Magazine - Year 1973 - Version 2
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Language: HINDI
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मंत्रविद्या ध्वनि विज्ञान पर आधारित है
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प्राचीनकाल में किसी देश पर कोई दूसरा राजा आक्रमण करता था तो उसकी सैन्य गतिविधियों को जानने के लिए पृथ्वी से कान सटाकर यह पता लगाया जाता था कि हलचल किस दिशा में, कितनी दूरी पर हो रही है। ध्वनि के बारे में यह समझा जाता है कि वह वायु के माध्यम से सुनी जाती है; पर तथ्य यह है कि पृथ्वी की ध्वनिग्राहक और प्रसारक शक्ति वायु से कहीं अधिक है।
आमतौर से शब्दों को सुनने के लिए कानों का प्रयोग किया जाता है, पर कानों की सामर्थ्य बहुत स्वल्प है। इसका एक कारण तो यह है कि ध्वनियाँ एक जैसी नहीं होती। कुछ के कंपन ही ऐसे होते हैं जो हमारे कानों के परदों से टकराकर मस्तिष्क द्वारा अनुभव की जा सकने जैसी हलचलें उत्पन्न कर सके। जो इस स्तर की होती हैं, उन्हें ही कान सुन सकते हैं। दूसरा कारण यह है कि वे कानों की पकड़ में आ सकने योग्य स्तर की होते हुए भी बहुत दूरी के कारण इतनी हलकी और झीनी पड़ जाती है कि कान उनका ठीक तरह अनुभव न कर सकें। कानों की पकड़ से बाहर की इन ध्वनियों को सुनना कई दृष्टि से आवश्यक है। रचनात्मक प्रयोजनों के लिए इनकी उपयोगिता है, साथ ही आपत्ति से बचने के लिए भी इनकी आवश्यकता है।
मेघों की दूरगामी हलचलों को मोर के कान सुन लेते हैं और वह उस पूर्वसूचना की अभिव्यक्ति, अपनी प्रसन्नता प्रकट करने वाली आवाज में बार-बार करता रहता है। मकड़ी को वर्षा का पूर्वाभास होता है और वह अपने जाले बनाने-समेटने का उपक्रम उसी आधार पर करती है। मकान गिरने की पूर्व हलचलें बिल्ली के कान आसानी से सुन लेते हैं और वह किसी दीवार के गिरने या छत के बैठने से पहले ही अपने बच्चों को ले भागती है। मनुष्य ने इस आवश्यकता की पूर्ति वैज्ञानिक उपकरणों के ध्वनिसंवेदक-यंत्रों के माध्यम से की है।
इस दिशा में वैज्ञानिक प्रगति का प्रथम चरण इसी मान्यता को लेकर आगे बढ़ा था कि वायु की अपेक्षा पृथ्वी की ध्वनिग्राहक शक्ति अधिक है। द्वितीय महायुद्ध में शत्रुसेना की हलचलों को जानने के लिए एक ऐसा यंत्र बना था, जो पृथ्वीतल पर थोड़ा गाड़ दिया जाता था, थोड़ा ऊपर रहता था, इसमें अभ्रक का खोल और भीतर पारा भरा रहता था। दो नलियाँ उससे निकलती थीं और दोनों कानों में लगाई जाती थीं। जिस तरह हृदय की घड़कन जानने के लिए छाती पर 'स्टेथोस्कोप' लगाकर भीतर की स्थिति जानी जाती है, ठीक उसी प्रकार वह यंत्र भूतल पर हो रही दूरवर्त्ती हलचलों की जानकारी देता था।
पीछे आकाश में भरी विद्युत ऊर्जा और कंपनों को समझने वाले यंत्र चले। इनमें प्रमुख था — 'माइक्रासफोन'। यह आकाश में हो रही हलचलों को पकड़ता था। शत्रुसेना की बारूदी हलचलें इससे सहज ही सुनी जा सकती थीं। बंदूक या तोप दागने में तीन प्रकार की आवाजें होती हैं। पहली आवाज उस समय होती है जब नली से बाहर गैस निकलती है, दूसरी तब जब हवा में गोली सनसनाती हुई दौड़ती है, तीसरी तब जब गोली निशाने से टकराती है। इन तीनों का पृथक्करण कानों द्वारा संभव नहीं, क्योंकि यह हलचलें इतनी तेजी से होती हैं कि कान और मस्तिष्क उसका भेद समझने में समर्थ नहीं होते; किंतु यंत्रों से यह वर्गीकरण आसानी से हो जाता है और पता चल जाता है कि बारूदी अस्त्र कितनी संख्या में, कितनी दूरी पर, किस स्तर की गोलाबारी कर रहे हैं।
पृथ्वी और आकाश के अतिरिक्त पीछे जल की सतह पर दौड़ती हुई ध्वनियों द्वारा भी जानकारियाँ प्राप्त करने की चेष्टा की गई और सफलता मिली। पानी के जहाजों और पनडुब्बियों की हलचलें समुद्र की सतह पर दौड़ती हैं। पृथ्वी की भाँति इस जल सतह के साथ जुड़ी हुई ध्वनि-प्रेरणा से भी यह जाना जाने लगा कि कहाँ, कितनी दूर पर, किस स्तर की क्या हलचल हो रही है। इस जानकारी के स्रोत खुल जाने पर समुद्रयुद्ध में सतर्कता बरतने का द्वार खुल गया। जर्मन पनडुब्बियों ने द्वितीय महायुद्ध में जो आतंक खड़ा किया था, उससे एक बार ऐसा लगने लगा था कि समुद्र साम्राज्य का अधिपति अब जर्मनी ही बन गया है; किंतु उस आतंक को विज्ञान की उपलब्धि ने समाप्त कर दिया, जिसके कारण पनडुब्बियों की रहस्यमय हलचलों का न केवल पता ही लगा लिया गया, वरन उन्हें कारगर ढंग से नष्ट भी कर दिया गया। इसके लिए हाइड्रोफोन यंत्र के अविष्कार ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निबाही।
पानी की सतह पर जो ध्वनि कंपन दौड़ते हैं, उनकी प्रतिक्रिया उसी मूल उद्गम की ओर लौटती है, जहाँ से वह उत्पन्न हुई थी। हाइड्रोफोन की विद्युत उसी प्रतिध्वनि का पीछा करती है और यह बता देती है कि प्रस्तुत ध्वनि-प्रवाह का उद्गम किस आकृति-प्रकृति का है।
अब वायुयान-जलयान ही नहीं, धरती के भीतर और ऊपर जो कुछ भी है, उसे आँखों से देखने की जरूरत नहीं है, वह सारी जानकारी ध्वनी कंपनों के आधार पर नहीं जानी जा सकती है। पृथ्वी, जल, वायु, आकाश, गरमी इन सबको अब मात्र जड़तत्त्व नहीं समझा जा रहा, वरन उनके साथ चलने वाले ध्वनि-प्रवाहों की अपनी महत्ता है, उन प्रवाहों की अभी जो हलचलें हो रही हैं, इतना ही जाना जा सका है। यह शोध जैसे-जैसे आगे बढ़ेगी, वैसे-ही-वैसे हर तत्त्व एक बोलती— बात करती इकाई की तरह अपने इर्द-गिर्द छिपे रहस्यों का उद्घाटन करता दिखाई देगा।
घटनाएँ ध्वनि का रूप धारण करती हैं। ध्वनि और प्रकाश ऐसे दो आधार हैं, जिनके आधार पर स्थूल को सूक्ष्म में और सूक्ष्म को स्थूल में परिवर्तित किया जा रहा है। अंतरिक्ष में विविध स्तर के ध्वनि कंपन निरंतर गतिशील रहते हैं, यदि किसी को कर्णेंद्रिय से अधिक उच्चस्तर की श्रवणशक्ति मिल जाए तो वह श्रवणातीत ध्वनियों को सुन-समझ सकता है। चोर, भूत तथा वर्त्तमान में घटित हुए दूरवर्त्ती अथवा समीपवर्त्ती घटनाओं को जान-समझ सकता है। नादयोग के अभ्यासी इसी शक्ति को जगाते हैं और सूक्ष्मजगत में हो रही हलचलों के आधार पर भूत, वर्त्तमान तथा भविष्य का वह ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, जो सर्वसाधारण की पहुँच से बाहर होता है। ध्यानयोग से यही प्रयोजन प्रकाश के रूप, धारणाओं के माध्यम से पूरा किया जाता है।
मंत्रशक्ति के द्वारा संभव हो सकने वाले चमत्कारों की पृष्ठभूमि में ध्वनि विज्ञान के सिद्धांत ही काम करते हैं। एक विशेष मनःस्थिति में, परिष्कृत शरीर स्थिति में, विशेष कर्मकांड एवं विशेष उच्चारण अपने ढंग की एक विलक्षण शक्ति उत्पन्न करते हैं। उसे मंत्रशक्ति कहा जाता है, इसका प्रयोग कारतूस भरी बंदूक की तरह किया जा सकता है। सूक्ष्मध्वनि-प्रवाह को समझकर जहाँ रहस्यमय अविज्ञात को ज्ञात बनाया जा सकता है, वहाँ इसी ध्वनिशस्त्र का प्रहार करके अवरोधों और दुरित-दुर्गमों को भी चूर्ण-विचूर्ण किया जा सकता है। मंत्रविद्या एक प्रकार से ध्वनि विज्ञान का ही महत्त्वपूर्ण प्रयोग है।
हारमोनियम या पियानो में ‘स्वरसप्तक’ कीबोर्ड तथा उनसे जुड़ी हुई रीड होती हैं। कीबोर्ड की रीड दबाते हैं, तो संबंधित केंद्रों से विभिन्न प्रकार के स्वर निकलते हैं। उस कुँजी दबाने के क्रम को यदि लयबद्ध किया जा सके तो इच्छित राग-रागनियाँ बजती हैं। मुख एक प्रकार का कीबोर्ड है, उसमें से विभिन्न शब्दों के उच्चारण मेरुदंड स्थिति षट्चक्रों पर प्रभाव डालते हैं। यों वार्त्तालाप में असंबंध उच्चारण होता रहता है, पर यदि जप की शैली में कुछ नियत शब्दगुंथल बार-बार क्रमबद्ध रूप से दुहराए जाते रहें तो वह जप-प्रक्रिया षट्चक्र संस्थानों को तरंगित एवं झंकृत करती हैं। यही कंपन साधानात्मक क्रिया-कृत्यों की हलचलों के साथ मिलकर एक ऐसी दिव्य चेतनधारा उत्पन्न करते हैं, जिसका प्रयोग अभीष्ट प्रयोजनों के लिए सफलतापूर्वक किया जा सकता है।
आमतौर से शब्दों को सुनने के लिए कानों का प्रयोग किया जाता है, पर कानों की सामर्थ्य बहुत स्वल्प है। इसका एक कारण तो यह है कि ध्वनियाँ एक जैसी नहीं होती। कुछ के कंपन ही ऐसे होते हैं जो हमारे कानों के परदों से टकराकर मस्तिष्क द्वारा अनुभव की जा सकने जैसी हलचलें उत्पन्न कर सके। जो इस स्तर की होती हैं, उन्हें ही कान सुन सकते हैं। दूसरा कारण यह है कि वे कानों की पकड़ में आ सकने योग्य स्तर की होते हुए भी बहुत दूरी के कारण इतनी हलकी और झीनी पड़ जाती है कि कान उनका ठीक तरह अनुभव न कर सकें। कानों की पकड़ से बाहर की इन ध्वनियों को सुनना कई दृष्टि से आवश्यक है। रचनात्मक प्रयोजनों के लिए इनकी उपयोगिता है, साथ ही आपत्ति से बचने के लिए भी इनकी आवश्यकता है।
मेघों की दूरगामी हलचलों को मोर के कान सुन लेते हैं और वह उस पूर्वसूचना की अभिव्यक्ति, अपनी प्रसन्नता प्रकट करने वाली आवाज में बार-बार करता रहता है। मकड़ी को वर्षा का पूर्वाभास होता है और वह अपने जाले बनाने-समेटने का उपक्रम उसी आधार पर करती है। मकान गिरने की पूर्व हलचलें बिल्ली के कान आसानी से सुन लेते हैं और वह किसी दीवार के गिरने या छत के बैठने से पहले ही अपने बच्चों को ले भागती है। मनुष्य ने इस आवश्यकता की पूर्ति वैज्ञानिक उपकरणों के ध्वनिसंवेदक-यंत्रों के माध्यम से की है।
इस दिशा में वैज्ञानिक प्रगति का प्रथम चरण इसी मान्यता को लेकर आगे बढ़ा था कि वायु की अपेक्षा पृथ्वी की ध्वनिग्राहक शक्ति अधिक है। द्वितीय महायुद्ध में शत्रुसेना की हलचलों को जानने के लिए एक ऐसा यंत्र बना था, जो पृथ्वीतल पर थोड़ा गाड़ दिया जाता था, थोड़ा ऊपर रहता था, इसमें अभ्रक का खोल और भीतर पारा भरा रहता था। दो नलियाँ उससे निकलती थीं और दोनों कानों में लगाई जाती थीं। जिस तरह हृदय की घड़कन जानने के लिए छाती पर 'स्टेथोस्कोप' लगाकर भीतर की स्थिति जानी जाती है, ठीक उसी प्रकार वह यंत्र भूतल पर हो रही दूरवर्त्ती हलचलों की जानकारी देता था।
पीछे आकाश में भरी विद्युत ऊर्जा और कंपनों को समझने वाले यंत्र चले। इनमें प्रमुख था — 'माइक्रासफोन'। यह आकाश में हो रही हलचलों को पकड़ता था। शत्रुसेना की बारूदी हलचलें इससे सहज ही सुनी जा सकती थीं। बंदूक या तोप दागने में तीन प्रकार की आवाजें होती हैं। पहली आवाज उस समय होती है जब नली से बाहर गैस निकलती है, दूसरी तब जब हवा में गोली सनसनाती हुई दौड़ती है, तीसरी तब जब गोली निशाने से टकराती है। इन तीनों का पृथक्करण कानों द्वारा संभव नहीं, क्योंकि यह हलचलें इतनी तेजी से होती हैं कि कान और मस्तिष्क उसका भेद समझने में समर्थ नहीं होते; किंतु यंत्रों से यह वर्गीकरण आसानी से हो जाता है और पता चल जाता है कि बारूदी अस्त्र कितनी संख्या में, कितनी दूरी पर, किस स्तर की गोलाबारी कर रहे हैं।
पृथ्वी और आकाश के अतिरिक्त पीछे जल की सतह पर दौड़ती हुई ध्वनियों द्वारा भी जानकारियाँ प्राप्त करने की चेष्टा की गई और सफलता मिली। पानी के जहाजों और पनडुब्बियों की हलचलें समुद्र की सतह पर दौड़ती हैं। पृथ्वी की भाँति इस जल सतह के साथ जुड़ी हुई ध्वनि-प्रेरणा से भी यह जाना जाने लगा कि कहाँ, कितनी दूर पर, किस स्तर की क्या हलचल हो रही है। इस जानकारी के स्रोत खुल जाने पर समुद्रयुद्ध में सतर्कता बरतने का द्वार खुल गया। जर्मन पनडुब्बियों ने द्वितीय महायुद्ध में जो आतंक खड़ा किया था, उससे एक बार ऐसा लगने लगा था कि समुद्र साम्राज्य का अधिपति अब जर्मनी ही बन गया है; किंतु उस आतंक को विज्ञान की उपलब्धि ने समाप्त कर दिया, जिसके कारण पनडुब्बियों की रहस्यमय हलचलों का न केवल पता ही लगा लिया गया, वरन उन्हें कारगर ढंग से नष्ट भी कर दिया गया। इसके लिए हाइड्रोफोन यंत्र के अविष्कार ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निबाही।
पानी की सतह पर जो ध्वनि कंपन दौड़ते हैं, उनकी प्रतिक्रिया उसी मूल उद्गम की ओर लौटती है, जहाँ से वह उत्पन्न हुई थी। हाइड्रोफोन की विद्युत उसी प्रतिध्वनि का पीछा करती है और यह बता देती है कि प्रस्तुत ध्वनि-प्रवाह का उद्गम किस आकृति-प्रकृति का है।
अब वायुयान-जलयान ही नहीं, धरती के भीतर और ऊपर जो कुछ भी है, उसे आँखों से देखने की जरूरत नहीं है, वह सारी जानकारी ध्वनी कंपनों के आधार पर नहीं जानी जा सकती है। पृथ्वी, जल, वायु, आकाश, गरमी इन सबको अब मात्र जड़तत्त्व नहीं समझा जा रहा, वरन उनके साथ चलने वाले ध्वनि-प्रवाहों की अपनी महत्ता है, उन प्रवाहों की अभी जो हलचलें हो रही हैं, इतना ही जाना जा सका है। यह शोध जैसे-जैसे आगे बढ़ेगी, वैसे-ही-वैसे हर तत्त्व एक बोलती— बात करती इकाई की तरह अपने इर्द-गिर्द छिपे रहस्यों का उद्घाटन करता दिखाई देगा।
घटनाएँ ध्वनि का रूप धारण करती हैं। ध्वनि और प्रकाश ऐसे दो आधार हैं, जिनके आधार पर स्थूल को सूक्ष्म में और सूक्ष्म को स्थूल में परिवर्तित किया जा रहा है। अंतरिक्ष में विविध स्तर के ध्वनि कंपन निरंतर गतिशील रहते हैं, यदि किसी को कर्णेंद्रिय से अधिक उच्चस्तर की श्रवणशक्ति मिल जाए तो वह श्रवणातीत ध्वनियों को सुन-समझ सकता है। चोर, भूत तथा वर्त्तमान में घटित हुए दूरवर्त्ती अथवा समीपवर्त्ती घटनाओं को जान-समझ सकता है। नादयोग के अभ्यासी इसी शक्ति को जगाते हैं और सूक्ष्मजगत में हो रही हलचलों के आधार पर भूत, वर्त्तमान तथा भविष्य का वह ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, जो सर्वसाधारण की पहुँच से बाहर होता है। ध्यानयोग से यही प्रयोजन प्रकाश के रूप, धारणाओं के माध्यम से पूरा किया जाता है।
मंत्रशक्ति के द्वारा संभव हो सकने वाले चमत्कारों की पृष्ठभूमि में ध्वनि विज्ञान के सिद्धांत ही काम करते हैं। एक विशेष मनःस्थिति में, परिष्कृत शरीर स्थिति में, विशेष कर्मकांड एवं विशेष उच्चारण अपने ढंग की एक विलक्षण शक्ति उत्पन्न करते हैं। उसे मंत्रशक्ति कहा जाता है, इसका प्रयोग कारतूस भरी बंदूक की तरह किया जा सकता है। सूक्ष्मध्वनि-प्रवाह को समझकर जहाँ रहस्यमय अविज्ञात को ज्ञात बनाया जा सकता है, वहाँ इसी ध्वनिशस्त्र का प्रहार करके अवरोधों और दुरित-दुर्गमों को भी चूर्ण-विचूर्ण किया जा सकता है। मंत्रविद्या एक प्रकार से ध्वनि विज्ञान का ही महत्त्वपूर्ण प्रयोग है।
हारमोनियम या पियानो में ‘स्वरसप्तक’ कीबोर्ड तथा उनसे जुड़ी हुई रीड होती हैं। कीबोर्ड की रीड दबाते हैं, तो संबंधित केंद्रों से विभिन्न प्रकार के स्वर निकलते हैं। उस कुँजी दबाने के क्रम को यदि लयबद्ध किया जा सके तो इच्छित राग-रागनियाँ बजती हैं। मुख एक प्रकार का कीबोर्ड है, उसमें से विभिन्न शब्दों के उच्चारण मेरुदंड स्थिति षट्चक्रों पर प्रभाव डालते हैं। यों वार्त्तालाप में असंबंध उच्चारण होता रहता है, पर यदि जप की शैली में कुछ नियत शब्दगुंथल बार-बार क्रमबद्ध रूप से दुहराए जाते रहें तो वह जप-प्रक्रिया षट्चक्र संस्थानों को तरंगित एवं झंकृत करती हैं। यही कंपन साधानात्मक क्रिया-कृत्यों की हलचलों के साथ मिलकर एक ऐसी दिव्य चेतनधारा उत्पन्न करते हैं, जिसका प्रयोग अभीष्ट प्रयोजनों के लिए सफलतापूर्वक किया जा सकता है।