Magazine - Year 1986 - Version 2
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Language: HINDI
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मूलबंध, उड्डियानबंध और जालंधरबंध
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उत्तम परिपाटी यह है कि विचारों को विचारों से काटा और सुधारा जाए। जीवन में मन की प्रमुखता है। उसी को बंधन और मोक्ष का निमित्त कारण माना गया है। गीताकार का कथन है कि मन ही बंधन बाँधता है, वही उनसे छुड़ाता भी है। सुधरा हुआ मन ही सर्वश्रेष्ठ मित्र है और वही कुमार्गगामी होने पर परले सिरे का शत्रु हो जाता है, इसलिए मन को अध्यात्म बनाकर अपनी संकल्पशक्ति के सहारे मानवी गरिमा के अनुरूप व्यक्तित्व का निर्माण करना चाहिए और भवबंधनों से सहज ही छूट जाना चाहिए।
जिनका मनोबल इस योग्य नहीं होता कि चिंतन और मनन के सहारे आत्मसुधार और आत्मविकास का प्रयोजन कर सके, उनके लिए वस्तुपरक एवं क्रियापरक कर्मकांडों का आश्रय लेना ही उपयुक्त पड़ता है। अपने दोष-दुर्गुणों को ढूँढ़ निकालना और उन्हें सुधारने तक आत्मशोधन तक की साधना में निरत रहना होता है। विचारों से विचारों को काटने की प्रणाली अपनानी पड़ती है; पर इस सबके लिए बलिष्ठ मनोबल चाहिए। उसमें कमी पड़ती हो तो वस्तुओं से, वातावरण से, सहयोग से एवं क्रियाओं में सुधार कार्य को अग्रगामी बनाना पड़ता है। धार्मिक कर्मकांडों की संरचना इसी निमित्त हुई है कि उन हलचलों को प्रत्यक्ष देखते हुए आधार-अवलंबन अपनाकर साधक अपनी श्रद्धा को परिपक्व कर सके। संकल्पबल में बलिष्ठता ला सके, उस प्रयोजन को पूरा कर सके, तो विचारों से विचारों की काट करने का आधार न बन पड़ने की दशा में अपनाया और लक्ष्य की दिशा में बढ़ा जा सकता है। एक टाँग न होने पर उसकी पूर्ति लकड़ी की टाँग लगाकर की जाती है। उसी प्रकार उपाय-उपचारों के माध्यम से भी आंतरिक समस्याओं के सुलझाने में सहायता मिल सकती है। पूजापरक कर्मकांडों की तरह योगाभ्यास की क्रिया-प्रक्रिया भी उसी प्रयोजन की पूर्ति करती है।
इतने पर भी यह निश्चित है कि कर्मकांडों या साधनाओं के साथ संकल्पबल का समावेश होना ही चाहिए। इसके अभाव में वे क्रिया-कृत्य मात्र कौतुक-कौतूहल बनकर रह जाते हैं। कृत्य उपचारों का प्रतिफल उनके साथ जुड़ी हुई भावनाओं की सहायता निश्चित रूप से घुली रहे, अन्यथा योगाभ्यास के नाम पर किए जाने वाले कृत्य भी एक प्रकार के व्यायाम ही बनकर रह जाते हैं और उनका प्रभाव शरीर श्रम के अनुरूप ही नगण्य स्तर का होता है।
तीन ग्रंथि से आबद्ध आत्मा को जीवधारी, प्राणी या नर-पशु माना गया है। वही भवबंधनों में बँधा हुआ कोल्हू के बैल की तरह परायों के लिए श्रम करता रहा है। ग्रंथियों को युक्तिपूर्वक खोलना पड़ता है। बंधनों को उपयुक्त साधनों से काटना पड़ता है।
योगाभ्यास के साधना-प्रकरण में भवबंधनों में जकड़ने वाली तीन ग्रंथियों को खोलने के लिए क्रियापक्ष के तीन अभ्यास भी बताए गए हैं। इनसे संबंधित क्षेत्रों का व्यायाम भी होता है और परिष्कार भी। साथ में श्रद्धा-विश्वास का समावेश रखा जाए तो उनका प्रभाव गहन अंतराल तक जा पहुँचता है।
बंधनों को खोलने या तोड़ने वाले तीन साधन बताए गए हैं। वे करने में सुगम; किंतु प्रतिफल की दृष्टि से आश्चर्यजनक हैं।
ब्रह्मग्रंथि के उन्मूलन के लिए मूलबंध, विष्णुग्रंथि खोलने के लिए उड्डियानबंध और रुद्रग्रंथि खोलने के लिए जालंधरबंध की साधनाओं का विधान है। इन्हें करते रहने से बंधनमुक्ति-प्रयोजन में सफलता-सहायता मिलती है।
मूलबंध की क्रिया को ध्यानपूर्वक समझने का प्रयास किया जाए तो वह सहज ही समझ में भी आ जाती है और अभ्यास में भी। मूलबंध के दो आधार हैं। एक मल-मूत्र के छिद्र भागों के मध्य स्थान पर एक एड़ी का हलका दबाव देना। दूसरा गुदा संकोचन के साथ-साथ मूत्रेंद्रिय का नाड़ियों के ऊपर खींचना।
इसके लिए कई आसन काम में लाए जा सकते हैं। पालथी मारकर एक पैर के ऊपर दूसरा रखना। इसके ऊपर स्वयं बैठकर जननेंद्रिय-मूल पर हलका दबाव पड़ने देना।
दूसरा आसन यह है कि एक पैर को आगे की ओर लंबा कर दिया जाए और दूसरे पैर को मोड़कर उसकी एड़ी का दबाव मल-मूत्रमार्ग के मध्यवर्ती भाग पर पड़ने दिया जाए। स्मरण रखने की बात यह है कि दबाव हलका हो। भारी दबाव डालने पर उस स्थान की नसों को क्षति पहुँच सकती है।
संकल्पशक्ति के सहारे गुदा को ऊपर की ओर धीरे-धीरे खींचा जाए और फिर धीरे-धीरे ही उसे छोड़ा जाए। गुदा-संकुचन के साथ-साथ मूत्र नाड़ियाँ भी स्वभावतः सिकुड़ती और ऊपर खिंचती हैं। उसके साथ ही सांस को भी ऊपर खींचना पड़ता है। यह क्रिया आरंभ में 10 बार करनी चाहिए। इसके उपरांत प्रति सप्ताह एक के क्रम को बढ़ाते हुए 25 तक पहुँचाया जा सकता है। यह क्रिया लगभग अश्विनी मुद्रा या वज्रोली क्रिया के नाम से भी जानी जाती है। इसे करते समय मन में भावना यह रहनी चाहिए कि कामोत्तेजना का केंद्र खिसककर मेरुदंड मार्ग से ऊपर की ओर रेंग रहा है और मस्तिष्क मध्य भाग में अवस्थित सहस्रारचक्र तक पहुंच रहा है। यह क्रिया कामुकता पर नियंत्रण करने और कुंडलिनी उत्थान का प्रयोजन पूरा करने में सहायक होती है।
दूसरा बंध उड्डियान है। इसमें पेट को फुलाना और सिकोड़ना पड़ता है। सामान्य आसन में बैठकर मेरुदंड सीधा रखते हुए बैठना चाहिए और पेट को सिकोड़ने-फुलाने का क्रम चलाना चाहिए।
इस स्थिति में सांस खींचें और पेट को जितना फुला सकें, फुलाएँ; फिर साँस छोड़ें और साथ ही पेट को जितना भीतर ले जा सकें; ले जाएँ। ऐसा बार-बार करना चाहिए। साँस खींचने और निकलने की क्रिया धीरे-धीरे करें ताकि पेट को पूरी तरह फैलने और पूरी तरह ऊपर खिंचने में समय लगे, जल्दी न हो।
इस क्रिया के साथ भावना करनी चाहिए कि पेट के भीतरी अवयवों का व्यायाम हो रहा है, उनकी सक्रियता बढ़ रही है। पाचनतंत्र सक्षम हो रहा, साथ ही मल विसर्जन की क्रिया भी ठीक होने जा रही है। इसके साथ भावना यह रहनी चाहिए की लालच का, अनीति उपार्जन का, असंयम का, आलस्य का अंत हो रहा है। इसका प्रभाव आमाशय, आँत, जिगर, गुर्दे, मूत्राशय, हृदय, फुफ्फुस आदि उदर के सभी अंग अवयवों पर पड़ रहा है और स्वास्थ्य की निर्बलता हटती और उसके स्थान पर बलिष्ठता सुदृढ़ होती जा रही है।
तीसरा जालंधरबंध है। इसमें पालथी मारकर सीधा बैठा जाता है। रीढ़ सीधी रखनी पड़ती है। ठोड़ी को झुकाकर छाती से लगाने का प्रयत्न करना पड़ता है। ठोड़ी जितनी सीमा तक छाती से लगा सके, उतने पर ही संतोष करना चाहिए। जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए। अन्यथा गरदन को झटका लगने और दर्द होने लगने जैसा जोखिम रहेगा।
इस क्रिया में भी ठोड़ी को नीचे लाने और फिर ऊँची उठाकर सीधा कर देने का क्रम चलाया जाए। साँस को भरने और निकालने का क्रम भी जारी रखना चाहिए। इससे अनाहत, विशुद्धि और आज्ञाचक्र तीनों पर भी प्रभाव और दबाव पड़ता है। इससे मस्तिष्क-शोधन का ‘कपालभाति’ जैसा लाभ होता है। बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता दोनों ही जगते हैं। यही भावना मन में करनी चाहिए कि अहंकार छट रहा है और नम्रता भरी सज्जनता का विकास हो रहा है।
तीन ग्रंथियों को बंधनमुक्त करने में उपरोक्त तीन बंधों का निर्धारण है। क्रियाओं को करते और समाप्त करते हुए मन ही मन संकल्प दुहराना चाहिए कि यह सारा अभ्यास बंधनमुक्ति के लिए वासना, तृष्णा और अहंता को घटाने-मिटाने के लिए किया जा रहा है। भवबंधनों से मुक्ति जीवित अवस्था में ही होती है। मुक्ति मरने के बाद मिलेगी, ऐसा नहीं सोचना चाहिए। जन्म-मरण से छुटकारा पाने जैसी बात सोचना व्यर्थ है। आत्मकल्याण और लोक-मंगल का अभ्यास करने के लिए कई जन्म लेने पड़ें तो इसमें कोई हर्ज नहीं है।