Magazine - Year 1973 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
अपना और संसार का संबंध इस तरह समझें
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
पाँच ज्ञानेंद्रियाँ पदार्थ के स्वरूप का अनुभव कराती हैं। विज्ञान के अनुसार पदार्थ वह है, जिसमें भार अथवा गुरुत्वाकर्षण होता है। इस स्तर की वस्तुओं का अनुभव इंद्रियों से अथवा यंत्रों से होता है; किंतु पदार्थ का सूक्ष्मस्वरूप ऐसा है, जिसमें भार नहीं, गतिमात्र होती है। इसे आकर्षण तथा अन्वेक्षण कह सकते हैं। इनकी अनुभूति मन, बुद्धि, चित्त, अहंकाररूपी चार सूक्ष्म इंद्रियों द्वारा होती है। यह कार्य मन:संस्थान के चार अवयवों द्वारा पूरा होता है, इसलिए मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार को भी पदार्थ— पदार्थों की अनुभूति का उपकरण माना है और उन्हें भी सूक्ष्म इंद्रियों की श्रेणी में ही रखा गया है। मन का कार्य कल्पनाएँ करना, उनमें आकर्षक रंग भरना है। बुद्धि, मन के एकपक्षीय चिंतन का उभयपक्षी विवेचन करती है। संभव-असंभव, हानि-लाभ आदि के सभी पहलुओं पर विचार करके उपयोगी निर्णय करने में सहायता करती है। चित्त दीर्घकालीन अभ्यास-संपर्क के आधार पर स्वभाव, रुचि एवं अनुकूलता को स्थिरता उत्पन्न करता है। अहंकार, अपनेपन का भाव, शरीर, मन, वस्तु अथवा व्यक्तियों में आरोपित करके उन्हें रुचिर बनाता है। उसकी मात्रा घट जाने पर उपेक्षा, उदासीनता, विस्मृति उत्पन्न होती है और विकृति-विग्रह उत्पन्न होने पर घृणा-द्वेष की स्थिति बनती है। निर्जीव-नीरस वस्तुओं में सजीवता एवं सरसता की अनुभूति कराने वाला यह अहंकार ही है। संसार के स्वरूप निर्धारण में, उन्हें जानने-समझने में पाँच ज्ञानेंद्रियों की भाँति ही यह मनःसंस्थान के चार चेतनाकेंद्र भी काम करते हैं, अतएव उन्हें भी अनुभूति उपकरणों में ही गिना गया है। हमारा समस्त ज्ञान इन्हीं उपकरणों के आधार पर टिका हुआ है।
मनुष्यों की भिन्न मनःस्थिति के कारण एक ही तथ्य के संबंध में परस्पर विरोधी मान्यताएँ एवं रुचियाँ होती हैं। यदि यथार्थता एक ही होती तो सबको एक ही तरह के अनुभव होते। एक व्यक्ति अपराधों में संलग्न होता है, दूसरा परमार्थ-परोपकार में। एक को भोग प्रिय है, दूसरे को त्याग। एक को प्रदर्शन में रूचि है, दूसरे को सादगी में। एक विलास के साधन जुटा रहा है, दूसरा त्यागपथ पर बढ़ रहा है। इन भिन्नताओं से यही सिद्ध होता है कि वास्तविक सुख-दुःख, हानि-लाभ कहाँ है, किसमें है, इसका निर्णय किसी सार्वभौम कसौटी पर नहीं, मनःसंस्थान की स्थिति के आधार पर दृष्टिकोण के अनुरूप ही किया जाता है। यह सार्वभौम सत्य यदि प्राप्त हो गया होता तो संसार में मतभेदों की कोई गुंजायश न रहती। मनःसंस्थान जो अनुभव कराता है, उसमें भी इंद्रियज्ञान से कम नहीं, वरन अधिक ही भ्रांति भरी पड़ी है।
सुख और दुःख की अनुभूति सापेक्ष है। दूसरे की तुलना करके ही स्थिति के भले-बुरे का अनुभव किया जाता है। कोई मध्यस्थिति का व्यक्ति अमीर की तुलना में गरीब है; किंतु महादरिद्र की तुलना में वह भी अमीर है। ज्वरपीड़ित व्यक्ति स्वस्थ मनुष्य की तुलना में दुःखी है, पर कैंसरग्रस्त की तुलना में सुखी। शरीरपीड़ा की कुछ अनुभूतियों को छोड़कर शेष 80 प्रतिशत दुःख और सुख सापेक्ष होते हैं। उसी स्थिति में एक व्यक्ति अपने को सुखी अनुभव कर सकता है और दूसरा दुःखी। इन विभिन्न निष्कर्षों के आधार पर सत्य को पहचानना कठिन है।
नाम और रूप भी अनित्य हैं। बालकपन में किसी को मुन्ना, पप्पू आदि कहते हैं। युवावस्था में घर के लोग उसका नाम लेते हैं। ऊँचा पद पाने पर लोग मात्र पदाधिकारी का ही संबोधन करते हैं, नाम को जानने या उच्चारण करने की भी आवश्यकता नहीं समझते। संत-महात्माओं का नाम उसका परिचय रह जाता है। धर्म बदल लेने पर भी नाम बदल जाता है। कई व्यक्ति स्वयं ही अपनी पसंद का नाम बदल लेते हैं। कई समाजों में वधू का नया नामकरण सुसराल वाले करते हैं और उसके पितृगृह का नाम विस्मृत कर दिया जाता है ।
रूप भी एक ही जन्म में न जाने कितने बदल जाते हैं। प्रसवकाल के समय का, शैशव का, कुमारावस्था का, यौवन का, वृद्धावस्था का, स्वस्थ और रुग्ण स्थिति का अंतर यदि देखा जाए, उस समय के फोटो हों तो यह पहचानना कठिन हो जाएगा कि यह एक ही व्यक्ति के चित्र हैं। अभिनेता न जाने कितने वेश और रूप बदलते हैं। 'बहुरूपिया' बनने की तो एक स्वतंत्र कला ही है। किसी व्यक्ति के रूप भी स्थिर नहीं, अस्तु नाम की तरह ही रूप की अस्थिरता को देखते हुए उस आधार पर भी किसी की स्थिरता का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता।
बाह्यजगत में विद्यमान पदार्थों का स्वरूप निर्धारण हम ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से करते हैं। इसी प्रकार उनके प्रिय-अप्रिय, उपयोगी-अनुपयोगी होने का निर्धारण मनःसंस्थान के आधार पर किया जाता है; पर यह स्पष्ट है कि इंद्रियों की तरह ही मनःचेतना भी अपूर्ण, भ्रांत, सापेक्ष और अभ्यस्त प्रकृति के आधार पर बनी होती है। अस्तु उनके आधार पर उपलब्ध ज्ञान, उस समय प्रतीत तो सत्य ही होता है, पर यदि शारीरिक-मानसिक स्थिति बदल जाए तो अनुभव भी भिन्न प्रकार के होने लगते हैं। स्वप्न और जागृति में जो अंतर है, वही अपनी स्थिति बदलने पर वस्तुत: व्यक्ति की परिस्थिति भी परिवर्तित स्तर की प्रतीत होने लगती है। इसी हेर-फेर को देखकर वेदांत इस निष्कर्ष पर पहुँचा है कि यहाँ जो कुछ देखता है, प्रतीत होता है, वह अवास्तविक है। यथार्थता के कोषों दूर है, भ्रांत और मिथ्या है।
अपने आपे के संबंध में, व्यक्तित्व के संबंध में जो धारणाएँ बनती हैं, वह भी स्थायी नहीं होती, परिस्थिति के अनुसार उन्हें भी बदलते देर नहीं लगती। एक सेनापति यदि विजेता होता है तो उसका व्यक्तित्व भिन्न होता है और पराजित होकर युद्धबंदी बन जाने पर उसकी स्थिति सर्वथा भिन्न हो जाती है। हारे हुए, जीते हुए, फेल और पास, लाभ और घाटे से प्रभावित, सम्मानित-अपमानित, सुहागिन और विधवा के व्यक्तित्व में जो परिवर्तन तुरंत ही उपस्थित हो जाता है, वह देखते ही बनता है। अज्ञानग्रस्त कुमार्ग मार्ग जब सद्ज्ञान भूमिका में प्रवेश करके अपना चिंतन और कर्तृत्व बदल डालता है तो उसका नर से नारायण स्थिति में हुआ परिवर्तन देखते ही बनता है। पदासीन और पदमुक्त स्थिति के अधिकारी में जो अंतर उत्पन्न होता है, उसे देखकर सहज ही समझा जा सकता है कि व्यक्तित्व के कितने भारी परिवर्तन होते रहते हैं। राजा को रंक, यशस्वी को निंदास्पद और बलिष्ठ को लकवाग्रस्त हो जाने पर जो उलट-पुलट होती है, उसे देखकर सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि व्यक्तित्व नाम की कोई वस्तु स्थिर नहीं है। उसमें परिवर्तन होते हैं, होते रह सकते हैं।
हवा और पानी के वेग की परस्पर उथल-पुथल के कारण बबूले उठते हैं। समुद्र की लहरों के परस्पर टकराव से झाग उत्पन्न होते हैं। यह बबूले या झाग यों अलग सत्ता के रूप में दिखाई पड़ते हैं; पर गहराई से देखा जाए तो वह जलीय उथल-पुथल की प्रतिक्रियामात्र हैं, उनका कोई अलग से अस्तित्व नहीं है। ब्रह्म और प्रकृति के संयोग-वियोग से ही संसार के विविध पदार्थों का सृजन-समापन होता रहता है। यहाँ न कुछ बनता है, न नष्ट होता है, जो है वही प्रकृतिगत हलचलों के कारण अपना नाम-रूप बदलता रहता है।
जिन पदार्थों के प्रति हम अत्यंत आकर्षित, उत्सुक रहते हैं, वे वस्तुतः क्या हैं? इसे वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो प्रतीत होता है कि जो देखा-समझा जा रहा है, वह यथार्थ नहीं है।
संसार पदार्थों से बना है। पदार्थ अणुओं से बने हैं। अणु परमाणुओं से— परमाणु इलेक्ट्रोन, प्रोटोन आदि विखंडों से और वे विखंड तरंगों के घनीभूत रूप हैं। विज्ञान बताता है कि यह जगत तरंगों का परिणाम है, तरंगमय है, तरंग ही है। शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श की तन्मात्राएँ और विचार- विवेचना, अभिव्यक्ति, अनुभूति, अभिव्यंजना आदि के पीछे केवल तरंगें काम करती हैं। यहाँ तरंगों के अतिरिक्त और कहीं कुछ नहीं है।
प्रकृति में परम सत्ता का निरंतर संयोग, मिलन, संस्फुरण, आदान-प्रदान, आकर्षण-विकर्षण ही तरंगें बनकर गतिशील रहता है और वह गति ही पदार्थ बनकर सामने आती रहती है। जो दीखता है, उसके मूल में केवल तरंग स्फुरणा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। जो प्रिय-अप्रिय है, उसमें आत्मानुभूति की मात्रा की घट-बढ़ की उथल-पुथल के अतिरिक्त और कहीं कुछ भी नहीं है। जड़-चेतन के समस्त परमाणु एक क्रमबद्ध प्रक्रिया के अनुरूप एक दिशा में चलते जा रहे हैं। उस प्रवाह का कोई चाहे तो समुद्रतट पर बैठकर उसकी हिलोरों का आनंद ले सकता है। भ्रमग्रस्त हर नई लहर के आने का लाभ और जाने की हानि समझता हुआ हँसने-रोने का प्रलाप कर सकता है। नियति का क्रम अपने ढंग से चलेगा, किसी के सोचने का तरीका क्या है, इसकी उसे परवाह नहीं। हाथी अपनी राह चलेगा ही, कुत्ते उसका स्वागत करें या रोष दिखाएँ, यह उनकी मरजी। प्रकृति की स्वसंचालित व्यवस्था हाथी की तरह ही चलेगी, यहाँ हर वस्तु का रूप बदलेगा। आज का सृजन-संयोग कल विनाश एवं वियोग का रूप धारण करेगा। अपरिवर्तनवादी आकांक्षा अधूरी ही रहेगी। यहाँ स्थिरता के लिए कोई स्थान नहीं। जो संग्रह एवं स्थायित्व के अभिलाषी हैं, उन्हें निराशा भरे पश्चात्ताप के अतिरिक्त और क्या हाथ लगेगा?
मनुष्यों की भिन्न मनःस्थिति के कारण एक ही तथ्य के संबंध में परस्पर विरोधी मान्यताएँ एवं रुचियाँ होती हैं। यदि यथार्थता एक ही होती तो सबको एक ही तरह के अनुभव होते। एक व्यक्ति अपराधों में संलग्न होता है, दूसरा परमार्थ-परोपकार में। एक को भोग प्रिय है, दूसरे को त्याग। एक को प्रदर्शन में रूचि है, दूसरे को सादगी में। एक विलास के साधन जुटा रहा है, दूसरा त्यागपथ पर बढ़ रहा है। इन भिन्नताओं से यही सिद्ध होता है कि वास्तविक सुख-दुःख, हानि-लाभ कहाँ है, किसमें है, इसका निर्णय किसी सार्वभौम कसौटी पर नहीं, मनःसंस्थान की स्थिति के आधार पर दृष्टिकोण के अनुरूप ही किया जाता है। यह सार्वभौम सत्य यदि प्राप्त हो गया होता तो संसार में मतभेदों की कोई गुंजायश न रहती। मनःसंस्थान जो अनुभव कराता है, उसमें भी इंद्रियज्ञान से कम नहीं, वरन अधिक ही भ्रांति भरी पड़ी है।
सुख और दुःख की अनुभूति सापेक्ष है। दूसरे की तुलना करके ही स्थिति के भले-बुरे का अनुभव किया जाता है। कोई मध्यस्थिति का व्यक्ति अमीर की तुलना में गरीब है; किंतु महादरिद्र की तुलना में वह भी अमीर है। ज्वरपीड़ित व्यक्ति स्वस्थ मनुष्य की तुलना में दुःखी है, पर कैंसरग्रस्त की तुलना में सुखी। शरीरपीड़ा की कुछ अनुभूतियों को छोड़कर शेष 80 प्रतिशत दुःख और सुख सापेक्ष होते हैं। उसी स्थिति में एक व्यक्ति अपने को सुखी अनुभव कर सकता है और दूसरा दुःखी। इन विभिन्न निष्कर्षों के आधार पर सत्य को पहचानना कठिन है।
नाम और रूप भी अनित्य हैं। बालकपन में किसी को मुन्ना, पप्पू आदि कहते हैं। युवावस्था में घर के लोग उसका नाम लेते हैं। ऊँचा पद पाने पर लोग मात्र पदाधिकारी का ही संबोधन करते हैं, नाम को जानने या उच्चारण करने की भी आवश्यकता नहीं समझते। संत-महात्माओं का नाम उसका परिचय रह जाता है। धर्म बदल लेने पर भी नाम बदल जाता है। कई व्यक्ति स्वयं ही अपनी पसंद का नाम बदल लेते हैं। कई समाजों में वधू का नया नामकरण सुसराल वाले करते हैं और उसके पितृगृह का नाम विस्मृत कर दिया जाता है ।
रूप भी एक ही जन्म में न जाने कितने बदल जाते हैं। प्रसवकाल के समय का, शैशव का, कुमारावस्था का, यौवन का, वृद्धावस्था का, स्वस्थ और रुग्ण स्थिति का अंतर यदि देखा जाए, उस समय के फोटो हों तो यह पहचानना कठिन हो जाएगा कि यह एक ही व्यक्ति के चित्र हैं। अभिनेता न जाने कितने वेश और रूप बदलते हैं। 'बहुरूपिया' बनने की तो एक स्वतंत्र कला ही है। किसी व्यक्ति के रूप भी स्थिर नहीं, अस्तु नाम की तरह ही रूप की अस्थिरता को देखते हुए उस आधार पर भी किसी की स्थिरता का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता।
बाह्यजगत में विद्यमान पदार्थों का स्वरूप निर्धारण हम ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से करते हैं। इसी प्रकार उनके प्रिय-अप्रिय, उपयोगी-अनुपयोगी होने का निर्धारण मनःसंस्थान के आधार पर किया जाता है; पर यह स्पष्ट है कि इंद्रियों की तरह ही मनःचेतना भी अपूर्ण, भ्रांत, सापेक्ष और अभ्यस्त प्रकृति के आधार पर बनी होती है। अस्तु उनके आधार पर उपलब्ध ज्ञान, उस समय प्रतीत तो सत्य ही होता है, पर यदि शारीरिक-मानसिक स्थिति बदल जाए तो अनुभव भी भिन्न प्रकार के होने लगते हैं। स्वप्न और जागृति में जो अंतर है, वही अपनी स्थिति बदलने पर वस्तुत: व्यक्ति की परिस्थिति भी परिवर्तित स्तर की प्रतीत होने लगती है। इसी हेर-फेर को देखकर वेदांत इस निष्कर्ष पर पहुँचा है कि यहाँ जो कुछ देखता है, प्रतीत होता है, वह अवास्तविक है। यथार्थता के कोषों दूर है, भ्रांत और मिथ्या है।
अपने आपे के संबंध में, व्यक्तित्व के संबंध में जो धारणाएँ बनती हैं, वह भी स्थायी नहीं होती, परिस्थिति के अनुसार उन्हें भी बदलते देर नहीं लगती। एक सेनापति यदि विजेता होता है तो उसका व्यक्तित्व भिन्न होता है और पराजित होकर युद्धबंदी बन जाने पर उसकी स्थिति सर्वथा भिन्न हो जाती है। हारे हुए, जीते हुए, फेल और पास, लाभ और घाटे से प्रभावित, सम्मानित-अपमानित, सुहागिन और विधवा के व्यक्तित्व में जो परिवर्तन तुरंत ही उपस्थित हो जाता है, वह देखते ही बनता है। अज्ञानग्रस्त कुमार्ग मार्ग जब सद्ज्ञान भूमिका में प्रवेश करके अपना चिंतन और कर्तृत्व बदल डालता है तो उसका नर से नारायण स्थिति में हुआ परिवर्तन देखते ही बनता है। पदासीन और पदमुक्त स्थिति के अधिकारी में जो अंतर उत्पन्न होता है, उसे देखकर सहज ही समझा जा सकता है कि व्यक्तित्व के कितने भारी परिवर्तन होते रहते हैं। राजा को रंक, यशस्वी को निंदास्पद और बलिष्ठ को लकवाग्रस्त हो जाने पर जो उलट-पुलट होती है, उसे देखकर सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि व्यक्तित्व नाम की कोई वस्तु स्थिर नहीं है। उसमें परिवर्तन होते हैं, होते रह सकते हैं।
हवा और पानी के वेग की परस्पर उथल-पुथल के कारण बबूले उठते हैं। समुद्र की लहरों के परस्पर टकराव से झाग उत्पन्न होते हैं। यह बबूले या झाग यों अलग सत्ता के रूप में दिखाई पड़ते हैं; पर गहराई से देखा जाए तो वह जलीय उथल-पुथल की प्रतिक्रियामात्र हैं, उनका कोई अलग से अस्तित्व नहीं है। ब्रह्म और प्रकृति के संयोग-वियोग से ही संसार के विविध पदार्थों का सृजन-समापन होता रहता है। यहाँ न कुछ बनता है, न नष्ट होता है, जो है वही प्रकृतिगत हलचलों के कारण अपना नाम-रूप बदलता रहता है।
जिन पदार्थों के प्रति हम अत्यंत आकर्षित, उत्सुक रहते हैं, वे वस्तुतः क्या हैं? इसे वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो प्रतीत होता है कि जो देखा-समझा जा रहा है, वह यथार्थ नहीं है।
संसार पदार्थों से बना है। पदार्थ अणुओं से बने हैं। अणु परमाणुओं से— परमाणु इलेक्ट्रोन, प्रोटोन आदि विखंडों से और वे विखंड तरंगों के घनीभूत रूप हैं। विज्ञान बताता है कि यह जगत तरंगों का परिणाम है, तरंगमय है, तरंग ही है। शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श की तन्मात्राएँ और विचार- विवेचना, अभिव्यक्ति, अनुभूति, अभिव्यंजना आदि के पीछे केवल तरंगें काम करती हैं। यहाँ तरंगों के अतिरिक्त और कहीं कुछ नहीं है।
प्रकृति में परम सत्ता का निरंतर संयोग, मिलन, संस्फुरण, आदान-प्रदान, आकर्षण-विकर्षण ही तरंगें बनकर गतिशील रहता है और वह गति ही पदार्थ बनकर सामने आती रहती है। जो दीखता है, उसके मूल में केवल तरंग स्फुरणा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। जो प्रिय-अप्रिय है, उसमें आत्मानुभूति की मात्रा की घट-बढ़ की उथल-पुथल के अतिरिक्त और कहीं कुछ भी नहीं है। जड़-चेतन के समस्त परमाणु एक क्रमबद्ध प्रक्रिया के अनुरूप एक दिशा में चलते जा रहे हैं। उस प्रवाह का कोई चाहे तो समुद्रतट पर बैठकर उसकी हिलोरों का आनंद ले सकता है। भ्रमग्रस्त हर नई लहर के आने का लाभ और जाने की हानि समझता हुआ हँसने-रोने का प्रलाप कर सकता है। नियति का क्रम अपने ढंग से चलेगा, किसी के सोचने का तरीका क्या है, इसकी उसे परवाह नहीं। हाथी अपनी राह चलेगा ही, कुत्ते उसका स्वागत करें या रोष दिखाएँ, यह उनकी मरजी। प्रकृति की स्वसंचालित व्यवस्था हाथी की तरह ही चलेगी, यहाँ हर वस्तु का रूप बदलेगा। आज का सृजन-संयोग कल विनाश एवं वियोग का रूप धारण करेगा। अपरिवर्तनवादी आकांक्षा अधूरी ही रहेगी। यहाँ स्थिरता के लिए कोई स्थान नहीं। जो संग्रह एवं स्थायित्व के अभिलाषी हैं, उन्हें निराशा भरे पश्चात्ताप के अतिरिक्त और क्या हाथ लगेगा?