Magazine - Year 1986 - Version 2
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Language: HINDI
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योगासनों से विभिन्न व्याधियों का उपचार
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दिल के दौरे का सबसे बढ़िया व सशक्त साधन योगाभ्यास है। यह कथन है जे.जे. अस्पताल समूह के एसोसियेटेड, प्रोफेसर डॉ. अशोक तिलपुले का। हृदय रोग पर योगाभ्यास के लंबे अध्ययन के उपरांत डॉ. अशोक इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं।
अपने अध्ययन के दौरान उन्होंने देखा कि जिन रोगियों ने लगातार पाँच वर्ष तक योगाभ्यास किया, उनमें से मात्र सात प्रतिशत को ही इस दौरान दूसरा दौरा पड़ा, जबकि प्रायः 20 से 30 प्रतिशत रोगियों में दूसरा दौरा पड़ता देखा जाता है।
बंबई में आयोजित एक संगोष्ठी में उन्होंने उपरोक्त जानकारी दी। साथ ही यह भी बताया कि योगाभ्यास को शारीरिक व्यायाम नहीं मानना चाहिए, न ही उसे अन्यमनस्कतापूर्वक जैसे-तैसे मात्र रुटिन पूरा करने की तरह करना चाहिए; वरन उल्लासपूर्वक तद्नुरूप विचारणा— भावना के साथ किया जाना चाहिए, तभी उसका अधिकतम लाभ भी मिल सकेगा।
योग के माध्यम से कोई भी रोगी अपने शरीर का निरीक्षण-पर्यवेक्षण करना सीखकर, शरीरगत कमियों व बीमारियों का पता लगा सकता है तथा अपनी प्राणशक्ति के द्वारा उन्हें ठीक भी कर सकता है।
वैज्ञानिक योगक्रिया का अब फिजियोलॉजिकल, न्यूरो फिजियोलॉजिकल तथा साइकोलॉजिकल धरातल पर अध्ययन कर रहे हैं, जो कि रोगी के स्पाइनल कॉर्ड की क्षति से बहुत गहन रूप से संबद्ध है। यौगिक क्रिया से इस प्रकार की क्षति ठीक हो जाती है तथा मांसपेशियों को भी आराम मिलता है।
इससे चयापचय दर भी ठीक रहती है तथा प्राण ऊर्जा का संरक्षण भी होता रहता है, जिससे शरीर की सारी क्रियाएँ भली प्रकार व सामंजस्यपूर्ण रीति से होती रहती हैं।
इस सिलसिले में मुद्रा और प्राणायाम भी काफी सहायक सिद्ध होते हैं। कषाय-कल्मषों को हटाकर प्रसुप्त केंद्रों को जागृत करने में उसकी उल्लेखनीय भूमिका रहती है।
इनके द्वारा कम खर्च पर विभिन्न प्रकार की बीमारियाँ दूर की जा सकती हैं। इन्हीं में से एक है स्पाइनल कॉर्ड संबंधी शिकायत। इनके नियमित अभ्यास से इसमें काफी आराम मिलता है। पाराण्लेजिक्स रोगी भी इससे लाभ उठा सकते हैं। पाराण्लेजिया रोग में क्रियाओं का मुख्य उद्देश्य होता है— अवरुद्ध अंतःस्रावी ग्रंथियों को उचित परिमाण में रक्त की आपूर्ति करना, ताकि वे सामान्य ढंग से क्रियाशील रह सकें और स्पाइनल कॉर्ड को ठीक कर सकें।
खेलों एवं फिजियोथेरेपी का तो अपना महत्त्व है ही; किंतु ये योग-क्रियाओं का स्थानापन्न कदापि नहीं बन सकते। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के अनुसार योग-साधनाओं का शरीर, मन और आत्मा तीनों पर प्रभाव पड़ता है, जबकि व्यायाम और खेलों के प्रभाव मात्र शरीरगत होते हैं।
हमारे ग्रंथि तंत्र ही जीवनीशक्ति के संप्रेषक हैं। स्पाइनल कालम द्वारा यह संप्रेषण कार्यरूप में परिणत होता है। यौगिक क्रियाओं से जीवनीशक्ति की मात्रा और स्तर हमारे शरीर में शनै-शनै बढ़ती जाती है। जब इनके द्वारा रक्तसंचरण की क्रिया सही हो जाती है तो इससे ग्रंथियों की अक्षमता भी दूर हो जाती है और स्वास्थ्य में सुधार होने लगता है।
सुषुम्ना संबंधी रोग एवं हृदय के दौरे पड़ने की तरह ही एक दूसरी व्यथा है— रक्तचाप का बढ़ना-घटना। रक्त की गति स्वाभाविक न रहकर जब अतितीव्र या अतिमंद हो जाती है तब उसे हाई ब्लडप्रेशर या लो ब्लडप्रेशर कहते हैं। दोनों ही स्थितियों में रोगी की बेचैनी बढ़ जाती है। हाई ब्लडप्रेशर में वह उत्तेजित होता है तो लो ब्लडप्रेशर में बेहद थका हुआ, अशक्त लुँज-पुँज हो जाता है। बेचैनी दोनों ही स्थितियों में रहती है और गहरी नींद नहीं आती, पाचन भी गड़बड़ा जाता है।
चिकित्सा उपचार तो अनेकों चिकित्सा-प्रणालियों में अनेक प्रकार के हैं; पर आत्मिक उपचारों में सफलता है— करवट बदल लेना। इसी को स्वर परिवर्तन भी कहते हैं।
दाहिना स्वर चलने पर शरीर में गर्मी बढ़ जाती है और बायाँ चलने पर शीतलता की मात्रा अधिक रहती है। यह स्वर बदलना अपने हाथ की बात है। कुछ देर बाँए करवट सोते रहने पर दाहिना स्वर चलने लगेगा। इसी प्रकार दाहिने करवट से सोने पर बाँया चल पड़ेगा। स्वर परिवर्तन के साथ ही सर्दी-गर्मी की घट-बढ़ होने लगती है।
हाई ब्लडप्रेशर में गर्मी और लो में शीतलता का अनुपात अधिक हो जाता है। इसे संतुलित बनाने के लिए करवट बदलकर लेटे रहने और शरीर को तनावरहित शिथिल बना लेने की प्रक्रिया ऐसी है, जिसमें लाभ तुरंत होता है और किसी भी चिकित्सा विज्ञान के अनुसार इसमें कोई खतरा नहीं है।
यों आसन और प्राणायाम की अपनी चिकित्सापद्धति है। उसके माध्यम से शारीरिक और मानसिक रोगों से भी छुटकारा पाया जा सकता है। उनकी अधिक जानकारी कभी शान्तिकुञ्ज हरिद्वार आकर प्राप्त की जा सकती है।
साधारणतया दोनों प्रकार के ब्लडप्रेशर में वृषभासन-शिथिलासन से अधिक लाभ होते देख गया है। इसी प्रकार सर्वांगासन सभी प्रकार की मेरुदंड संबंधी, अंतःस्रावी ग्रंथियों संबंधी विकृतियों के लिए उत्तम है। यदि उचित मार्गदर्शन में यह सब कुछ करना, भले ही अल्पावधि के लिए ही सही, संभव हो सके तो बीमारी से मुक्ति संभव है। यहाँ फिर यह ध्यान रखना चाहिए कि यह स्थूलउपचार वाला, व्यायामपरक 'योगा' भर है, वह ध्यानयोग नहीं जो अध्यात्म पथ पर व्यक्ति को आगे बढ़ाता है।