Magazine - Year 1973 - Version 2
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Language: HINDI
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अर्थशास्त्र और अध्यात्म शास्त्र का लक्ष्य एक है
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अर्थशास्त्र के निष्कर्ष यह हैं कि व्यक्ति और समाज को समुन्नत-सुविधा-साधनसंपन्न बनाने के लिए (1) उत्पादन बढ़ाने (2) पूँजी को उपयोगी कार्यों में लगाने तथा (3) संपत्ति के उचित वितरण का ध्यान रखे जाने में पूरी सावधानी बरती जानी चाहिए। यदि इन सबमें आलस्य-प्रमाद बरता जाएगा अथवा अव्यवस्था फैलाई जाएगी तो अर्थसंकट की विपत्ति का सामना करना पड़ेगा और सबको अकारण ही अवांछनीय स्थिति में पड़ना पड़ेगा। विश्व के प्रमुख अर्थशास्त्री इस बात पर जोर देते रहे हैं कि सर्वसाधारण का ध्यान उत्पादक श्रम की आवश्यकता की ओर मोड़ा जाए। डॉ. फेयर चैल्ड, प्रो. पेन्सेन, प्रो. ऐली, प्रो. कोशर, प्रभृति विद्वानों का मत है कि संसार में गरीबी और मँहगाई का प्रमुख कारण यह है कि उत्पादन विलासिता की सामग्री का हो रहा है, जीवनोपयोगी वस्तुओं का नहीं। विलासी उत्पादन का भी महत्त्व है, पर उसकी मात्रा इतनी अधिक न होनी चाहिए कि जीवनचर्या के लिए आवश्यक वस्तुओं की कमी पड़ने लगे। संपन्न लोगों को विलासी वस्तुओं की आवश्यकता हो सकती है, पर गुजारा भर प्राप्त कर सकने वाले बहुसंख्यक जनसमुदाय को तो वही चीजें चाहिए, जो निर्वाह की अनिवार्य आवश्यकता पूरी कर सकें।
उत्पादक श्रम की ओर हम सबका ध्यान आकर्षित होना चाहिए। श्रम तो कितने ही व्यक्ति करते हैं, पर उसका स्तर उत्पादक श्रेणी में गिना जाने लायक क्वचित ही होता है। उत्पादक श्रम में जितनी अरुचि या उपेक्षा बरती जाएगी, उतनी ही जीवनोपयोगी वस्तुओं की मात्रा घटती जाएगी और उनके अभाव में लोगों को आर्थिक तंगी, महंगाई तथा अभावग्रस्तताजन्य अनेक कष्ट सहने पड़ेंगे। अध्यात्मशास्त्र के नियम भी अर्थशास्त्र की ही तरह हैं, उनका निष्कर्ष है कि (1) व्यक्तित्व, प्रतिभा और सामर्थ्य को निरंतर बढ़ाया जाए। (2) संपत्ति और विभूतियों को सत्प्रयोजन में लगाया जाए। (३) ज्ञान और तप से जो लोग ऊँचे उठें, उनकी उपलब्धियों से समस्त समाज को लाभांवित होने दिया जाए। यदि इन तथ्यों का ध्यान न रखा जाए तो आत्मबल, अवांछनीय आसुरी दिशा में भी लग सकता है और रावण, हिरण्यकश्यप, भस्मासुर जैसे तपस्वी भी विनाशकारी विभीशिकाएँ उत्पन्न कर सकते हैं। इसलिए मात्र साधना, उपासना, तपस्या आदि आत्मिक उपार्जनों पर ही ध्यान केंद्रित न किया जाए; वरन यह भी देखा जाए कि उस भावनात्मक उत्पादन का प्रयोग-उपयोग किस प्रयोजन के लिए किया जा रहा है।
(1) भूमि (2) श्रम (3) पूँजी (4) संगठन (5) साहस; इन पाँच साधनों को प्रधान उत्पादक उपकरण माना गया है। इनका उपयोग कहाँ, किस तरह हो रहा है, इस पर कड़ी दृष्ठि रखी जानी चाहिए। अन्यथा इनका दुरुपयोग विघातक उत्पादन भी खड़े कर सकता है और उनसे विपत्तियों की विभीषिका सहने के लिए विवश होना पड़ सकता है, इच्छानुसार कुछ भी उत्पादन करने लगने की स्वतंत्रता को सीमित ही किया जाना चाहिए। समाज और राष्ट्र का कर्त्तव्य है कि विलासी प्रसाधनों पर नियंत्रण रखें और हानिकारक वस्तुएँ उत्पन्न करने की निर्बाध छूट को सहन न करें।
प्रो. टामस, जेवन्स, डॉ. मार्शल, प्रभृति श्रम विशेषज्ञ यही कहते रहे हैं कि कोई निठल्ला न रहे, कोई हराम की कमाई न खाने पाए, किसी को बेकार न रहना पड़े, तभी किसी देश की आर्थिक स्थिति सुव्यस्थित रह सकती हैं। हेग विश्वविश्वालय के स्वास्थ्यविज्ञानी डॉ. अलवर्ट ने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य संबंधी वर्त्तमान विकृतियों का बहुत बड़ा कारण श्रम-व्यवस्था में व्यतिरेक को माना है। उनका कहना है कि समुचित श्रम की न्यूनाधिकता ही कायिक और मानसिक स्वास्थ्य-संतुलन को नष्ट करने का प्रधान कारण है। व्यक्ति के जीवनक्रम में ऐसे श्रम का समुचित स्थान रहना चाहिए, जिसमें उपयोगी एवं आवश्यक तत्त्वों का बाहुल्य हो, साथ ही उसकी मात्रा भी स्वास्थ्य-संतुलन की दृष्टि से इतनी न रहनी चाहिए, जो न न्यून हो और न अधिक।
अध्यात्मशास्त्र का मंतव्य यह है कि हर व्यक्ति को अपने कायिक और मानसिक क्षेत्र को उर्वर भूमि मानकर उसमें सद्गुणों की, सत्कर्मों की, सत्स्वभाव की कृषि करनी चाहिए। सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों की बहुमूल्य फसलें उगानी चाहिए। मात्र धन ही संपदा नहीं है, असली कमाई कृषिफार्मों, कारखानों आदि में ही नहीं होतीं; वरन वास्तविक दौलत तो कायकलेवर एवं मन: संस्थान में उपार्जित की जाती है। प्रतिभा, समर्थता और गरिमा को बढ़ाने के लिए भी उसी लगन और तत्परता के साथ पुरुषार्थ किया जाना चाहिए, जिस मनोयोग से कि धन कमाई के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहा जाता है, व्यक्ति और समाज को समुन्नत बनाने के लिए धन से भी बढ़कर प्रतिभाशाली और उच्च चरित्र वाले नागरिकों की आवश्यकता पड़ती है।
प्रत्येक व्यक्ति को निर्वाह के लिए श्रम करके आजीविका उपार्जन करनी पड़ती है। पूर्वकाल में आजीविका के प्रचुर साधन सर्वत्र सरल थे। कृषि और पशुपालन के लिए प्रचुर भूमि उपलब्ध थी। वस्त्र, बर्तन, औजार, वाहन, कागज, औषधि जैसी वस्तुओं का उत्पादन परस्पर विनिमय करके प्राप्त हो जाता है। श्रमिकों को अपने निज के अथवा दूसरों के कामों से आजीविका प्राप्त कर लेने की सुविधा थी; पर अब विशालकाय यंत्रों के निर्माण ने, पूँजी के केंद्रीकरण ने, भाप-तेल एवं विद्युत शक्ति ने आजीविका के विशाल स्रोत अपने अधिकार में कर लिए हैं। चंद लोगों के हाथ में इतने साधन आ गए हैं कि वे अगणित लोगों द्वारा कमाई जाने वाली आजीविका स्वयं ही कमा लें। अनेक लोगों द्वारा हो सकने वाला श्रम तथा उत्पादन अपने कल-कारखानों के आधार पर स्वयं ही कर लें। इससे एक ओर कुछ लोग धनकुबेर होते चले जाते हैं और कुछ के लिए आजीविका का द्वार अवरुद्ध हो जाता है। समाज और सरकार का कर्त्तव्य है कि उस अव्यवस्था को रोकें अन्यथा आर्थिक स्वेच्छाचार के कारण गरीब अधिक गरीब और अमीर अधिक अमीर होते चले जाएँगे। इतना ही नहीं, आजीविका के अभाव में अगणित लोगों को भूखा मरना पड़ेगा।
मनोबल बढ़ाने के लिए दुस्साहस और दुष्कर्मों का अवलंबन अवांछनीय है। असुर पक्ष में तांत्रिक — वाममार्गी उन उपायों को बेहिचक प्रयुक्त किया जाता है, जिनकी गणना न्याय-नीति की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। उनके संप्रदायों में पशुबलि-प्रथा प्रचलित है। कहीं-कहीं साधनारत व्यक्ति मादक द्रव्यों का भी सेवन करते हैं। कापालिक और अघोर संप्रदायों में ऐसे कृत्य भी मनस्वी एवं तेजस्वी बनाने के लिए काम में लाए जाते हैं, जिन्हें अनुकरणीय एवं प्रशंसनीय नहीं कहा जा सकता। कई सिद्धयोगी अपनी सिद्धियों को, अपने को चमत्कारी— सिद्ध— प्रख्यात करने में अथवा स्वर्गमुक्ति के व्यक्तिगत लाभ में ही खरच कर डालते हैं। अर्थशास्त्र की तरह अध्यात्मशास्त्र का भी यही नियम है कि विशिष्ठ उत्पादन की वह पूँजी, जो निर्वाह खरच से बच जाए, ऐसे ही कामों में लगाई जानी चाहिए, जिससे अतिरिक्त उत्पादन बढ़ने में सहायता मिले, भले ही पूँजी धन के रूप में हो अथवा विभूतियों के रूप में।
अर्थशास्त्री प्रो. वेनहम और प्रो. मार्शल इस बात के पक्ष में हैं कि जिस प्रकार आचरण में नैतिक-अनैतिक का अंतर किया गया है और समाज-व्यवस्था में न्याय-अन्याय का वर्गीकरण किया गया है। उसी प्रकार उत्पादन में वांछनीय और अवांछनीय का विभाजन किया जाना चाहिए। ऐसे नियम बनाए जाने चाहिए, जिनके कारण अवांछनीय उत्पादन की दिशा में बढ़ने वालों को कठिनाइयों का सामना करना पड़े। साथ ही यह व्यवस्था भी होनी चाहिए कि उपयोगी उत्पादन के लिए उत्सुक लोगों की अड़चनें सरल बनाने के लिए सरकार एवं समाज का सहयोग उपलब्ध रहे।
प्रो. मिल ने सक्रिय और निष्क्रिय दो भागों में पूँजी का विभाजन किया है। ऐसी इमारतें, जो दर्शनीय तो हैं; पर किसी प्रकार का लाभ उत्पन्न नहीं करती, उनकी दृष्टि में निष्क्रिय हैं। वे कहते हैं— “भले ही कोई संस्थान धार्मिक या सांस्कृतिक संस्थान ही हो, पर उनका स्वरूप ऐसा होना चाहिए कि वे उत्पादन की व्यवस्था भले ही न जुटाएँ; पर प्रेरणा तो करें ही। जो उपयोगी उत्पादन से विरक्ति पैदा करते हैं, उन कार्यों एवं व्यक्तियों को निष्क्रिय स्तर का गिना जाना चाहिए। सक्रिय पूँजी वह है, जिसके कारण संपदा, आजीविका एवं सुविधा-साधनों की अभिवृद्धि में सहायता मिलती है।”
धन की ही भाँति प्रतिभा, ज्ञान और परमार्थ का उत्पादन निरंतर किया जाना चाहिए। यह आत्मिक क्षेत्र की सक्रियता है। जिस तरह सामर्थ्य रहते हुए भी कुछ लोग बाल-बच्चे कमाऊ हो जाने, बाल पक जाने, संपत्ति बहुत होने का बहाना करके यदि निष्क्रिय पड़े रहते हैं, तो यह एक प्रकार का सामाजिक अपराध है। इससे राष्ट्रीय उत्पादन घटता है, संपदा और समृद्धि घटती है और उसका प्रभाव प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सभी पर पड़ता है। रोगी-अपंगों का निष्क्रिय होना क्षम्य हो सकता है, पर जो सशक्त और समर्थ हैं, उन्हें व्यक्तिगत लाभ की दृष्टि से नहीं, समाजगत उन्नति को ध्यान में रखते हुए अपना श्रम-पुरुषार्थ उसी तरह जारी रखना चाहिए, जिस तरह समझदार कृषक या व्यापारी अभावग्रस्त न होने पर भी अधिक वृद्ध हो जाने पर भी आजीवन कार्य-संलग्न रहते हैं।
डॉ. एडम स्मिथ, प्रो. मार्शल, प्रो. टामस, प्रो. चैपमैन व्यक्ति पूँजी अभीष्ट मात्रा में रख सकने के अधिकार को तो स्वीकार करते हैं, पर वे कहते हैं कि उसे अवरुद्ध करके निष्क्रिय बना देने का अधिकार किसी संपत्तिवान को नहीं होना चाहिए। पूँजी को उत्पादक कार्यों में सतत संलग्न रहना चाहिए, साथ ही वे व्यवसाय ऐसे होने चाहिए, जिनसे प्रारंभिक आवश्यकताओं की पूर्ति को प्रधानता मिल सके। विलासी उत्पादन की मात्रा इतनी रहनी चाहिए, जिससे उपयोगी उत्पादन में अड़चन उत्पन्न न हो।
प्रो. फिशर और प्रो. बैनहल संपत्ति का अर्थ उन पदार्थों से लेते हैं, जो जनता की आवश्यकता पूरी करें। रत्न, सोना, चाँदी, मुद्रा को धन का परिवर्तन माध्यम कह सकते हैं, वस्तुतः वह अपने आप में स्वतंत्र रूप से धन नहीं है।
प्रो. टामस, प्रो. चैपमैन और डॉ. मार्शल उसी पूँजी को और उसी व्यवसाय को आदर्श मानते हैं, जो जनता की उचित आवश्यकताओं को पूरी करने की व्यवस्था जुटाए। पूँजी चाहे व्यक्तिविशेष के पास हो अथवा किसी संगठन के पास, उनकी मात्रा का महत्त्व नहीं। राष्ट्रीय दृष्टि से उसी संपत्ति की गणना की जानी चाहिए, जो जन-सुविधा के साधन जुटाने में संलग्न रहे।
ज्ञान की संपदा जिनके पास हैं, वे उसको उदार धनी-मानियों की तरह लोक-मंगल के लिए नियोजित करने का सत्साहस दिखाएँ। ढलती उम्र में बच्चों के समर्थ हो जाने अथवा रिटायर होने पर आमतौर से लोग बेकारी, मटरगश्ती में दिन काटते हैं, यह समाज का ऋणभार-बैठने की तरह ही हेय है। किसी की भी प्रगति एकाकी प्रयत्न से नहीं हो सकती, जो भी ऊँचा चढ़ा या आगे बढ़ा है, उसे समाज के सहयोग से ही इस प्रकार लाभांवित होने का अवसर मिला है, अस्तु उसका कानूनी न सही, नैतिक उत्तरदायित्व यह है कि जब भी अवसर मिले, समाज का ऋण चुकाने के लिए अपने बचे हुए समय, ज्ञान एवं प्रभाव को लोक-मंगल के लिए प्रयुक्त करें। जमीन में सोना गाड़ने अथवा जेवर लटकाए फिरने वाले लोग जिस तरह पूँजीगत लाभ से समाज में उद्योग-व्यवसायों में गतिरोध उत्पन्न करते हैं, उस लाभ से अनेकों को रोजी प्राप्त करने में अवरोध उत्पन्न करते हैं, उसी प्रकार आत्मिक एवं बौद्धिक संपदासंपन्न लोग भी यदि अपनी विभूतियों को अपने या परिवार तक के लिए ही अवरुद्ध करते हैं तो उससे मानव समाज की प्रगति में बाधा ही उत्पन्न होती है। विभूतिवान व्यक्ति यदि अपने को मिला विशेष ईश्वरीय अनुदान विलासी प्रयोजनों में खरच कर डालते हैं, स्वयं के शौक-मौज तक सीमित रहते हैं तो समझना चाहिए कि भले ही यह सामान्य प्रचलन जैसा दिखे, आत्मिक दृष्टिकोण के अनुसार इस रीति-नीति को गर्हित ही ठहराया जाएगा।
उत्पादन की तरह ही वितरण-व्यवस्था का भी महत्त्व है। उत्पादन को यदि कुछ लोग अपने कब्जे में करके रोके रखें और उपभोक्ताओं को उनके लिए तरसाकर मनमाने दाम वसूल क तो यह एक प्रकार से समाजद्रोह ही होगा। जिस प्रकार पूँजी को गतिशील रहना चाहिए, उसी प्रकार उत्पादन को उपभोक्ता के लिए तुरंत उपलब्ध होने की भी व्यवस्था रहनी चाहिए। अवरोध चाहे पूँजी का किया जा रहा हो, चाहे वस्तुओं को संग्रह करने का, दोनों ही अर्थ-व्यवस्था को ही नहीं— सामाजिक और नैतिक संतुलन को भी गड़बड़ा देता है। डॉ. सैम्युअल के शब्दों में— “पूँजी और उत्पादन में अवरोध उत्पन्न होने से वैसी ही अव्यवस्था उत्पन्न होती है जैसी श्वास-प्रश्वास, रक्ताभिषण एवं मल-विसर्जन में अवरोध उत्पन्न होने पर शरीर पर संकट आता है।”
मनुष्य केवल धन ही नहीं कमाता, उसके उपादन में अन्य अनेक ऐसी विशेषताएँ भी सम्मिलित हैं जो वैयक्तिक एवं सामाजिक सुख-शांति को बढ़ाने में धन से भी अधिक कारगर सिद्ध होती हैं। धन के वितरण का लाभ सर्वसाधारण तक पहुँचाने के लिए साम्यवाद और आत्मवाद दोनों ही एक स्वर से समर्थक हैं। ठीक इसी प्रकार मनुष्य के पास यदि अन्य प्रकार की विशेषताएँ और विभूतियाँ हैं तो उसका प्रसार— वितरण अधिक व्यापक क्षेत्र में होना चाहिए। उससे अधिक लोगों को लाभांवित होना चाहिए। इन प्रतिपादनों का अर्थशास्त्र और अध्यात्मशास्त्र दोनों ही समान रूप से समर्थन करते हैं। इससे स्पष्ट है कि दोनों का क्षेत्र भले ही भिन्न हो, लक्ष्य एक है।
उत्पादक श्रम की ओर हम सबका ध्यान आकर्षित होना चाहिए। श्रम तो कितने ही व्यक्ति करते हैं, पर उसका स्तर उत्पादक श्रेणी में गिना जाने लायक क्वचित ही होता है। उत्पादक श्रम में जितनी अरुचि या उपेक्षा बरती जाएगी, उतनी ही जीवनोपयोगी वस्तुओं की मात्रा घटती जाएगी और उनके अभाव में लोगों को आर्थिक तंगी, महंगाई तथा अभावग्रस्तताजन्य अनेक कष्ट सहने पड़ेंगे। अध्यात्मशास्त्र के नियम भी अर्थशास्त्र की ही तरह हैं, उनका निष्कर्ष है कि (1) व्यक्तित्व, प्रतिभा और सामर्थ्य को निरंतर बढ़ाया जाए। (2) संपत्ति और विभूतियों को सत्प्रयोजन में लगाया जाए। (३) ज्ञान और तप से जो लोग ऊँचे उठें, उनकी उपलब्धियों से समस्त समाज को लाभांवित होने दिया जाए। यदि इन तथ्यों का ध्यान न रखा जाए तो आत्मबल, अवांछनीय आसुरी दिशा में भी लग सकता है और रावण, हिरण्यकश्यप, भस्मासुर जैसे तपस्वी भी विनाशकारी विभीशिकाएँ उत्पन्न कर सकते हैं। इसलिए मात्र साधना, उपासना, तपस्या आदि आत्मिक उपार्जनों पर ही ध्यान केंद्रित न किया जाए; वरन यह भी देखा जाए कि उस भावनात्मक उत्पादन का प्रयोग-उपयोग किस प्रयोजन के लिए किया जा रहा है।
(1) भूमि (2) श्रम (3) पूँजी (4) संगठन (5) साहस; इन पाँच साधनों को प्रधान उत्पादक उपकरण माना गया है। इनका उपयोग कहाँ, किस तरह हो रहा है, इस पर कड़ी दृष्ठि रखी जानी चाहिए। अन्यथा इनका दुरुपयोग विघातक उत्पादन भी खड़े कर सकता है और उनसे विपत्तियों की विभीषिका सहने के लिए विवश होना पड़ सकता है, इच्छानुसार कुछ भी उत्पादन करने लगने की स्वतंत्रता को सीमित ही किया जाना चाहिए। समाज और राष्ट्र का कर्त्तव्य है कि विलासी प्रसाधनों पर नियंत्रण रखें और हानिकारक वस्तुएँ उत्पन्न करने की निर्बाध छूट को सहन न करें।
प्रो. टामस, जेवन्स, डॉ. मार्शल, प्रभृति श्रम विशेषज्ञ यही कहते रहे हैं कि कोई निठल्ला न रहे, कोई हराम की कमाई न खाने पाए, किसी को बेकार न रहना पड़े, तभी किसी देश की आर्थिक स्थिति सुव्यस्थित रह सकती हैं। हेग विश्वविश्वालय के स्वास्थ्यविज्ञानी डॉ. अलवर्ट ने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य संबंधी वर्त्तमान विकृतियों का बहुत बड़ा कारण श्रम-व्यवस्था में व्यतिरेक को माना है। उनका कहना है कि समुचित श्रम की न्यूनाधिकता ही कायिक और मानसिक स्वास्थ्य-संतुलन को नष्ट करने का प्रधान कारण है। व्यक्ति के जीवनक्रम में ऐसे श्रम का समुचित स्थान रहना चाहिए, जिसमें उपयोगी एवं आवश्यक तत्त्वों का बाहुल्य हो, साथ ही उसकी मात्रा भी स्वास्थ्य-संतुलन की दृष्टि से इतनी न रहनी चाहिए, जो न न्यून हो और न अधिक।
अध्यात्मशास्त्र का मंतव्य यह है कि हर व्यक्ति को अपने कायिक और मानसिक क्षेत्र को उर्वर भूमि मानकर उसमें सद्गुणों की, सत्कर्मों की, सत्स्वभाव की कृषि करनी चाहिए। सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों की बहुमूल्य फसलें उगानी चाहिए। मात्र धन ही संपदा नहीं है, असली कमाई कृषिफार्मों, कारखानों आदि में ही नहीं होतीं; वरन वास्तविक दौलत तो कायकलेवर एवं मन: संस्थान में उपार्जित की जाती है। प्रतिभा, समर्थता और गरिमा को बढ़ाने के लिए भी उसी लगन और तत्परता के साथ पुरुषार्थ किया जाना चाहिए, जिस मनोयोग से कि धन कमाई के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहा जाता है, व्यक्ति और समाज को समुन्नत बनाने के लिए धन से भी बढ़कर प्रतिभाशाली और उच्च चरित्र वाले नागरिकों की आवश्यकता पड़ती है।
प्रत्येक व्यक्ति को निर्वाह के लिए श्रम करके आजीविका उपार्जन करनी पड़ती है। पूर्वकाल में आजीविका के प्रचुर साधन सर्वत्र सरल थे। कृषि और पशुपालन के लिए प्रचुर भूमि उपलब्ध थी। वस्त्र, बर्तन, औजार, वाहन, कागज, औषधि जैसी वस्तुओं का उत्पादन परस्पर विनिमय करके प्राप्त हो जाता है। श्रमिकों को अपने निज के अथवा दूसरों के कामों से आजीविका प्राप्त कर लेने की सुविधा थी; पर अब विशालकाय यंत्रों के निर्माण ने, पूँजी के केंद्रीकरण ने, भाप-तेल एवं विद्युत शक्ति ने आजीविका के विशाल स्रोत अपने अधिकार में कर लिए हैं। चंद लोगों के हाथ में इतने साधन आ गए हैं कि वे अगणित लोगों द्वारा कमाई जाने वाली आजीविका स्वयं ही कमा लें। अनेक लोगों द्वारा हो सकने वाला श्रम तथा उत्पादन अपने कल-कारखानों के आधार पर स्वयं ही कर लें। इससे एक ओर कुछ लोग धनकुबेर होते चले जाते हैं और कुछ के लिए आजीविका का द्वार अवरुद्ध हो जाता है। समाज और सरकार का कर्त्तव्य है कि उस अव्यवस्था को रोकें अन्यथा आर्थिक स्वेच्छाचार के कारण गरीब अधिक गरीब और अमीर अधिक अमीर होते चले जाएँगे। इतना ही नहीं, आजीविका के अभाव में अगणित लोगों को भूखा मरना पड़ेगा।
मनोबल बढ़ाने के लिए दुस्साहस और दुष्कर्मों का अवलंबन अवांछनीय है। असुर पक्ष में तांत्रिक — वाममार्गी उन उपायों को बेहिचक प्रयुक्त किया जाता है, जिनकी गणना न्याय-नीति की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। उनके संप्रदायों में पशुबलि-प्रथा प्रचलित है। कहीं-कहीं साधनारत व्यक्ति मादक द्रव्यों का भी सेवन करते हैं। कापालिक और अघोर संप्रदायों में ऐसे कृत्य भी मनस्वी एवं तेजस्वी बनाने के लिए काम में लाए जाते हैं, जिन्हें अनुकरणीय एवं प्रशंसनीय नहीं कहा जा सकता। कई सिद्धयोगी अपनी सिद्धियों को, अपने को चमत्कारी— सिद्ध— प्रख्यात करने में अथवा स्वर्गमुक्ति के व्यक्तिगत लाभ में ही खरच कर डालते हैं। अर्थशास्त्र की तरह अध्यात्मशास्त्र का भी यही नियम है कि विशिष्ठ उत्पादन की वह पूँजी, जो निर्वाह खरच से बच जाए, ऐसे ही कामों में लगाई जानी चाहिए, जिससे अतिरिक्त उत्पादन बढ़ने में सहायता मिले, भले ही पूँजी धन के रूप में हो अथवा विभूतियों के रूप में।
अर्थशास्त्री प्रो. वेनहम और प्रो. मार्शल इस बात के पक्ष में हैं कि जिस प्रकार आचरण में नैतिक-अनैतिक का अंतर किया गया है और समाज-व्यवस्था में न्याय-अन्याय का वर्गीकरण किया गया है। उसी प्रकार उत्पादन में वांछनीय और अवांछनीय का विभाजन किया जाना चाहिए। ऐसे नियम बनाए जाने चाहिए, जिनके कारण अवांछनीय उत्पादन की दिशा में बढ़ने वालों को कठिनाइयों का सामना करना पड़े। साथ ही यह व्यवस्था भी होनी चाहिए कि उपयोगी उत्पादन के लिए उत्सुक लोगों की अड़चनें सरल बनाने के लिए सरकार एवं समाज का सहयोग उपलब्ध रहे।
प्रो. मिल ने सक्रिय और निष्क्रिय दो भागों में पूँजी का विभाजन किया है। ऐसी इमारतें, जो दर्शनीय तो हैं; पर किसी प्रकार का लाभ उत्पन्न नहीं करती, उनकी दृष्टि में निष्क्रिय हैं। वे कहते हैं— “भले ही कोई संस्थान धार्मिक या सांस्कृतिक संस्थान ही हो, पर उनका स्वरूप ऐसा होना चाहिए कि वे उत्पादन की व्यवस्था भले ही न जुटाएँ; पर प्रेरणा तो करें ही। जो उपयोगी उत्पादन से विरक्ति पैदा करते हैं, उन कार्यों एवं व्यक्तियों को निष्क्रिय स्तर का गिना जाना चाहिए। सक्रिय पूँजी वह है, जिसके कारण संपदा, आजीविका एवं सुविधा-साधनों की अभिवृद्धि में सहायता मिलती है।”
धन की ही भाँति प्रतिभा, ज्ञान और परमार्थ का उत्पादन निरंतर किया जाना चाहिए। यह आत्मिक क्षेत्र की सक्रियता है। जिस तरह सामर्थ्य रहते हुए भी कुछ लोग बाल-बच्चे कमाऊ हो जाने, बाल पक जाने, संपत्ति बहुत होने का बहाना करके यदि निष्क्रिय पड़े रहते हैं, तो यह एक प्रकार का सामाजिक अपराध है। इससे राष्ट्रीय उत्पादन घटता है, संपदा और समृद्धि घटती है और उसका प्रभाव प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सभी पर पड़ता है। रोगी-अपंगों का निष्क्रिय होना क्षम्य हो सकता है, पर जो सशक्त और समर्थ हैं, उन्हें व्यक्तिगत लाभ की दृष्टि से नहीं, समाजगत उन्नति को ध्यान में रखते हुए अपना श्रम-पुरुषार्थ उसी तरह जारी रखना चाहिए, जिस तरह समझदार कृषक या व्यापारी अभावग्रस्त न होने पर भी अधिक वृद्ध हो जाने पर भी आजीवन कार्य-संलग्न रहते हैं।
डॉ. एडम स्मिथ, प्रो. मार्शल, प्रो. टामस, प्रो. चैपमैन व्यक्ति पूँजी अभीष्ट मात्रा में रख सकने के अधिकार को तो स्वीकार करते हैं, पर वे कहते हैं कि उसे अवरुद्ध करके निष्क्रिय बना देने का अधिकार किसी संपत्तिवान को नहीं होना चाहिए। पूँजी को उत्पादक कार्यों में सतत संलग्न रहना चाहिए, साथ ही वे व्यवसाय ऐसे होने चाहिए, जिनसे प्रारंभिक आवश्यकताओं की पूर्ति को प्रधानता मिल सके। विलासी उत्पादन की मात्रा इतनी रहनी चाहिए, जिससे उपयोगी उत्पादन में अड़चन उत्पन्न न हो।
प्रो. फिशर और प्रो. बैनहल संपत्ति का अर्थ उन पदार्थों से लेते हैं, जो जनता की आवश्यकता पूरी करें। रत्न, सोना, चाँदी, मुद्रा को धन का परिवर्तन माध्यम कह सकते हैं, वस्तुतः वह अपने आप में स्वतंत्र रूप से धन नहीं है।
प्रो. टामस, प्रो. चैपमैन और डॉ. मार्शल उसी पूँजी को और उसी व्यवसाय को आदर्श मानते हैं, जो जनता की उचित आवश्यकताओं को पूरी करने की व्यवस्था जुटाए। पूँजी चाहे व्यक्तिविशेष के पास हो अथवा किसी संगठन के पास, उनकी मात्रा का महत्त्व नहीं। राष्ट्रीय दृष्टि से उसी संपत्ति की गणना की जानी चाहिए, जो जन-सुविधा के साधन जुटाने में संलग्न रहे।
ज्ञान की संपदा जिनके पास हैं, वे उसको उदार धनी-मानियों की तरह लोक-मंगल के लिए नियोजित करने का सत्साहस दिखाएँ। ढलती उम्र में बच्चों के समर्थ हो जाने अथवा रिटायर होने पर आमतौर से लोग बेकारी, मटरगश्ती में दिन काटते हैं, यह समाज का ऋणभार-बैठने की तरह ही हेय है। किसी की भी प्रगति एकाकी प्रयत्न से नहीं हो सकती, जो भी ऊँचा चढ़ा या आगे बढ़ा है, उसे समाज के सहयोग से ही इस प्रकार लाभांवित होने का अवसर मिला है, अस्तु उसका कानूनी न सही, नैतिक उत्तरदायित्व यह है कि जब भी अवसर मिले, समाज का ऋण चुकाने के लिए अपने बचे हुए समय, ज्ञान एवं प्रभाव को लोक-मंगल के लिए प्रयुक्त करें। जमीन में सोना गाड़ने अथवा जेवर लटकाए फिरने वाले लोग जिस तरह पूँजीगत लाभ से समाज में उद्योग-व्यवसायों में गतिरोध उत्पन्न करते हैं, उस लाभ से अनेकों को रोजी प्राप्त करने में अवरोध उत्पन्न करते हैं, उसी प्रकार आत्मिक एवं बौद्धिक संपदासंपन्न लोग भी यदि अपनी विभूतियों को अपने या परिवार तक के लिए ही अवरुद्ध करते हैं तो उससे मानव समाज की प्रगति में बाधा ही उत्पन्न होती है। विभूतिवान व्यक्ति यदि अपने को मिला विशेष ईश्वरीय अनुदान विलासी प्रयोजनों में खरच कर डालते हैं, स्वयं के शौक-मौज तक सीमित रहते हैं तो समझना चाहिए कि भले ही यह सामान्य प्रचलन जैसा दिखे, आत्मिक दृष्टिकोण के अनुसार इस रीति-नीति को गर्हित ही ठहराया जाएगा।
उत्पादन की तरह ही वितरण-व्यवस्था का भी महत्त्व है। उत्पादन को यदि कुछ लोग अपने कब्जे में करके रोके रखें और उपभोक्ताओं को उनके लिए तरसाकर मनमाने दाम वसूल क तो यह एक प्रकार से समाजद्रोह ही होगा। जिस प्रकार पूँजी को गतिशील रहना चाहिए, उसी प्रकार उत्पादन को उपभोक्ता के लिए तुरंत उपलब्ध होने की भी व्यवस्था रहनी चाहिए। अवरोध चाहे पूँजी का किया जा रहा हो, चाहे वस्तुओं को संग्रह करने का, दोनों ही अर्थ-व्यवस्था को ही नहीं— सामाजिक और नैतिक संतुलन को भी गड़बड़ा देता है। डॉ. सैम्युअल के शब्दों में— “पूँजी और उत्पादन में अवरोध उत्पन्न होने से वैसी ही अव्यवस्था उत्पन्न होती है जैसी श्वास-प्रश्वास, रक्ताभिषण एवं मल-विसर्जन में अवरोध उत्पन्न होने पर शरीर पर संकट आता है।”
मनुष्य केवल धन ही नहीं कमाता, उसके उपादन में अन्य अनेक ऐसी विशेषताएँ भी सम्मिलित हैं जो वैयक्तिक एवं सामाजिक सुख-शांति को बढ़ाने में धन से भी अधिक कारगर सिद्ध होती हैं। धन के वितरण का लाभ सर्वसाधारण तक पहुँचाने के लिए साम्यवाद और आत्मवाद दोनों ही एक स्वर से समर्थक हैं। ठीक इसी प्रकार मनुष्य के पास यदि अन्य प्रकार की विशेषताएँ और विभूतियाँ हैं तो उसका प्रसार— वितरण अधिक व्यापक क्षेत्र में होना चाहिए। उससे अधिक लोगों को लाभांवित होना चाहिए। इन प्रतिपादनों का अर्थशास्त्र और अध्यात्मशास्त्र दोनों ही समान रूप से समर्थन करते हैं। इससे स्पष्ट है कि दोनों का क्षेत्र भले ही भिन्न हो, लक्ष्य एक है।