
जीवन पद्धति बदले, सामूहिकता पनपे
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विश्व सभ्यता अब विकास के उस स्तर तक पहुँच गयी है कि एकाकी रूप से कोई अपना काम आप चला ले यह लगभग असम्भव हो गया है। कहने को तो प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जीविका स्वयं उपार्जित करनी पड़ती है तथा प्रत्येक आवश्यक वस्तु स्वयं ही खरीदनी पड़ती है, पर अपनी आवश्यकताओं के लिये अधिकांशतः दूसरों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। जैसे प्रत्येक व्यक्ति को भोजन की आवश्यकता पड़ती है और उसके लिये अनाज, ईंधन बर्तन आग शाक सब्जी आदि वस्तुओं की जरूरत पड़ती है। अनाज और शाक सब्जियाँ किसान पैदा करता है। ईंधन की आवश्यकता लकड़हारों या कोक भण्डार से जुटानी पड़ती है। बर्तन की मदद से और आग माचिस द्वारा। कहने का अर्थ यह है कि एक एक रोटी में कई व्यक्तियों का श्रम लगा होता हैं। माना कि हम ये वस्तुएँ पैसा देकर खरीद कर लाते हैं पर यदि हमारे पास पैसा हो तथा इन चीजों के उत्पादनकर्ता उन्हें उत्पादित करना बंद कर दे तो पैसे का क्या होगा?
एक समय था जबकि मनुष्य जंगल में वास करता था। पेड़ों से फल तोड़कर लाता पत्थरों से जानवर मार लेता और उनसे अपनी भूख मिटा लेता था। उस समय एकांकी और नितांत स्वावलम्बी जीवन बिताने में कोई कठिनाई नहीं थी। पर तक मनुष्य क्या था? उसकी सभ्यता ओर संस्कृति क्या था? निरे पशुओं जैसी जिंदगी जीनी पड़ती थी और जैसे ही मनुष्य ने कुछ सोचना विचारना आरंभ किया, उसे कबीलों के रूप में सामूहिक जीवन की ओर अग्रसर होना पड़ा। एक व्यक्ति पूरी तरह एक क्षेत्र में काम करता रहे और दूसरा दूसरे क्षेत्र में। तथा अपने उपार्जन के आदान-प्रदान द्वारा एक दूसरे का काम चलाते रहें इसी आधारशिला पर पाँव रखकर मानवी सभ्यता का भवन अब तक इतना विकसित हो चुका है कि हमें कदम-कदम पर सामूहिकता का आश्रय लेने की बात सोचनी पड़ेगी
जैसे-जैसे सभ्यता का विकास होता गया वैसे व्यक्ति का एकाकी जीवन दुष्कर और सामूहिकता का प्रयोग सरल सुगम होता चला गया। यहीं नहीं उसके अभाव में पतन ग्रस्त दुर्दशा में भी पड़े रहना पड़ा। उदाहरण के लिए अभी पाँच सौ वर्ष पहले की बात को ही लें तब न स्कूल थे और न पाठशालाएँ उस समय शिक्षा के लिये प्रत्येक परिवार को अपनी व्यवस्था करनी पड़ती थी-एक-एक शिक्षक की नियुक्ति की जाती। यह सभी के बस की बात तो थी नहीं। अतः राजघरानों और कुलीन परिवारों के सदस्य ही शिक्षित हो पाते। लेकिन जब शिक्षा की आवश्यकता अनिवार्यतः अनुभव की जाने लगी तो सामूहिक व्यवस्था करनी पड़ी ओर स्कूल खोलने पड़े। एक-एक अध्यापक के जिम्मे पचास- पचास छात्र आये और शिक्षा प्राप्ति का सुगम तरीका चल पड़ा इससे शिक्षा का क्षेत्र सबकी पहुँच की सीमा में आ गया और खर्च का अधिक दबाव भी किसी पर नहीं पड़ा इस सामूहिक व्यवस्था का परिणाम ही है कि शिक्षा का विकास द्रुत गति से होता जा सका है। हमारे देश में भी जब सामूहिक व्यवस्था ने परिष्कृत रूप लिया तो आजादी के बाद से अब तक के आश्चर्यजनक परिणाम सामने आये है। सन् 1959-52 में जहाँ साक्षरता का औसत 14 प्रतिशत था वहीं अब 35 प्रतिशत के लगभग है, निश्चित ही यह आँकड़ा संतोषजनक नहीं किंतु व्यवस्था के समाजगत होने का परिणाम दर्शाता है। सामूहिकता आज के युग में हर क्षेत्र में कल्याणकारी ही सिद्ध हो रहीं है। यह तथ्य प्रगति की विभिन्न योजनाओं को देख-सुन-समझकर आत्मसात् किया जा सकता है। अब पुनः आवश्यकता आ पड़ी है कि हम अपनी जीवन पद्धति पर दृष्टिपात करे और सामूहिकता के अभाव में जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में आने वाली बाधाओं से बचने की दिशा में विचार करें। अभी भी हमारे समाज और जीवन में सामूहिकता के आधार पर पुनर्निर्मित किया जाय तो कई व्यवस्थाएँ हैं जिन्हें सामूहिकता के आधार पर पुनर्निर्मित किया जाय तो कई समस्याओं का समाधान निकल सकता है।
उदाहरण के लिये एक मुहल्ले में 100 परिवार रहते हैं उनमें दो पति-पत्नी और दो-तीन बच्चे माने जाएँ तो तीन व्यक्तियों के पीछे एक व्यक्ति भोजन बनाने वाला चाहिए। घरों में गृहिणी के पास भोजन बनाने और परिवार के सदस्यों को खिलाने का काम ही रहता है। अर्थात् एक चौथाई जन संख्या केवल भोजन बनाने में ही लगी हुई है। व्यक्तिगत व्यवस्था में अधिक समय और श्रम लगना स्वाभाविक ही है। यदि एक मुहल्ले के लिये भोजन बनाने में ही लगी हुई है। व्यक्तिगत व्यवस्था में अधिक समय और श्रम लगाना स्वाभाविक ही है। यदि एक मुहल्ले के लिये भोजन की सामूहिक व्यवस्था बना ली जाय तो दस बारह व्यक्ति आसानी से ढाई-तीन सौ लोगों का भोजन बना सकते है और शेष व्यक्तियों का समय तथा श्रम अन्य कामों में लग सकता है। समाजवादी देशों में प्रायः यही पद्धति अपनाई जाती है। वहाँ अलग-अलग चौके चूल्हे बनाने की आवश्यकता नहीं पड़ती लोग मेस में खाना खाते हैं। कुछ लोग इसी काम पर नियुक्त रहते है और शेष निर्माण के अन्य मोर्चे सम्हालते है। देर-सवेर प्रगति के इच्छुक सभी समाजों में यही पद्धति व्यवहारिक सिद्ध होगी यह कम्यून सिस्टम ही अंततः हमें लागू करना होगा।
सामूहिक भोजन व्यवस्था का एक लाभ आर्थिक पहलू से भी संबंधित है। एक व्यक्ति का खाना बनाने में उतना ही समय और श्रम लगता है जितना कि पाँच व्यक्तियों के लिये बनाने में लगता हैं। अनाज और सब्जी की मात्रा भले ही थोड़ी कम हो जाय अन्यथा ईंधन समय श्रम का तो उतना ही खर्च पड़ता है। पाँच व्यक्तियों के लिये संयुक्त भोजन व्यवस्था सस्ती पड़ती है। पचास व्यक्तियों के लिये संयुक्त भोजन व्यवस्था सस्ती पड़ती है। पचास व्यक्तियों के लिये और भी कम। तो कहना नहीं होगा कि इस व्यवस्था में कम आमदनी वाले भी भर पेट और संपूर्ण आहार प्राप्त कर सकते है। जिस प्रकार पूरे गाँव के लिये बने स्कूल में गरीब बच्चा भी पढ़ सकता है। मध्य वर्ग के समान निजी व्यवस्था उसके लिये संभव नहीं है। उसी प्रकार सामूहिक भोजन व्यवस्था में गरीब आदमी जो अलग-अलग भोजन बनाता है और खाली पेट सोता है उसके लिये भी कम लागत और कम खर्च के कारण भर पेट भोजन प्राप्त करना अपेक्षाकृत आसान रहेगा।
भोजन व्यवस्था के बाद अभिभावकों का सर्वाधिक ध्यान बच्चों के लालन-पालन और लाड़ दुलार में ही अधिक लगता है इसी कारण समय और श्रम भी। यही नहीं इस पद्धति के गहरे मानसिक परिणाम भी होते है व्यक्ति की माया-ममता परिवार के दायरे में ही सिमट कर रह जाती है और न वह मोहल्ले के अन्य लोगों में आत्मीयता की अनुभूति करता है न समाज और न राष्ट्र में। बच्चों के सामूहिक विकास का इजराइल ने सफल प्रयोग किया है। वहाँ पैदा होने के बाद बच्चों को माँ बाप से अलग कर दिया जाता है तथा सब बच्चों को एक साथ पाला जाता है। यह कार्य बाल मनोविज्ञान कुशल ज्ञाता नर्सों द्वारा किया जाता है। नर्सों में भी बच्चों की ममता केन्द्रीभूत न हो जाये इसलिये एक नर्स को तीन महीने से अधिक नहीं रहने दिया जाता। माता-पिता को भी यह चिंता नहीं करनी पड़ती है कि हमारे बच्चों के लिये हम कमा कर छोड़ जायें। क्योंकि वे जानते है कि इन पाठशालाओं में जिन्हें किबुल्स कहा जाता है बच्चे इतने योग्य होकर निकलेंगे कि वे समाज और राष्ट्र पर भार नहीं बनेंगे “किबुल्स” के बच्चों को किशोरावस्था या युवावस्था में माँ-बाप से भले ही मिलने दिया जाता हों पर तब उनमें प्रौढ़ता आ जाती है और उनकी चेतना परिवार तक ही सीमित नहीं रह जाती वरन् वे राष्ट्र को सर्वोपरि मानते है।
मनोवैज्ञानिकों ने पारिवारिक जीवन की अस्त-व्यस्तता का कारण भी वर्तमान पद्धति को माना है और इस निष्कर्ष पर पहुँचे है कि माँ के पास रहकर ही बड़े होने वाले बच्चे के अचेतन मन में माँ की प्रतिच्छाया इस तरह अंकित हो जाती है कि वह उसी स्वभाव वाली स्त्री के पास रहना चाहता है। एक ही प्रकार के स्वभाव वाले दो व्यक्ति आज तक इस संसार में नहीं हुए। स्वभाव तो दूर की बात शक्ल सूरत और व्यक्तित्व भी किसी का समान नहीं होता। जब पत्नी से अपेक्षित विशेषताएँ नहीं मिलती हैं तो दाम्पत्य जीवन में क्लेश कलह और असंतोष जन्म लेता है।
बच्चों को सामूहिक रूप से पालने की बात पढ़ने सुनने में भले ही अटपटी लगती हों। पर जब हम प्राचीन संस्कृति से इनकी तुलना करते हैं तो अनायास ही इस तरह की व्यवस्था की महत्ता का परिचय मिल जाता है। आश्रम व्यवस्था में यही तो होता था उस समय बच्चों को तीन चार वर्ष का होते ही गुरुकुल में भेजते समय किये जाने वाले उपनयन संस्कार की