों न होगी? इस संभावना को अनुमान और प्रमाण दोनों से जाना जा सकता है। इसके अतिरिक्त परमात्मा को प्रमाणित करने के लिए और क्या सबूत चाहिए?”
कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्षदावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन्।।
— कठो. 2/1/1
अर्थात— “स्वयंभू परमात्मा ने समस्त इंद्रियों के द्वार बाहर की ओर निर्मित किए हैं, इसलिए बाह्य वस्तुएँ ही देखी जाती हैं, अंतरात्मा नहीं देखी जाती। किसी मेधावी ने ही अमृतत्त्व की कामनाकर चक्षु आदि को भीतर की ओर प्रेरितकर अंतरात्मा के दर्शन (अनुभव) किए हैं।”
हम बाह्यजीवन के बारे में, सुविस्तृत संसार के बारे में बहुत कुछ जानते हैं; पर आश्चर्य की बात यह है कि अपने संबंध में, अपनी सत्ता और महत्ता के संबंध में बहुत ही कम जानते हैं। बहिर्मुखी जीवन व्यस्त रहता है और यथार्थता के समझने की न तो आवश्यकता समझता है और न अवसर पाता है। यदि अपने स्वरूप, लक्ष्य और कर्त्तव्य का ठीक तरह भान हो जाए और संसार के साथ अपने संबंधों को ठीक तरह जान-सुधार लिया जाए तो यह साधारण दीखने वाला मानवी अस्तित्व, महानता से सहज ही ओत-प्रोत हो सकता है।
जीवनयापन करने के लिए हमें नौ उपकरण प्राप्त हैं— (1) नेत्र (2) जिह्वा (3) नासिका (4) कान (5) त्वचा (6) मन (7) बुद्धि (8) चित्त (9) अहंकार, इन्हीं के माध्यम से हमें विभिन्न प्रकार का ज्ञान प्राप्त होता है। इस ज्ञान को ही यथार्थ मानते हैं; पर थोड़ी गहराई के साथ देखा जाए तो प्रतीत होगा कि यह सभी उपकरण एक सीमित और सापेक्ष जानकारी देते हैं, इनके माध्यम से मिली जानकारी न तो यथार्थ होती है और न पूर्ण; इसलिए उन अपूर्ण साधनों से मिली जानकारी को सही मान बैठना 'भूल' ही कही जाएगी। वेदांत की भाषा में इस अपूर्ण जानकारी को 'स्वप्न'— मिथ्या कहकर उसकी वस्तुस्थिति पर प्रकाश डाला गया है।
संसार में अनेक कारणों से अनेक शब्द कंपन उत्पन्न होते रहते हैं, इन ध्वनि-तरंगों की गति भिन्न-भिन्न होती है। मनुष्य के कान केवल उतने ही ध्वनि कंपन पकड़— सुन सकते हैं, जिनकी गति 33 प्रति सैकिंड से लेकर 40 हज़ार प्रति सैंकिंड के बीच में होती है। इससे कम या ज्यादा गति वाले कंपन अपने कानों की पकड़ में नहीं आते। इस परिधि के बाहर विचरण करने वाला शब्द-प्रवाह इतना अधिक है, जिसकी तुलना में सुनाई देने वाले शब्दों को लाख-करोड़वाँ हिस्सा कह सकते हैं। इतनी स्वल्प ध्वनि को सुन सकने वाले कानों को शब्द-सागर की कुछ बूँदों का ही अनुभव होता है। शेष के बारे में वे सर्वथा अनजान ही बने रहते हैं। इस अपूर्ण उपकरण के माध्यम से, ध्वनि के माध्यम से विचरण करने वाले ज्ञान को सर्वथा स्वल्प ही कहा जा सकता है और उतने से साधन से मिलने वाली जानकारी के आधार पर वस्तुस्थिति समझने का दावा नहीं कर सकते।
त्वचा के माध्यम से मिलने वाली जानकारी भी कानों की तरह ही अपूर्ण होती है, साथ ही भ्रांत भी। हाथ पर एक मिनट तक बरफ रखे रहें, इसके बाद उसी हाथ को साधारण जल मे डुबोएँ: लगेगा पानी गरम है। इसके बाद हाथ पर कुछ देर कोई गरम चीज रखे रहें, इसके बाद हाथ को उसी पानी में डुबाएँ, प्रतीत होगा पानी ठंडा है। जल एक ही तापमान का था, पर बरफ अथवा गरम चीज रखने के बाद हाथ डुबोनें पर अलग-अलग तरह के अनुभव हुए। ऐसी त्वचा की गवाही पर क्या भरोसा किया जाए, जो कुछ-का-कुछ बताती है। ठंड और गरमी की न्यूनाधिकता का अंतर भी त्वचा एक सीमा तक ही बनाती है। अत्यधिक गरम या अत्यधिक ठंडी वस्तु में तापमान या शीतमान का जो अंतर होता है, उसे त्वचा नहीं बता सकती। ऐसी सीमित शक्ति वाली त्वचा इंद्रिय के माध्यम से हम समग्र सत्य को समझ सकने में कैसे समर्थ हो सकते हैं ?
अपनी आँखें सघन रात्रि में घोर अंधकार का अनुभव करती हैं। कुछ भी देख नहीं सकतीं, पर उसी स्थिति में उल्लू, चमगादड़, बिल्ली, चीता आदि प्राणी भली प्रकार से देखते हैं। विज्ञान कहता है कि जगत में प्रकाश सर्वदा और सर्वत्र विद्यमान है। अंधकार नाम की कोई चीज इस दुनियाँ में नहीं है। मनुष्य की आँखें एक सीमा तक के ही प्रकाश-कंपनों को देख पाती हैं, जब प्रकाश की गति मनुष्य की नेत्रशक्ति की सीमा से कम होती है तो उसे अंधकार प्रतीत होता है।
आकाश में अनेक रंगों के भिन्न-भिन्न गति वाले प्रकाश-कंपन चलते रहते हैं। मनुष्य के नेत्र उनमें से केवल सात रंगों की स्वल्प जितनी प्रकाश-तरंगों को ही अनुभव कर पाते हैं और शेष को देखने में असमर्थ रहते हैं। पीलिया रोग हो जाने पर वस्तु पीली दीखती है। ‘रैटिनाइटिस पिग मैन्टोजा’ रोग हो जाने पर एक सीधी रेखा धब्बे या बिंदुओं के रूप में दिखाई देती है। आकाश को ही लीजिए, वह हमें नीली चादर वाला, गोलाकार पर्दे जैसा लगा दीखता है और लगता है उसमें समतल तारे टँगें हुए हैं, पर क्या वह ज्ञान सही है? क्या आकाश की सीमा उतनी ही है, जितनी आँखों से दीखती है? क्या तारे उतने ही छोटे हैं, जितने कि आँखों को प्रतीत होते हैं? क्या वे सब समतल बिछे हैं? क्या आकाश का रंग वस्तुतः नीला है? इन प्रश्नों का उत्तर खगोलशास्त्र के अनुसार नहीं ही हो सकता है; पर इन आँखों को क्या कहा जाए, जो हमें यथार्थता से सर्वत्र भिन्न प्रकार की जानकारी देती हैं और भ्रम में डालती हैं।
यही हाल नासिका का है। हमें कितनी ही वस्तुएँ गंधहीन लगती हैं, पर वस्तुत: उनमें गंध रहती है और उनके स्तर अगणित प्रकार के होते हैं। कुत्तों की नाक इस गंधस्तर की भिन्नता को समझती है और बिछुड़ जाने पर अपने घर तक उसे पहुँचा देती है। प्रशिक्षित कुत्ते इसी गंध के आधार पर चोरी, हत्या आदि अपराध करने वालों को ढूँढ निकालते हैं। यही बात सुगंध-दुर्गंध के भेदभाव से संबंधित है। प्याज, लहसुन आदि की गंध कितनों को बड़ी अरुचिकर लगती है, भोजन में थोड़ी-सी भी पड़ जाने से उल्टी-सी आती है; पर कितनों को इसके बिना भोजन में जायका ही नहीं आता। यही बात सिगरेट, शराब आदि की गंध के बारे में भी है। इन परिस्थितियों में नासिका के आधार पर यथार्थता का निर्णय कैसे किया जाए?
जिह्वा स्वादों की जो अनुभूति कराती है, वह भी वस्तुस्थिति नहीं है। खाद्य पदार्थ के साथ मुख के स्राव मिलकर एक विशेष प्रकार का सम्मिश्रण बनाते हैं, उसी को मस्तिष्क स्वाद के रूप में अनुभव करता है। यदि वही वास्तविकता होती तो नीम के पत्ते मनुष्य की तरह ऊँट को भी कड़वे लगते और वह भी उन्हें न खाता। ऊँट को नीम की पत्तियों का स्वाद मनुष्य की जिह्वा- अनुभूतियों से सर्वथा भिन्न प्रकार का होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि पदार्थों का वास्तविक स्वाद जीभ पकड़ नहीं पाती, भिन्न-भिन्न प्राणी अपनी जीभ बनावट के अनुसार उसका स्वाद अनुभव करते हैं। कच्चा माँस मनुष्य के लिए अरुचिकर होता है; पर इसी को माँसभोजी पशु बड़ी रुचिपूर्वक खाते हैं। मलीन वस्तुओं को मनुष्य की जीभ सहन— स्वीकार नहीं कर सकती, पर शूकर को उसमें प्रिय स्वाद की अनुभूति होती है। मुँह में छाले हो जाने पर, बुखार या अपच रहने पर अथवा ‘गुड़मार बूटी’ खाकर रसना मूर्छित कर देने पर वस्तु के स्वाद का अनुभव नहीं होता। इस अधूरी जानकारी वाली जिह्वा इंद्रिय को सत्य की साक्षी के रूप में कैसे प्रामाणिक माना जाए ?
मुसलमान दार्शनिक फारावी का कथन है— “प्रत्येक वस्तु सत्तास्वरूप है। पदार्थ के पीछे एक गति ही नहीं, चेतना भी है। यह गति और चेतना न केवल पदार्थों में, वरन प्राणधारियों में भी काम करती है। फिर जड़-चेतन से संयुक्त उस विशाल ब्रह्म के पीछे सत्ता क्यों न होगी? इस संभावना को अनुमान और प्रमाण दोनों से जाना जा सकता है। इसके अतिरिक्त परमात्मा को प्रमाणित करने के लिए और क्या सबूत चाहिए?”