Magazine - Year 1986 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
उदारता के साथ सतर्कता भी बनाए रहें
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
अपने को पवित्र रखें। रीति-नीति में शालीनता का समावेश करें और इसके लिए प्रयत्नरत रहें कि अपनी शालीनता का स्तर गिरने न पाए।
किंतु साथ ही यह सतर्कता रखने की भी आवश्यकता है कि, बरती गई भलमनसाहत का लोग अनुचित लाभ न उठाने पाएँ। इस संसार में भले लोग कम हैं, बुरे अधिक। बुरे लोग बुरों से टकराकर अपना पराक्रम दिखाने और विजयी बनकर अपनी प्रतिभा का परिचय देने के झंझट में नहीं पड़ते; वरन यह देखते हैं कि किसी भावुक की सज्जनता को उसकी मूर्खता समझकर अनुचित लाभ कैसे उठाया जाए। सज्जनों को ठग लेना, अन्य किसी प्रकार बढ़-चढ़कर लाभ उठाना कठिन है, इसलिए भले लोग ही अक्सर ठगे जाते हैं और कृतघ्नता या विश्वासघात की शिकायत करते हैं।
अपने अंदर सज्जनता के साथ बुद्धिमत्ता को भी जोड़कर रखना चाहिए। इतना भावुक या उदारचेता नहीं बनना चाहिए कि किसी की मोहनी बातों में आकर अपने कपड़े उतार दिए जाएँ और खुद ठंड सहकर बीमार पड़ा जाए।
संकटग्रस्तों की सहायता करना उचित है; पर इससे पूर्व यह जाँच-पड़ताल करनी चाहिए कि संकट की बात बनावटी तो नहीं है, विपत्ति की बात मनगढ़ंत तो नहीं है, हितैषी बनकर जेब काटने का कोई कुचक्र तो नहीं चल रहा है?
जहाँ वस्तुस्थिति समझने में भूल होती है, वहाँ अनावश्यक उदारता भी पीछे पश्चाताप बनती है। जेब कटाना और आपत्तिग्रस्त की सहायता करना, दो पृथक बातें हैं। उदारता को सद्गुण माना गया है; पर कुपात्रों के बहकावे में आकर अपना सर्वस्व गँवा देना लोक-व्यवहार नहीं है।
दुर्जन बनना इसलिए बुरा है कि उससे आत्मा का पतन होता है। व्यक्तित्तव का स्तर गिरता है और अप्रामाणिक समझे जाने पर स्नेह-सहयोग का रास्ता बंद होता है। सज्जनता के अनेक गुण हैं। उनके कारण मनुष्य देवोपम एवं श्रद्धा का पात्र बनता है। उसमें बुराई का समावेश तब होता है जब अतिशय भावुकता प्रदर्शित की जाती है और वह सतर्कता चली जाती है, जिसकी कसौटी पर कसकर वस्तुस्थिति समझी जाती है।
यथासंभव शारीरिक श्रम और मानसिक सत्परामर्श से, सहानुभूति और सेवा-भावना को चरितार्थ करने तक ही सीमित रहना चाहिए। आर्थिक लेन-देन का सिलसिला वहाँ से चलाना चाहिए जहाँ वस्तुतः कोई व्यक्ति संकट में घिर गया हो। ऐसी सहायता करते हुए यह आशा नहीं करनी चाहिए कि जो दिया गया है, वह वापस लौटेगा। सच तो यह है कि जो अपव्ययी या दुर्गुणी होते हैं, वे ही आर्थिक संकट में फँसते और संतुलन बिठाने के लिए अनेकों से ऋण या सहायता प्राप्त करने का कुचक्र रचते रहते हैं। उनकी स्थिति कभी ऐसी नहीं बन पाती जो उपकार का बदला चुका सके, इसलिए इन दिनों उदारता के साथ सतर्कता को सम्मिलित रखना भी आवश्यक है।