
आवरण हटे तो सत्य का दर्शन हो
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जीवन यदि सरल सहज और पवित्र हो बनावटीपन से सर्वथा रहित हो तो दिव्य चेतना की प्रकाश प्रेरणा पा सकना असंभव नहीं महामानवी महापुरुषों के जीवन का अध्ययन करने से इस बात की पुष्टि हो जाती है कि सीधा सादा जीवन जीकर वे घाटे में न रहे अपितु उस परम लक्ष्य को प्राप्त करने में वे नितांत सफल रहे जो मनुष्य जीवन का ध्येय है।
देवमानवों के जीवन और कथन को देखने सुनने और पढ़ने से यह बात और स्पष्ट हो जाता है। ऐसे ही एक बालक का जन्म 13 नवम्बर 354(ए. डी.) को अल्जीरिया राष्ट्र के एक छोटे से गाँव में हुआ औरीलिस औगस्टाइनसृ नाम के बालक के माता पिता द्वारा गाँव के विद्यालय में प्रवेश तो दिला दिया गया पर बालक की अरुचि को देखकर उन्हें निराश ही होना पड़ा मानवी दुर्बलताओं का समावेश होने के कारण किसी को यह विश्वास उत्पन्न नहीं होता था कि बालक का भविष्य उज्ज्वल बन सकेगा। जनमानस में एक ही धारणा थी कि वह समाज और राष्ट्र के लिए भारभूत ही साबित होगा। लेकिन धर्मपरायण जीवनचर्या निर्धारित कर लेने के पश्चात् व्यक्ति को असंभव दिखने वाला कार्य भी संभव दीखने लगता है। जीवन की दिशाधारा के परिवर्तन से औरीलियस में दिव्य चेतना का प्रकाश आया, जिसे उनने अपरिवर्तनीय प्रकाश (अनचेंजेबल लाइट) की संज्ञा दी है। ऐसी स्थिति में उन्हें अपने सही स्वरूप अंतर्निहित क्षमताओं विशिष्टताओं प्रतिभाओं का आभास हो उठा और उसी प्रकाश पुँज की एक किरण अपने को मानने लगे। फलतः सत्य धर्म का वास्तविक स्वरूप समझ में आया। इसके बाद वे धर्म की रूढ़िवादी और अनगढ़ मान्यताओं का खंडन करने लगे। पारसी धर्म की मान्यताओं के अनुरूप मैनीसियंस संप्रदाय में सम्मिलित होने के कारण उन्हें मणि के नाम से भी पुकारे जाने लगा।
लोक मंगल के लिए अंतरात्मा, की पुकार ने उन्हें लेखनी उठाने के लिए प्रेरित किया उनने लगभग 200 पुस्तकें लिखी। जिन्हें पढ़ सुन कर जनमानस में परमात्म सत्ता के प्रति आस्था का संचार होने लगा और अनेकों ने अपने जीवन की गलत दिशा का परित्याग करके उनके द्वारा दिखायें गये सन्मार्ग का अनुसरण किया। लोगों ने अंधपरम्पराओं के स्थान पर विवेकशीलता को
महत्त्व दिया। इस प्रकार पूर्व से चली आ रही अनेकों कुप्रथाओं का या तो अंत कर दिया गया अथवा सामयिक परिस्थितियों के अनुरूप उनका रूपांतरण किया गया। तत्कालीन प्रतिगामिता को प्रगतिशीलता की ओर मोड़ सकने में समर्थ होने और अपना संपूर्ण जीवन समाज निर्माण में लगा देने के कारण ही तब के औरीलियंस बाद में संत आंगस्टाइन के नाम से जाने गये।
जीवन के अंतिम दिनों में उन्होंने एक पुस्तक लिखी दि सिटी ऑफ गाँड” उक्त पुस्तक में उन्होंने एक बात पर विशेष रूप से बल दिया है कि यदि व्यक्ति शुद्ध सात्विक जीवन जी सके और भगवान के इस शहर संसार को समुन्नत बनाने में कुछ समय दे सके तो कोई कारण नहीं कि उसे ब्राह्मी चेतना की अनुभूति न हो सके जो उसके शहर (संसार) के कण-कण में विद्यमान् है।
इसी का समर्थन करते हुए सेंट कैथराइन अपनी पुस्तक दि ऑल परवेडिंग गाँड” में लिखती है कि असंभव और अशक्य जैसे शब्द उन्हीं व्यक्तियों के लिए होते है, जो अकर्मण्य बने रह कर शेखचिल्लियों की तरह आकाश कुसुम खिलाने की बात सोचते रहते है किंतु जो प्रयास-पुरुषार्थ दिखाने का साहस सँजो लेते है उनके लिए आल्पस जैसे दुर्लभ पर्वत को भी झक मार कर रास्ता देना पड़ता हैं। वे लिखती है कि आज हमारी सबसे बड़ी विडंबना यह कि हम उस परमात्म सत्ता का साक्षात्कार करना तो चाहते है, पर उसके लिए जो अनुबंध है उसे पूरा करने की बजाय व्यर्थ के टण्ट घंटों में अपना समय, श्रम और सबसे बड़ा यह बहुमूल्य मानव जीवन बर्बाद कर देते है जबकि सच्चाई तो यह है कि इस सर्वव्यापी सत्ता का अनुदान पाने के लिए हमें कुछ अतिरिक्त करने की आवश्यकता नहीं है। भगवान ने जिस रूप में हमें इस संसार में भेजा है, वही सही सच्चे इनसान का स्वरूप हम बनाये रख सकें तो आज जैसी इस क्षेत्र में सर्वव्यापी निराशा हमें नहीं देखने को मिलेगी।
यह सत्य है कि आज जिस बनावटीपन का आवरण हमने ओढ़ रखा है उसी ने उस चेतन सत्ता और उसके अंशधर इंसान के बीच दीवार जैसा अवरोध के कारण हमें उसकी अनुभूति प्रतीत नहीं हो पाती है जिस दिन आडम्बर की वह दीवार ढह जायेगी ओर मनुष्य अपने सहज सरल व स्वाभाविक रूप में आ जायेगा उसी दिन उस सर्वव्यापी सत्ता से उसका एकाकार संभव हो जायेगा।