Magazine - Year 1986 - Version 2
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Language: HINDI
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धारावाहिक विशेष लेखमाला— गायत्री और सावित्री की एकता और पृथकता
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पुराणों में सृष्टि के आरंभ का वर्णन करते हुए लिखा गया है कि विष्णु की नाभि से कमल उत्पन्न हुआ। कमलपुष्प पर ब्रह्मा विराजे। विधाता ने आकाशवाणी के माध्यम से ब्रह्मा से कहा— "आपको सृष्टि-संरचना के लिए उत्पन्न किया गया है। उसकी क्षमता उत्पन्न करने के लिए तप कीजिए।" तप से शक्ति उपलब्ध होती है और उसी विशिष्टता के आधार पर महत्त्वपूर्ण कार्य बन पड़ते हैं। ब्रह्माजी ने तप का आधार व स्वरूप पूछा तो आकाशवाणी ने कहा— “गायत्री मंत्र की सम्यक उपासना ही तप है।" पीछे उन्हें गायत्री मंत्र बताया गया, जिसकी वे उपासना करने लगे। इस आधार पर उनकी चेतना जगी और सृष्टि-निर्माण का ताना-बाना बुन लिया गया। उसकी सुव्यवस्थित योजना बना ली गई।
किंतु उस समय महाप्रलय का जल ही जल सर्वत्र भरा पड़ा था, कोई पदार्थ नहीं था। अब सृष्टि बने तो किस आधार पर बने? इसके लिए पदार्थ की आवश्यकता पड़ी। उसे जुटाने के लिए उन्हें दुबारा तप करना पड़ा। इस बार उन्हें सावित्री का आश्रय लेना पड़ा। सावित्री प्रकट हुईं और उसका उनने उपयोग करके सृष्टि की संरचना कर डाली।
इस कथानक के अनुसार गायत्री और सावित्री दो का सहयोग ब्रह्मा जी को लेना पड़ा, इसलिए यह दोनों ही उनकी सहायिकाएँ, सहभागिनी पत्नियाँ कहलाईं। गायत्री अर्थात आत्मिकी। सावित्री अर्थात भौतिकी। भौतिकी का मूलभूत आधार पंचतत्त्व है। तत्त्व जड़ है, इसलिए प्रकृति को जड़ कहा जाता है। जड़ प्रकृति से समस्त ब्रह्मांड भरा पड़ा है। उसमें अनेकों ग्रहपिंड और छुट्टल पदार्थ प्रचुर मात्रा में विद्यमान हैं; पर उनमें चेतना न होने से मात्र क्रिया भर होती है। उनके परमाणु और पिंड अपनी धुरी एवं कक्षा में भ्रमण करते हैं। कणों के साथ-साथ पिंड की मूलभूत संरचना में प्रतिकण भी विद्यमान है। छाया की तरह प्रतिच्छाया जुड़ी होने की तरह यह क्रिया का व्यापार सब ओर चल रहा है। यह प्रक्रिया भी किन्हीं नियमों के अंतर्गत व्यवस्थित रूप से इकॉलाजी विज्ञान के अनुशासनों के अंतर्गत चलती है। पृथ्वी पर बिखरा हुआ पदार्थ भी इसका अपवाद नहीं है; पर जड़ सृष्टि अपर्याप्त है। उसका न कोई उद्देश्य है, न प्रयास, न प्रतिफल, न आनंद। इसका समावेश हुए बिना जड़ पदार्थ दृश्यमान, गतिशील होते हुए भी निरर्थक ही बना रहा। इस अभाव की पूर्ति के लिए ब्रह्माजी को आत्मिकी का, चेतना का और गायत्री का उपयोग करना पड़ा। इसी आधार पर प्राणी बने। इस प्रसंग का माहात्म्य शास्त्रों में बड़े विशद रूप में प्रकट हुआ है।
परब्रह्मस्वरूपा च निर्वाण पददायिनी।
ब्रह्मतेजोमयी शक्तिस्तदधिष्ठातृ देवता॥
— देवी भागवत स्कन्घ 9 अ. 1/42 गायत्री मोक्ष देने वाली परमात्मा स्वरूप और ब्रह्मतेज से युक्त शक्ति है और मंत्रों की अधिष्ठात्री है। गायत्री वा इदं सर्वम्। — नृसिंहपूर्वतापनीयोप 4/3 यह समस्त जो कुछ है, गायत्री स्वरूप है। गायत्री परमात्मा। — गायत्री तत्त्वे. गायत्री ही परमात्मा है। ब्रह्म गायत्रीति— ब्रह्म वै गायत्री।—शतपथ ब्राह्मण 8।5।3।7— ऐतरेय ब्रा. अ. 17 ख. 5 ब्रह्म गायत्री है, गायत्री ही ब्रह्म है। परमात्मनस्तु या लोके ब्रह्म शक्तिर्विराजते।
सूक्ष्मा च सात्विकी चैव गायत्रीत्यभिधीयते॥ 9 ॥— गायत्री संहिता
संसार में परमात्मा की जो सूक्ष्म और सात्विक ब्रह्मशक्ति विद्यमान है, वही गायत्री कही जाती है।
प्रभावादेव गायत्र्या भूतानामभिजायते।
अन्तःकरणेषु दैवानां तत्त्वानां हि समुद्भवः॥ 10 ॥ — गायत्री संहिता
प्राणियों के अंतःकरण में दैवी तत्त्वों का प्रादुर्भाव गायत्री के प्रभाव से ही होता है। प्राणियों के, सभी जीवधारियों के शरीर तो पदार्थ विनिर्मित थे; पर इसके अंतर्गत चेतना का समावेश एक विलक्षणता थी। चेतना न होने पर प्राणी अपने शरीरों का उपयोग किस प्रकार, किस निमित्त कर पाते। संसार में बिखरे हुए साधनों का किस प्रकार उपयोग कर पाते? इस उपयोग के बिना उन्हें संतोष, उत्कर्ष और आनंद की प्राप्ति कैसे होती? यह काम चेतना का है। प्राणियों के शरीर पंचतत्त्वों से बने हैं और उनके भीतर काम करने वाली चेतना गायत्री है। इस चेतना को प्राण कहा गया है। प्राण रहने तक ही प्राणी जीवित रहते है। इनके निकल जाने पर शरीर मृतक बन जाता है। अपनी सत्ता नष्ट करने के लिए अपने भीतर से ही सड़न के कृमि-कीटक उत्पन्न हो जाते हैं और वे उसका सफाया करके स्वयं भी समाप्त हो जाते हैं। अन्यथा चील, कौए, सियार, कुत्ते आदि उसे खाकर समाप्त कर देते हैं। जल में डाल देने पर मछलियाँ, कछुए आदि उसे खा जाते हैं। इस प्रकार चेतना के बिना शरीर का स्वस्थ— सक्रिय रहना तो दूर, वह अपनी सत्ता को बनाए रहने में भी समर्थ नहीं होता, इसलिए सावित्री से गायत्री का महत्त्व अधिक माना जा सकता है; किंतु यह मान्यता भी अपूर्ण है, क्योंकि चेतना की चिंतनात्मक क्षमता आधारहीन होने पर अपने पराक्रम का, अस्तित्व का परिचय नहीं दे सकती। इस तर्क के अनुसार सावित्री की भी समान महत्ता स्वीकार करनी पड़ती है। जहाँ तक चेतन जगत का संबंध है, वहाँ आत्मिकी और भौतिकी की सम्मिश्रित प्रक्रिया ही काम करती दिखती है और दोनों एकदूसरे पर निर्भर प्रतीत होती हैं। दो पत्नियाँ होने पर वे मिल-जुलकर सृष्टि की समग्र गृह व्यवस्था चलाती हैं। इसी प्रकार चेतन जगत का समस्त क्रियाकलाप सावित्री और गायत्री के भौतिकी और आत्मिकी के संयुक्त प्रयास से ही चलना प्रत्यक्ष है। गायत्री पंचप्राणों से विनिर्मित है। प्राणों की गणना पाँच में होती है। उपप्राण भी पाँच ही हैं, इसलिए उसे प्राणविद्या कहा गया है। शास्त्रकारों ने गायत्री का स्वरूप निर्धारित करते समय उसे प्राणचेतना या प्राणविद्या कहा है। इस संबध में शास्त्रमतों को देखा जा सकता है। पाँच कोशों की स्थिति पर प्रकाश डालते हुए “सर्वसारोपनिषद” में कहा गया है—
अन्नकार्याणां कोशानां समूहोऽन्नमयः कोश इत्युच्यते । प्राणादि चतुर्दश वायुभेदा अन्नमयकोशे यदा वर्तन्ते तदा प्राणमयः कोश इत्युच्यते। एतत्कोशद्वयसंसक्तं मन आदि चतुर्दशकरणैरात्मा शब्दादि विषय संकल्पादिन्धर्मान् यदा करोति तदा मनोमयः कोश इत्युच्यते। एतत्कोशत्रयसंसक्तं तद्गत विशेषज्ञो यदा भासते तदा विज्ञानमयः कोश इत्युच्यते। एतत्कोशचतुष्ट्यसंसक्तं स्वाकारणाज्ञाने वटकणिकायामिव वृक्षो यदा वर्तते तदा आनन्दमयकोश इत्युच्यते।। 5।।— सर्वसारोपनिषद्
अर्थात— अन्न से अन्न के स्वरूप एवं शक्तिसत्ता से प्रत्यक्षतः विनिर्मित कोशों को अन्नमयकोश कहते हैं। इस अन्नमयकोश में संचरित प्राण, अपान, उदान, व्यान, समान इन पंचप्राणों, पंच उपप्राणों आदि प्राणवायु के सभी शरीरस्थ रूपों का समुच्चय प्राणमयकोश है। मन समेत समस्त इंद्रियों द्वारा किए जाने और किए जा सकने वाले सूक्ष्म कार्यक्षेत्र का नाम मनोमय कोश है। इन तीनों कोशों के संयुक्त स्वरूप से आत्मा, बुद्धि द्वारा जो कुछ ज्ञानात्मक क्रिया-व्यापार करती है, उसे विज्ञानमयकोश कहते हैं। इन चारों कोशों से संसक्त आत्मा जब अपने कारणरूप के प्रति अनभिज्ञ रहती है और स्वतः में ही रमती रहती है, जैसे वटबीज में वृक्ष रहता है, तब उसे आनंदमयकोश कहते हैं। पाँच प्राणों को ही पाँच देव बताया गया है। पंचदेव मयं जीवः, पंच प्राणमयं शिवः।
कुण्डली शक्ति संयुक्तं, शुभ्र विद्युल्लतोपमम्॥ — तंत्रार्णव यह जीव पाँच देवसहित है। प्राणवान होने पर शिव है। यह परिकर कुंडलिनी शक्ति युक्त है। इनका आकार चमकती बिजली के समान है। कुंडलिनी जागरण का परिचय पंचकोशों की जागृति के रूप में मिलता है। कुण्डलिनी शक्तिराविर्भवति साधके।
तदा स पंचकोशे मत्तेजोऽनुभवति ध्रुवम्॥— महायोग विज्ञान
जब कुंडलिनी जागृत होती है। तो साधक के पाँचों कोश ज्योतिर्मय हो उठते हैं। ब्रह्मविद्या समर्थित पंचकोशों के जागरण से उत्पन्न ब्राह्मीशक्ति की पराशक्ति के रूप में अभ्यर्थना की गई है। देवी भागवत में कहा गया है—
पंचप्राणाधिदेवी या पंचप्राणस्वरूपिणी। प्राणाधिकप्रियतमा सर्वाभ्यः सुन्दरी परा।। 44 ।।— देवी भागवत पाँच प्राण उसी पंचकोश-संपदा के पाँच स्वरूप हैं। प्राणों की अधिष्ठात्री देवी वे ही हैं। सर्वांग सुंदरी है, पराशक्ति है। भगवान को प्राणों से प्यारी है। वस्तुतः गायत्री प्राणिसत्ता में समाई हुई है, इसलिए उसे वह अपने सदृश ही मानता है। मनुष्य की उपासना में वह मानुषी है और उसकी आकृति वैसी ही है। दो हाथ दो पैर ज्ञानेंद्रियाँ-कर्मेंद्रियाँ भी उतनी हैं। किसी और प्राणी की यदि मनुष्य जैसी बुद्धिमता होती तो वह अपनी जैसी आकृति, वैसा ही चेतना के स्वरूप को समझ पाता। बैल का भगवान बैल जैसा और पक्षी का भगवान पक्षी जैसा होता। चर्चा प्रतीक के प्रसंग में चल रही है। गायत्री महाविज्ञान का ऊहा-पोह करते समय उपासना विज्ञान के क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए ध्यान की अनिवार्य आवश्यकता प्रतीत होती है। एकाग्रता और श्रद्धा के आधार पर ही ध्यान बन पड़ता है, इसलिए उस हेतु कोई न कोई नामरूप वाली प्रतिमा बुद्धि कल्पित करती है। कल्पना बेपर की उड़ान भर ही हो तो बात दूसरी है, अन्यथा यह ध्यान के अनुरूप ही साधक की आकृति बना लेती है। ध्यान, श्रद्धा एवं विश्वास के संयोग से ठीक उसी प्रकार फलित होने लगता है, जैसी कि उस पर आस्था जमाई गई थी। इसी दृष्टि से गायत्री की प्रतिमा ठीक मानुषी जैसी गढ़ी गई है। उसके साथ दो उपकरण जोड़े गए हैं। एक जल भरा कमंडलु, दूसरे हाथ में पुस्तक। पुस्तक विवेक का प्रतिनिधित्त्व करती है और जल भावना का। विवेक और भावना का समन्वय ही मानवी गरिमा के अनुरूप आस्था एवं आकांक्षा उत्पन्न करता है। गायत्री का वाहन राजहंस है। यह हंस भी साधक की अंतःचेतना के स्तर की ओर ही इंगित करता है। सामान्य जलाशयों में रहने वाला हंस नामक पक्षी नही। हंस और राजहंस में मौलिक अंतर है। राजहंस नीर-क्षीर-विवेक से संपन्न है। दूध और पानी मिला होने पर उसमें से दूध पीता है और पानी को छाँट देता है। इसी प्रकार वह मोती चुगता है, न मिलने पर प्राण त्याग देता है। यह विशेषताएँ साधारण हंसों में नहीं होती। वे जलाशयों में पाएँ जाने वाले कीड़े-मकोड़े खाते हैं। दूध उन बेचारों को कहाँ मिलता है? इसी प्रकार वे मोती पाने की स्थिति में भी नहीं होते। मोती बहुत गहरे पानी में मिलते हैं। उतनी डुबकी साधारण हंस नहीं लगा सकते। राजहंस नाम का कोई पक्षी भी नहीं होता। यह एक अलंकारिक कल्पना है, जिसका तात्पर्य आदर्शवादिता से है। जो आत्मिकी का, चेतना का असाधारण अनुदान प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें अपना जीवन सर्वथा श्वेत, उज्ज्वल रखना चाहिए। कषायों की, विकारों की कलौंच तनिक भी नहीं रहने देनी चाहिए; किंतु साधारण हंसों में तो चोंच के इर्द-गिर्द तथा पंखों के नीचे कालापन भी होता है, इसलिए यह अलंकारिक निरूपण ही समझा जा सकता है। सावित्री की, भौतिकी की सूक्ष्म विशिष्टता अपने शरीर में जिन्हें जागृत करनी होती है उन्हें अध्यात्म की भाषा में उसी के साथ तद्रूप होना पड़ता है। ध्यान की तन्मयता स्तर तक विकसित करनी होती है। इसके लिए भी अलंकारित चित्रण किया गया है। सावित्री पंचमुखी है, उसकी दश भुजाएँ हैं। कमलासन पर विराजमान है। आयुधों और आभूषणों से सुसज्जित है। पंचमुख अर्थात प्रकृति के पाँच तत्त्व और चेतना के पाँच प्राण। दश भुजाएँ अर्थात पाँच ज्ञानेंद्रियाँ का समुच्चय। आभूषण-आयुध का अर्थ सुविधासंपन्न करने वाले साधन और कठिनाइयों को निरस्त करने वाले उपकरण। भौतिकी के क्षेत्र में प्रगति करने वालों के लिए यह सारा सरंजाम जुटाना आवश्यक है। सावित्री का वाहन-आसन कमलपुष्प है। इसके कई तात्पर्य हैं। हृदय को कमल कहा गया है। हृदय संवेदना, सहानुभूति, सहयोग जैसी प्रवृत्तियों का उद्गम माना गया है। उसे मात्र रक्त समेटने-फेंकने की थैली तो शरीरशास्त्री ही मानते हैं। आत्मिकी के तत्त्ववेत्ताओं ने शरीर अवयवों के साथ प्रवृत्तियों को भी जोड़ा है। मस्तिष्क के मध्य में रहने वाला सहस्रारकमल भी पुष्प की उपमा में प्रयुक्त होता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि मस्तिष्क की बुद्धि तीक्ष्ण और हृदय का स्वभाव संवेदना-सहकारिता का, संतुलन का माध्यम होना चाहिए। इस प्रकार गायत्री और सावित्री की प्रतिमाओं का पृथक्करण होता है। इस संदर्भ में शास्त्रकारों का अभिमत स्पष्ट है। सविता सर्वभूतानां सर्वभावाश्च सूयत।
सर्वनात्प्रेरणाच्चैव सविता तेन चोत्यते॥
— गायत्री तन्त्र
अर्थात— समस्त तत्त्वों, सभी प्राणियों और समस्त भावनाओं की प्रेरणा देने के कारण ही उस शक्ति को सविता कहा गया है। प्रतीक रूप में सविता देवता की उपासना की जाने का विधान है। गायत्री को सद्भावनाओं का और सावित्री को सत्प्रवृत्तियों का माध्यम मानना चाहिए। सद्भावनाओं के सहारे मनुष्य आत्मिक-क्षेत्र में ऊँचा उठता है। महामानव, ऋषि, देवता बनता है। उसकी प्रज्ञा, श्रद्धा, निष्ठा बलवती होती है। दूरदर्शी विवेकशीलता अपनाता है और पवित्र जीवनवाला बनता है। निजी कठिनाइयों से जूझता और उन्हें परास्त करता है। ऐसी सूझ-बूझ दिशाधारा और रीति-नीति अपनाता है, जिससे आत्मिक कल्याण हो सके और दूसरों को भी उपयुक्त प्रकाश मिल सके। सावित्री भौतिक-क्षेत्र में प्रगति और समृद्धि को कहते हैं। इस प्रकार की सफलताओं को अध्यात्म की भाषा में सिद्धियाँ कहा गया है। गायत्री द्वारा उपलब्ध उत्कृष्टताओं को ऋद्धियाँ कहते हैं। भौतिक-क्षेत्र में भी वैसी ही दो आवश्यकताएँ पड़ती हैं जैसी आत्मिकी के क्षेत्र में। कठिनाई से जूझना और गुत्थियों को सुलझाना अपने-अपने ढंग से दोनों ही क्षेत्रों में अभीष्ट हैं। साधनों को जुटाना और उपयोगी सहयोग अर्जित करना दोनों ही क्षेत्रों में समान रूप से आवश्यक हैं। स्वरूप और तरीके दोनों क्षेत्रों के अलग-अलग अवश्य हैं। संघर्ष के बिना कोई गति नहीं। आत्मिकी-क्षेत्र कुसंस्कारों, दुर्गुणों, पाप-कर्मों के अधोगामी प्रवाह को रोकना पड़ता है। संयमशील और तपस्वी बनकर आत्मशोधन करना होता है। इतना ही नहीं ऋद्धियों, विभूतियों को उपलब्ध करने के लिए व्यक्तित्व को अधिक पवित्र और प्रखर बनाना पड़ता है। इससे कम में कोई इन्हें पाने का अधिकारी बन नहीं सकता। यही बात भौतिकी-क्षेत्र के संबंध में भी है। स्वभावगत आलस्य-प्रमाद को परास्त करके अपने को नियमित, व्यवस्थित, सक्रिय बनाना होता है और साथ ही बहिरंग क्षेत्र के ईर्ष्यालुओं, प्रतिद्वंद्वियों, दुष्टों, आक्रामक-आततायियों से अपनी आत्मरक्षा के लिए इतनी साहसिकता और सहकारिता अर्जित करनी पड़ती है कि उसे देखते हुए आक्रामक दुष्प्रवृत्तियों का साहस ही शिथिल हो जाए और यदि वे दुस्साहस करें तो उन्हें नीचा देखना पड़े। इस प्रकार की तैयारी रखने वाले ही भौतिक प्रगति के क्षेत्र में सफल होते हैं। जिस प्रकार शरीर और प्राण, पुरुषार्थ और स्वस्थचित्त के समन्वय से ही कोई व्यक्ति आत्मिक विभूतियों का धनी बन सकता है, ठीक उसी प्रकार आंतरिक साहस और बाह्य पुरुषार्थ के बलबूते भौतिक-क्षेत्र की समृद्धि, संपत्ति, प्रतिभा, विजय जैसी सिद्धियाँ हस्तगत होती हैं। दोनों क्षेत्रों में दोनों ही प्रकार की विशेषताओं की आवश्यकताएँ पड़ती हैं, इसलिए दोनों को सर्वथा परस्पर संबद्ध माना जाता है। एक क्षेत्र की तैयारियाँ समग्र एवं स्थिर प्रगति का आधार नहीं बन सकतीं। सुपात्र साधक जब साधना की परिपक्वता पा लेते हैं तो उनमें दैवी चेतन शक्ति का प्रादुर्भाव होता है। श्रुति कहती है—
प्रादुर्भवन्ति वै सूक्ष्माश्चतुर्विंशति शक्तयः।
अक्षरेभ्यस्तु गायत्र्या मानवानां हि मानसे॥ 66॥
— गायत्री संहिता “मनुष्य के अंतःकरण में गायत्री के चौबीस अक्षरों से चौबीस सूक्ष्मशक्तियाँ प्रकट होती हैं। जागृता ग्रन्थयस्त्वेताः सूक्ष्माः साधकमानसे।
दिव्यशक्तिसमुद्भूतिं क्षिप्रं कुर्वन्त्यसंशयम्॥ 26॥
— गायत्री संहिता जागृत हुई ये सूक्ष्मयौगिक ग्रंथियाँ साधक के मन में निःसंदेह शीघ्र ही दिव्यशक्तियाे को पैदा कर देती हैं। जनयन्ति कृते पुंसामेता वै दिव्यशक्तयः।
विविधान् वै परिणामान् भव्यान् मङ्गलपूरितान्॥ 27॥
— गायत्री संहिता ये दिव्यशक्तियाँ मनुष्यों के लिए नाना प्रकार के मंगलमय परिणामों को उत्पन्न करती हैं। ये हैं— 1- प्रज्ञा 2- वैभव 3- सहयोग 4- प्रतिभा 5- ओजस् 6- तेजस् 7- वर्चस् 8- कांति 9- साहसिकता 10- दिव्यदृष्टि 11- पूर्वाभास 12- विचार-संचार 13- वरदान 14- शाप 15- शांति 16- प्राण प्रयोग 17- देहांतर संपर्क 18- प्राणाकर्षण 19- ऐश्वर्य 20- दूरश्रवण 21- दूरदर्शन 22- लोकांतर संपर्क 23- देव संपर्क 24- कीर्ति। इन्हीं को गायत्री की 24 सिद्धियाँ कहा जाता है। गायत्री व सावित्री साधना के समन्वय के विषय में शास्त्रकारों का सत स्पष्ट है—
पृष्ठतोऽस्याः साधनाया राजतेऽतितरं सदा।
मनस्विसाधकानां हि बहूनां साधनाबलम्॥ 76॥
— गायत्री संहिता इन साधनाओं के पीछे आदिकाल से लेकर अब तक असंख्य मनस्वी साधकों का साधन बल शोभित है। इस समन्वय के पीछे भी दोनों का अपना महत्त्व है, अपना-अपना स्वरूप भी, इसलिए शास्त्रकारों ने जान-बूझकर या अनजाने दोनों का ही बहुत जगहों पर, एक ही स्तर पर वर्णन किया है और एक ही नाम से पुकारा है। एक ही प्रकार का प्रतिफल बताया है, जबकि दोनों की दिशाधाराएँ पृथक-पृथक हैं। त्रिवेणी में गंगा-यमुना का संगम होने से उनका एकीकरण हो जाने की बात भी सही है; पर यह भी गलत नहीं है कि दोनों का उद्गम और प्रवाह क्षेत्र अलग-अलग है। इनका समन्वय एकीकरण तो बहुत आगे चलकर होता है। एकता के बीच भिन्नता का निरूपण करने के लिए गायत्री और सावित्री के दो रूप विनिर्मित किए गए हैं। गायत्री एकमुखी एवं द्विभुजी। सावित्री पंचमुखी एवं दस भुजी। दोनों के वाहन और अस्त्र-आयुध भी भिन्न-भिन्न हैं। हमें दोनों की एकता भी समझनी चाहिए और भिन्नता भी। आत्मिक-प्रगति के लिए गायत्री का आश्रय लिया जाता है और भौतिक समस्याओं के लिए सावित्री का अवलंबन ग्रहण करना होता है। इसी को कहते हैं द्वैत में अद्वैत की दृष्टि और अद्वैत में द्वैत का पर्यवेक्षण। ( क्रमशः )
— देवी भागवत स्कन्घ 9 अ. 1/42 गायत्री मोक्ष देने वाली परमात्मा स्वरूप और ब्रह्मतेज से युक्त शक्ति है और मंत्रों की अधिष्ठात्री है। गायत्री वा इदं सर्वम्। — नृसिंहपूर्वतापनीयोप 4/3 यह समस्त जो कुछ है, गायत्री स्वरूप है। गायत्री परमात्मा। — गायत्री तत्त्वे. गायत्री ही परमात्मा है। ब्रह्म गायत्रीति— ब्रह्म वै गायत्री।—शतपथ ब्राह्मण 8।5।3।7— ऐतरेय ब्रा. अ. 17 ख. 5 ब्रह्म गायत्री है, गायत्री ही ब्रह्म है। परमात्मनस्तु या लोके ब्रह्म शक्तिर्विराजते।
सूक्ष्मा च सात्विकी चैव गायत्रीत्यभिधीयते॥ 9 ॥— गायत्री संहिता
संसार में परमात्मा की जो सूक्ष्म और सात्विक ब्रह्मशक्ति विद्यमान है, वही गायत्री कही जाती है।
प्रभावादेव गायत्र्या भूतानामभिजायते।
अन्तःकरणेषु दैवानां तत्त्वानां हि समुद्भवः॥ 10 ॥ — गायत्री संहिता
प्राणियों के अंतःकरण में दैवी तत्त्वों का प्रादुर्भाव गायत्री के प्रभाव से ही होता है। प्राणियों के, सभी जीवधारियों के शरीर तो पदार्थ विनिर्मित थे; पर इसके अंतर्गत चेतना का समावेश एक विलक्षणता थी। चेतना न होने पर प्राणी अपने शरीरों का उपयोग किस प्रकार, किस निमित्त कर पाते। संसार में बिखरे हुए साधनों का किस प्रकार उपयोग कर पाते? इस उपयोग के बिना उन्हें संतोष, उत्कर्ष और आनंद की प्राप्ति कैसे होती? यह काम चेतना का है। प्राणियों के शरीर पंचतत्त्वों से बने हैं और उनके भीतर काम करने वाली चेतना गायत्री है। इस चेतना को प्राण कहा गया है। प्राण रहने तक ही प्राणी जीवित रहते है। इनके निकल जाने पर शरीर मृतक बन जाता है। अपनी सत्ता नष्ट करने के लिए अपने भीतर से ही सड़न के कृमि-कीटक उत्पन्न हो जाते हैं और वे उसका सफाया करके स्वयं भी समाप्त हो जाते हैं। अन्यथा चील, कौए, सियार, कुत्ते आदि उसे खाकर समाप्त कर देते हैं। जल में डाल देने पर मछलियाँ, कछुए आदि उसे खा जाते हैं। इस प्रकार चेतना के बिना शरीर का स्वस्थ— सक्रिय रहना तो दूर, वह अपनी सत्ता को बनाए रहने में भी समर्थ नहीं होता, इसलिए सावित्री से गायत्री का महत्त्व अधिक माना जा सकता है; किंतु यह मान्यता भी अपूर्ण है, क्योंकि चेतना की चिंतनात्मक क्षमता आधारहीन होने पर अपने पराक्रम का, अस्तित्व का परिचय नहीं दे सकती। इस तर्क के अनुसार सावित्री की भी समान महत्ता स्वीकार करनी पड़ती है। जहाँ तक चेतन जगत का संबंध है, वहाँ आत्मिकी और भौतिकी की सम्मिश्रित प्रक्रिया ही काम करती दिखती है और दोनों एकदूसरे पर निर्भर प्रतीत होती हैं। दो पत्नियाँ होने पर वे मिल-जुलकर सृष्टि की समग्र गृह व्यवस्था चलाती हैं। इसी प्रकार चेतन जगत का समस्त क्रियाकलाप सावित्री और गायत्री के भौतिकी और आत्मिकी के संयुक्त प्रयास से ही चलना प्रत्यक्ष है। गायत्री पंचप्राणों से विनिर्मित है। प्राणों की गणना पाँच में होती है। उपप्राण भी पाँच ही हैं, इसलिए उसे प्राणविद्या कहा गया है। शास्त्रकारों ने गायत्री का स्वरूप निर्धारित करते समय उसे प्राणचेतना या प्राणविद्या कहा है। इस संबध में शास्त्रमतों को देखा जा सकता है। पाँच कोशों की स्थिति पर प्रकाश डालते हुए “सर्वसारोपनिषद” में कहा गया है—
अन्नकार्याणां कोशानां समूहोऽन्नमयः कोश इत्युच्यते । प्राणादि चतुर्दश वायुभेदा अन्नमयकोशे यदा वर्तन्ते तदा प्राणमयः कोश इत्युच्यते। एतत्कोशद्वयसंसक्तं मन आदि चतुर्दशकरणैरात्मा शब्दादि विषय संकल्पादिन्धर्मान् यदा करोति तदा मनोमयः कोश इत्युच्यते। एतत्कोशत्रयसंसक्तं तद्गत विशेषज्ञो यदा भासते तदा विज्ञानमयः कोश इत्युच्यते। एतत्कोशचतुष्ट्यसंसक्तं स्वाकारणाज्ञाने वटकणिकायामिव वृक्षो यदा वर्तते तदा आनन्दमयकोश इत्युच्यते।। 5।।— सर्वसारोपनिषद्
अर्थात— अन्न से अन्न के स्वरूप एवं शक्तिसत्ता से प्रत्यक्षतः विनिर्मित कोशों को अन्नमयकोश कहते हैं। इस अन्नमयकोश में संचरित प्राण, अपान, उदान, व्यान, समान इन पंचप्राणों, पंच उपप्राणों आदि प्राणवायु के सभी शरीरस्थ रूपों का समुच्चय प्राणमयकोश है। मन समेत समस्त इंद्रियों द्वारा किए जाने और किए जा सकने वाले सूक्ष्म कार्यक्षेत्र का नाम मनोमय कोश है। इन तीनों कोशों के संयुक्त स्वरूप से आत्मा, बुद्धि द्वारा जो कुछ ज्ञानात्मक क्रिया-व्यापार करती है, उसे विज्ञानमयकोश कहते हैं। इन चारों कोशों से संसक्त आत्मा जब अपने कारणरूप के प्रति अनभिज्ञ रहती है और स्वतः में ही रमती रहती है, जैसे वटबीज में वृक्ष रहता है, तब उसे आनंदमयकोश कहते हैं। पाँच प्राणों को ही पाँच देव बताया गया है। पंचदेव मयं जीवः, पंच प्राणमयं शिवः।
कुण्डली शक्ति संयुक्तं, शुभ्र विद्युल्लतोपमम्॥ — तंत्रार्णव यह जीव पाँच देवसहित है। प्राणवान होने पर शिव है। यह परिकर कुंडलिनी शक्ति युक्त है। इनका आकार चमकती बिजली के समान है। कुंडलिनी जागरण का परिचय पंचकोशों की जागृति के रूप में मिलता है। कुण्डलिनी शक्तिराविर्भवति साधके।
तदा स पंचकोशे मत्तेजोऽनुभवति ध्रुवम्॥— महायोग विज्ञान
जब कुंडलिनी जागृत होती है। तो साधक के पाँचों कोश ज्योतिर्मय हो उठते हैं। ब्रह्मविद्या समर्थित पंचकोशों के जागरण से उत्पन्न ब्राह्मीशक्ति की पराशक्ति के रूप में अभ्यर्थना की गई है। देवी भागवत में कहा गया है—
पंचप्राणाधिदेवी या पंचप्राणस्वरूपिणी। प्राणाधिकप्रियतमा सर्वाभ्यः सुन्दरी परा।। 44 ।।— देवी भागवत पाँच प्राण उसी पंचकोश-संपदा के पाँच स्वरूप हैं। प्राणों की अधिष्ठात्री देवी वे ही हैं। सर्वांग सुंदरी है, पराशक्ति है। भगवान को प्राणों से प्यारी है। वस्तुतः गायत्री प्राणिसत्ता में समाई हुई है, इसलिए उसे वह अपने सदृश ही मानता है। मनुष्य की उपासना में वह मानुषी है और उसकी आकृति वैसी ही है। दो हाथ दो पैर ज्ञानेंद्रियाँ-कर्मेंद्रियाँ भी उतनी हैं। किसी और प्राणी की यदि मनुष्य जैसी बुद्धिमता होती तो वह अपनी जैसी आकृति, वैसा ही चेतना के स्वरूप को समझ पाता। बैल का भगवान बैल जैसा और पक्षी का भगवान पक्षी जैसा होता। चर्चा प्रतीक के प्रसंग में चल रही है। गायत्री महाविज्ञान का ऊहा-पोह करते समय उपासना विज्ञान के क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए ध्यान की अनिवार्य आवश्यकता प्रतीत होती है। एकाग्रता और श्रद्धा के आधार पर ही ध्यान बन पड़ता है, इसलिए उस हेतु कोई न कोई नामरूप वाली प्रतिमा बुद्धि कल्पित करती है। कल्पना बेपर की उड़ान भर ही हो तो बात दूसरी है, अन्यथा यह ध्यान के अनुरूप ही साधक की आकृति बना लेती है। ध्यान, श्रद्धा एवं विश्वास के संयोग से ठीक उसी प्रकार फलित होने लगता है, जैसी कि उस पर आस्था जमाई गई थी। इसी दृष्टि से गायत्री की प्रतिमा ठीक मानुषी जैसी गढ़ी गई है। उसके साथ दो उपकरण जोड़े गए हैं। एक जल भरा कमंडलु, दूसरे हाथ में पुस्तक। पुस्तक विवेक का प्रतिनिधित्त्व करती है और जल भावना का। विवेक और भावना का समन्वय ही मानवी गरिमा के अनुरूप आस्था एवं आकांक्षा उत्पन्न करता है। गायत्री का वाहन राजहंस है। यह हंस भी साधक की अंतःचेतना के स्तर की ओर ही इंगित करता है। सामान्य जलाशयों में रहने वाला हंस नामक पक्षी नही। हंस और राजहंस में मौलिक अंतर है। राजहंस नीर-क्षीर-विवेक से संपन्न है। दूध और पानी मिला होने पर उसमें से दूध पीता है और पानी को छाँट देता है। इसी प्रकार वह मोती चुगता है, न मिलने पर प्राण त्याग देता है। यह विशेषताएँ साधारण हंसों में नहीं होती। वे जलाशयों में पाएँ जाने वाले कीड़े-मकोड़े खाते हैं। दूध उन बेचारों को कहाँ मिलता है? इसी प्रकार वे मोती पाने की स्थिति में भी नहीं होते। मोती बहुत गहरे पानी में मिलते हैं। उतनी डुबकी साधारण हंस नहीं लगा सकते। राजहंस नाम का कोई पक्षी भी नहीं होता। यह एक अलंकारिक कल्पना है, जिसका तात्पर्य आदर्शवादिता से है। जो आत्मिकी का, चेतना का असाधारण अनुदान प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें अपना जीवन सर्वथा श्वेत, उज्ज्वल रखना चाहिए। कषायों की, विकारों की कलौंच तनिक भी नहीं रहने देनी चाहिए; किंतु साधारण हंसों में तो चोंच के इर्द-गिर्द तथा पंखों के नीचे कालापन भी होता है, इसलिए यह अलंकारिक निरूपण ही समझा जा सकता है। सावित्री की, भौतिकी की सूक्ष्म विशिष्टता अपने शरीर में जिन्हें जागृत करनी होती है उन्हें अध्यात्म की भाषा में उसी के साथ तद्रूप होना पड़ता है। ध्यान की तन्मयता स्तर तक विकसित करनी होती है। इसके लिए भी अलंकारित चित्रण किया गया है। सावित्री पंचमुखी है, उसकी दश भुजाएँ हैं। कमलासन पर विराजमान है। आयुधों और आभूषणों से सुसज्जित है। पंचमुख अर्थात प्रकृति के पाँच तत्त्व और चेतना के पाँच प्राण। दश भुजाएँ अर्थात पाँच ज्ञानेंद्रियाँ का समुच्चय। आभूषण-आयुध का अर्थ सुविधासंपन्न करने वाले साधन और कठिनाइयों को निरस्त करने वाले उपकरण। भौतिकी के क्षेत्र में प्रगति करने वालों के लिए यह सारा सरंजाम जुटाना आवश्यक है। सावित्री का वाहन-आसन कमलपुष्प है। इसके कई तात्पर्य हैं। हृदय को कमल कहा गया है। हृदय संवेदना, सहानुभूति, सहयोग जैसी प्रवृत्तियों का उद्गम माना गया है। उसे मात्र रक्त समेटने-फेंकने की थैली तो शरीरशास्त्री ही मानते हैं। आत्मिकी के तत्त्ववेत्ताओं ने शरीर अवयवों के साथ प्रवृत्तियों को भी जोड़ा है। मस्तिष्क के मध्य में रहने वाला सहस्रारकमल भी पुष्प की उपमा में प्रयुक्त होता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि मस्तिष्क की बुद्धि तीक्ष्ण और हृदय का स्वभाव संवेदना-सहकारिता का, संतुलन का माध्यम होना चाहिए। इस प्रकार गायत्री और सावित्री की प्रतिमाओं का पृथक्करण होता है। इस संदर्भ में शास्त्रकारों का अभिमत स्पष्ट है। सविता सर्वभूतानां सर्वभावाश्च सूयत।
सर्वनात्प्रेरणाच्चैव सविता तेन चोत्यते॥
— गायत्री तन्त्र
अर्थात— समस्त तत्त्वों, सभी प्राणियों और समस्त भावनाओं की प्रेरणा देने के कारण ही उस शक्ति को सविता कहा गया है। प्रतीक रूप में सविता देवता की उपासना की जाने का विधान है। गायत्री को सद्भावनाओं का और सावित्री को सत्प्रवृत्तियों का माध्यम मानना चाहिए। सद्भावनाओं के सहारे मनुष्य आत्मिक-क्षेत्र में ऊँचा उठता है। महामानव, ऋषि, देवता बनता है। उसकी प्रज्ञा, श्रद्धा, निष्ठा बलवती होती है। दूरदर्शी विवेकशीलता अपनाता है और पवित्र जीवनवाला बनता है। निजी कठिनाइयों से जूझता और उन्हें परास्त करता है। ऐसी सूझ-बूझ दिशाधारा और रीति-नीति अपनाता है, जिससे आत्मिक कल्याण हो सके और दूसरों को भी उपयुक्त प्रकाश मिल सके। सावित्री भौतिक-क्षेत्र में प्रगति और समृद्धि को कहते हैं। इस प्रकार की सफलताओं को अध्यात्म की भाषा में सिद्धियाँ कहा गया है। गायत्री द्वारा उपलब्ध उत्कृष्टताओं को ऋद्धियाँ कहते हैं। भौतिक-क्षेत्र में भी वैसी ही दो आवश्यकताएँ पड़ती हैं जैसी आत्मिकी के क्षेत्र में। कठिनाई से जूझना और गुत्थियों को सुलझाना अपने-अपने ढंग से दोनों ही क्षेत्रों में अभीष्ट हैं। साधनों को जुटाना और उपयोगी सहयोग अर्जित करना दोनों ही क्षेत्रों में समान रूप से आवश्यक हैं। स्वरूप और तरीके दोनों क्षेत्रों के अलग-अलग अवश्य हैं। संघर्ष के बिना कोई गति नहीं। आत्मिकी-क्षेत्र कुसंस्कारों, दुर्गुणों, पाप-कर्मों के अधोगामी प्रवाह को रोकना पड़ता है। संयमशील और तपस्वी बनकर आत्मशोधन करना होता है। इतना ही नहीं ऋद्धियों, विभूतियों को उपलब्ध करने के लिए व्यक्तित्व को अधिक पवित्र और प्रखर बनाना पड़ता है। इससे कम में कोई इन्हें पाने का अधिकारी बन नहीं सकता। यही बात भौतिकी-क्षेत्र के संबंध में भी है। स्वभावगत आलस्य-प्रमाद को परास्त करके अपने को नियमित, व्यवस्थित, सक्रिय बनाना होता है और साथ ही बहिरंग क्षेत्र के ईर्ष्यालुओं, प्रतिद्वंद्वियों, दुष्टों, आक्रामक-आततायियों से अपनी आत्मरक्षा के लिए इतनी साहसिकता और सहकारिता अर्जित करनी पड़ती है कि उसे देखते हुए आक्रामक दुष्प्रवृत्तियों का साहस ही शिथिल हो जाए और यदि वे दुस्साहस करें तो उन्हें नीचा देखना पड़े। इस प्रकार की तैयारी रखने वाले ही भौतिक प्रगति के क्षेत्र में सफल होते हैं। जिस प्रकार शरीर और प्राण, पुरुषार्थ और स्वस्थचित्त के समन्वय से ही कोई व्यक्ति आत्मिक विभूतियों का धनी बन सकता है, ठीक उसी प्रकार आंतरिक साहस और बाह्य पुरुषार्थ के बलबूते भौतिक-क्षेत्र की समृद्धि, संपत्ति, प्रतिभा, विजय जैसी सिद्धियाँ हस्तगत होती हैं। दोनों क्षेत्रों में दोनों ही प्रकार की विशेषताओं की आवश्यकताएँ पड़ती हैं, इसलिए दोनों को सर्वथा परस्पर संबद्ध माना जाता है। एक क्षेत्र की तैयारियाँ समग्र एवं स्थिर प्रगति का आधार नहीं बन सकतीं। सुपात्र साधक जब साधना की परिपक्वता पा लेते हैं तो उनमें दैवी चेतन शक्ति का प्रादुर्भाव होता है। श्रुति कहती है—
प्रादुर्भवन्ति वै सूक्ष्माश्चतुर्विंशति शक्तयः।
अक्षरेभ्यस्तु गायत्र्या मानवानां हि मानसे॥ 66॥
— गायत्री संहिता “मनुष्य के अंतःकरण में गायत्री के चौबीस अक्षरों से चौबीस सूक्ष्मशक्तियाँ प्रकट होती हैं। जागृता ग्रन्थयस्त्वेताः सूक्ष्माः साधकमानसे।
दिव्यशक्तिसमुद्भूतिं क्षिप्रं कुर्वन्त्यसंशयम्॥ 26॥
— गायत्री संहिता जागृत हुई ये सूक्ष्मयौगिक ग्रंथियाँ साधक के मन में निःसंदेह शीघ्र ही दिव्यशक्तियाे को पैदा कर देती हैं। जनयन्ति कृते पुंसामेता वै दिव्यशक्तयः।
विविधान् वै परिणामान् भव्यान् मङ्गलपूरितान्॥ 27॥
— गायत्री संहिता ये दिव्यशक्तियाँ मनुष्यों के लिए नाना प्रकार के मंगलमय परिणामों को उत्पन्न करती हैं। ये हैं— 1- प्रज्ञा 2- वैभव 3- सहयोग 4- प्रतिभा 5- ओजस् 6- तेजस् 7- वर्चस् 8- कांति 9- साहसिकता 10- दिव्यदृष्टि 11- पूर्वाभास 12- विचार-संचार 13- वरदान 14- शाप 15- शांति 16- प्राण प्रयोग 17- देहांतर संपर्क 18- प्राणाकर्षण 19- ऐश्वर्य 20- दूरश्रवण 21- दूरदर्शन 22- लोकांतर संपर्क 23- देव संपर्क 24- कीर्ति। इन्हीं को गायत्री की 24 सिद्धियाँ कहा जाता है। गायत्री व सावित्री साधना के समन्वय के विषय में शास्त्रकारों का सत स्पष्ट है—
पृष्ठतोऽस्याः साधनाया राजतेऽतितरं सदा।
मनस्विसाधकानां हि बहूनां साधनाबलम्॥ 76॥
— गायत्री संहिता इन साधनाओं के पीछे आदिकाल से लेकर अब तक असंख्य मनस्वी साधकों का साधन बल शोभित है। इस समन्वय के पीछे भी दोनों का अपना महत्त्व है, अपना-अपना स्वरूप भी, इसलिए शास्त्रकारों ने जान-बूझकर या अनजाने दोनों का ही बहुत जगहों पर, एक ही स्तर पर वर्णन किया है और एक ही नाम से पुकारा है। एक ही प्रकार का प्रतिफल बताया है, जबकि दोनों की दिशाधाराएँ पृथक-पृथक हैं। त्रिवेणी में गंगा-यमुना का संगम होने से उनका एकीकरण हो जाने की बात भी सही है; पर यह भी गलत नहीं है कि दोनों का उद्गम और प्रवाह क्षेत्र अलग-अलग है। इनका समन्वय एकीकरण तो बहुत आगे चलकर होता है। एकता के बीच भिन्नता का निरूपण करने के लिए गायत्री और सावित्री के दो रूप विनिर्मित किए गए हैं। गायत्री एकमुखी एवं द्विभुजी। सावित्री पंचमुखी एवं दस भुजी। दोनों के वाहन और अस्त्र-आयुध भी भिन्न-भिन्न हैं। हमें दोनों की एकता भी समझनी चाहिए और भिन्नता भी। आत्मिक-प्रगति के लिए गायत्री का आश्रय लिया जाता है और भौतिक समस्याओं के लिए सावित्री का अवलंबन ग्रहण करना होता है। इसी को कहते हैं द्वैत में अद्वैत की दृष्टि और अद्वैत में द्वैत का पर्यवेक्षण। ( क्रमशः )