Magazine - Year 1973 - Version 2
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Language: HINDI
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सरस्वती-साधना का एक प्रकार— सार्थक संभाषण
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मनोभाव संपूर्ण शरीर को प्रभावित करते हैं। क्रोध, आवेश, भय, शोक, वियोग जैसे अवसरों पर नेत्र, होठ, कपोल बिना बोले ही मनःस्थिति प्रकट कर देते हैं। भीतर जो कुछ उमड़-घुमड़ रहा है, उसकी छाया चेहरे पर झाँकती रहती है। क्रोध में आँखें लाल हो जाती हैं, शरीर काँपता है। इससे स्पष्ठ है, आंतरिक भावनाओं का शरीर पर प्रभाव पड़ता है। भूख और नींद गायब हो जाती है। आवेशग्रस्त व्यक्ति का दिल जोरों से धड़कने लगता है, दम फूलता है, सिर चकराता है, गला सूखता है और प्यास बार-बार लगती है। इससे स्पष्ट है कि मन की स्थिति का प्रभाव सारी देह पर पड़ता है, इस प्रभाव को यदि सूक्ष्म रूप में देखना हो तो उसे वाणी के साथ जुड़े हुए रहस्यमय कंपनों के साथ आसानी से देखा-समझा जा सकता है।
यों ठग और धूर्त्त व्यक्ति मीठी बातें बना और प्रलोभन भरे आश्वासन देकर भोले लोगों को ठगने में भी सफल हो जाते हैं, पर वह प्रभाव केवल उन्हीं उथली मन:स्थिति के लोगों पर पड़ता है, जो केवल शब्दों के अर्थ भर को समझते हैं और प्रलोभन में बिना आगा-पीछा सोचे, यथार्थता का विश्लेषण किए बिना ही फिसल पड़ते हैं। ठगी के शिकार आमतौर से ऐसी बालबुद्धि के लोग ही होते हैं। जहाँ थोड़ी भी सतर्कता बरती जाए और यथार्थता ढूँढने के लिए थोड़ा-सा भी तर्क-वितर्क किया जाए, तो वस्तुस्थिति सामने आ जाती है और ठगों से बचा जा सकता है। यह व्यावहारिक ज्ञान की बात हुई। आगे चलकर यदि सूक्ष्मबुद्धि और प्रखर आत्मचेतना की कसौटी पर कसने की क्षमता विकसित कर ली जाए, तो किसी की भी वाणी सुनकर उसके साथ जुड़े हुए प्रभाव एवं व्यक्तित्व को आसानी से समझा जा सकता है।
वाणी में जानकारी का ही आदान-प्रदान नहीं होता। व्यक्तित्वों की विशेषताओं का भी परस्पर परिवर्तन होता है। सद्भावसंपन्न व्यक्ति भले ही किसी को उपदेश न दें, उनके साधारण शब्दोच्चार में भी जो मिठास, सौजन्य और सदुद्देश्य घुला रहता है, वह ऐसा हृदयस्पर्शी होता है कि सुनने वाले उससे बहुत कुछ प्राप्त करते जाते हैं और वह ऐसा होता है, जिससे उद्वेगों के समाधान में भारी योगदान मिल सकें। यों उत्कृष्ट स्तर के व्यक्तित्व बिना वाणी के भी अपने समीपवर्त्ती क्षेत्र को प्रभावित करते हैं। उनके नेत्रों की ज्योति एवं चेहरे पर बनने बाली भाव-भंगिमा एवं समस्त शरीर से निकलने वाली तेजोवलय ऊष्मा सहज ही अपना काम करती रहती है और संबद्ध वातावरण को प्रभावित करती है। इस प्रभावशीलता का अधिक प्रसारण वाणी द्वारा होता है। सद्भावसंपन्न वाणी जिनके लिए बोली गई है, उन्हीं पर नहीं; वरन विराट-ब्रह्मांड में सुविस्तृत होकर अपना प्रभाव जड़-चेतन पर छोड़ती है। इस दृष्टि से गंभीरतापूर्वक विचार किया जाए तो प्रतीत होगा कि कोई प्रत्यक्षतः कुछ अधिक काम करते हुए न दिखाई पड़ने वाले व्यक्ति भी इस संसार में व्यापक क्षेत्र तक अपना प्रभाव छोड़ते हैं और यदि वे सद्भावसंपन्न हैं तो वाणीमात्र से संसार की महती सेवा-सहायता करते हैं। इसके विपरीत दुर्भावनाग्रस्त मन, अपनी वाणीरूपी तीर-तरकस से प्रहार करते हुए लोक-मानस को क्षत-विक्षत करता है और संसार को भारी हानि पहुँचाता है। पानी में फेंका हुआ एक ढेला हजारों लहरें उत्पन्न करता है, इसी प्रकार शब्दोच्चारण के साथ अंतरिक्ष में प्रवाहित होता हुआ व्यक्तित्व अपनी सुगंध-दुर्गंध से व्यापक क्षेत्र को प्रभावित करता है।
कटु-कर्कश शब्दों के साथ जुड़ी हुई दुर्भावना सबसे पहली हानि वक्ता की ही करती है। उग्र मनःस्थिति काया का सारा ढाँचा लड़-खड़ाकर रख देती है। वाणी के साथ जब वह भूकंप-विस्फोट की तरह बाहर निकलता है तो उससे बाहरी क्षेत्र ही धूल-धूमयुक्त नहीं होता, वरन वह विस्फोटस्थल भी क्षत-विक्षत होता है। क्रोधी, ईर्ष्यालु, निंदक, छिद्रांवेषी, निराश, पलायनवादी प्रकृति के मनुष्य दूसरों को भी चोट पहुँचाते हैं और खिन्न-उद्विग्न करते हैं, पर सबसे अधिक हानि वे अपनी ही करते हैं। दुर्भावग्रस्त मनःस्थिति वाले व्यक्ति को देर-सवेर में शारीरिक और मानसिक रोगों का शिकार बनना ही पड़ता है। कहना न होगा कि व्यक्ति अपने और अपने समीपवर्त्ती लोगों के लिए अभिशाप ही सिद्ध होता है।
पिछड़े वर्गों की उनकी अपनी त्रुटियों में गंदगी और व्यसनग्रस्तता को मुख्य माना जाता है; पर यदि गहराई से विचार किया जाए तो प्रतीत होगा कि गाली-गलौज, कलह-तिरस्कार, असभ्य और अस्त-व्यस्त शब्दोच्चारण भी उन्हें गई गुजरी स्थिति में डाले रहने के लिए कम जिम्मेदार नहीं है। बालकों पर यह पारिवारिक वार्त्तालाप असाधारण प्रभाव डालता है और उन परिवारों की पीढ़ियाँ उसी स्तर की ढलती चली जाती हैं। दूरदर्शी लोग व्यक्ति के विकास की विधि बताते हुए प्रथम चरण वाणी के परिष्कार को बताते हैं। सभ्यता और संस्कृति का प्रथम सोपान शिष्ट, सौम्य, संतुलित और सद्भावसंपन्न वाणी के उच्चारण से ही आरंभ होता है। असंबद्ध और असंतुलित वचन बोलने वाले कभी सम्मानास्पद नहीं बन सकते, उन्हें ओछा-पिछड़ा और अनुत्तरदायी ही माना जाता रहेगा।
मनःस्थिति का चुंबकत्व वाणी द्वारा अपना प्रभाव बाहरी क्षेत्र पर छोड़ता है और अपने स्तर के व्यक्ति तथा वातावरण को समेटकर सहज ही इर्द-गिर्द जमा करता रहता है। कुभाषी की आंतरिक दक्षता कभी भी उसे सरस और उल्लासभरे जीवन का आनंद न लेने देगी। दुर्भावनाओं की प्रतिक्रिया विरोध, विग्रह, निंदा, असहयोग, अविश्वास आदि के रूप में ही सामने आ सकती है और उनके कारण प्रगति-पथ में पग-पग पर अवरोध उत्पन्न हो सकते हैं।
उपनिषद् के ऋषि ने परब्रह्म के सम्मुख अपनी अतिमहत्त्वपूर्ण आकांक्षा व्यक्त करते हुए कहा है— ‘जिह्वा में मधुमत्तमा’, मेरी वाणी मिठास से भरी हुई हो। सचमुच यदि कोई मधुरवचन बोलने का अभ्यास कर ले तो प्रगति-पथ के अनेक अवरोधों का सहज ही समाधान हो सकता है। प्रशंसापरक और उत्साहवर्द्धक शब्द बोलकर यदि किसी में नवजीवन संचार किया जा सके तो निस्संदेह यह सहायता दे, बड़े-से-बड़े धन-सहयोग की अपेक्षा कहीं अधिक मूल्यवान सिद्ध हो सकती है। खोए हुए आत्मविश्वास को यदि जगाया, जमाया और बढ़ाया जा सके तो इससे बढ़कर और कोई उपलब्धि नहीं हो सकती। सद्भावसंपन्न व्यक्ति अपने स्तर के अनुरूप ऐसे ही परामर्श देते हैं, जिन्हें यदि आंशिक रूप से समझा, अपनाया जा सके तो उत्कर्ष की दिशा में तेजी से बढ़ा जा सकता है।
ऋग्वेद में एक आर्यवचन आता है, जिसमें कहा गया है कि जहाँ वाणी छानकर बोली जाती है, वहाँ विभूतियाँ दौड़ती हुई चली आती हैं। जहाँ शहद रहता है, वहाँ मक्खियाँ सहज ही खिंचती चली आती हैं। वाणी का यह प्रभाव होना ही चाहिए कि उच्चारणकर्त्ता के समीप सफलताओं का पर्वत इकट्ठा होता चला जाए। छानकर वाणी बोलने का अर्थ है— सोच-समझकर प्रभाव-परिणाम पर विचार करते हुए, विवेकपूर्वक सदुद्देश्ययुक्त बोलना। वस्तुतः ऐसा बोलना ही सार्थक है। कटु और विद्वेषयुक्त भाषण से तो मौन रहना अथवा मूक होना अधिक उपयुक्त है।
भगवान ने कान दो दिए हैं और जीभ एक। इसका अर्थ है— हम सुनें अधिक बोले कम। भावार्थ यह है कि चिंतन, मनन, स्वाध्याय और सत्संग के आधार पर सद्भावनाओं का समुचित संग्रह अपने भीतर जमा करें और उसमें से साररूप में जो सर्वोत्कृष्ट प्रतीत हो, उसी को जिह्वा पर आने दें। जीभ में अमृत भी है और विष भी। विषपान करने वाले मुख के रास्ते ही उसे भीतर ले जाते हैं। दुर्भावग्रस्त संस्कारसहित वाणी को भी विष ही कहा गया है। वह प्रथम अनर्थ वक्ता का ही करती है, उसकी गरिमा का हनन करती है और दूसरों की दृष्टि में उसका सम्मान गिरा देती है; किंतु यदि अमृतवचन बोले जाए तो उसमें वक्ता को अपने आप में उल्लास का उभार दीखता है और समीपवर्त्ती लोग उसका रसास्वादन करके तृप्त होते हैं। विवेक, तथ्य और दूरदृष्टि एवं सदुद्देश्य के सम्मिश्रण के साथ किए गए शब्दोच्चार को सरस्वती कहा गया है। जिह्वा पर सरस्वती के आवर्तन का अलंकार यह संकेत करता है कि सज्जनता का बहुत कुछ परिचय उनकी मधुमयी वाणी से प्राप्त होता है।
कामकाजी बातों के अतिरिक्त जहाँ भावोत्तेजक एवं विचार-परिष्कार की दृष्टि से जो भी वार्त्तालाप किया जाता है, वह वस्तुतः जप का ही एक प्रकार है। जप का उद्देश्य है; अमुक शब्दावली को बार-बार कहते रहने के फलस्वरूप मंत्र में सन्निहित विचारधारा को हदयंगम करना— परिपक्व बनाना। का पाठ, भक्तिगीतों का गायन इसी दृष्टि से किया जाता है। यह प्रयोजन समय-समय पर विचार-विनिमय अथवा परामर्शपरक आदान-प्रदान से भी संभव हो सकता है। अपने और दूसरों की सद्भावनाओं को उभारने वाला, सत्प्रवृत्तियों को विकसित करने वाला, शब्दोच्चार करने वाला व्यक्ति मौन-साधन एवं जप-उपासना का फल प्राप्त करता है। ऐसे अभिवचन उच्चारणकर्त्ता का भी कल्याण करते हैं, लोक-मंगल का प्रयोजन भी उनसे बड़ी मात्रा में पूरा होता है।
संत विनोबा ने पंढरपुर सर्वोदय सम्मेलन के एक प्रवचन में वाणी की उपासना पर प्रकाश डालते हुए कहा था— “ .......... मेरा बोलना जप के लिए है, प्रचार के लिए नहीं। जिन विचारों को बोलता हूँ, वे दृढ़ होते चले जाते हैं। .... जो किया है आप लोगों ने किया है, मैंने तो जप किया है; भूदान का जप किया तो भूदान मिला। संपत्तिदान का जप किया तो संपत्तिदान मिला। न तो मैं यज्ञ करता हूँ, न दान करता हूँ, न तप करता हूँ; मैं तो केवल जप ही करता हूँ और जप से मेरे सारे काम बन जाते हैं।”
शतपथ ब्राह्मण की उक्ति है कि, “जनसमाज का मैल धोने वाला शब्द-प्रवाह ही सारस्वत मंत्र है। सरस्वती के अनुग्रह से अनेकों सिद्धियाँ मिलती हैं, अष्टसिद्धि और नवऋद्धि की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती के उपासनात्मक कर्मकांडों का अपना महत्त्व है, पर सर्वजनीन सारस्वत मंत्र वह शब्दोच्चार है, जिसे सत्प्रयोजन के लिए, सद्भावना, विवेकशीलता और मधुरासम्मिश्रित करके बोला गया हो। इस स्तर का भाषण, चाहे वह स्वल्प शब्दों का ही क्यों न हो, सब कल्याण की परम श्रेयस्कर प्रतिक्रिया उत्पन्न करता है।
यों ठग और धूर्त्त व्यक्ति मीठी बातें बना और प्रलोभन भरे आश्वासन देकर भोले लोगों को ठगने में भी सफल हो जाते हैं, पर वह प्रभाव केवल उन्हीं उथली मन:स्थिति के लोगों पर पड़ता है, जो केवल शब्दों के अर्थ भर को समझते हैं और प्रलोभन में बिना आगा-पीछा सोचे, यथार्थता का विश्लेषण किए बिना ही फिसल पड़ते हैं। ठगी के शिकार आमतौर से ऐसी बालबुद्धि के लोग ही होते हैं। जहाँ थोड़ी भी सतर्कता बरती जाए और यथार्थता ढूँढने के लिए थोड़ा-सा भी तर्क-वितर्क किया जाए, तो वस्तुस्थिति सामने आ जाती है और ठगों से बचा जा सकता है। यह व्यावहारिक ज्ञान की बात हुई। आगे चलकर यदि सूक्ष्मबुद्धि और प्रखर आत्मचेतना की कसौटी पर कसने की क्षमता विकसित कर ली जाए, तो किसी की भी वाणी सुनकर उसके साथ जुड़े हुए प्रभाव एवं व्यक्तित्व को आसानी से समझा जा सकता है।
वाणी में जानकारी का ही आदान-प्रदान नहीं होता। व्यक्तित्वों की विशेषताओं का भी परस्पर परिवर्तन होता है। सद्भावसंपन्न व्यक्ति भले ही किसी को उपदेश न दें, उनके साधारण शब्दोच्चार में भी जो मिठास, सौजन्य और सदुद्देश्य घुला रहता है, वह ऐसा हृदयस्पर्शी होता है कि सुनने वाले उससे बहुत कुछ प्राप्त करते जाते हैं और वह ऐसा होता है, जिससे उद्वेगों के समाधान में भारी योगदान मिल सकें। यों उत्कृष्ट स्तर के व्यक्तित्व बिना वाणी के भी अपने समीपवर्त्ती क्षेत्र को प्रभावित करते हैं। उनके नेत्रों की ज्योति एवं चेहरे पर बनने बाली भाव-भंगिमा एवं समस्त शरीर से निकलने वाली तेजोवलय ऊष्मा सहज ही अपना काम करती रहती है और संबद्ध वातावरण को प्रभावित करती है। इस प्रभावशीलता का अधिक प्रसारण वाणी द्वारा होता है। सद्भावसंपन्न वाणी जिनके लिए बोली गई है, उन्हीं पर नहीं; वरन विराट-ब्रह्मांड में सुविस्तृत होकर अपना प्रभाव जड़-चेतन पर छोड़ती है। इस दृष्टि से गंभीरतापूर्वक विचार किया जाए तो प्रतीत होगा कि कोई प्रत्यक्षतः कुछ अधिक काम करते हुए न दिखाई पड़ने वाले व्यक्ति भी इस संसार में व्यापक क्षेत्र तक अपना प्रभाव छोड़ते हैं और यदि वे सद्भावसंपन्न हैं तो वाणीमात्र से संसार की महती सेवा-सहायता करते हैं। इसके विपरीत दुर्भावनाग्रस्त मन, अपनी वाणीरूपी तीर-तरकस से प्रहार करते हुए लोक-मानस को क्षत-विक्षत करता है और संसार को भारी हानि पहुँचाता है। पानी में फेंका हुआ एक ढेला हजारों लहरें उत्पन्न करता है, इसी प्रकार शब्दोच्चारण के साथ अंतरिक्ष में प्रवाहित होता हुआ व्यक्तित्व अपनी सुगंध-दुर्गंध से व्यापक क्षेत्र को प्रभावित करता है।
कटु-कर्कश शब्दों के साथ जुड़ी हुई दुर्भावना सबसे पहली हानि वक्ता की ही करती है। उग्र मनःस्थिति काया का सारा ढाँचा लड़-खड़ाकर रख देती है। वाणी के साथ जब वह भूकंप-विस्फोट की तरह बाहर निकलता है तो उससे बाहरी क्षेत्र ही धूल-धूमयुक्त नहीं होता, वरन वह विस्फोटस्थल भी क्षत-विक्षत होता है। क्रोधी, ईर्ष्यालु, निंदक, छिद्रांवेषी, निराश, पलायनवादी प्रकृति के मनुष्य दूसरों को भी चोट पहुँचाते हैं और खिन्न-उद्विग्न करते हैं, पर सबसे अधिक हानि वे अपनी ही करते हैं। दुर्भावग्रस्त मनःस्थिति वाले व्यक्ति को देर-सवेर में शारीरिक और मानसिक रोगों का शिकार बनना ही पड़ता है। कहना न होगा कि व्यक्ति अपने और अपने समीपवर्त्ती लोगों के लिए अभिशाप ही सिद्ध होता है।
पिछड़े वर्गों की उनकी अपनी त्रुटियों में गंदगी और व्यसनग्रस्तता को मुख्य माना जाता है; पर यदि गहराई से विचार किया जाए तो प्रतीत होगा कि गाली-गलौज, कलह-तिरस्कार, असभ्य और अस्त-व्यस्त शब्दोच्चारण भी उन्हें गई गुजरी स्थिति में डाले रहने के लिए कम जिम्मेदार नहीं है। बालकों पर यह पारिवारिक वार्त्तालाप असाधारण प्रभाव डालता है और उन परिवारों की पीढ़ियाँ उसी स्तर की ढलती चली जाती हैं। दूरदर्शी लोग व्यक्ति के विकास की विधि बताते हुए प्रथम चरण वाणी के परिष्कार को बताते हैं। सभ्यता और संस्कृति का प्रथम सोपान शिष्ट, सौम्य, संतुलित और सद्भावसंपन्न वाणी के उच्चारण से ही आरंभ होता है। असंबद्ध और असंतुलित वचन बोलने वाले कभी सम्मानास्पद नहीं बन सकते, उन्हें ओछा-पिछड़ा और अनुत्तरदायी ही माना जाता रहेगा।
मनःस्थिति का चुंबकत्व वाणी द्वारा अपना प्रभाव बाहरी क्षेत्र पर छोड़ता है और अपने स्तर के व्यक्ति तथा वातावरण को समेटकर सहज ही इर्द-गिर्द जमा करता रहता है। कुभाषी की आंतरिक दक्षता कभी भी उसे सरस और उल्लासभरे जीवन का आनंद न लेने देगी। दुर्भावनाओं की प्रतिक्रिया विरोध, विग्रह, निंदा, असहयोग, अविश्वास आदि के रूप में ही सामने आ सकती है और उनके कारण प्रगति-पथ में पग-पग पर अवरोध उत्पन्न हो सकते हैं।
उपनिषद् के ऋषि ने परब्रह्म के सम्मुख अपनी अतिमहत्त्वपूर्ण आकांक्षा व्यक्त करते हुए कहा है— ‘जिह्वा में मधुमत्तमा’, मेरी वाणी मिठास से भरी हुई हो। सचमुच यदि कोई मधुरवचन बोलने का अभ्यास कर ले तो प्रगति-पथ के अनेक अवरोधों का सहज ही समाधान हो सकता है। प्रशंसापरक और उत्साहवर्द्धक शब्द बोलकर यदि किसी में नवजीवन संचार किया जा सके तो निस्संदेह यह सहायता दे, बड़े-से-बड़े धन-सहयोग की अपेक्षा कहीं अधिक मूल्यवान सिद्ध हो सकती है। खोए हुए आत्मविश्वास को यदि जगाया, जमाया और बढ़ाया जा सके तो इससे बढ़कर और कोई उपलब्धि नहीं हो सकती। सद्भावसंपन्न व्यक्ति अपने स्तर के अनुरूप ऐसे ही परामर्श देते हैं, जिन्हें यदि आंशिक रूप से समझा, अपनाया जा सके तो उत्कर्ष की दिशा में तेजी से बढ़ा जा सकता है।
ऋग्वेद में एक आर्यवचन आता है, जिसमें कहा गया है कि जहाँ वाणी छानकर बोली जाती है, वहाँ विभूतियाँ दौड़ती हुई चली आती हैं। जहाँ शहद रहता है, वहाँ मक्खियाँ सहज ही खिंचती चली आती हैं। वाणी का यह प्रभाव होना ही चाहिए कि उच्चारणकर्त्ता के समीप सफलताओं का पर्वत इकट्ठा होता चला जाए। छानकर वाणी बोलने का अर्थ है— सोच-समझकर प्रभाव-परिणाम पर विचार करते हुए, विवेकपूर्वक सदुद्देश्ययुक्त बोलना। वस्तुतः ऐसा बोलना ही सार्थक है। कटु और विद्वेषयुक्त भाषण से तो मौन रहना अथवा मूक होना अधिक उपयुक्त है।
भगवान ने कान दो दिए हैं और जीभ एक। इसका अर्थ है— हम सुनें अधिक बोले कम। भावार्थ यह है कि चिंतन, मनन, स्वाध्याय और सत्संग के आधार पर सद्भावनाओं का समुचित संग्रह अपने भीतर जमा करें और उसमें से साररूप में जो सर्वोत्कृष्ट प्रतीत हो, उसी को जिह्वा पर आने दें। जीभ में अमृत भी है और विष भी। विषपान करने वाले मुख के रास्ते ही उसे भीतर ले जाते हैं। दुर्भावग्रस्त संस्कारसहित वाणी को भी विष ही कहा गया है। वह प्रथम अनर्थ वक्ता का ही करती है, उसकी गरिमा का हनन करती है और दूसरों की दृष्टि में उसका सम्मान गिरा देती है; किंतु यदि अमृतवचन बोले जाए तो उसमें वक्ता को अपने आप में उल्लास का उभार दीखता है और समीपवर्त्ती लोग उसका रसास्वादन करके तृप्त होते हैं। विवेक, तथ्य और दूरदृष्टि एवं सदुद्देश्य के सम्मिश्रण के साथ किए गए शब्दोच्चार को सरस्वती कहा गया है। जिह्वा पर सरस्वती के आवर्तन का अलंकार यह संकेत करता है कि सज्जनता का बहुत कुछ परिचय उनकी मधुमयी वाणी से प्राप्त होता है।
कामकाजी बातों के अतिरिक्त जहाँ भावोत्तेजक एवं विचार-परिष्कार की दृष्टि से जो भी वार्त्तालाप किया जाता है, वह वस्तुतः जप का ही एक प्रकार है। जप का उद्देश्य है; अमुक शब्दावली को बार-बार कहते रहने के फलस्वरूप मंत्र में सन्निहित विचारधारा को हदयंगम करना— परिपक्व बनाना। का पाठ, भक्तिगीतों का गायन इसी दृष्टि से किया जाता है। यह प्रयोजन समय-समय पर विचार-विनिमय अथवा परामर्शपरक आदान-प्रदान से भी संभव हो सकता है। अपने और दूसरों की सद्भावनाओं को उभारने वाला, सत्प्रवृत्तियों को विकसित करने वाला, शब्दोच्चार करने वाला व्यक्ति मौन-साधन एवं जप-उपासना का फल प्राप्त करता है। ऐसे अभिवचन उच्चारणकर्त्ता का भी कल्याण करते हैं, लोक-मंगल का प्रयोजन भी उनसे बड़ी मात्रा में पूरा होता है।
संत विनोबा ने पंढरपुर सर्वोदय सम्मेलन के एक प्रवचन में वाणी की उपासना पर प्रकाश डालते हुए कहा था— “ .......... मेरा बोलना जप के लिए है, प्रचार के लिए नहीं। जिन विचारों को बोलता हूँ, वे दृढ़ होते चले जाते हैं। .... जो किया है आप लोगों ने किया है, मैंने तो जप किया है; भूदान का जप किया तो भूदान मिला। संपत्तिदान का जप किया तो संपत्तिदान मिला। न तो मैं यज्ञ करता हूँ, न दान करता हूँ, न तप करता हूँ; मैं तो केवल जप ही करता हूँ और जप से मेरे सारे काम बन जाते हैं।”
शतपथ ब्राह्मण की उक्ति है कि, “जनसमाज का मैल धोने वाला शब्द-प्रवाह ही सारस्वत मंत्र है। सरस्वती के अनुग्रह से अनेकों सिद्धियाँ मिलती हैं, अष्टसिद्धि और नवऋद्धि की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती के उपासनात्मक कर्मकांडों का अपना महत्त्व है, पर सर्वजनीन सारस्वत मंत्र वह शब्दोच्चार है, जिसे सत्प्रयोजन के लिए, सद्भावना, विवेकशीलता और मधुरासम्मिश्रित करके बोला गया हो। इस स्तर का भाषण, चाहे वह स्वल्प शब्दों का ही क्यों न हो, सब कल्याण की परम श्रेयस्कर प्रतिक्रिया उत्पन्न करता है।