
कामुक चिन्तन-आत्महनन
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साधनों में ब्रह्मचर्य का विशेष महत्त्व बताया गया है और उसकी आवश्यकता का स्थान स्थान पर प्रतिपादन किया गया है। उसका कारण, मात्र शरीर की एक धातु के क्षरण से होने वाली नगण्य-सी क्षति का बढ़ा चढ़ाकर तूल देना नहीं वरन् यह समझना है कि शरीर में एक ही धातु ऐसी है जिसमें मात्र में सन्निहित रहता है। मुख्य हानि इसी के क्षरण की है।
शरीर शास्त्रियों ने स्वाभाविक और सामान्य कामसेवन में कोई हानि नहीं देखी है वरन् उसे लाभदायक भी बताया है। आँकड़े प्रस्तुत करके यह बताया जाता है कि विवाहितों की अपेक्षा अविवाहित अधिक बीमार पड़ते और अधिक मरते हैं। मानसिक रोगी भी अविवाहित ही ज्यादा होते है। फ्रायड आदि मनोविज्ञान वेत्ताओं ने तो काम-वासना को जीवन की एक आवश्यकता और उपयोगी प्रवृत्ति बताया है और चेतावनी दी है उस पर आवश्यक रोक-बाँध करने से शरीर और मन दोनों को अनेक रोगों का शिकार एवं क्षतिग्रस्त होना पड़ सकता है।
भारतीय योगियों ने भी वीर्यपात में जो शारीरिक तत्त्व चले जाते हैं उनकी बहुत परवाह नहीं की है क्यों नये रक्त के रूप में जिस तरह जल्दी ही उसकी पूर्ति कर दी जाती है उसी प्रकार वीर्य की क्षति भी पूरी होती रह सकती है। इसलिए अपने यहाँ स्वप्नदोष से होने वाली हानि को आध्यात्मिक दृष्टि से कोई बहुत बड़ी चिंता की बात बताया गया है। उसे शारीरिक विकार मात्र कह कर चिकित्सा कराने भर का निर्देश देकर बात समाप्त कर दी है।
प्राण वीर्य के साथ घुलने से पूर्व ही ऊर्ध्वगामी होकर मस्तिष्क में चला जाय और वहाँ ओजस् विद्युत के रूप में परिणत हो कर स्थूल शरीर के समस्त प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष अवयवों को परिपुष्ट करे इसके लिये वज्रोली क्रिया वज्रोली मुद्रा आदि की साधना बताई गई है। वीर्य से खींचा गया यह स्वत्व या तत्त्व जिसे ओजस् कहते है न केवल स्थूल शरीर को प्रभावित करता है वरन् सूक्ष्म शरीर, और कारण शरीर को भी प्रभावित एवं रक्त का मंथन होकर रेतस ग्रन्थियों द्वारा वीर्य का निर्माण उसका एक नियत थैली में संचय और स्खलन के साथ उसका मूत्रेन्द्रिय द्वारा बाहर निकल जाना इस मोटी बात को शरीर शास्त्र का सामान्य विद्यार्थी भी जानता है पर यह जानकारी किसी-किसी को ही है कि कामवासना के विचार समस्त शरीर में फैले हुए प्राण तत्त्व का मंथन करते है और सम्भोग के समय वीर्यपात के साथ साथ ही इस प्राण प्रवाह का एक अंश भी बाहर जाता है। फलतः इससे व्यक्ति क्रमशः दुर्बल हो जाता है। शरीर दृष्टि से उतना नहीं जितना कि मानसिक दृष्टि से उतना नहीं जितना कि मानसिक दृष्टि से।
इसलिये ब्रह्मचर्य का जहाँ भी आध्यात्मिक चर्चा के संदर्भ में जिक्र आये वहाँ प्राण के प्रवाह को नष्ट न होने देने की चिन्ता को ही प्रधान कारण माना जाना चाहिए मन से कामवासना के विचार एवं उत्तेजना को हटा कर उस कृत्य को विशुद्ध धर्म भावना से करने के लिये अपने यहाँ गर्भाधान को एक दिव्य संस्कार मात्र माना गया है। इस मनोदशा में विकारी हलचलें मन में न रहने से वरन् मात्र संतानोत्पादन अथवा शारीरिक प्रयोजन पूरे करता है। मनोविकारों से रहित कामसेवन से ब्रह्मचर्य की मूल आवश्यकता को विशेष क्षति नहीं पहुँचाती। इसके विपरीत यदि शारीरिक ब्रह्मचर्य तो निभाया जाय पर मानसिक अभिलाषा और आकांक्षा उद्दीप्त रहे तो उससे लगभग कामसेवन जितनी ही क्षति पहुँचती रहेगी।
प्राण तत्त्व की उत्तेजना कामवासना से जुड़ी हुई है वासना प्रदीप्त हुई कि प्राण भड़के और उफना हुआ दूध जिस प्रकार कड़ाही से निकल कर इधर उधर बिखर जाता है उसी प्रकार वासना की उद्दीप्तता प्राण का हरण और क्षरण निरंतर करती रहती है। ऐसे व्यक्ति जिनके मस्तिष्क निरंतर विकार ग्रस्त रहते है यदि शरीर शास्त्रियों के अनुसार औरों की अपेक्षा अधिक मरते और अधिक अस्वस्थ रहते हों तो आश्चर्य की बात नहीं।
साधु जीवन और सौम्य सरल मनोवृत्ति की भला कौन निन्दा करेगा। पवित्र दृष्टि रखने की महत्ता से कौन इनकार करेगा? नारी के प्रति पवित्र और श्रद्धा भरी-माता भगिनी और पुत्री की भावनायें रखकर उनके बारे में उक्त भावना रखकर विचार करने की विधि मालूम होने से नारियों के संपर्क में रहने से भी कुछ बिगड़ता नहीं इसके विपरीत बन जंगलों में एकाकी रहने और एकान्त सेवन करने पर भी यदि मन में रहती हो तो कहा जाना चाहिए कि वहाँ भी व्यभिचार ही चल रहा है।
नारी स्वयं बुरी नहीं है उसका वासनात्मक पक्ष ही बुरा है। जब कामिनी रमणी और रूपसी के रूप में दुर्बुद्धि पूर्वक उसे देखा जाता है तभी सर्पिणी डाकिनी बनती है अन्यथा वह पवित्रता और शक्ति की प्रत्यक्ष देवी है। उसका सान्निध्य एवं चिन्तन
उत्कर्ष का ही कारण बनता है भारतीय धर्म में देवियों की प्रतिमायें युवा और अति सुन्दर नारियों के रूप में ही बनाई गई है लक्ष्मी दुर्गा सरस्वती गायत्री सावित्री आदि की अति सुन्दर ओर सुसज्जित युवती के कलेवर में ही विनिर्मित हुई होंगी। उनके अंगों में उभार ही रखें गये है। इसलिये कि साधक नारी के इस स्तर के रूप में भी श्रद्धा और पवित्रता का समुचित समावेश कर सके। यदि हम इस रूप में नारी को देवी मान पवित्रता का अभिवर्धन करते रहें तो हमारी साधना सफल सार्थक बन सकती है।