Magazine - Year 1973 - Version 2
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Language: HINDI
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उपगुप्त का आत्मदान
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"लोक की मुझे कोई चिंता नहीं तात! अपना बाल्यकाल मैंने ज्ञानार्जान में बिताया, शील-सौजन्य खोया नहीं, फलत: जो इंद्रियाँ स्वेच्छाचारिणी होकर व्यक्ति को पतन की ओर खींच ले जाती हैं, वह मेरी सहयोगिनी बनीं, मैं उनका स्वामी बना। मेरी आध्यात्मिक उपलब्धियाँ, मेरा समर्थ जीवन और इस अवस्था तक सरस, सफल, स्निग्ध जीवन इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। फिर मुझे अपने लोक की चिंता क्यों होने लगी।" आचार्य शाणवास ने यह कहते-कहते पुनः एक दीर्घ निःश्वास छोड़ी और अंतरिक्ष की गहराइयों में अपनी दृष्टि जमाकर पुन: कुछ सोचने लगे। गृहस्थ मैंने योग-साधना की भाँति बिताया। बात उस समय की है जब उपगुप्त स्नातक थे। उनकी संपन्नता से अधिक उनके सौंदर्य की घर-घर चर्चा हुआ करती, राजकुमारियाँ तक उपगुप्त को वरण करने का स्वप्न देखा करती थीं।
उपगुप्त ने आचार्य का शीश उठाया, उन्हें औषधिपान कराते हुए कहा — भगवन! तब फिर क्या आप परलोक की बात सोच रहे हैं? आपका जीवनक्रम इतना भव्य रहा है कि परलोक के लिए चिंता का कोई प्रश्न ही नहीं उठता?”
"हाँ वत्स!" — आचार्य शाणवास ने उत्तर दिया। “मैंने जीवन में किसी का जी नहीं दुखाया। प्रतारणा का भाव भी कभी मेरे समीप नहीं आया। अपने तप-साधन द्वारा अर्जित ज्ञान और शक्ति का एक-एक कण मैंने दीन-दुःखी आत्माओं के उत्थान में लगा दिया। परमात्मा न केवल वाणी; वरन मेरे रोम-रोम में व्याप्त है, तब फिर मैं परलोक के प्रति अनाश्वस्त होऊँ, यह कैसे हो सकता है?”
“योग्य समझें तो अपनी व्यथा को यहीं कहते हुए जाएँ, देव! हम अकिंचन आपकी कोई भी इच्छा पूर्ण कर सकें तो यह हमारे लिए सौभाग्य की तो बात होगी ही, हमारा जीवन भी धन्य हो जाएगा?”
इतना कहकर उपगुप्त उनके समीप ही आसन पर बैठकर आदेश की प्रतीक्षा करने लगे। सैकड़ों नेत्र निर्निमेष आचार्यश्री के प्रभामय मुखमंडल की ओर देख रहे थे। आचार्यश्री शाणवास अभी भी उसी चिंतन मुद्रा में थे। शिष्यों की जिज्ञासाओं को अधीर होते देख शाणवास किंचित मुस्कराए, मानो दबता हुआ सूर्य अब भी अपनी प्रखरता सिद्ध करना चाहता हो।
दृष्टि में एक क्षण करुणा के साथ आशा का समन्वय परिलक्षित प्रतीत हुआ। शाणवास ने अर्थमीलित दृष्टि को पूरा खोल दिया, शिष्य-समुदाय कुछ और आगे बढ़ आया। अब महर्षि कहने लगे— “अवुस! मेरे जीवन की साधना अब अपने प्रभाव में आ रही है। जनमानस को मैं जिस दिशा में ढालना चाहता था, धर्मतंत्र को जो तेजस्वी और प्रभावशाली स्वरूप देना चाहता था, वह परिस्थितियाँ अब उभरकर आईं, जब मुझे अपना शरीर त्याग करना पड़ रहा है। मृत्यु से प्यार करने वाले तुम्हारे वृद्ध आचार्य के मन में कुछ भी दुःख और क्षोभ नहीं, किंतु मानवता का भविष्य मुझे पीड़ित कर रहा है। एक ही आशंका है, धर्मतंत्र कहीं अपने प्रौढ़काल में नष्ट या पथभ्रष्ट तो नहीं हो जाएगा?”
शिष्यगण चुप हो गए। किसी से कुछ कहते नहीं बन पड़ रहा था। अब आचार्यश्री अपना उत्तर चाहते थे और शिष्यगण अपना बचाव। तभी उपगुप्त खड़े हुए और बोले— “गुरुदेव! आपकी अंतर्वेदना व्यर्थ नहीं जाएगी, मैं विश्वास दिलाता हूँ कि सांसारिक सुख और आकर्षणों से अप्रभावित रहकर आजीवन अविवाहित रहकर लोक-मंगल के कार्य में ही रत रहूँगा। धार्मिक पुनर्प्रतिष्ठा ही आज से मेरा जीवन लक्ष्य होगी?”
शाणवास की आँखें चमक उठीं। आश्वस्त आचार्य ने धीरे-धीरे आँखें मूंद लीं, सदैव के लिए आँखें मूंद लीं। उनके मुखमंडल पर चिंता-उद्विग्नता नहीं, संतोष प्रतिभासित हो रहा था कि मेरे पीछे आर्यपरंपरा का निर्वाह यथावत चलता रहेगा।
उपगुप्त ने आचार्य का शीश उठाया, उन्हें औषधिपान कराते हुए कहा — भगवन! तब फिर क्या आप परलोक की बात सोच रहे हैं? आपका जीवनक्रम इतना भव्य रहा है कि परलोक के लिए चिंता का कोई प्रश्न ही नहीं उठता?”
"हाँ वत्स!" — आचार्य शाणवास ने उत्तर दिया। “मैंने जीवन में किसी का जी नहीं दुखाया। प्रतारणा का भाव भी कभी मेरे समीप नहीं आया। अपने तप-साधन द्वारा अर्जित ज्ञान और शक्ति का एक-एक कण मैंने दीन-दुःखी आत्माओं के उत्थान में लगा दिया। परमात्मा न केवल वाणी; वरन मेरे रोम-रोम में व्याप्त है, तब फिर मैं परलोक के प्रति अनाश्वस्त होऊँ, यह कैसे हो सकता है?”
“योग्य समझें तो अपनी व्यथा को यहीं कहते हुए जाएँ, देव! हम अकिंचन आपकी कोई भी इच्छा पूर्ण कर सकें तो यह हमारे लिए सौभाग्य की तो बात होगी ही, हमारा जीवन भी धन्य हो जाएगा?”
इतना कहकर उपगुप्त उनके समीप ही आसन पर बैठकर आदेश की प्रतीक्षा करने लगे। सैकड़ों नेत्र निर्निमेष आचार्यश्री के प्रभामय मुखमंडल की ओर देख रहे थे। आचार्यश्री शाणवास अभी भी उसी चिंतन मुद्रा में थे। शिष्यों की जिज्ञासाओं को अधीर होते देख शाणवास किंचित मुस्कराए, मानो दबता हुआ सूर्य अब भी अपनी प्रखरता सिद्ध करना चाहता हो।
दृष्टि में एक क्षण करुणा के साथ आशा का समन्वय परिलक्षित प्रतीत हुआ। शाणवास ने अर्थमीलित दृष्टि को पूरा खोल दिया, शिष्य-समुदाय कुछ और आगे बढ़ आया। अब महर्षि कहने लगे— “अवुस! मेरे जीवन की साधना अब अपने प्रभाव में आ रही है। जनमानस को मैं जिस दिशा में ढालना चाहता था, धर्मतंत्र को जो तेजस्वी और प्रभावशाली स्वरूप देना चाहता था, वह परिस्थितियाँ अब उभरकर आईं, जब मुझे अपना शरीर त्याग करना पड़ रहा है। मृत्यु से प्यार करने वाले तुम्हारे वृद्ध आचार्य के मन में कुछ भी दुःख और क्षोभ नहीं, किंतु मानवता का भविष्य मुझे पीड़ित कर रहा है। एक ही आशंका है, धर्मतंत्र कहीं अपने प्रौढ़काल में नष्ट या पथभ्रष्ट तो नहीं हो जाएगा?”
शिष्यगण चुप हो गए। किसी से कुछ कहते नहीं बन पड़ रहा था। अब आचार्यश्री अपना उत्तर चाहते थे और शिष्यगण अपना बचाव। तभी उपगुप्त खड़े हुए और बोले— “गुरुदेव! आपकी अंतर्वेदना व्यर्थ नहीं जाएगी, मैं विश्वास दिलाता हूँ कि सांसारिक सुख और आकर्षणों से अप्रभावित रहकर आजीवन अविवाहित रहकर लोक-मंगल के कार्य में ही रत रहूँगा। धार्मिक पुनर्प्रतिष्ठा ही आज से मेरा जीवन लक्ष्य होगी?”
शाणवास की आँखें चमक उठीं। आश्वस्त आचार्य ने धीरे-धीरे आँखें मूंद लीं, सदैव के लिए आँखें मूंद लीं। उनके मुखमंडल पर चिंता-उद्विग्नता नहीं, संतोष प्रतिभासित हो रहा था कि मेरे पीछे आर्यपरंपरा का निर्वाह यथावत चलता रहेगा।