Magazine - Year 1973 - Version 2
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Language: HINDI
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मनुष्य शरीर की बिजली और उसके चमत्कार
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मनुष्य एक प्रकार का अंडा है, जिसके भीतरी केंद्र में जर्दी रहती है और चारों ओर सफेद मांसल पदार्थ। मनुष्य के शरीर को जर्दी कह सकते हैं और उसके चारों ओर फैले हुए तेजोवलय को सफेदी कह सकते हैं। इस दृश्य और अदृश्य दोनों को मिलाकर एक पूर्ण व्यक्तित्व बनता है। असल में यह व्याख्या भी त्रुटिपूर्ण है। मनुष्य जितने क्षेत्र में अपना प्रभाव फेंक सकता है और जितने क्षेत्र से प्रभाव ग्रहण कर सकता, उतने को मनुष्य का संबंध क्षेत्र ही कहा जाएगा। यह परिधि असीम है, इसलिए मनुष्य को भी असीम या अनंत ही माना गया है।
पृथ्वी का दृश्य-पिंड छोटा है, पर उसका वायुमंडल, चुंबकत्व, रेडियो-क्षेत्र, अंतर्गही आदान-प्रदान की परिधि को मिलाकर देखा जाए तो लगेगा कि ब्रह्मांड परिवार की विशालकाय मशीन का वह एक सुसंबद्ध पुर्जामात्र है। विश्व परिवार से पृथक होकर पृथ्वी का कोई अस्तित्व ही नहीं रह जाता। ठीक इसी प्रकार मनुष्य भी विश्वचेतना की शृंखला की एक कड़ीमात्र ही है। घड़ी का छोटा पुर्जा तभी तक उपयोगी है, जब तक वह घड़ी के साथ जुड़ा है, अलग रहकर वह कूड़ा-कचरामात्र है। मनुष्य अपने को एकाकी मानता भले ही रहे, पर तथ्य यह है कि उसका वैभव, सुख एवं प्रगति- प्रयास विश्वचेतना पर ही पूर्णतया निर्भर हैं। आत्मा— उसका कलेवर शरीर— शरीर के इर्द-गिर्द छाया हुआ तेजोवलय— तेजोवलय में सन्निहित सूक्ष्मशक्तियों की हलचलों की अकल्पनीय परिधि— यह सब मिलकर ही मनुष्य की विशालता समझी जानी चाहिए। कायकलेवर की ससीमता और विश्व-ब्रह्मांड की असीमता के बीच की कड़ी यह तेजोवलय ही है, जो मनुष्य के चारों ओर छाया रहता है। आँखों से दीखते हुए भी उसकी भूमिका इतनी आश्चर्यजनक है कि उसे दृश्यकाया से भी अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाना चाहिए। शरीर मर जाता है; पर यह तेजोवलय फिर भी विद्यमान रहता है। भूत-प्रेतों के रूप में उसी की हलचलें देखी जाती हैं। हो सकता है, कोई व्यक्ति कहीं जन्म ले चुका हो और उसका तेजोवलय स्वतंत्र रूप से काम कर रहा हो, प्रेतात्मा की भूमिका निबाह रहा हो ।
धरती और आकाश में काम करने वाली दृश्य एवं अदृश्य शक्तियाँ अपने आप में एकाकी अथवा पूर्ण नहीं हैं। वे दूसरों के अनुदान, संयोग, समन्वय से बनी हैं। अणु की सत्ता जिस रूप में सामने आती है, वह उसकी आपकी एकाकी कमाई नहीं है। उसमें भूतल ही नहीं, अन्य-अन्य लोकों का भी अद्भुत अनुदान जुड़ा होता है अन्यथा आणविक गतिविधियाँ मात्र हलचल बनकर रह जाएँ, उनके द्वारा कोई उत्साहवर्द्धक प्रयोजन पूरा न हो सके।
यही बात मानवी व्यक्तित्व के बारे में भी है। जीवकोषों से विनिर्मित यह घटक यदि अनेकों दूरववर्त्ती सत्ताओं का कृपापात्र न हो तो संभवतः वह क्षुद्र जीवधारी से अधिक कुछ भी न बन पाता।
जड़ अणुओं की गति एक प्रकार की विद्युत उत्पन्न करती है, उसमें जब चेतनसत्ता का समावेश होता है, तो जीवन का— जीवधारियों का आविर्भाव होता है। ध्रुवों के क्षेत्र में चुंबकीय तूफान उठते रहते हैं, जिनका प्रकाश ‘अरोरा बोरीलिस’ तेजोवलय के रूप में छाया रहता है। इसे पृथ्वी के साथ अन्य ग्रहों की सूक्ष्म हलचलों का मिलन-स्पंदन कह सकते हैं। यही है, वह पृथ्वी का ग्रहों के साथ प्रणय-परिणय, जिसके फलस्वरूप कुंती के पाँच पुत्रों की तरह पाँच की विविध-विध हलचलें जन्म लेती हैं और उनके क्रियाकलाप एक-से-एक बढ़कर अद्भुत और शक्तिशाली बने हुए सामने आते रहते हैं।
समुद्र का खारा जल जब धातु विनिर्मित नौकाओं तथा जलयानों से टकराता है तो उससे विद्युत तरंगे उत्पन्न होती हैं। नौकाविज्ञानी इस अनायास होते रहने वाले विद्युत उत्पादन से परिचित रहते हैं और उसकी हानिकारक-लाभदायक प्रतिक्रिया से सतर्क रहते हैं।
ठीक इसी प्रकार शरीरगत जीवाणु भी ईथर एवं वायुमंडल में भरे विद्युत-प्रवाह से टकराते रहते हैं और विद्युत ऊर्जा उत्पन्न करते हैं। जीवकोषों में उन धातुओं तथा रसायनों की समुचित मात्रा रहती है, जो आघातों से उत्तेजित होकर विद्युत-प्रवाह उत्पन्न कर सके। यही कारण है, हर मनुष्य में गरमी ही नहीं रहती; वरन विद्युत-प्रवाह की अनेक स्तरों की धाराएँ बहती रहती हैं। इन्हें यंत्रों द्वारा भली प्रकार परखा-जाना जा सकता है।
मानवी चुंबकत्व विश्वव्यापी ब्रह्मसत्ता के साथ एक तंतुनाल द्वारा जुड़ा रहता है। विष्णु की नाभि में से कमल का उत्पन्न होना और उसके पुष्प पर ब्रह्मा जी का अवतरण, परमात्मा और आत्मा के बीच संबंध-सूत्र की इसी शृंखला का अलंकारिक चित्रण है। गर्भस्थ बालक माता के साथ इसी नालतंतु द्वारा जुड़ा रहता है। नाभि को मध्यकेंद्र माना गया है। नवजात शिशु का नाभि-नाल प्रसव के उपरांत ही बाहर आता है और उसे काटकर दोनों को पृथक करना पड़ता है।
मनुष्य के कान सीमित स्तर के ध्वनि-प्रवाह को ही सुनते हैं; किंतु पशुओं में ऐसी चेतना पाई जाती है, जिसके आधार पर वे उन ध्वनियों को भी सुन सकें जिन्हें सुनने में मनुष्य असमर्थ रहता है। यंत्रों द्वारा ऐसी सीटी बजाई जा सकती है, जिसे मनुष्य तो अनुभव न करें, पर कुत्ता आसानी से सुन सके और उसकी बुलाहट पर दौड़ा आवे। मालिक की आवाज को वह इतनी दूर से सुन सकता है, जितना कि सामान्य मनुष्यों के लिए सुनना सर्वथा असंभव है।
मेज पर एक कोरा कागज बिछाइए। उसके ऊपर एक चुंबक रखिए। एक फुट की ऊँचाई से लोहे का बुरादा धीरे-धीरे बरसाइए, देखा जाएगा कि लोहकण एक विशिष्ट क्रम के अनुसार गिर रहे हैं। यह क्रम चुंबक की बल-रेखाओं के अनुरूप होगा। कागज पर चुंबक की अंतःस्थिति कागज पर गिरे लोहे के बुरादे से भली प्रकार स्पष्ट हो रही होगी।
मनुष्य भी एक प्रकार का चुंबक है, वह अंतरिक्ष से बरसने वाले अनेक भले-बुरे अनुदानों को अपनी आंतरिक स्थिति के अनुरूप स्वीकार-अस्वीकार करता है। वह जैसा कुछ स्वयं है, उसी का चुंबकत्व उसे इस विश्व-ब्रह्मांड में अपनी जैसी सूक्ष्मधारा-प्रवाह से अनायास ही संपन्न, सज्जित करता रहता है।
शरीरविज्ञानियों का मत है कि सामान्यतया किसी मनुष्य की मृत्यु जब घोषित की जाती है, तब भी उसकी पूर्ण मृत्यु नहीं होती। रक्त-प्रवाह रुक जाने के बाद प्रायः 5 मिनट के बाद मस्तिष्क अपना काम करना बंद करता है, इसीलिए कृत्रिम श्वास-प्रश्वास-क्रिया करके मृततुल्य व्यक्ति के हृदय की भाँति पुनः आरंभ कराने का प्रयत्न किया जाता है। मृत्यु क्रमिक होती है, पहले मस्तिष्क मरता है, फिर अन्य अवयव मरते हैं। सबसे अंत में बाल तथा नाखून मरते हैं। फ्रांस राज्यक्रांति के समय एक विद्रोही का सिर काटा गया। सरकारी रिकार्ड में उल्लेख है कि कटा हुआ सिर बहुत देर तक इस तरह होठ और मुँह चलाता रहा, मानो वह कुछ कह रहा हो। पुराने जमाने में जब तलवारों से लड़ाइयाँ लड़ी जाती थी। कटे हुए सिर वाले धड़ उठ खड़े होते थे और हाथ में लगी तलवारों को हवा में चलाते थे। इसी प्रकार कटे हुए सिर भी उछलते देखे गए हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि कानूनी मृत्यु के बाद भी किसी रूप में देर तक जीवन बना रहता है। मरणोपरांत भी क्रियाकलाप चलते रहने वाली इस सत्ता को आत्मवादी तेजोवलय ही मानते रहे हैं।
मस्तिष्क के मध्यभाग से प्रकाशकणों का एक फब्बारा-सा फूटता रहता है। उसकी उछलती हुई तरंगें एक वृत्त बनाती हैं और फिर अपने मूल उद्गम में लौट जाती हैं। यह रेडियो-प्रसारण और संग्रहण जैसी प्रक्रिया है। ब्रह्मरंध्र से छूटने वाली ऊर्जा अपने भीतर छिपी हुई भावस्थिति को विश्व-ब्रह्मांड में ईथर कंपनों द्वारा प्रवाहित करती रहती है। इस प्रकार मनुष्य अपनी चेतना का परिचय और प्रभाव समस्त संसार में फेंकता रहता है। फुहारे की लौटती हुई धाराएँ अपने साथ विश्वव्यापी असीम ज्ञान की नवीनतम घटनात्मक तथा भावनात्मक जानकारियाँ लेकर लौटती हैं, यदि उन्हें ठीक तरह समझा जा सके, ग्रहण किया जा सके तो कोई भी व्यक्ति भूतकालीन और वर्त्तमानकाल की अत्यंत सुविस्तृत और महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त कर सकता है। व्यक्ति में प्रवाह ग्रहण करने की और प्रसारित करने की जो क्षमता है, उसका माध्यम यह ब्रह्मरंध्र अवस्थित ध्रुव-संस्थान ही है। पृथ्वी पर अन्य ग्रहों का प्रचुर अनुदान आता है तथा उसकी विशेषताएँ अन्यत्र चली जाती हैं। यह आदान-प्रदान का कार्य ध्रुवकेंद्रों द्वारा संपन्न होता है। शरीर के भी दो ध्रुव हैं, एक मस्तिष्क, दूसरा जननगह्वर। चेतनात्मक विकरण मस्तिष्क से और भक्तिपरक उर्जा-प्रवाह जननगह्वर से संबंधित है। सूक्ष्म आदान-प्रदान की अतिमहत्त्वपूर्ण प्रक्रिया इन्हीं केंद्र के माध्यम से संचालित होती है।
शारीरिक और मानसिक स्थिति के अनुरूप तेजोवलय की स्थिरता बनती है। यदि स्थिति बदलने लगें तो प्रकाश-पुँज की स्थिति भी बदल जाएगी। इतना ही नहीं समय-समय पर मनुष्य के बदलते हुए स्वभाव तथा चिंतन स्तर के अनुरूप उसमें सामयिक परिवर्तन होते रहते हैं। सूक्ष्मदर्शी उसकी भिन्नताओं को रंग बदलते हुए परिवर्तनों के रूप में देख सकते हैं। शांति और सज्जनता की मनःस्थिति हलके नीले रंग में देखी जाएगी। विनोदी, कामुक, सत्तावान, वैभवशाली, विशुद्ध व्यवहार, कुशलस्तर की मनोभूमि पीले रंग की होती है। क्रोधी, अहंकारी, क्रूर, निष्ठुर, स्वार्थी, हठी और मूर्ख मनुष्य लालवर्ण के तेजोवलय से घिरे रहते हैं, हरा रंग सृजनात्मक एवं कलात्मक प्रवृत्ति का द्योतक है। गहरा बैंगनी चंचलता और अस्थिर मति का प्रतीक है। धार्मिक ईश्वरभक्त और सदाचारी व्यक्तियों की आभा केशरिया रंग की होती है। इसी प्रकार विभिन्न रंगों का मिश्रण मनुष्य के गुण, कर्म, स्वभाव के परिवर्तनों के अनुसार बदलता रहता है। यह तेजोवलय सदा स्थिर नहीं रहता। बदलती हुई मनोवृत्ति प्रकाश-पुँज के रंगों में परिवर्तन कर देती है। यह रंग स्वतंत्र रूप से कुछ नहीं। मनोभूमि में होने वाले परिवर्तन शरीर से निसृत होते रहने वाले ऊर्जा कंपनों की घटती-बढ़ती संख्या के आधार पर आँखों को अनुभव होते हैं। वैज्ञानिक इन्हें ‘फ्रीक्वेन्सी आफ दी वेब्स ’ कहते हैं।
दिव्य दर्शन (क्लेयर वाइन्स), दिव्य अनुभव (साइकोमैन्ट्री), प्रभाव-प्रेषण (टेलिपैथी), संकल्प प्रयोग (सजैशन) जैसे प्रयोग थोड़ी आत्मशक्ति विकसित होते ही आसानी से किए जा सकते हैं। इन विद्याओं पर पिछले दिनों से काफी शोधकार्य होता चला आ रहा है और उन प्रयासों के फलस्वरूप उपयोगी निष्कर्ष सामने आए हैं। परामनोविज्ञान, अतींद्रिय विज्ञान, मैटाफिजिक्स जैसी चेतनात्मक विद्याएँ भी अब रेडियो विज्ञान तथा इलेक्ट्रोनिक्स की ही तरह विकसित हो रही हैं। अचेतन मन की सामर्थ्य के संबंध में जैसे-जैसे रहस्यमय जानकारियों के परत खुलते जाते हैं, वैसे-वैसे यह स्पष्ट होता जाता है कि नर-पशु लगने वाला मनुष्य वस्तुतः असीम और अनंत क्षमताओं का भंडार है। कठिनाई इतनी भर है कि उसकी अधिकांश विकृतियाँ प्रसुप्त अविज्ञात स्थिति में पड़ी हैं। यदि उन्हें खोजा जाएगा और परिपुष्ट किया जा सके तो पेट और प्रजनन में संलग्न नर-कीटक एक प्रचंड शक्तिकेंद्र की तरह अपनी सत्ता और महत्ता का परिचय दे सकता है।
पृथ्वी का दृश्य-पिंड छोटा है, पर उसका वायुमंडल, चुंबकत्व, रेडियो-क्षेत्र, अंतर्गही आदान-प्रदान की परिधि को मिलाकर देखा जाए तो लगेगा कि ब्रह्मांड परिवार की विशालकाय मशीन का वह एक सुसंबद्ध पुर्जामात्र है। विश्व परिवार से पृथक होकर पृथ्वी का कोई अस्तित्व ही नहीं रह जाता। ठीक इसी प्रकार मनुष्य भी विश्वचेतना की शृंखला की एक कड़ीमात्र ही है। घड़ी का छोटा पुर्जा तभी तक उपयोगी है, जब तक वह घड़ी के साथ जुड़ा है, अलग रहकर वह कूड़ा-कचरामात्र है। मनुष्य अपने को एकाकी मानता भले ही रहे, पर तथ्य यह है कि उसका वैभव, सुख एवं प्रगति- प्रयास विश्वचेतना पर ही पूर्णतया निर्भर हैं। आत्मा— उसका कलेवर शरीर— शरीर के इर्द-गिर्द छाया हुआ तेजोवलय— तेजोवलय में सन्निहित सूक्ष्मशक्तियों की हलचलों की अकल्पनीय परिधि— यह सब मिलकर ही मनुष्य की विशालता समझी जानी चाहिए। कायकलेवर की ससीमता और विश्व-ब्रह्मांड की असीमता के बीच की कड़ी यह तेजोवलय ही है, जो मनुष्य के चारों ओर छाया रहता है। आँखों से दीखते हुए भी उसकी भूमिका इतनी आश्चर्यजनक है कि उसे दृश्यकाया से भी अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाना चाहिए। शरीर मर जाता है; पर यह तेजोवलय फिर भी विद्यमान रहता है। भूत-प्रेतों के रूप में उसी की हलचलें देखी जाती हैं। हो सकता है, कोई व्यक्ति कहीं जन्म ले चुका हो और उसका तेजोवलय स्वतंत्र रूप से काम कर रहा हो, प्रेतात्मा की भूमिका निबाह रहा हो ।
धरती और आकाश में काम करने वाली दृश्य एवं अदृश्य शक्तियाँ अपने आप में एकाकी अथवा पूर्ण नहीं हैं। वे दूसरों के अनुदान, संयोग, समन्वय से बनी हैं। अणु की सत्ता जिस रूप में सामने आती है, वह उसकी आपकी एकाकी कमाई नहीं है। उसमें भूतल ही नहीं, अन्य-अन्य लोकों का भी अद्भुत अनुदान जुड़ा होता है अन्यथा आणविक गतिविधियाँ मात्र हलचल बनकर रह जाएँ, उनके द्वारा कोई उत्साहवर्द्धक प्रयोजन पूरा न हो सके।
यही बात मानवी व्यक्तित्व के बारे में भी है। जीवकोषों से विनिर्मित यह घटक यदि अनेकों दूरववर्त्ती सत्ताओं का कृपापात्र न हो तो संभवतः वह क्षुद्र जीवधारी से अधिक कुछ भी न बन पाता।
जड़ अणुओं की गति एक प्रकार की विद्युत उत्पन्न करती है, उसमें जब चेतनसत्ता का समावेश होता है, तो जीवन का— जीवधारियों का आविर्भाव होता है। ध्रुवों के क्षेत्र में चुंबकीय तूफान उठते रहते हैं, जिनका प्रकाश ‘अरोरा बोरीलिस’ तेजोवलय के रूप में छाया रहता है। इसे पृथ्वी के साथ अन्य ग्रहों की सूक्ष्म हलचलों का मिलन-स्पंदन कह सकते हैं। यही है, वह पृथ्वी का ग्रहों के साथ प्रणय-परिणय, जिसके फलस्वरूप कुंती के पाँच पुत्रों की तरह पाँच की विविध-विध हलचलें जन्म लेती हैं और उनके क्रियाकलाप एक-से-एक बढ़कर अद्भुत और शक्तिशाली बने हुए सामने आते रहते हैं।
समुद्र का खारा जल जब धातु विनिर्मित नौकाओं तथा जलयानों से टकराता है तो उससे विद्युत तरंगे उत्पन्न होती हैं। नौकाविज्ञानी इस अनायास होते रहने वाले विद्युत उत्पादन से परिचित रहते हैं और उसकी हानिकारक-लाभदायक प्रतिक्रिया से सतर्क रहते हैं।
ठीक इसी प्रकार शरीरगत जीवाणु भी ईथर एवं वायुमंडल में भरे विद्युत-प्रवाह से टकराते रहते हैं और विद्युत ऊर्जा उत्पन्न करते हैं। जीवकोषों में उन धातुओं तथा रसायनों की समुचित मात्रा रहती है, जो आघातों से उत्तेजित होकर विद्युत-प्रवाह उत्पन्न कर सके। यही कारण है, हर मनुष्य में गरमी ही नहीं रहती; वरन विद्युत-प्रवाह की अनेक स्तरों की धाराएँ बहती रहती हैं। इन्हें यंत्रों द्वारा भली प्रकार परखा-जाना जा सकता है।
मानवी चुंबकत्व विश्वव्यापी ब्रह्मसत्ता के साथ एक तंतुनाल द्वारा जुड़ा रहता है। विष्णु की नाभि में से कमल का उत्पन्न होना और उसके पुष्प पर ब्रह्मा जी का अवतरण, परमात्मा और आत्मा के बीच संबंध-सूत्र की इसी शृंखला का अलंकारिक चित्रण है। गर्भस्थ बालक माता के साथ इसी नालतंतु द्वारा जुड़ा रहता है। नाभि को मध्यकेंद्र माना गया है। नवजात शिशु का नाभि-नाल प्रसव के उपरांत ही बाहर आता है और उसे काटकर दोनों को पृथक करना पड़ता है।
मनुष्य के कान सीमित स्तर के ध्वनि-प्रवाह को ही सुनते हैं; किंतु पशुओं में ऐसी चेतना पाई जाती है, जिसके आधार पर वे उन ध्वनियों को भी सुन सकें जिन्हें सुनने में मनुष्य असमर्थ रहता है। यंत्रों द्वारा ऐसी सीटी बजाई जा सकती है, जिसे मनुष्य तो अनुभव न करें, पर कुत्ता आसानी से सुन सके और उसकी बुलाहट पर दौड़ा आवे। मालिक की आवाज को वह इतनी दूर से सुन सकता है, जितना कि सामान्य मनुष्यों के लिए सुनना सर्वथा असंभव है।
मेज पर एक कोरा कागज बिछाइए। उसके ऊपर एक चुंबक रखिए। एक फुट की ऊँचाई से लोहे का बुरादा धीरे-धीरे बरसाइए, देखा जाएगा कि लोहकण एक विशिष्ट क्रम के अनुसार गिर रहे हैं। यह क्रम चुंबक की बल-रेखाओं के अनुरूप होगा। कागज पर चुंबक की अंतःस्थिति कागज पर गिरे लोहे के बुरादे से भली प्रकार स्पष्ट हो रही होगी।
मनुष्य भी एक प्रकार का चुंबक है, वह अंतरिक्ष से बरसने वाले अनेक भले-बुरे अनुदानों को अपनी आंतरिक स्थिति के अनुरूप स्वीकार-अस्वीकार करता है। वह जैसा कुछ स्वयं है, उसी का चुंबकत्व उसे इस विश्व-ब्रह्मांड में अपनी जैसी सूक्ष्मधारा-प्रवाह से अनायास ही संपन्न, सज्जित करता रहता है।
शरीरविज्ञानियों का मत है कि सामान्यतया किसी मनुष्य की मृत्यु जब घोषित की जाती है, तब भी उसकी पूर्ण मृत्यु नहीं होती। रक्त-प्रवाह रुक जाने के बाद प्रायः 5 मिनट के बाद मस्तिष्क अपना काम करना बंद करता है, इसीलिए कृत्रिम श्वास-प्रश्वास-क्रिया करके मृततुल्य व्यक्ति के हृदय की भाँति पुनः आरंभ कराने का प्रयत्न किया जाता है। मृत्यु क्रमिक होती है, पहले मस्तिष्क मरता है, फिर अन्य अवयव मरते हैं। सबसे अंत में बाल तथा नाखून मरते हैं। फ्रांस राज्यक्रांति के समय एक विद्रोही का सिर काटा गया। सरकारी रिकार्ड में उल्लेख है कि कटा हुआ सिर बहुत देर तक इस तरह होठ और मुँह चलाता रहा, मानो वह कुछ कह रहा हो। पुराने जमाने में जब तलवारों से लड़ाइयाँ लड़ी जाती थी। कटे हुए सिर वाले धड़ उठ खड़े होते थे और हाथ में लगी तलवारों को हवा में चलाते थे। इसी प्रकार कटे हुए सिर भी उछलते देखे गए हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि कानूनी मृत्यु के बाद भी किसी रूप में देर तक जीवन बना रहता है। मरणोपरांत भी क्रियाकलाप चलते रहने वाली इस सत्ता को आत्मवादी तेजोवलय ही मानते रहे हैं।
मस्तिष्क के मध्यभाग से प्रकाशकणों का एक फब्बारा-सा फूटता रहता है। उसकी उछलती हुई तरंगें एक वृत्त बनाती हैं और फिर अपने मूल उद्गम में लौट जाती हैं। यह रेडियो-प्रसारण और संग्रहण जैसी प्रक्रिया है। ब्रह्मरंध्र से छूटने वाली ऊर्जा अपने भीतर छिपी हुई भावस्थिति को विश्व-ब्रह्मांड में ईथर कंपनों द्वारा प्रवाहित करती रहती है। इस प्रकार मनुष्य अपनी चेतना का परिचय और प्रभाव समस्त संसार में फेंकता रहता है। फुहारे की लौटती हुई धाराएँ अपने साथ विश्वव्यापी असीम ज्ञान की नवीनतम घटनात्मक तथा भावनात्मक जानकारियाँ लेकर लौटती हैं, यदि उन्हें ठीक तरह समझा जा सके, ग्रहण किया जा सके तो कोई भी व्यक्ति भूतकालीन और वर्त्तमानकाल की अत्यंत सुविस्तृत और महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त कर सकता है। व्यक्ति में प्रवाह ग्रहण करने की और प्रसारित करने की जो क्षमता है, उसका माध्यम यह ब्रह्मरंध्र अवस्थित ध्रुव-संस्थान ही है। पृथ्वी पर अन्य ग्रहों का प्रचुर अनुदान आता है तथा उसकी विशेषताएँ अन्यत्र चली जाती हैं। यह आदान-प्रदान का कार्य ध्रुवकेंद्रों द्वारा संपन्न होता है। शरीर के भी दो ध्रुव हैं, एक मस्तिष्क, दूसरा जननगह्वर। चेतनात्मक विकरण मस्तिष्क से और भक्तिपरक उर्जा-प्रवाह जननगह्वर से संबंधित है। सूक्ष्म आदान-प्रदान की अतिमहत्त्वपूर्ण प्रक्रिया इन्हीं केंद्र के माध्यम से संचालित होती है।
शारीरिक और मानसिक स्थिति के अनुरूप तेजोवलय की स्थिरता बनती है। यदि स्थिति बदलने लगें तो प्रकाश-पुँज की स्थिति भी बदल जाएगी। इतना ही नहीं समय-समय पर मनुष्य के बदलते हुए स्वभाव तथा चिंतन स्तर के अनुरूप उसमें सामयिक परिवर्तन होते रहते हैं। सूक्ष्मदर्शी उसकी भिन्नताओं को रंग बदलते हुए परिवर्तनों के रूप में देख सकते हैं। शांति और सज्जनता की मनःस्थिति हलके नीले रंग में देखी जाएगी। विनोदी, कामुक, सत्तावान, वैभवशाली, विशुद्ध व्यवहार, कुशलस्तर की मनोभूमि पीले रंग की होती है। क्रोधी, अहंकारी, क्रूर, निष्ठुर, स्वार्थी, हठी और मूर्ख मनुष्य लालवर्ण के तेजोवलय से घिरे रहते हैं, हरा रंग सृजनात्मक एवं कलात्मक प्रवृत्ति का द्योतक है। गहरा बैंगनी चंचलता और अस्थिर मति का प्रतीक है। धार्मिक ईश्वरभक्त और सदाचारी व्यक्तियों की आभा केशरिया रंग की होती है। इसी प्रकार विभिन्न रंगों का मिश्रण मनुष्य के गुण, कर्म, स्वभाव के परिवर्तनों के अनुसार बदलता रहता है। यह तेजोवलय सदा स्थिर नहीं रहता। बदलती हुई मनोवृत्ति प्रकाश-पुँज के रंगों में परिवर्तन कर देती है। यह रंग स्वतंत्र रूप से कुछ नहीं। मनोभूमि में होने वाले परिवर्तन शरीर से निसृत होते रहने वाले ऊर्जा कंपनों की घटती-बढ़ती संख्या के आधार पर आँखों को अनुभव होते हैं। वैज्ञानिक इन्हें ‘फ्रीक्वेन्सी आफ दी वेब्स ’ कहते हैं।
दिव्य दर्शन (क्लेयर वाइन्स), दिव्य अनुभव (साइकोमैन्ट्री), प्रभाव-प्रेषण (टेलिपैथी), संकल्प प्रयोग (सजैशन) जैसे प्रयोग थोड़ी आत्मशक्ति विकसित होते ही आसानी से किए जा सकते हैं। इन विद्याओं पर पिछले दिनों से काफी शोधकार्य होता चला आ रहा है और उन प्रयासों के फलस्वरूप उपयोगी निष्कर्ष सामने आए हैं। परामनोविज्ञान, अतींद्रिय विज्ञान, मैटाफिजिक्स जैसी चेतनात्मक विद्याएँ भी अब रेडियो विज्ञान तथा इलेक्ट्रोनिक्स की ही तरह विकसित हो रही हैं। अचेतन मन की सामर्थ्य के संबंध में जैसे-जैसे रहस्यमय जानकारियों के परत खुलते जाते हैं, वैसे-वैसे यह स्पष्ट होता जाता है कि नर-पशु लगने वाला मनुष्य वस्तुतः असीम और अनंत क्षमताओं का भंडार है। कठिनाई इतनी भर है कि उसकी अधिकांश विकृतियाँ प्रसुप्त अविज्ञात स्थिति में पड़ी हैं। यदि उन्हें खोजा जाएगा और परिपुष्ट किया जा सके तो पेट और प्रजनन में संलग्न नर-कीटक एक प्रचंड शक्तिकेंद्र की तरह अपनी सत्ता और महत्ता का परिचय दे सकता है।