
आदर्शवादी आस्थाएँ पुनर्जीवित की जाएँ
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कहा जाता रहता है कि आर्थिक कारणों से मनुष्य को पीड़ा का, पतन का सामना करना पड़ता है। इसलिए सुविधा साधन बढ़ा देने पर भारी समस्याओं का हल निकल आयेगा, अर्थशास्त्री इसी का ताना-बाना बुनते रहते है। विज्ञान का एक छोटा पक्ष तो बुद्ध भड़काने वाले विनाशात्मक साधनों में लगता है किंतु उसका एक बहुत बड़ा भाग सुविधा संवर्द्धन में भी लगा है। शिक्षा का सम्पूर्ण ढाँचा प्रायः इसी लक्ष्य को लेकर खड़ा किया गया है।
इसके औचित्य से इनकार नहीं किया जा सकता किंतु देखना यह है कि क्या इतने भर से ही काम चल जायेगा। यदि अभीष्ट सुविधा साधन विनिर्मित कर लिये जाएँ तो क्या उन समस्याओं का समाधान हो जायेगा जो इन दिनों हर किसी को संत्रस्त किये हुए हैं। इस संदर्भ में हुए प्रयोगों का प्रतिफल सामने है। आर्थिक दृष्टि से सुसम्पन्न देशों में इन दिनों जापान एवं अमेरिका सबसे आगे है। इन देशों जितने सुविधा साधन अन्यत्र कहीं भी नहीं है। दूसरी तीसरी श्रेणी में तो योरोप के इंग्लैण्ड, फ्राँस, जर्मनी आदि कई देश आते है। एशिया में अब तैवान एवं कोरिया की जापान के साथ सम्पन्नता प्रख्यात हैं। तेल के अधिपति कई अरब देश भी धन कुबेर समझे जाते है। धन के साथ जुड़ी हुई अन्य सुविधायें भी इन देशों की अधिकांश जनता को उपलब्ध हैं। इन देशों की पिछली जनता को एक ओर रख दें और मात्र सुसम्पन्न वर्ग का ही पर्यवेक्षण करें तो प्रतीत होता है कि सम्पन्नता के साथ जो आशायें जोड़ी गई थी वे निक्षेप सिद्ध होती है।
उपरोक्त देशों के अतिरिक्त पिछड़े देशों में भी सुसम्पन्न वर्ग है। उनके ऊपर भी दृष्टि डाली जा सकती हैं। यों कहना चाहिए कि मौलिक दृष्टि से पिछड़े हुए और साधन संपन्न वर्गों को पृथक् करके यह देखा जा सकता है कि आखिर सम्पन्नता से मानवी समस्याओं के समाधान में किस सीमा तक अब तक जन जन को योगदान मिल सका है।
बारीकी से देखने पर बात इतनी भर समझ में आती है कि पिछड़े और समृद्ध कहे जाने वाले वर्गों की समस्याओं के स्वरूप तो अलग-अलग अवश्य है पर विपन्नता और उद्विग्नता की दृष्टि से कोई भी कम दुःखी नहीं है। किसी की भी उलझन दूसरे नहीं है। किसी की भी कम दुःखी नहीं है। किसी की भी उलझन दूसरे की तुलना में कम नहीं है हाँ उन कठिनाइयों के नाम रूप पृथक अवश्य है। गरीबों के लिए अभाव अभिशाप है तो अमीरों के लिए वैभव भी संकट ही बना हुआ है। वैभव का उपयोग कहाँ किया जा सकता है उसके उपार्जन एवं संग्रह का औचित्य किन मर्यादाओं से बँधा हुआ है? इसका ध्यान न रहने से अवांछनीय मात्रा में अनुचित रीति से कमाया हुआ धन जमा होता है और उसकी प्रतिक्रिया अनियंत्रित विलासिता के रूप में सामने आती है। दुर्व्यसन बढ़ते है। उपभोग की आतुरता चरम सीमा तक पहुँचती है व उपार्जन से लेकर उपभोग तक का सारा ढाँचा विकृतियों से भर जाता है। फलतः वैभव का रसास्वादन जितना मिलता है उसकी तुलना में विग्रह और संकट कहीं अधिक मात्रा में बढ़ जाता है। फलतः वह सम्पन्नता दरिद्रता से भी महंगी पड़ती है।
एक भूख से संत्रस्त है दूसरा अपच का मरीज। एक को कुपोषण की शिकायत है दूसरे इन्द्रिय शक्ति के दुरुपयोग से खोखले हो रहे हैं यौन रोग मधुमेह, अनिद्रा रक्तचाप, हृदय रोग प्रायः सुसम्पन्न वर्ग को ही होते हैं और वैभव जन्य सभ्यता की देन समझे जाते हैं। नैतिक खोखलेपन में भी अमीर ही गरीबों से आगे है। असंतोष और विक्षोभ की मात्रा भी उन्हीं के पास अधिक है। शारीरिक दुर्बलता, रुग्णता के अतिरिक्त अकाल मृत्यु भी उन्हीं के हिस्से में अधिक आती हैं मानसिक दृष्टि से चिंता आशंका और विक्षोभ ग्रस्त भी उन्हीं को अधिक पाया जाता है। पिछड़े लोग चोरी उठाईगिरी करते पायें जाते हैं किन्तु सम्पन्न और समझदार लोगों के द्वारा जो प्रपंच रचे जाते हैं उनके कुचक्र में पिसकर तो अगणित लोगों का कचूमर निकल जाता है। शोषण की बाजीगरी से वे उतना कमा लेते हैं जितना कोई चोर उठाईगीरा सौ जन्मों में भी उपार्जित नहीं कर सकता। सम्पन्नता से एक प्रकार की विपत्तियाँ उत्पन्न होती है। दरिद्रता में दूसरी तरह की। इसके विपरीत दोनों ही पक्षों में सुखी और संतुष्ट लोग पाये जाते है। झोपड़ियों में भी स्वर्ग बरसता है। किसान और मजदूर स्वल्प साधनों से निर्वाह करते हुए हँसते-हँसते सुखी संतुष्ट जीवन यापन करते है। अफ्रीका के मसाई वनवासी अर्द्धनग्न स्थिति में रहते आधा पेट खाते हुए भी काया को इतनी बलिष्ठ रखे रहते हैं कि भयानक बर्बर शेरों से गुत्थम–गुत्थी करके मात्र भाले के सहारे विजय प्राप्त कर सकें। साधु और ब्राह्मणों का ऋषियों और तत्त्वज्ञानियों का जीवन प्रत्यक्षतः अभावग्रस्त स्थिति से ही गुजरता था पर इससे उनकी गरिमा प्रतिभा प्रतिष्ठा एवं विशिष्टता पर कोई आँच नहीं आती थी। इसी प्रकार राजा जनक-नसिरुद्दीन जैसे अनेक सुसम्पन्न व्यक्ति वैभव को सार्वजनिक अमानत मानकर उसके बीच कमल पत्रवत् निस्पृह निर्वाह करते रहे है।
इन तथ्यों पर विचार करने से वह प्रतिपादन सही सिद्ध नहीं होता, जिसमें संपन्नता की न्यूनाधिकता को मानवी कठिनाइयों का कारण माना जाता है। यही बात शिक्षा के सम्बन्ध में भी है। यदि शिक्षा का अर्थ भौतिक जानकारी देने वाली स्कूली पढ़ाई तक सीमित हो तो उसके फलस्वरूप बहुलता कुशलता एवं अधिक उपार्जन क्षमता के लाभ ही जोड़ें जा सकते है। मूल प्रश्न फिर भी अप्रभावित ही रहता है। शिक्षितों को अशिक्षितों की तुलना में अधिक ठाट-बाट से रहते ही अवश्य पाया जायेगा किन्तु यदि उन्हें इस कसौटी पर कसा जाय कि अपने निजी जीवन में वे कितने सन्तुष्ट और संयुक्त हैं तो पाया जायेगा कि वे भी अशिक्षितों की तुलना में कुछ अधिक अच्छी स्थिति में नहीं है। व्यक्तित्व की उत्कृष्टता जहाँ होगी वहाँ पारिवारिक जीवन में सौजन्य-सौमनस्य का बाहुल्य मिलेगा। इसी प्रकार
संपर्क क्षेत्र में पारस्परिक सहयोग-सद्भाव उमड़ रहा होगा।
तथाकथित शिक्षा का सज्जनता और शालीनता से सीधा सम्बन्ध नहीं जुड़ा है, फलतः सुशिक्षित कहलाने वाले लोग भी व्यक्तित्व की दृष्टि से अशिक्षितों से किसी कदर अच्छी स्थिति में नहीं रह रहे हैं। सम्पन्नता और शिक्षा की दुहाई इन दिनों बहुत दी जाती है और उन्हें ही जादू की छड़ी बताया जाता है यह अतिवादी प्रतिपादन है। सम्पन्नता और शिक्षा की अभिवृद्धि की व्यवस्था की जानी चाहिए। ऐसे प्रयत्नों का हर कोई स्वागत करेगा। इनकी उपयोगिता आवश्यकता से इनकार कौन कर सकता है। इतने पर भी उनका महत्त्व उतना ही माना जाना चाहिए जितना कि वस्तुतः है या हो सकता है। प्रस्तुत समस्यायें न आर्थिक अभावों से उत्पन्न हुई है और न शिक्षा की कमी से। उनका मूल कारण व्यक्तित्व का स्तर गिर जाना है। अभाव और अशिक्षा को भी व्यक्तित्व की गिरावट के अन्य कारणों की तरह एक और कारण गिना जा सकता है पर सारा दोष इन्हीं पर थोप देना और इन्हीं उपलब्धियों के सहारे उज्ज्वल भविष्य का स्वप्न देखना-कठिनाइयों के हल हो जाने की बात सोचता निरर्थक है। अतिवादी प्रतिपादनों से दुराग्रह भले ही उत्पन्न कर लिया जाय। वस्तुस्थिति को समझने में उससे कोई सहायता नहीं मिलती।
यथार्थवादी पर्यवेक्षण से युग समस्याओं का स्वरूप समझने का प्रयत्न किया जाय तो एक ही निष्कर्ष पर पहुँचना होता है कि भौतिक कारणों से ही विपत्तियाँ उत्पन्न नहीं होती उनका प्रधान कारण व्यक्तित्व का वह स्तर है जिसे अप्रत्यक्ष एवं चिन्तन परक कह सकते हैं। सोचने की मशीन गड़बड़ा जाने से कैसे कैसे विचित्र आचरण बन पड़ते हैं उसके आश्चर्यजनक कौतूहल आये दिन सामने आते रहते है। सोते समय आदमी इतना बेखबर हो जाता है कि लज्जा ढँकने के कपड़े उतर जाने तक का ध्यान नहीं रहता।
नशा पी लेने वाले का अटपटापन कितना विचित्र होता है उसे कौन नहीं जानता। नशे की खुमारी में जीभ से अटपटे शब्द निकलती है। पैर बेढंगी चाल चलते और हाथ बेतुकी हरकतें करते है। बेढंगे आचरण उसे राजदंड समाज तिरस्कार, शरीर रोग, आर्थिक तंगी आदि कितनी विपत्तियों में फँसते हैं यह सर्व विदित हैं। इन सब कठिनाइयों के अनेक विश्लेषण करके एक ही मूल कारण ढूँढ़ना हो तो कहा जा सकता है कि चिन्तन की मशीन गड़बड़ा जाने से ही यह अनेक प्रकार की अवांछनीय समस्यायें उत्पन्न हुई है।
वस्तुतः पिछली अभावग्रस्त पीढ़ियों की तुलना में हम हर दृष्टि से पिछड़े हुए है। दो सौ वर्ष पहले आज जितने सुविधा साधन कहाँ थे? विज्ञान की प्रगति इतनी कहाँ हुई थी? यातायात संचार चिकित्सा शिक्षा व्यवसाय आदि के साधन बहुत स्वल्प थे। उनकी तुलना में आज के साधन आश्चर्यजनक रीति से बढ़े हैं। फिर भी स्वास्थ्य बेतरह गिर गया-चिकित्सा साधन जितने बढ़े हैं उनकी तुलना में दुर्बलता और रुग्णता ही अधिक बढ़ी है। मन को प्रसन्न करने वाली सुविधायें अब कितनी अधिक है फिर भी उद्विग्नता, अशान्ति असंतोष विक्षोभ चरम सीमा को छूते जाते है। ऐसी दशा में प्रगतिशीलता का दावा स्वीकार करने में भारी असमंजस होता है। साधनों की दृष्टि से निश्चित रूप में हम देवताओं से बाजी मार रहे है। पर साथ ही परिस्थितियों की दृष्टि से नरक में कराहने वाले प्राणियों के समतुल्य बनते जा रहे है। इस विडम्बना का कारण एक ही है कि हमारी अंतः चेतना की उत्कृष्टता बेतरह गिर रही है। आदर्शों पर विश्वास, उनका सम्मान और चलन में व्यवहार घट रहा है।
यदि तथ्य को समझा जा सके तो व्यक्ति और समाज की समस्त समस्याओं का एकमात्र कारण और एकमात्र समाधान यही प्रतीत होगा कि व्यक्ति अन्तः चेतना का स्पर्श किया जाय और उसके स्तर में आदर्शवादी आस्थाओं को पुनर्जीवित किया जाय निकृष्टता से विरत होकर हमारे अंतःकरण जिस दिन उत्कृष्टता की ओर अभिमुख होने लगें समझना चाहिए कि अब समस्त समस्याओं के समाधान की शुभ घड़ी निकट आ गई। इसके लिए बिना प्रगति के लिए किये जाने वाले प्रयत्न हमें मृगतृष्णाओं में ही भटकाते रहेंगे।